शिव स्वरुप का माहात्म्य (भाग 2 )

नंदी बैल भोलेनाथ के पहरेदार है ,उनके सेवक और उनके  प्रिय भक्त भी है। वास्तव में क्या आप जानते है की ये नंदी बैल आखिर है कौन ?

इसके पीछे एक बहुत ही सुंदर कथा है जो की स्कन्द पुराण में दी गई है। एक बार की बात है धर्मदेव के मन एक भाव पैदा हुआ की क्यों न वे खुद भगवान् भोलेनाथ की सेवा करे। 

उन्होंने खूब सोचा की क्या करूँ ? जिससे की भोले नाथ के पास मैं हमेशा रहूं। बहुत सोचने पर उन्हें विचार आया की क्यों न मैं उनका वाहन बन जाऊं। इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए उन्होंने घोर तप किया.......

हर -हर महादेव ! प्रिय पाठको 

कैसे है आप लोग -आशा करते है अच्छे ही होंगे। भोलेनाथ हमेशा आप पर कृपा दृष्टि बनाये रखें। 

दोस्तों ! पिछली पोस्ट में हमने और आपने चार शिव स्वरूपों के बारे में जाना। अब इस पोस्ट में हम अन्य सभी स्वरूपों के बारे में जानेगे। यदि अभी आपने पहले स्वरूपों के बारे नहीं जाना तो आप इससे पहली पोस्ट (शिव स्वरुप का महात्म्य -भाग 1 ) पढ़ सकते है। जिसमे शिव स्वरूपों के अलावा उनके भक्त की कहानी भी है। 

तो बिना देरी किये अन्य स्वरूपों के बारे में जाने क्योकि आज कल सभी के पास समय का अभाव है। फ़ालतू बाते तो किसी को भी पसंद नहीं आती। इसलिए कहीं आप भी बोर न हो जाए -सीधे मुददे पर आते है। 

यह भी पढ़े -शिव स्वरुप का महातम्य (भाग 1 )

इस पोस्ट में आप पायेंगे -

पांचवा शिव स्वरुप -भोलेनाथ का भस्म लगाना 

छठा शिव स्वरुप -भलनाथ जटाजूट मुकुट पहनना 

सातवां शिव स्वरुप - माँ गंगा को सिर पर धारण करना 

आठवां शिव स्वरुप - सिर पर चन्द्रमा धारण करना 

नौवाँ शिव स्वरुप - भोले नाथ का डमरू बजाना 

दसवां शिव स्वरुप - भोलेनाथ की नंदी सवारी 

मूलशंकर को चैतन्य शिव का साक्षात्कार होना 

पांचवां शिव स्वरुप -भोलेनाथ का भस्म लगाना 

प्रिय पाठको !हमारे प्यारे भोलेनाथ का ये बड़ा ही अनोखा स्वरुप है। चंदन ,पुष्परज ,मकरंद आदि सुगन्धित उबटनों के बारे में तो आपने सुना ही होगा। पर क्या कभी चिता भस्म के बारे में सुना है ? जी हाँ ! दोस्तों भगवान् शिव चिता की भस्म (राख ) को अपने शरीर पर मलते है इसीलिए इन्हे भस्मधारी भी कहते है। 

भगवान् शिव का ये भस्मलेप लगाना बहुत ही गहरा और अर्थयुक्त इशारा देता है। 

शिव स्वरुप का माहात्म्य (भाग 2 )
शिव स्वरुप का माहात्म्य (भाग 2 )

वैसे तो अधिकतर योगीजन इस भस्म का लेप सर्दी से बचने  के लिए करते है। पर माया रूपी सर्दी के विरुद्ध ये सूक्ष्म रूप का सुरक्षा कवच है। ये संसार में त्याग का प्रतिक है। जैसे सूर्य की तपन से धरती रस जल कर भस्म हो जाता है। ठीक उसी प्रकार शिव की योग अग्नि के ताप से योगियों की इन्द्रियों और माया के सभी रस जल कर  गए है। 

शिव तत्व में स्थित उनका सारा शरीर सांसारिक रसों से दूर है। उनके शरीर पर स्थित ये भस्म इसी त्याग और वैराग्य को दर्शाता है। 

