राजा स्वेत अपने शरीर का मांस क्यों खाया करते थे /राजा स्वेत की कहानी

मैं खड़ा -खड़ा ये सोच ही रहा था की आकाश से एक दिव्य विमान उतरा। थोड़ी ही देर में उसमे से एक दिव्य मनुष्य उतरा और सरोवर में नहाने लगा। नहाने के बाद वह बाहर निकला और उस मुर्दे का मांस खाने लगा। भरपेट उस मोठे ताजे मुर्दे का मांस खाकर वह फिर सरोवर में गया ,स्नान किया और  फिर स्वर्ग की और जाने लगा। 

उस दिव्य मनुष्य को ऊपर जाते देख कर मैंने कहा --महाभाग सुनो ! जरा देर रुको........

राजा स्वेत अपने शरीर का मांस क्यों खाया करते थे /राजा स्वेत की कहानी

जय श्री हरि प्रिय पाठकों 

मनुष्य जीवन में जो कुछ भी कमाता है ,उसमे से थोड़ा बहुत वो किसी अन्य व्यक्ति पर खर्च करता है जिसे दान कहा जाता है। आज इस पोस्ट में हम दान के बारे में जानेंगे। इसके अलावा जानेंगे की राजा स्वेत का दान से क्या सम्बंध है? ऐसा क्या कारण था, जो उन्हें अपने शरीर का मांस खुद खाना पड़ा। आइए विस्तार से जाने। 


राजा स्वेत अपने शरीर का मांस क्यों खाया करते थे /राजा स्वेत की कहानी
राजा स्वेत अपने शरीर का मांस क्यों खाया करते थे /राजा स्वेत की कहानी

इस पोस्ट में आप पायेंगे -

दान के प्रकार। 

दान करना अति आवश्यक। 

दान कैसे लोगों को देना चाहिए। 

कहानी राजा स्वेत के उद्धार की 

दान के प्रकार 

खर्च ,पिछला खर्च ,आगे का खर्च और पानी में फेंकना ,ये मनुष्य की कमाई के चार हिस्से होते है। 

खर्च ---अपने और अपने बच्चो पर खर्च करना -- ये पहला हिस्सा होता है। 

पिछला कर्ज़ ---अपने माता -पिता व परिवार के अन्य पूर्वजों के लिए खर्च करना -- ये दूसरा हिस्सा कहलाता है। 

आगे का खर्च ---अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए जमा करना -- ये होता है तीसरा हिस्सा। 

पानी में फैंकना ---किसी भूखे -प्यासे ,वस्त्रहीन या जरूरत मंदो को दान करना -- ये होता है चौथा हिस्सा। 

दान करना अति आवश्यक। 

प्रिय पाठकों ! जीवन में हर मनुष्य को थोड़ा या ज्यादा ,अपनी सामर्थ्य अनुसार दान अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य का वर्तमान ही नहीं भविष्य भी सफल बनता है। मनुष्य के अच्छे कर्म और दान- इनका फल भले ही तुरंत न मिले ,पर मिलता जरूर है। 

इसके अलावा यदि आप भूखे -प्यासे ,दीन ,लाचार व जरूरत मंदो की सहायता करते है तो उनके मन से निकली दुआएँ और आशीर्वाद आपको प्राप्त होता है। जो की अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है। मनुष्य दान करके अपने परलोक को सुधार सकता है अथार्त दान किए बिना मनुष्य का उद्धार नहीं होता। 

यदि वो धरती पर किसी को दान न दे -जैसे उदाहरण के तौर पर --यदि आपके सामने कोई भूखा हो ,और उसे देखकर आप अनदेखा कर दो ,तो स्वर्ग में भी आपको भूखा रहना पड़ेगा , वस्त्रहीन मनुष्य को अनदेखा करके आपको उस लोक में वस्त्रहीन रहना पड़ेगा आदि। इसलिए जब तक धरती पर है ,तब तक कुछ न कुछ थोड़ा बहुत दान करते रहना चाहिए। 

दान कैसे लोगो को देना चाहिए। 

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प्रिय पाठको ! शास्त्र अनुसार दान ऐसे व्यक्तियों को देना चाहिए -जिन्हे सचमुच वस्त्र ,भोजन ,रुपयों आदि की जरूरत हो।जिसे वे जब भी उपयोग में लाये तो आपको याद किय बिना न रह सके।  

किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं ,जिसके पास पहले से सब कुछ हो। ऐसे व्यक्तियों को दान देने से दान नहीं कहलाता। अपितु आपकी दी हुई वस्तु का अनादर ही होगा। क्योकि वो आपकी तरह हर वस्तु को खरीदने में सक्षम होते है। 

