चर्पटपञ्चरिकास्तोत्र हिंदी में

एक विद्वान ब्राह्मण थे। जिन्हे व्याकरण का बहुत अधिक  ज्ञान था ,बहुत निपुण थे। जब वे बूढ़े हो गए उस समय भी वो व्याकर ही पढ़ा करते ,उसे ही रटते रहते। जिसे श्री शंकराचार्यजी ने देखा और उन्हें उपदेश दिया। 

उन्होंने ब्राह्मण से कहा की - तुम इस वृद्ध अवस्था में भी इस व्याकरण को ही रट रहे हो ,प्रभु का ज़रा सा भी नाम नहीं लेते, जबकि इस अवस्था में एक वो ही है जो तुम्हारी हर तरह से साथ देंगे ,पुकार सुनेंगे। उनके......

हर -हर महादेव ! प्रिय पाठकों 

भोलेनाथ का आशीर्वाद  आप सभी को प्राप्त हो। 

डुकृञ् करणे -- यह व्याकरण का एक धातु रूप है। 


चर्पटपञ्चरिकास्तोत्र हिंदी में
चर्पटपञ्चरिकास्तोत्र हिंदी में 


चर्पटपञ्चरिकास्तोत्र

प्रिय पाठकों -यह चर्पटपञ्चरिकास्तोत्र बहुत ही दिव्य स्तोत्र है। यह स्तोत्र हमने हिंदी में लिखा है ,जिससे की भक्तों को स्पष्ट पता चले की इस स्तोत्र का मतलब क्या है। यदि आप इस स्तोत्र की संस्कृत  जानना चाहते है , तो हमे बताये। आपके अनुरोध पर हम संस्कृत में भी लिखेंगे।  

एक विद्वान ब्राह्मण थे। जिन्हे व्याकरण का बहुत अधिक  ज्ञान था ,बहुत निपुण थे। जब वे बूढ़े हो गए उस समय भी वो व्याकर ही पढ़ा करते ,उसे ही रटते रहते। जिसे श्री शंकराचार्यजी ने देखा और उन्हें उपदेश दिया। 

उन्होंने ब्राह्मण से कहा की - तुम इस वृद्ध अवस्था में भी इस व्याकरण को ही रट रहे हो ,प्रभु का ज़रा सा भी नाम नहीं लेते, जबकि इस अवस्था में एक वो ही है जो तुम्हारी हर तरह से साथ देंगे ,पुकार सुनेंगे। उनके ध्यान से ही मुक्ति मिलेगी और उनका धाम प्राप्त होगा। 

एक गोविन्द जी ही है ,जो हर प्रकार से इस संसार में  रक्षा करते है। अतः हे मूढ़ !अथार्त अरे बुद्धिहीन !तू हमेशा गोविन्द को ही भज , उन्ही का ध्यान कर ,धनसंचय की लालसा को छोड़ ,सुबुद्धि धारण कर ,मन से तृष्णाहीन हो ,अपने प्रारब्धानुसार तुझे जो कुछ भी वित्त मिल जाय , उसी से मन को प्रसन्न रख। क्योकि मृत्यु समीप आने पर एक वो है जो तेरी रक्षा करेंगे ,मोक्ष प्रदान करेंगे। 

हिमालयकृतं शिवस्तोत्रं | हिमालयकृतं शिवस्तोत्रं हिंदी अर्थ सहित

श्री शंकराचार्य जी ने जो भी उपदेश दिए ,वो सब इस चर्पटपञ्चरिका स्तोत्र में दिया गया है। .

अखण्ड, सच्चिदानन्द और निर्विकल्पैकरूप अद्वितीय भावके स्थिर हो जानेपर, किस प्रकार पूजा की जाय ? जो पूर्ण है उसका आवाहन कहाँ किया जाय  ? जो सबका आधार है, उसे आसन किस वस्तु का दें ?

जो स्वच्छ है, उसको पाद्य और अर्घ्य कैसे दें ? और जो नित्य शुद्ध है,उसको आचमनकी क्या अपेक्षा ?

 निर्मल को स्नान कैसा सम्पूर्ण ? संसार जिसके पेट में है, उसे वस्त्र कैसा ? और जो वर्ण तथा गोत्र से रहित है, उसके लिये यज्ञोपवीत कैसा ?

निर्लेप को गन्ध कैसी? निर्वासनिकको पुष्पों से क्या ?

निर्विशेषको शोभाकी क्या अपेक्षा और निराकारके लिये आभूषण क्या ?

निरञ्जन को धूपसे क्या ?सर्वसाक्षीको दीप कैसा तथा जो निजानन्दरूपी अमृतसे तृप्त है, उसे नैवेद्यसे क्या ?