प्रिय पाठकों ! यहाँ वैराग्य का मतलब ये नहीं है की मनुष्य को गृहस्थ जीवन से भाग जाना चाहिये या फिर इस संसार को हमेशा के लिए छोड़ देना चाहिए। नहीं- बल्कि संसार में रहते हुए  तथा जीवन में हर कठिनाइयों का सामना करते हुए आगे बढ़कर दिखाना चाहिए। 

ये विकारो और बंधनो से आजाद रहने को दर्शाता है। ज़रा थोड़ा सोच कर देखिये ,यदि शमशान घाट के एक मुर्दे शरीर को यदि जलाकर भस्म न किया जाये तो -उस मुर्दे शरीर से सड़ने ,गलने और बदबू आने लगेगी। और ऐसे ही ये तीनो प्रक्रियाएँ लगातार घटती रहेगी। 

वही ,दूसरी और भस्म तो अक्षय है (कभी नाश न होने वाला ), पावन है। जो समय के साथ न कभी गलती है, न सड़ती है। ठीक ऐसा ही शिवत्व का वैराग्य है! जो मनुष्य कर्मरत (काम में लगे ) होकर इस भस्म (वैराग्य ) को  धारण करें - तो उसका जीवन सफल हो सकता है। 

छठा शिव स्वरुप -भोलेनाथ का जटाजूट मुकुट पहनना 

दोस्तों !भोलेनाथ की जटाओं से बना ये मुकुट तीन प्रकार के शिव-तत्व को दर्शाता है। पहला अप दूसरा वायु और तीसरा सोम। वायु तत्व को भगवान् भोलेनाथ की जटाओं के रूप में माना गया है। 

योगशास्त्र में सिर के सबसे ऊपरी भाग को आकाश -तत्व का नाम दिया गया है। भगवान शिव की ये जटाएँ आध्यात्मिक आकाश में समाई हुई वायु की प्रतिक है। और इसीलिए भगवान् शिव को व्योमकेश के नाम से भी पुकारते है।  

भोलेनाथ की ये जटाएँ मनुष्य के मन के बिखरे हुए विचार है। जो गुत्थमगुत्था और उलझी हुई सोच को दर्शाते है। गीता में भी इन बिखरे और उलझे मन को वायु के समान ही बताया गया है। और  इसलिए भोलेनाथ की ये जटाएँ मन के भावो को दर्शाती है।

और साथ ही ये संकेत देती है की जिस प्रकार भगवान् शिव ने इन जटाओं को समेट कर अपने मुकुट के रूप में धारण किया है। ठीक उसी प्रकार मनुष्य को भी अपने मन के बिखरे हुए विचारो को ध्यान ,साधना के जरिये इकठ्ठा करना चाहिए। तब वही जटारूपी  मन जो पहले अशांत था ,वो धीरे - धीरे शांत लगने लगेगा। 

सातवाँ शिव स्वरुप -माँ गंगा को सिर पर धारण करना 


शिव स्वरुप का माहात्म्य (भाग 2 )
शिव स्वरुप का माहात्म्य (भाग 2 )

भगवान शिव का एक और सुंदर शृंगार है - और वो है ,उनकी जटाओं से निरंतर बहती गंगा की धारा। दोस्तों ! जैसा अभी ऊपर आपने पढ़ा भगवान शिव की जटाओं को वायुमंडल माना गया, इसलिए उसमें समाई इस गंगा को विद्वानों ने ब्रह्माण्ड की चेतन-धारा कहा। 

चेतना की अमृतधारा! ज्ञानबुद्धि की गंगा! ये धाराएँ सारे वायुमंडल में सूक्ष्म रूप से समाई हुई हैं। गुरु से ब्रह्मज्ञान प्राप्तकरने के बाद एक साधक इन्हें अपने आकाश-तत्त्व या ब्रह्मरंध्ररूपी तरंगो (मस्तक के अंदर का वह गुप्त छिद्र जिसमें से होकर प्राण निकलने पर ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है )द्वारा खींचकर भीतर समा लेता है।

यही नहीं, जैसे भगवान शिव भवतारिणी गंगा को नीचे उतार कर, पृथ्वी को सींचते रहते हैं। ठीक वैसे ही, सतगुरु (सच्चे गुरु )साकार और प्रकट गंगाधर हैं। वे ज्ञान की गंगा को शीश पर धारण करते हैं। फिर उसे उचित वेग से शिष्य के हृदय में उतारते हैं।

