शुद्ध भाव /जड़भरत जी हिरण क्यों बने ?

एक दिन जड़भरत जी का अन्तसमय आ पहुँचा। अन्तकालमें भी वे उस हिरणी का चिन्तन करते रहें। मन में हिरणी का चिंतन होने से वे मरकर हिरण  बन गये। हिरण के जन्म में भी उनमें इतनी सावधानी रही, जो मनुष्यों में भी बहुत कम रहती है। उनमें त्याग का शुद्ध भाव रहा। शुद्ध भाव रहनेसे हिरण का शरीर मिलने पर भी उनकी अधोगति नहीं हुई। वहाँ से मरकर.........

हर -हर महादेव ! प्रिय पाठकों 

भोले नाथ की कृपा आप पर बरसती रहें। 


  शुद्ध भाव /जड़भरत जी हिरण क्यों बने ?

प्रिय पाठकों ! आज हम जिस विषय में चर्चा करेंगे ,उसके बारे में जानना बहुत ही आवश्यक है क्योकि मनुष्य जीवन में जो कुछ भी कर्म करता है ,उसके पीछे कोई न कोई स्वार्थ या भाव होता है।आज हम उन भावो के बारे में ही जानेंगे क्योकि मनुष्य के कर्मभाव से ही उसे उचित या अनुचित गति प्राप्त होती है। 


दोस्तों यदि मनुष्य ये सोचे की मरने के बाद उसे अच्छी गति प्राप्त हो ,तो उसे इस बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि -जीवन में वो जो भी कार्य करे उस कार्य को करने में उसका भाव शुद्ध हो। कहने का तातपर्य है की अच्छी गति पाने के लिए भावो का शुद्ध होना अति आवश्यक है। जीवन में हर मनुष्य चाहे वो आप हो ,हम हो या अन्य कोई और व्यक्ति -सभी के भाव ,स्वभाव और आदत यदि शुद्ध है ,ठीक है ,निर्मल है तो उसे कभी भी नीची गति प्राप्त नहीं होगी। 


जिस व्यक्ति का स्वभाव दया करने का ,क्षमा करने का ,शान्ति व प्रसन्न रहने का हो -उसे चाहे भले ही सांप या बिच्छू की योनि क्यों न प्राप्त हो जाए  -वह कभी भी उस योनि में सांप ,बिच्छू जैसा क्रूर कार्य नहीं करेगा।

जो व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए दूसरे का नुक्सान कर देता हो, दूसरों को दुःख देता हो ,बिना कारण दूसरों को कष्ट देता हो ऐसे ही व्यक्ति सांप ,बिच्छू आदि योनिया पाकर दुर्दशा पाते है। कष्ट भोगते है। 

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जो मनुष्य समाज में अपने को अच्छा दिखाता है चुप रहता है पर मौका पड़ने पर आंख बचाकर दूसरे को लूट लेता है ऐसे स्वभाव के व्यक्ति ही बिल्ली बनते हैं जैसे बिल्ली आंख मीच कर चुपचाप बैठी रहती है और जब देखती है की मलाई पड़ी है और कोई नहीं है तो फिर से उस पर छापा मार देती है क्योंकि यह बिल्ली की आदत होती है ,स्वभाव होता है।

ठीक इसी प्रकार मनुष्य का भी स्वभाव होता है। मनुष्य जीवन में हर प्रकार के अच्छे बुरे कर्म करते है और भगवान् उसी प्रकार उनका शरीर बदलते है। आप इस बात को इस प्रकार समझे -

जो मनुष्य ठीक है ,उसका स्वभाव अच्छा है ,तो उसे मरने के बाद चाहे जो कोई भी योनि (किसी भी रूप में जन्म मिलना )मिले -उस योनि में वो कभी भी कोई कार्य गलत नहीं करेगा। जैसा स्वभाव उसका पहले जन्म में था -वैसा ही स्वभाव अगले जन्म में होगा। फिर चाहे भले ही क्यों न उसे किसी भी कुल (जाति )में जन्म मिले। 

