तीन सत्य कथाएँ ( एक अक्षर तीन उपदेश ,सर्वोत्तम धन ,उपासना का फल )

हर हर महादेव ! प्रिय पाठकों 

इस पोस्ट में आप पाएंगे तीन सत्य कथाएँ -

एक अक्षर और तीन उपदेश 

सर्वोत्तम धन 

उपासना का फल 

प्रिय पाठकों ! आज हम आपके लिए तीन शिक्षाप्रद सत्य कहानियां लेकर आये है। दोस्तों सत्यकथाएं हर किसी के जीवन में थोड़ा बहुत बदलाव तो अवश्य ही लाती है इसलिए मनुष्यों को सत्यकथाओं का अनुसरण जरूर करना चाहिए। 

आजतक जीवन में जितने भी महापुरुष हुए है ,आपने देखा होगा की वो जब कभी भी ,किसी भी भाषण में बोलते थे तो अपनी सफलता के पीछे अन्य किसी महापुरुष के जीवन की सत्यकथाओं का ही जिक्र करते थे। इसलिए दोस्तों ! आप भी इन सत्यकथाओं को पढ़े ,क्या पता किस कहानी से आपके जीवन में बदलाव आ जाए। तो आइये शुरू करते है ,आज की सत्यकथाएँ। 

पहली कथा 

एक अक्षर और तीन उपदेश 

तीन सत्य कथाएँ ( एक अक्षर तीन उपदेश ,सर्वोत्तम धन ,उपासना का फल )
तीन सत्य कथाएँ ( एक अक्षर तीन उपदेश ,सर्वोत्तम धन ,उपासना का फल )


दोस्तों ! एक बार देवता ,मनुष्य और असुर ---- ये तीनो एक साथ ब्रह्माजी के पास ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्या प्राप्त करने के लिए गए। ब्रह्ममाजी ने उन्हें विद्या का अध्यन कराने लगे। कुछ काल बीत जाने पर तीनो ने उनसे उपदेश ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की। 

सबसे पहले देवताओं ने कहा -- प्रभो !हमे उपदेश कीजिए। ब्रह्माजी ने एक ही अक्षर कह दिया ( द ) देवताओं ने कहा हम समझ गए। हमारे स्वर्गादि लोको में भोगो की ही भरमार है उनमे लिप्त होकर हम अन्तमे स्वर्ग से गिर जाते है ,इसलिए हमे (द ) से दमन अथार्त इन्द्रिय सयंम रखने का उपदेश दे रहे है। तब प्रजापति ब्रह्ममाजी ने कहा - ठीक है ,तुम समझ गए। 

फिर मनुष्यों ने प्रजापति (ब्रह्माजी ) से कहा --आप हमे उपदेश कीजिए। तब ब्रह्माजी ने उनसे भी एक अक्षर (द ) कह दिया और  गए। थोड़ी देर बाद पुछा की क्या तुम समझ गए ? मनुष्यों ने कहा ---जी समझ गए ,आपने हमे दान करने का उपदेश दिया है। क्योकि हम जीवन भर संग्रह करने की ही लिप्सा में लगे रहते है। इसलिए हमारा दान करने में ही लाभ है। तब प्रजापति ब्रह्माजी ने कहा --ठीक है ,मेरे कहने का यही मतलब था। 

अब असुरों ने उनके पास जाकर उपदेश की प्रार्थना की। ब्रह्मा जी ने उन्हें भी ( द ) अक्षर का ही उपदेश किया। असुरों ने सोचा , हमलोग स्वभाव से ही हिंसक है ,क्रोध और हिंसा ही हमारा रोज का काम है इसलिए हो न हो हमारे कल्याण का मार्ग एकमात्र दया ही है। ब्रह्माजी ने हमे उसी का उपदेश दिया ,क्योकि दया से ही हम इन दुष्कर्मों को छोड़कर पाप -ताप से मुक्त हो सकते है। 

ये सोचकर जब वे लोग चलने को तैयार हुए तो ब्रह्माजी ने पुछा -- क्या तुम लोग समझ गए ?  तब असुरों ने कहा --- जी प्रभो !हम समझ गए। आपने हमे प्राणिमात्र पर दया करने के लिए कहा। प्रजापति ने कहा -- ठीक है ,तुम समझ गए। 

ब्रह्माजी के अनुशासन की प्रतिध्वनि आज भी मेघ गर्जना में हमे (द ,द ,द ) के रूप में अनुदित होती सुनाई पड़ रही है। अथार्त -

भोग प्रदान देवताओं ! --- इन्द्रियों का दमन करो। 

संग्रह प्रधान मनुष्यों ! --- भोग का दान करो। और -

क्रोध प्रधान असुरो ! --- जीवमात्र पर दया करो। 

इस कहानी से दम ,दान और दया को सीखना चाहिए तथा इन्हे जीवन में अपनाना चाहिए। 

दूसरी कथा- सर्वोत्तम धन 

तीन सत्य कथाएँ ( एक अक्षर तीन उपदेश ,सर्वोत्तम धन ,उपासना का फल )
तीन सत्य कथाएँ ( एक अक्षर तीन उपदेश ,सर्वोत्तम धन ,उपासना का फल )