आज जो कहानी हम आपके लिए लेकर आये है ,वो इसी दान से सम्बंधित है। आप इस बात को अच्छे से समझे कि दान करने से ही उद्धार होता है। इसलिए इस कहानी को अच्छे से ध्यानपूर्वक पढ़े। ध्यान से पढ़ने पर ही आपको अच्छे से समझ आएगा। 

कहानी (राजा स्वेत का उद्धार )


राजा स्वेत अपने शरीर का मांस क्यों खाया करते थे /राजा स्वेत की कहानी
राजा स्वेत अपने शरीर का मांस क्यों खाया करते थे /राजा स्वेत की कहानी

एक बार प्रभु श्री राम तपोवन के दर्शन करने के लिए निकले।रास्ते में उन्हें महर्षि अगस्त्य जी का आश्रम दिखाई दिया। सो उन्होंने सोचा क्यों न मैं गुरुदेवजी के दर्शन करता चलूँ। ये सोच कर वे गुरुदेव के आश्रम में पहुँचे। महर्षि ने उनका बड़ा आदर किया। 

वापस लौटते समय महर्षि उन्हें विश्वकर्मा जी का बनाया हुआ एक दिव्य आभूषण उन्हें देने लगे। किन्तु प्रभू श्री राम जी ने आभूषण लेने से मना कर दिया। उन्होंने कहा की --हे ब्राह्मण ! मैं आपसे कुछ लूँ ,यह बड़ी निंदनीय बात होगी। क्योकि क्षत्रीय कभी किसी ब्राह्मण से दान नहीं लेते और जान कर तो बिलकुल भी नहीं। 

फिर आपका दिया हुआ दान मैं कैसे ले सकता हूँ। लेकिन अगस्त्य जी के बहुत ज्यादा कहने पर उन्होने वह दान ले लिया और पुछा की हे ब्राह्मण !यदि आप बुरा न माने तो क्या मैं आपसे एक बात पूछ सकता हूँ। महर्षि बोले निसंकोच पूछ सकते हो वत्स। 

प्रभु बोले - की हे गुरुदेव आप तो संत महात्मा है ,साधू वेश धारण करते है। किन्तु ये आभूषण तो दिव्य है। मैंने कभी आपको इन्हे धारण करते हुए नहीं देखा। ये आपको कैसे प्राप्त हुए। कृपया इस मूर्खता को क्षमा करते हुए मेरा समाधान कीजिए। 

महर्षि अगस्त्य जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि --- हे रघुनंदन ! त्रेता युग में एक बहुत बड़ा वन था। पर वहां सबकुछ विचित्र था। उस वन में न तो कोई पशु था और न ही कोई पक्षी। उस वन के बीच में चार कोस लम्बी एक झील थी। वहां मैंने एक बड़े आश्चर्य की बात देखी। 

झील के पास ही एक आश्रम था। लेकिन न तो उसमे कोई तपस्वी था और न कोई जिव -जंतु। ग्रीष्म ऋतू की रात थी थकावट के कारण मैंने वह रात उस आश्रम पर ही बिताई। सुबह उठकर मैं झील की तरफ चला तो मैंने देखा कि ,रास्ते में एक मुर्दा पड़ा है।उसका शरीर बड़ा हृष्ट -पुष्ट था। ऐसा लगता था की किसी नवयुवक की लाश है। 

मैं खड़ा -खड़ा ये सोच ही रहा था की आकाश से एक दिव्य विमान उतरा। थोड़ी ही देर में उसमे से एक दिव्य मनुष्य उतरा और सरोवर में नहाने लगा। नहाने के बाद वह बाहर निकला और उस मुर्दे का मांस खाने लगा। भरपेट उस मोठे ताजे मुर्दे का मांस खाकर वह फिर सरोवर में गया ,स्नान किया और  फिर स्वर्ग की और जाने लगा। 

उस दिव्य मनुष्य को ऊपर जाते देख कर मैंने कहा --महाभाग सुनो ! जरा देर रुको। मैं तुमसे एक बात पूछना चाहता हूँ। जब वो रुका तो मैंने पुछा कि -तुम कौन हो ? देखने में तो तुम देवता के जैसे लगते हो ,लेकिन तुम्हारा भोजन बड़ा ही घृणित है ,तुम ऐसा भोजन क्यों करते हो? और तुम रहते कहाँ हो। 

