विवेक किसे कहते है ?व्यक्ति अपने विवेक को कैसे बढ़ा सकता है ?

मनुष्य को अपने विवेक को महत्व देना चाहिए। उसे हर पल ऐसा सोचना चाहिए कि मैं निरंतर रहने वाला हूँ। और ये शरीर मरने वाला है। ऐसा कोई पल नहीं है ,जिसमे शरीर मरता  न हो। मरने के प्रवाह को ही जीना कहते है। 

जब प्रवाह प्रकट हो जाए तो उसे जन्मना कहते है ,और अदृश्य हो जाए तो उसे मरना कहते है। कहने का मतलब है कि -जो हरदम बदलता है उसी का नाम जन्म है , उसी का नाम स्थिति है और उसी का नाम मृत्यु है........

हर हर महादेव !प्रिय पाठको 

भगवान भोलेनाथ का आशीर्वाद आप सभी को प्राप्त हो। 


इस पोस्ट में आप पाएंगे 

विवेक किसे कहते है ?

व्यक्ति अपने विवेक को कैसे बढ़ा सकता है ?

विवेक का आदर न करने का कारण 

विवेक के अनुभव को समझने के लिए परिवर्तन जरूरी है 

विवेक किसे कहते है ?

विवेक किसे कहते है ?व्यक्ति अपने विवेक को कैसे बढ़ा सकता है ?
विवेक किसे कहते है ?व्यक्ति अपने विवेक को कैसे बढ़ा सकता है ?

संसार में जितने भी मनुष्य है। उन सभी  मनुष्यों के अंदर एक विवेक अथार्त ज्ञान होता है। और मनुष्य का काम है उस विवेक को महत्व देना। अब मनुष्य विवेक को महत्व कैसे दें क्योकि विवेक पैदा नहीं होता। अगर वह पैदा होता तो नष्ट भी जरूर होता ,क्योकि हर पैदा होने वाली वस्तु नष्ट जरूर होती है। 

यह प्रकर्ति का नियम है। अतः विवेक को पैदा नहीं किया जा सकता , बल्कि उसे जाग्रत किया जाता है। जब साधक (मनुष्य ) अपने अंदर मौजूद उस स्वतः सिद्ध को महत्व देता है ,तब वह विवेक जाग्रत हो जाता है। इसी को विवेक ,तत्वज्ञान यानी (ब्रह्म, आत्मा और सृष्टि के संबंध मे सच्चा ज्ञान होना) अथवा बोध कहते है। 

हर मनुष्य के अंदर खुद ये भाव रहता है -कि मैं बना रहूँ ,कभी न मरुँ। वह अमर रहना चाहता है। अमर रहने की इस इच्छा से ये सिद्ध होता है कि वह वास्तव में अमर ही है। क्योकि अगर वह अमर नहीं होता तो उसके अंदर अमर होने की इच्छा भी नहीं होती। 

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जिस प्रकार भूख और प्यास लगती है तो इससे सिद्ध होता है की अन्न और जल ही वह वस्तु है जिससे वह भूख प्यास शांत हो जायेगी। अगर अन्न और जल नहीं होता ,तो भूख प्यास भी नही लगती। इसलिए अमरता स्वतः सिद्ध है। 

अब सवाल उठता है ही कि जो अमर है ,उसमे अमर होने की इच्छा क्यों होती है ? तो इसका जवाब है की जब मनुष्य अपने विवेक का तिरस्कार करके मरने वाले शरीर के साथ अपने को एक मान लेता है अथार्त - शरीर ही मैं हूँ ,ऐसा मान लिया । तो उसमे अमर होने की इच्छा तथा मरने का भय पैदा हो जाता है। 

इस बात का ज्ञान होते हुए भी की ये शरीर - हमारा असली स्वरुप नहीं है।  ये शरीर प्रत्यक्ष रूप से बदलता रहता है। बचपन में जैसा था , वैसा अब नहीं है और जैसा आज है ,वैसा आगे नहीं रहेगा। लेकिन मैं वही हूँ और आगे भी रहूँगा। 

अतः मैं शरीर से अलग हूँ और शरीर मेरे से अलग है अथार्त मैं शरीर नहीं हूँ -ये तो सबके अनुभव की बात है। फिर भी अपने को शरीर से अलग न मान कर शरीर के साथ एक मान लेता है। और ऐसा मान लेना अपने विवेक अथार्त ज्ञान का अनादर करना ,तिरस्कार करना होता है। 

व्यक्ति अपने विवेक को कैसे बढ़ा सकता है ?

मनुष्य को अपने विवेक को महत्व देना चाहिए। उसे हर पल ऐसा सोचना चाहिए कि मैं निरंतर रहने वाला हूँ। और ये शरीर मरने वाला है। ऐसा कोई पल नहीं है ,जिसमे शरीर मरता  न हो। मरने के प्रवाह को ही जीना कहते है। 

जब प्रवाह प्रकट हो जाए तो उसे जन्मना कहते है ,और अदृश्य हो जाए तो उसे मरना कहते है। कहने का मतलब है कि -जो हरदम बदलता है उसी का नाम जन्म है , उसी का नाम स्थिति है और उसी का नाम मृत्यु है। 

बालयवस्था मर जाती है तो युवावस्था पैदा हो जाती है। इस तरह हर पल पैदा होने और मरने को ही (स्थिति )कहते है। पैदा होने और मरने का यह क्रम सूक्ष्म रूप से निरंतर चलता रहता है। परन्तु हम स्वयं निरंतर ज्यों का त्यों रहते  है। 

हम सभी मनुष्यों का हर अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है ,पर स्वरुप में कभी भी ज़रा सा भी परिवर्तन नहीं होता। अतः इस विवेक को महत्व देना है कि -शरीर तो निरंतर मृत्यु में रहता है और मैं हमेशा अमरता में रहता हूँ। 