महर्षि याज्ञवल्कय जी की दो स्त्रियाँ थी। एक का नाम था मैत्रैयी और दूसरी का नाम था कात्यायनी। दोनो स्त्रियां एक दूसरे से बिलकुल अलग थी। दोनों के स्वभाव में जमीन -आसमान को अंतर् था। मैत्रैयी पूजा -पाठ ,धर्म -कर्म आदि जैसे कार्यो में लगता था। पति की सेवा ,देख रेख और उनकी हर वस्तु ख्याल रखना ,अतिथि सत्कार करना आदि ये सभी कार्य मैत्रैयी को अच्छे लगते थे। 

और उनकी दूसरी स्त्री कात्यायनी ,वो बिलकुल आम जीवन की स्त्रियों जैसी थी। सजना -सवरना , अपने पर ध्यान देना ,बाकी किसी से कोई मतलब न रखना आदि। एक बार महर्षि ने संन्यास ग्रहण करने का विचार बनाया। सन्यास ग्रहण करने से पहले उन्होने अपनी दोनों स्त्रियों को बुलाया और कहा कि -- मेरे पीछे तुम लोगो का झगड़ा न हो ,इसलिए मैं सम्पति का बँटवारा कर देना चाहता हूँ। 


कात्यायनी ने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन मैत्रैयी ने कहा कि -- स्वामीं ! जिस धन को लेकर मैं अमर नहीं हो सकती , उस धन को लेकर मै क्या करूंगी ? कृपया आप मुझे अमरत्व का साधन  बताने की दया करें। 

याज्ञवल्कय जी ने कहा -- मैत्रैयी !  तुमने बड़ी सुंदर बात पूछी। वस्तुतः इस संसार में सर्वोत्तम धन आत्मा ही है। उसी की प्रियता के कारण अन्य धन ,जन आदि प्रिय लगते है। इसलिए ये आत्मा ही सुनने ,याद करने और जानने के योग्य है। इस आत्मा से कुछ भी अलग नहीं है। ये देवता ,ये प्राणी तथा यह सारा संसार जो कुछ भी है ,वो सब आत्मा ही है। ऋगादी ,वेद ,इतिहास ,पुराण ,उपनिषद ,श्लोक ,सूत्र ,मन्त्र विवरण और सारी विद्याएँ इस परमात्मा के ही निःस्वास है। 

यह परमात्म-तत्व अनंत ,अपार और विज्ञान धन है। यह इन भूतों से प्रकट होकर उन्ही के साथ गायब हो जाता है। देहेन्द्रिय -भाव से मुक्त होने के बाद इसकी कोई संज्ञा नहीं रहती। जहां अज्ञानावस्था होती है ,वही द्वैत (भेदभाव )का बोध होता है ,अन्य को सूंघने ,देखने ,सुनने ,अभिवादन करने और जानने का भ्रम होता है ,किन्तु जहां इसके लिय सबकुछ आत्मा ही हो गया है ,वहां कौन किसे देखे ,सुने ,जाने या बुलाये ? वहां कैसा शोक ,कैसा मोह ,कैसी मृत्यु ,जहां सबकुछ एक मात्र परमात्मा ही सब जगह दिखाई दे रहा हो। 

ऐसा कहकर महर्षि ने संन्यास ग्रहण किया और उन्ही के उपदेशो के आधार पर चलकर मैत्रैयी ने भी परम् कल्याण को प्राप्तकर लिया। 

तीसरी कथा 

उपासना का फल 

तीन सत्य कथाएँ ( एक अक्षर तीन उपदेश ,सर्वोत्तम धन ,उपासना का फल )
तीन सत्य कथाएँ ( एक अक्षर तीन उपदेश ,सर्वोत्तम धन ,उपासना का फल )


महर्षि अत्रि का आश्रम उनकी तपस्या का पवित्र प्रतीक था। चारो और अनुपम शान्ति और दिव्य आनंद की अनुभूति हमेशा होती रहती थी। यज्ञ की धूम शिखाओं और वेद -मंत्र के उच्चारण से आश्रम के कण -कण में रमणीयता का निवास था। लेकिन महर्षि आनंदमग्न होकर भी सदा उदास ही रहते थे। उनकी इस उदासी का सिर्फ एक ही कारण था और वो थी उनकी बेटी अपाला। 