सतगुरु द्वारा ज्ञान-प्राप्ति के बाद ही शिष्य अपने अज्ञान,पाप-कर्मों और विकारों से मुक्त हो पाता है। साथ ही, अपने इस ज्ञान का अमृत समाज में भी बांटता है। अज्ञानता से मृत जनमानस में नए जीवन का संचार करता है। ठीक उसी प्रकार जैसे भगीरथ ने पृथ्वी पर माँ गंगा उतारकर अपना और अपने पूर्वजोंका कल्याण किया था।

आठवाँ शिव स्वरुप -सिर पर चन्द्रमा धारण करना 

शिव स्वरुप का माहात्म्य (भाग 2 )
शिव स्वरुप का माहात्म्य (भाग 2 )

प्रिय पाठकों !संसार में ये कथा प्रचलित है। कि समुद्र मंथन के दौरान भगवान शंकर हलाहल विष पी चुके थे। इस विष के घोर प्रभाव से उनका कण्ठ नीले रंग का हो गया था। इसके बाद मंथन द्वारा समुद्र में से एक-एक करके 14 रत्न निकले। उनमें से एक रत्न था- चन्द्रमा! वह अपनी शीतल और अमृतमय किरणों को बिखेरता हुआ वायुमंडल के ताप को हरने लगा। 

देव, दानव आदि सभी ने भगवान नीलकण्ठ (भगवान् शिव ) से प्रार्थना की - कि वे इस चन्द्रमा को धारण करें, ताकि विष से तप्त उनके तन को ठंडक मिल सके। भोले शंकर ने सबका अनुरोध स्वीकार किया औ चंद्रमा को अपने सिर पर सबसे ऊपर (शिखर )पर धारण किया। जिस कारण भगवान् शिव को चंद्रशेखर और शशिशेखर के नाम से भी पुकारा जाता है 

एक सामान्य मानव और भक्त में क्या अंतर् है। 

प्रभु का यह अलंकार (स्वरुप ) भी बड़ा संकेत देता है। वैदिक ग्रन्थों के अनुसार यह चंद्रमा परम-शीतल सोम का प्रतीक है। उनमें स्थान-स्थान पर लिखा है कि देवकोटि पुरुष, ऋषि-मुनि आदि चंद्रमा की प्याली से सोमपान किया करते थे। पर क्या ?

दोस्तों ! आप जानते की ये सोम वास्तव में है क्या ? सामान्य लोगों ने तो इसे एक शाही और उच्चकोटि की मदिरा या सुरा माना। और आयुर्वेदाचार्य इसे एक उत्तम औषधि मानतेहैं। 

उनके अनुसार सोम एक अद्भुत लता है, जो कि हिमालय के उत्तर में मौजवत पर्वत पर पैदा होती है। पर भगवान शंकर के मस्तक पर सुशोभित चन्द्रमा का मतलब यह सोम नहीं है। यहाँ सोम न तो कोई स्वर्गिक मदिरा है।न ही कोई रामबाण औषधि। 

भगवान शिव के सिर का चन्द्रअर्थात् सोम तो एक शाश्वत और मृत्युञ्जयी अमृत है। इसके विषय में ऋषि-समाज ने कहा- अपामा सोमम् अमृता अभहुमागन्मा.. हमने उस अमृतमय सोम का पान किया,जिससे हम मृत्यु को लांघ गए। अमरता को प्राप्त हो गए। यह वह अमृत है जिसका पान मुख से नहीं, आत्मा द्वारा किया जाता है। ब्रह्मज्ञान की विधि से ही इसका रसपान किया जा सकता है।

प्रिय पाठको! मनुष्य के सिर के सबसे ऊँचे भाग में एक अमृतकुंड होता है, जिससे लगातार आनंदमयी अमृत गिरता रहता है। इस अमृत को बिना किसी बाहरी प्याले के भीतर ही पीया जाता है।  इस सोम याने अमृत के उत्पन्न होने का स्थान भी हर मनुष्य के अंदर ही होता है।जिसे ब्रह्मस्थल (मनुष्य के शरीर का मध्य भाग यानी नाभि )कहते है। और जहां हजारो कमल होते है। 

दोस्तों आध्यात्म के अनुसार इस कमल में से हमेशा अमृत रस की बुँदे गिरती रहती है। जो की मनुष्य के मष्तिष्क से बहती हुई सुषुम्णा (नाभि )को पोषित करती है। तापों को हरने वाला ये अति शीतल सोम अमरता को प्रदान करता है। 