आइये इस बात को और ज्यादा गहराई से समझे।  

भारत वर्ष के एक बहुत बड़े राजा थे। जिनका नाम था जड़भरतअपने जीवन के अन्तिम भाग (समय ) में वे सब कुछ छोड़कर पुलहाश्रम में चले गये और भगवान् के भजन-स्मरण में लग गये। 

एक दिन जब वो स्नान (नहाने ) के लिये गण्डकी नदी में गये तो उन्होंने देखा - कि एक गर्भवती हिरणी पानी पीनेके लिये नदीके तट परआयी। जैसे ही वो पानी पीने लगी, वैसे ही  पीछे से एक शेर की भयंकर गर्जना सुनायी पड़ी। जिससे  बेचारी हिरणी डर गयी और उसने नदी पार करनेके लिये छलाँग मारी।


क्या होता है शुद्ध भाव ? शुद्ध भाव की पहचान
शुद्ध भाव /जड़भरत जी हिरण क्यों बने ?


छलाँग मारते ही उसका गर्भ नदीमें गिर गया। और वह हिरणी आगे जाकर मर गयी। जड़भरत जी ने देखा कि हिरणी का बच्चा बिना माँ का हो गया , अब उसकी रक्षा कौन करे ? उनके मन में दया आ गयी और उन्होंने उस बच्चेको उठा लिया तथा अपने आश्रम पर ले आये। 

पहले तो उन्होंने उस बच्चे को फलों आदिका रस दिया। फिर  धीरे-धीरे उसे घास खाना सिखा दिया और हरदम उसका पालन-पोषण करने लगे। जैसे माँ-बाप का अपने बच्चे में मोह होता है, ठीक ऐसे ही जड़भरत जी का भी उस बच्चे में मोह हो गया। हिरणी का वह बच्चा जब खेलता, फुदकता, सींग मारता, खुजली करता तो भरतजी को बड़ा आनन्द आता! 


क्या होता है शुद्ध भाव ? शुद्ध भाव की पहचान
शुद्ध भाव /जड़भरत जी हिरण क्यों बने ?


वे रात-दिन उसके पालन-पोषण की चिन्ता में ही डूबे रहते। जब कभी वह दिखायी नहीं देता तो वे उसके लिये बड़े व्याकुल हो जाते। इस प्रकार दिन बीतते गये और एक दिन जड़भरत जी का अन्तसमय आ पहुँचा। अन्तकालमें भी वे उस हिरणी का चिन्तन करते रहें। मन में हिरणी का चिंतन होने से वे मरकर हिरण  बन गये।


क्या होता है शुद्ध भाव ? शुद्ध भाव की पहचान
शुद्ध भाव /जड़भरत जी हिरण क्यों बने ?

अब ऐसा क्यों हुआ ?जड़भरत जी हिरण क्यों बने ?-ऐसा इसलिए की --

जिसका स्वभाव शुद्ध बन जाता है, वह नीची गति में नहीं जा सकता ,भरतजी का स्वभाव तो शुद्ध ही था, वे सब भोगों का त्याग करके वन में रहते थे और तपस्या  करते थे, फिर वे अधोगति में कैसे गये इसका समाधान यह है कि हिरण का शरीर मिलना अधोगति (दुर्दशा )नहीं है। अधोगति है-भीतरके भावों का गिरना। इसलिये हरिण के जन्ममें भी भरतजी को पूर्वजन्मकी याद रही

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वहाँ वे हरी घास न खाकर सूखे पत्ते खाते रहे। वैराग्य के कारण वे अपनी माता हिरणी के भी साथ नहीं रहे कि कहीं मोह हो गया तो पुनः हिरणी के गर्भ से जन्म लेना पड़ेगा।