वह उनकी बहुत ही प्यारी बेटी थी। लेकिन वह चर्मरोग से पीड़ित थी। चर्मरोग के कारण उसका शरीर बिगड़ता जा रहा था। उसका पूरा शरीर सफेद दागों से भरा पड़ा था और इसी कारण से उसके पति ने उसे अपने घर से निकाल दिया था। यह अपने पिता के घर पर ही अपना समय व्यतीत कर रही थी। दिन -प्रतिदिन उसकी सुंदरता घटती जा रही थी। वो जीवित थी ,तो बस अपने पिता के स्नेह की रौशनी से। 

चर्मरोग से छुटकारा पाने के लिए अपाला ने इंद्र की शरण ली अथार्त उनकी उपासना करने लगी। वह जानती थी की इंद्र सोमरस से प्रसन्न होते है। उसकी हार्दिक इच्छा थी कि इंद्र प्रत्यक्ष दर्शन सोम स्वीकार करें। कितनी निर्मल चांदनी रात है। चन्द्रमा ऐसा लगता है ,मानो अभी -अभी अमृत सागर में नहाकर आया है या  कामधेनु दूध से ऋषियों ने उनका अभिषेक किया है। 

वहीं सरोवर में स्नान करने के बाद अपाला ने जल से भरा कलश अपने कंधे पर रख लिया ,वह बहुत ही खुश थी ,रात ने अभी -अभी पहले पहर में प्रवेश किया था। सोचते -सोचते अपाला आश्रम की और चली जा रही थी। निःसंदेह इंद्र देवता मुझ पर प्रसन्न है ,मुझे अब सब कुछ मिल गया। सोचते -सोचते ,खुद से बातें करती हुई चली जा रही थी। 

राजा स्वेत अपने शरीर का मांस क्यों खाया करते थे /राजा स्वेत की कहानी

तभी अचानक -रास्ते में उसे सोमलता दिखाई दी ,तो अपाला ने परीक्षा के लिए जैसे ही सोमरस को दाँतों से लगाया तो उसमे से रस निकलने लगा और  उसके कुछ कण धरती पर गिर गए। सोमलता को पाकर अपाला का मन बहुत खुश था ,वो ख़ुशी के मारे फूली नहीं समा रही थी। उसकी तपस्या से जमीन पर पड़े सोमलता के रस से  एक मूर्ति प्रकट हो उठी। तभी कुछ दूर चलने पर अपाला को रास्ते में एक दिव्य पुरुष का दर्शन हुआ। 

उस दिव्य पुरुष ने कहा - मैं सोमपान के लिए घर -घर घूमता रहता हूँ। आज इस समय तुम्हारी सोमाभिषव क्रिया से मैं अपने आप चला आया। दिव्य स्वर्ण रथ से उतरकर इंद्र ने अपना परिचय दिया। देवराज इंद्र को अपाला ने सोमरस दिया। जी भर कर सोमरस पीने के बाद उन्होंने कहा -- अपाला तुम क्या वर चाहती हो। जो इच्छा हो ,मांग सकती हो। 

अपाला ने कहा - हे देवराज इंद्र ! हे देव ! आपकी प्रसन्नता ही मेरी इच्छा -पूर्ति है। आपके दर्शन की अभिलाषा के लिए मैंने उपासना की और मेरी उपासना का फल मुझे प्राप्त हो गया ,अब इससे बढ़कर और क्या वर हो सकता है?

इंद्र देव बोले --  तुमने ब्रह्मवादिनी ऋषि कन्या होकर मेरी उपासना की ,स्तुति की। सच्ची भक्ति कभी निष्फल नहीं होती ,देवी ! ऐसा कहकर इंद्रदेव ने अपाला को पकड़कर अपने रथ -छिद्र से उसे तीन बार बाहर निकाला। उनकी कृपा से अपाला का चर्मरोग दूर हो गया। वह सूर्य की रौशनी की तरह चमक रही थी। 

अपाला ने इंद्र का धन्यवाद किया और आश्रम के लिए चलपड़ी। आश्रम पहुंचकर उसने अपने पिता को सारी बात बताई। ऋषि अत्रि बहुत खुश हुए। उन्होंने अपाला को आशीर्वाद दिया।  अपाला अपने पती के घर गई। उपासना के कारण उसका दाम्पत्य - जीवन अच्छा बीतने लगा। 

तो प्रिय पाठकों ! देखा आपने उपासना का फल। कभी भी जीवन में घबराना नहीं चाहिए। जब हर रास्ते बंद हो जाए तो ,रोने धोने को बजाय सच्चे दिल से आप अपने ईष्ट (भगवान् )को याद करे। आपके जीवन के दुःख भरे बादल यूँ ,ऐसे चुटकियों में गायब हो जाएंगे। आपको पता भी नहीं चलेगा। 

इसी के साथ आपके जीवन की मंगल कामना करते हुए हम अपनी वाणी को विराम देते है। 

भगवान् शिव आपका कल्याण करें। 

धन्यवाद। 

1 Comments

Previous Post Next Post