इसीलिए भगवान् भोलेनाथ के सिर पर शोभित ये चन्द्रमा यही प्रेरणा देता है की -उठो ,जागो एक पूर्णगुरु से तत्वज्ञान (आत्मा -परमात्मा की जानकारी )प्राप्त करों। और इस ज्ञान को अपने मन के अंदर स्थित कर जीवन को सफल बनाओ। 

नौवाँ शिव स्वरुप - भोले नाथ का डमरू बजाना 


शिव स्वरुप का माहात्म्य (भाग 2 )
शिव स्वरुप का माहात्म्य (भाग 2 )

प्रिय पाठकों -भोलेनाथ के डमरू से भी बहुत अच्छी प्रेरणा मिलती है। हमारे देश के महानपुरुषो और शास्त्रों के कहेनुसार मनुष्य के मस्तक के सबसे ऊपर वाले भाग में हमेशा ब्रह्मनाद की मधुर ,सुरीली ,दिव्य धुनें गूंजती रहती है। 

इसी कारण से प्राचीन समय में भारत और तिब्बत में जो साधू लोग थे वो नर -खोपड़ी के सबसे ऊपरी हिस्से की हड्डी से ही डमरू के दोनों सिरों को बनाते थे। जो साफ़ संकेत देते थे की जैसी आवाज़ इन हड्डियों से उठ रही है ,ठीक वैसी ही आवाज मनुष्य के अंदर गूंज रही है। 

भगवान् भोलेनाथ भी इस डमरू को धारण करके समाज को यही सन्देश रहे है की उठो -नाद (मन के अंदर की आवाज )को पहचानो ,सुनो और उस आवाज पर अपने मन को एकाग्र करो। एक अच्छे गुरु द्वारा ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करो। इस नाद को जाग्रत कराओ। क्योकि ये ब्रह्मनाद ही अनियंत्रित मन को ईश्वर में लगाने की सबसे आसान विधि है। 

दोस्तों भगवान् शिव ने मन को ईश्वर मे लगाने के सवालाख साधन बताये है। उन सभी साधनो में से ये नाद पर एकाग्र होना सबसे आसान और सबसे अच्छा साधन है। इसलिए अगर योग में स्थित रहने की भावना हो तो सब चिंतन को छोड़कर ,सावधान हो जाना चाहिए और मन को एकाग्र करके अनहद नाद को सुनने का प्रयत्न करना चाहिए। 

दसवां शिव स्वरुप - भोलेनाथ की नंदी सवारी 


शिव स्वरुप का माहात्म्य (भाग 2 )
शिव स्वरुप का माहात्म्य (भाग 2 )

प्रिय पाठकों -आप सभी ने देखा होगा की  भगवान् भोलेनाथ के मंदिर में हमेशा भोले नाथ के साथ - साथ उनके वाहन नंदी की भी एक मूरत होती है। और ऐसा इसलिए की क्योकि ये नंदी बैल भोलेनाथ के पहरेदार है ,उनके सेवक और उनके  प्रिय भक्त भी है। 

वास्तव में क्या आप जानते है की ये नंदी बैल आखिर है कौन ?

इसके पीछे एक बहुत ही सुंदर कथा है जो की स्कन्द पुराण में दी गई है। एक बार की बात है धर्मदेव के मन एक भाव पैदा हुआ की क्यों न वे खुद भगवान् भोलेनाथ की सेवा करे। उन्होंने खूब सोचा की क्या करूँ ?जिससे की भोले नाथ के पास मैं हमेशा रहूं। 

बहुत सोचने पर उन्हें विचार आया की क्यों न मैं उनका वाहन बन जाऊं। इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए उन्होंने घोर तप किया। उनकी कठिन तपस्या से भगवान् भोले नाथ अति प्रसन्न हुए और धर्मदेव को दर्शन देकर बोले कि -धर्मदेव मैं तुम्हारी तपस्या से खुश हूँ। मांगो क्या वर मांगते हो। 

धर्मदेव ने कहा कि - हे देवो के देव ! हे  महादेव  यदि आप मुझ पर प्रसन्न है तो आप मुझे अपने वाहन बना लीजिए जिससे मैं हमेशा आपके इस सुंदर मुख का दर्शन कर सकूँ। भगवान् शिव ने कहा -तथास्तु और तभी से ये धर्मदेव भगवान् शिव के वाहन नंदी बैल बन कर दिन रात उनकी सेवा में लगे रहते है। 