जो स्वयंप्रकाश, चित्स्वरूप, सूर्य-चन्द्रादिका भी अवभासक और

विश्वको आनन्दित करनेवाला है, उसे ताम्बूल क्या समर्पण किया जाय ? 

अनन्तकी परिक्रमा कैसी ,अद्वितीयको नमस्कार कैसा ?

और जो वेदवाक्योंसे भी जाना नहीं जा सकता, उसका स्तवन कैसे किया जाय ?

जो स्वयंप्रकाश और विभु है, उसकी आरती कैसे की जाय  ?

तथा जो बाहर-भीतर सब ओर परिपूर्ण है, उसका विसर्जन कैसे हो ?

ब्रह्मवेत्ताओंको सर्वदा, सब अवस्थाओं में इसी प्रकार एक बुद्धिसे भगवान्की परापूजा करनी चाहिये 

 हे शम्भो ! मेरा आत्मा ही तुम हो, बुद्धि श्रीपार्वतीजी हैं, प्राण आपके गण हैं, शरीर आपकी कुटिया है, नाना प्रकारकी भोगसामग्री आपका पूजोपचार है, 

नींद समाधि है, मेरे चरणों का चलना आपकी प्रदक्षिणा है और मैं जो कुछ भी बोलता हूँ। वह सब आपके स्तोत्र हैं,अधिक क्या  मैं जो कुछ भी करता हूँ, वह सब आपकी आराधना ही है। 

दिन और रात, सायंकाल और प्रातःकाल, शिशिर और वसन्त पुनः पुनःआते हैं इसी प्रकार कालकी लीला होती रहती है और आयु बीत जाती है, किन्तु आशारूपी वायु छोड़ती ही नहीं अतः हे मूढ ! निरन्तर गोविन्द को ही भज,

क्योंकि मृत्युके समीप आनेपर डुकृञ् करणे यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी। दिन में आगे अग्नि और पीछे सूर्यसे शरीर तपाते हैं, रात्रिके समय जानुओं में ठोड़ी दबाये पड़े रहते हैं, हाथ में ही भिक्षा माँग लाते हैं, वृक्ष के तले ही पड़े रहते हैं, फिर भी आशा का जाल जकड़े ही रहता है अतः हे मूढ !निरन्तर गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्युके समीप आनेपर डुकृञ् करणे यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी।

अरे, जब तक तू धन कमाने में लगा हुआ है तभी तक तेरा परिवार तुझसे प्रेम करता है, जब जराग्रस्त होगा तो घरमें कोई बात भी न पूछेगा अतः हे मूढ ! निरन्तर गोविन्दको ही भज, क्योंकि मृत्युके समीप आनेपर डुकृञ् करणे यह रटना रक्षा न कर सकेगी। 

जटाजूटधारी होकर,मुण्डित होकर, लुञ्चितकेश होकर, काषायाम्बरधारी होकर, ऐसे नाना प्रकारके वेष धारण करके यह मनुष्य देखता हुआ भी नहीं देखता और पेटके लिये ही नाना प्रकार से शोक किया करता है अतः हे मूढ ! निरन्तर गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर यह डुकृञ् करणे रटना रक्षा न कर सकेगी। 

जिसने भगवद्गीताको कुछ भी पढ़ा है, गङ्गाजलकी जिसने एक बूंद भी पी है, एक बार भी जिसने भगवान् कृष्णचन्द्रका अर्चन किया है, उसकी यमराज क्या चर्चा कर सकता है  अतः हे मूढ ! निरन्तर गोविन्दको ही भज, क्योंकि मृत्युके समीपआनेपर डुकृञ् करणे रटना रक्षा न कर सकेगी। 

अङ्ग गलित हो गये, सिरके बाल पक गये, मुख में दाँत नहीं रहे, बूढ़ा हो गया, लाठी लेकर चलने लगा, फिर भी आशा पिण्ड नहीं छोड़ती अरे मूढ ! निरन्तर गोविन्द को भज, क्योंकि मृत्युके समीप आने पर डुकृञ् करणे रटना रक्षा न कर सकेगी। 

बालक तो खेल-कूद में आसक्त रहता है, तरुण तो स्त्री में आसक्त है और वृद्ध भी नाना प्रकार की चिन्ताओं में मग्न रहता है, परब्रह्म में तो कोई संलग्न नहीं होता अतः अरे मूढ ! तू सदा गोविन्द का ही भजन कर, क्योंकि मृत्यु के समीप आनेपर डुकृञ् करणे यह रटना रक्षा न कर सकेगी 