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हे रघुनंदन !मेरी बात सुन कर उसने हाथ जोड़ कर कहा कि -- हे विप्रवर !मैं विदर्भ देश का राजा था। मेरा नाम स्वेत था। हे विप्रवर !मुझे राज्य करते -करते मुझे प्रबल वैराग्य हो गया। मरने से  पहले मैंने तपस्या करने की सोची और तपस्या करने के लिए यहां इस वन में आ गया। 

हे ब्राह्मण !अस्सी हजार सालों तक कठिन तपस्या करके मैं ब्रह्मलोक में आ गया। किन्तु वहां पहुंच कर मुझे भूख और प्यास सताने लगी। मेरी इन्द्रियां तिलमिलाने लगी। जब भूख -प्यास सहन नहीं हुई तो मैंने ब्रह्माजी से पुछा -- कि हे भगवन ! मैंने तो सुना था की ये लोक हमेशा भूख -प्यास से रहित है। 

यहां किसी को भूख प्यास नहीं सताती। फिर मुझे भूख क्यों लग रही है ? ये भूख मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ती ?यह मेरे किस कर्म का फल है। मैं किस प्रकार से अपनी इन इन्द्रियों को शांत करूँ।

ये सुनकर ब्रह्माजी ने कहा -- तात ! पृथ्वी पर दान किए बिना यहां कोई वस्तु खाने को नहीं मिलती। तुमने निर्धन तो दूर किसी भिखारी तक को दान नहीं दिया। इसलिए तुम्हे यहां पर भूख प्यास का कष्ट सहना पड़ रहा है। 

धरती पर तुमने तरह -तहर के भोगो को खाकर ये उत्तम शरीर बनाया था। जो धरती पर पड़ा है। जिसे अक्षय बना दिया गया है ,इसलिए अब तुम उसी को जाकर खाओ। उसी से तुम्हारी तृप्ति होगी। उसे हररोज खा कर ही तुम तृप्त रह सकोगे। 

इस तरह जब तुम्हे अपना मांस खाते -खाते सौ वर्ष पूरे हो जायँगे ,तब तुम्हे अगस्त्य मुनि के दर्शन होंगे। उनकी कृपा से तुम संकट से छूट जाओगे। 

वो इंद्र सहित सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरो का भी उद्धार करने में समर्थ है। फिर तुम्हारा उद्धार करना कौन सी बड़ी बात है। हे विप्रवर ! ब्रह्मा जी की बात मान कर मैंने ये घृणित कार्य शुरू किया। ये शव कभी नष्ट नहीं होता और मेरी भूख भी इसी से शांत होती है। पता नहीं कब उन महात्मा के दर्शन होंगे ,कब इससे पीछा छूटेगा। अब तो सौ वर्ष भी पूरे हो गए है। 

हे रघुवर ! राजा स्वेत की बात को सुन कर तथा उसके आहार को देखकर मैंने कहा -अच्छा ! तो तुम्हारे सौभाग्य से मैं अगस्त्य ही आ गया हूँ। मैं निसंदेह तुम्हारा उद्धार करूँगा। इतना सुनते ही उसकी आँखों में आँसू आ गए और वह दंड की भाँती मेरे पैरो में गिर गया। 

मैंने उसे उठकर गले लगा लिया। वही उसने अपने उद्धार के लिए इन दिव्य आभूषणों को मुझे दान रूप में प्रदान किये थे। उसकी दुखी अवस्था को देख कर और उसकी करुणवाणी को सुनकर मैंने उसके उद्धार के लिए वह दान लिया , किसी लोभ के कारण नहीं। मेरे इस दान को लेते ही उसका वह मुर्दा शरीर गायब हो गया। फिर राजा स्वेत बड़ी प्रसन्नता के साथ ब्रह्मलोक को वापस चले गए। 

प्रभु श्री राम जी को अत्यंत ख़ुशी हुई। उनके मन में महर्षि अगस्त्य जी के प्रति अनन्य भक्ति उत्पन्न हो गई। उन्होंने गुरु जी के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। उसके बाद कुछ दिनों तक सत्संग करके भगवान् वहां से अयोध्या वापस लोट गए।

प्रिय पाठकों आशा करते हैं कि आपको कहानियां पसंद आई होंगी। ऐसी ही रोचक, ज्ञानवर्धक और सच्ची कहानियों के साथ विश्वज्ञान मे फिर से मुलाकात होगी। तब तक के लिए आप हंसते रहिए, मुस्कराते रहिए और औरों को भी खुशियाँ बांटते रहिए। 

धन्यबाद 

जय श्री सीता राम 


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