अतः हे प्यारे प्रिय पाठकों -भोलेनाथ का ये वाहन धर्म का प्रतिक है। क्योकि ईश्वर की साधना धर्म पर ही सवार होकर की जा सकती है। और धर्म के द्वारा ही भक्ति से अर्जित पुण्य की रक्षा भी हो सकती है। इसलिए भगवान शिव का ये स्वरुप यही प्रेरणा देता है कि -हमेशा धर्म पर अडिग रहो। 

मूलशंकर को चैतन्य शिव का साक्षात्कार होना 

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शिव स्वरुप का माहात्म्य (भाग 2 )
शिव स्वरुप का माहात्म्य (भाग 2 )


मुझे ऐसे गुरु की तलाश है,

जो शिव को दिखा सके।

🙏🏻🥀गुरु कौन होते है?/क्या गुरु की महिमा अपार है?/क्या गुरु बिना मुक्ति मिल सकती है?/गुरु शब्द का क्या अर्थ है?🥀⚘🙏🏻

दोस्तों - मूलशंकर में अब एक ही लगन थी। मुझे चैतन्य शिवको पाना है। चैतन्य शिव का साक्षात्कार करना है। परकैसे और कहाँ? ये प्रश्न उसके कोमल हृदय पर इतने गहरे जम गए कि समय का प्रवाह भी उन्हें धो न सका। जैसे-जैसे वह युवा होता गया, उसकी जिज्ञासा भी युवा होती चली गई। 

वह दिन-रात, चुप्पी साधे, बस इसी सोच में चूर रहता, 'कहाँ जाऊँ?कैसे खोलूं अपने चैतन्य शिव को?'आखिरकार मृत्युञ्जयशिव की खोज में एक दिन वह घर छोड़कर निकल ही पड़ा।रात्रि का गहन अंधकारमूलशंकर के कदम तेज़ी से बढ़रहे थे। पर कहाँ? इस प्रश्न का उत्तर तो स्वयं मूलशंकर के पासभी नहीं था। 

उसे अपने लक्ष्य का तो पता था, पर राह नहीं, दिशा नहीं! जंगलों में, तीर्थों में या पहाड़ों पर? कहाँ होगा चैतन्य शिवका साक्षात्कार? मूलशंकर इसी दुविधा में था कि तभी पूर्व समय में पढ़े ग्रन्थों की कुछ पंक्तियाँ उसके स्मृति पटल पर उभर आईं'यदि ईश्वर का साक्षात्कार पाना है, तो पहले गुरु का सान्निध्यप्राप्त करो। सच्चे शिव का रास्ता सच्चे गुरु से ही होकर जाता है।'

अतः एक हाथ में शास्त्रोक्त ज्ञान और दूसरे में अन्तहीन जिज्ञासा लिए मूलशंकर चल पड़ा, एक पूर्ण गुरु की तलाश में गाँव-गाँव, नगर-नगर डग भरता रहा (चलता गया )। अनेक आश्रमों व मठों के द्वार पर अलख जगाई। अपनी जिज्ञासा का पात्र सबकेआगे फैलाया। पर बदले में पात्र में गिरा क्या? धर्म के नाम पर केवल पाखण्ड, झूठ और अंधविश्वास! बड़े-बड़े घुटे हुए वेदान्ती मिले। 

शास्त्रों पर पाण्डित्य पूर्ण भाषण देते वक्ता मिले। हठ-योग से अपनी देह गलाते हठी मिले। गेरुए चोले में श्रद्धा रूपी सीता का हरण करते अनेकों रावण मिले! प्रसाद के नाम पर मांस-मदिरा उड़ाते धूर्त तांत्रिक मिले! कर्मकाण्ड, मंत्र-जाप के जाल में फंसाने वाले अनेकों गुरु मिले! पर अन्तर्दृष्टि खोलकर ईश्वर का दर्शन करा देने वाला सतगुरु कहीं न मिला। 

किसी ने ब्रह्मचर्य की दीक्षा देकर उसका नाम 'शुद्ध चैतन्य' रख दिया, तो किसी ने संन्यास की दीक्षा देकर उसे 'दयानन्द' कह दिया। पर ब्रह्मज्ञान प्रदान कर चैतन्य शिव का साक्षात्कार कोई नहीं करा सका। इसलिए मूलशंकर के जिज्ञासु कदम कहीं न थमे। 