इस संसार में पुनः-पुनः जन्म, पुनः-पुनः मरण और बारंबार माताके गर्भ में रहना पड़ता है, अतः हे मुरारे ! मैं आपकी शरण हूँ। इस दुस्तर और अपार संसार से कृपया पार कीजिये। इस प्रकार अरे मूढ ! तू तो सदा गोविन्द का ही भजन कर, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर डुकृञ् करणे (यह रटना रक्षा न कर सकेगी ।

रात्रि, दिन, पक्ष, मास, अयन और वर्ष कितनी ही बार आये और गये तो भी लोग ईर्ष्या और आशा को नहीं छोड़ते, अतः अरे मूढ ! तू सदा गोविन्द का भजन कर, क्योंकि मृत्यु  के समीप आने पर यह डुकृञ् करणे रटना रक्षा न कर सकेगी। 

अवस्था ढलने पर काम-विकार कैसा, जल सूखने पर जलाशय क्या तथा धन नष्ट होने पर परिवार ही क्या इसी प्रकार तत्त्वज्ञान होने पर संसार ही कहाँ रह सकता है अतः हे मूढ ! सदा गोविन्द को भज, क्योंकि मृत्युके समीप आने पर यह डुकृञ् करणे रटना रक्षा न कर सकेगी। 

नारी के स्तनों और नाभिनिवेश में मिथ्या माया और मोह का ही आवेश है, ये मांस और मेद के ही विकार हैं-ऐसा बार-बार मन में विचार, हे मूढ ! सदा गोविन्द का भजन कर, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर यह डुकृञ् करणे रटना रक्षा न कर सकेगी। 

स्वप्नवत् मिथ्या संसार की आस्था छोड़कर तू कौन है, मैं कौन हूँ , कहाँ से आया हूँ, मेरी माता कौन है और पिता कौन है —इस प्रकार सबको असार समझ तथा हे मूढ ! निरन्तर गोविन्द का भजन कर, क्योंकि मृत्यु के निकट आने पर  यह डुकृञ् करणे रटना रक्षा न कर सकेगी। 

गीता और विष्णुसहस्रनाम का नित्य पाठ करना चाहिये, भगवान् विष्णु के स्वरूप का निरन्तर ध्यान करना चाहिये, चित्त को संतजनोंके सङ्ग में लगाना चाहिये और दीन जनों को धन दान करना चाहिये और हे मूढ ! नित्य गोविन्द का ही भजन कर, क्योंकि मृत्यु के निकट आने पर डुकृञ् करणे यह रटना रक्षा न कर सकेगी। 

जबतक प्राण शरीर में है तब तक ही लोग घर में कुशल पूछते हैं, प्राण निकलने पर शरीर का पतन हुआ कि फिर अपनी स्त्री भी उससे भय मानती है अतः हे मूढ !नित्य गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्युके निकट आनेपर डुकृञ्करणे यह रटना रक्षा न कर सकेगी। 

पहले तो सुख से स्त्री-सम्भोग किया जाता है, किन्तु पीछे शरीर में रोग घर कर लेते हैं, यद्यपि संसार में मरना अवश्य है तथापि लोग पापाचरण को नहीं छोड़ते अतः हे मूढ ! सदा गोविन्दका भजन कर, क्योंकि मृत्यु के निकट आनेपर डुकृञ् करणे यह रटना रक्षा न कर सकेगी। 

मधुराष्टकं स्तोत्र हिंदी अर्थ साहित

गली में पड़े चिथड़ों की कन्था बना ली, पुण्यापुण्य से निराला मार्ग अवलम्बन कर लिया, न मैं हूँ, न तू है और न यह संसार है- (ऐसा भी जान लिया), फिर भी किस लिये शोक किया जाता है  अतः हे मूढ ! सदा गोविन्द का भजन कर, क्योंकि मृत्यु के निकट आने पर डुकृञ् करणे यह रटना रक्षा न कर सकेगी। 

चाहे गङ्गा-सागरको जाय, चाहे नाना व्रतोपवासोंका पालन अथवा दान करे तथापि बिना ज्ञानके इन सबसे सौ जन्ममें भी मुक्ति नहीं हो सकती अतः हे मूढ ! सर्वदा गोविन्द का भजन कर, क्योंकि मृत्युके निकट आने पर डुकृञ् करणे (अथवा हा धन ! हा कुटुम्ब !! हा संसार!!!) यह रटना रक्षा न कर सकेगी। 

आशा करते है आपको यह स्तोत्र अच्छा लगा होगा। यदि अच्छा लगा हो तो कमेंट करे। अगर आप किसी और अन्य स्तोत्र की हिंदी जानना चाहे तो उस स्तोत्र को हमे बताये।इसी के साथ हम अपनी बात को यही समाप्त करते है। और भगवान् से प्रार्थना करते है की वो आपको हमेशा खुश रखें।

धन्यवाद 

जय श्री कृष्ण 

Previous Post Next Post