हिरण के जन्म में भी उनमें इतनी सावधानी रही, जो मनुष्यों में भी बहुत कम रहती है। उनमें त्याग का शुद्ध भाव रहा। शुद्ध भाव रहनेसे हिरण का शरीर मिलने पर भी उनकी अधोगति नहीं हुई। वहाँ से मरकर उन्होंने श्रेष्ठ ब्राह्मण के घरमें जन्म लिया।

वहाँ उनका नाम जड़ भरत हुआ। किसीका संग, मोह न हो जाय, कहीं फँस न जायँ-ऐसी सावधानी रखनेके कारण वे जड़ कहलाये। कहने का मतलब  है कि -- मनुष्य का किया हुआ भजन, स्मरण, तपश्चर्या व्यर्थ नहीं जाती और अन्तकालीन चिन्तनके अनुसार गति का कानून भी व्यर्थ नहीं जाता। अतः हमें कर्म करते हुए भी सावधान रहना है और चिन्तन भी भगवान् का स्मरण  करते रहना है।

यह मनुष्य के लिये बड़ी खास बात है। क्योकि अन्य किसी भी योनियों में हम कर्म और चिन्तन को नहीं बदल सकते। पशु-पक्षियों के स्वभाव को बदलकर उनको अध्यात्म-मार्ग में नहीं ला सकते। 

हाँ, इतना जरूर कर सकते है की हम - उनके स्वभाव के अनुसार उनको शिक्षा दे सकते हैं, पर तुम ऐसे कर्म करो, ऐसा चिन्तन करो जिससे मुक्ति हो जाय-यह शिक्षा नहीं दे सकते। यह अधिकार इस मानव जन्म में ही है। अगर हमने अपना स्वभाव अशुद्ध बना लिया, अपनी आदत बिगाड़ ली, तो फिर अधोगतिअसम्भव नहीं है! इसलिये-

डरते रहो यह जिन्दगी बेकार न हो जाय,

सपने में किसी जीवका अपकार न हो जाय।

अधोगतिसे बचनेके लिये दो खास बातें हैं

(१) दूसरोंकी निःस्वार्थ सेवा करना और 

(२) भगवान् को याद करना। 

यह काम मनुष्य ही कर सकता है और इसी में उसकी मनुष्यता सिद्ध होती है। जो व्यक्ति दूसरों का अनिष्ट करता है, वह वास्तव में अपना ही महान् अनिष्ट करता है और जो दूसरों को सुख पहुँचाता है, वह वास्तवमें अपनेको ही सुखी बनाता है। 

अपना बिगाड़ किये बिना कोई दूसरे का बिगाड़कर ही नहीं सकता। जैसे, मनुष्य पहले चोर बनता है, पीछे चोरी करता है। चोरी करने पर माल हाथ लगे अथवा न लगे,पर वह खुद चोर बन ही जाता है अर्थात् उसके भीतर चोरपने का भाव (मैं चोर हूँ) आ ही जाता है।

मृत्यु अवश्यम्भावी (अनिवार्य) है। थोड़ी भी असावधानी परलोक में हमारी दुर्गति का कारण बन सकती है। अभी मनुष्य शरीर हमें प्राप्त है। अतः शरीर के रहते-रहते ऐसा काम कर लेना चाहिये, जिससे कोई जोखिम न रहे अर्थात् कभी भी मृत्यु आ जाय तो कम-से-कम अधोगतिमें न जाना पड़े। 

हरदम सावधान रहनेवाला दुर्गति में कैसे जा सकता है इसलिये हमें बड़ी सावधानीसे अपना जीवन बिताना चाहिये और दूसरोंके हितके लिये कर्तव्य कर्म करते हुए हर समय भगवान का स्मरण-चिन्तन करते रहना चाहिये

आशा करते है आपको कहानी ,जानकारी पसंद आई होगी। आप अपने मन की बात हमसे निःसंदेह बता सकते है। इसी के साथ आशुतोष भगवान् से आपके जीवन की मंगल कामना करते हुए अपनी वाणी को विराम देते है। 

धन्यवाद 

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