इन सबको पीछे छोड़कर वह निरन्तर सत्य की खोज में आगे बढ़ता रहा।एक दिन तो वह ओखी मठ जा पहुँचा। वहाँ पाखण्डी साधुओं की भरमार थी। मूलशंकर ने उस मठ के महंत से ब्रह्मज्ञान' के सम्बन्ध में बातचीत की।आप क्या खोजने निकले हैं?', महन्त ने उससे पूछा।

मैं चैतन्य शिव की खोज में निकला हूँ। मुझे ऐसे गुरुकी तलाश है, जो उसे साक्षात् दिखा सके। क्या आप दिखा सकेंगे?', मूलशंकर ने स्पष्ट पूछा। मूलशंकर ने यह प्रश्न केवल महंत से ही नहीं, आज से पहले मार्ग में मिले न जाने कितने यति-सन्यासियों से किया था। प्रश्न सुनकर किसी ने उसका मजाक उड़ाया था। किसी ने उसे सनकी ठहराया था। 

पूजा करते समय शरीर क्यो हिलता है 

किसी-किसी ने तो तर्क देकर उसकी खोज को ही गलत बताया दिया था। क्योंकि इनमें से किसी के पास भी वह आँख नहीं थी, जिससे वे मूलशंकर की जिज्ञासा की थाह टटोल सकें। वह हृदय नहीं था, जिससे वे उसकी ईश्वर मिलन की अपूर्व तड़प महसूस कर सकें। वह कृपामयी हाथ भी नहीं था,जिसे वे उसके मस्तक पर रखकर अन्तर्ज्योति दिखा सकें।

'क्या इस समस्त भूखण्ड पर कहीं कोई सच्चा गुरु नहीं है? यदि है, तो कहाँ?'- मूलशंकर खुद प्रश्न करता और फिर खुद ही अपने आप को उत्तर देता- 'शास्त्रों के वचन तो झूठे नहीं हो सकते। हर युग, हर काल में पूर्ण गुरुसत्ता इस धरा पर विद्यमानहती है। मैं एक न एक दिन अवश्य उनके द्वार तक पहुँचूँगा।

'चौदह साल की अथक खोज के बाद आखिर वह दिन आ ही गया। मूलशंकर ने पूर्ण गुरु विरजानन्द जी के द्वार पर दस्तक दी।ठक-ठक!'द्वार खोलिए!'कौन है?', भीतर से आवाज़ आई।'यही तो जानने आया हूँ कि मैं कौन हूँ!'द्वार खुल गया। 

मूलशंकर ने अपने सामने अस्सी वर्षीय,क्षीणकाय, नेत्रहीन विरजानन्द जी को खड़े पाया।'हे ज्ञान के सूर्य, मुझे प्रकाश दीजिए। मेरे अज्ञान तमस को हर लीजिए', मूलशंकर ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की।

'क्या कुछ पढ़े हो?', विरजानन्द जी ने पूछा। मूलशंकर ने पढ़े हुए शास्त्रों के नाम गिना दिए।जो कुछ पढ़ा है, उसे भूल जाओ। इन सब अनार्ष ग्रन्थों को नदी में फेंक आओ।', इतना कहकर उन्होंने समस्त ग्रंथों का सार मूलशंकर के भीतर प्रकट कर दिया। प्रज्ञाचक्षु विरजानन्द जी ने मूलशंकर का दिव्य चक्षु खोल दिया। उसे उसके भीतर ही चैतन्य शिव का साक्षात्कार करा दिया। और बस यहीं मूलशंकर की खोज पूरी हो गई। 

अपने चैतन्य शिव का दर्शन कर मूलशंकर बहुत ही प्रसन्न हुए। और शिव भक्ति में लीन हो अपने जीवन के हर कार्य को बड़ी ही सहजता के साथ करते चले गये। 

आशा करते  है आपको ये कहानी और जानकारी अच्छी लगी होगी। इसी के साथ अपनी बात को यही समाप्त करते है और भोलेनाथ से प्रार्थना करते है की वो आपके जीवन को मंगलमय बनाये। इसी के साथ विदा लेते है। 

धन्यवाद 

हर -हर महादेव  - प्रिय पाठकों  

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