गीता में भी स्पष्ट लिखा है -

वासान्सि जीर्णानि यथा विहाय नवानि ग्रन्हाति नरोअपराणि। 

तथा शरीराणि विहाय जिर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

मनुष्य जैसे पुराने कपड़ो को छोड़कर दूसरे नए कपडे पहन लेता है ऐसे ही ये देह पुराने शरीर को छोड़कर दूसरे नए शरीर में चला जाता है। जैसे पुराने कपड़ो को छोड़ कर हम मर नहीं जाते और नए कपड़ो को पहन कर हम पैदा नहीं हो जाते ,ऐसे ही पुराने शरीर को छोड़ने से हम मर नहीं जाते और नया शरीर धारण करने से हम पैदा नहीं हो जाते। 

कहने का तात्पर्य है कि - शरीर मरता है ,हम नहीं मरते। अगर हम मर जायें तो फिर पाप और पुण्य का फल

कौन भोगेगा ?अन्य योनियों में कौन जाएगा ?बंधन किसका होगा ?मुक्ति किसकी होगी ?शरीर नाशवान है

,इसको कोई संभाल कर नहीं रख सकता और हमारा स्वरुप अविनाशी है(सदा बना रहने वाला ,कभी नष्ट न होने वाला ) ,इसको कोई मार ही नहीं सकता 

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्। 

विनाशमव्ययस्यास्य न कच्श्रित्कर्तुमहर्ति।।

अविनाशी (हमेशा बना रहने वाला )सदा अविनाशी ही रहेगा और विनाशी सदा विनाशी ही रहेगा। जो विनाशी है ,वह हमारा स्वरुप नहीं है। हमने अगर कुरता पहन लिया तो क्या कुरता हमारा स्वरुप हो गया ?हमने अगर चादर ओढ़ ली तो क्या चादर हमारा स्वरुप हो गया ?नहीं ,ऐसा बिलकुल भी नहीं है। जैसे हम कपड़ो से अलग है वैसे ही हम इन शरीरो से अलग है। इसलिए हम मनुष्य के मन में हमेशा ये बात रहनी चाहिए की हम मरने वाले नहीं है ,हम तो अमर है । 

मनुष्य के अंदर मौजूद आत्मा अमर है ,शरीर मरता है ,आत्मा कभी नहीं मरती। अगर इस बात को ,विवेक को महत्व दे ,समझे तो मन से मरने का भय मिट जाएगा क्योकि जब हम मरते ही नहीं तो फिर मरने का कैसा भय ?

हमारा बचपन बीत गया ,तो सोचो -क्या हम  बचपन को लाकर दिखा सकते है। नहीं !बिलकुल नहीं दिखा सकते  क्योकि बचपन (मर गया )अथार्त बीत गया ,पर हम वही रहे। इससे पता चलता है कि शरीर सदा मरने वाला है और मैं (यानी मनुष्य ) की आत्मा सदा अमर रहने वाली है। इसमें कोई संदेह नहीं।

मनुष्य सबसे बड़ी गलती यही करता है कि वह अपने को शरीर मान लेता है। जो कि बिलकुल गलत है। गलत बात का आदर करना और सही बात का निरादर करना ही मुक्ति में बाधा उत्पन्न करती है। हम अपने को शरीर मान कर ही तो कहते है कि -मैं बालक हूँ ,मैं जवान हूँ ,या मैं बूढ़ा हूँ। 

जबकि न तो हम बालक हुए ,न जवान हुए और न बूढ़े हुए। बल्कि शरीर बालक हुआ ,जवान हुआ और बूढ़ा हुआ। शरीर बीमार हुआ तो हम बीमार हो गए ,शरीर कमजोर हुआ तो हम कमजोर हो गए। 

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इसी तरह जब क्रोध आ जाता है तो हम कहते है मैं क्रोधी हूँ। पर ये सोचने वाली बात है कि -क्या ये क्रोध हर समय आता है ,हर समय रहता है ?क्या ये क्रोध सबके लिए होता है ?जो हर समय नहीं रहता ,जो सबके लिए नहीं होता तो वह मेरे में कैसे हुआ ?कोई कुत्ता अगर घर में आ गया तो क्या कुत्ता घर का मालिक हो गया ?

ऐसे ही अगर किसी को क्रोध आ गया तो क्या वह  क्रोधी हो गया ?नहीं ! क्रोध तो आता है और चला जाता है ,पर वह (उसकी आत्मा )हमेशा रहती है। देश ,काल ,व्यक्ति ,वस्तुयें ,क्रिया ,घटना ,परिस्थिति आदि सभी अवस्थाये बदलती रहती है। पर हम निरंतर रहते है। कहने का तात्पर्य है कि - हमारा सम्बन्ध बदलनेवाले के साथ नहीं होना चाहिए अतः बदलने वाले को न देखकर रहने वाले को देखकर जीना चाहिए। 

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विवेक का आदर न करने का कारण 

मनुष्य के विवेक का आदर न करने का महत्वपूर्ण कारण है -सुख की आसक्ति। हम संयोगजन्य (संयोग से मिलने वाले ) सुख का भोग करना चाहते है। इसलिए अपने विवेक (ज्ञान )का आदर नहीं होता।

जिसे हम सबसे ज्यादा चाहे उसकी मृत्यु हो जाए या धन चला जाय तो मनुष्य को शोक होता है। ठीक इसी प्रकार कई बार भविष्य को लेकर चिंता करना जैसे अगर स्त्री मर गई तो क्या होगा ? बेटा मर गया तो क्या होगा ?ये शोक ,चिंता भी विवेक को महत्व न देने का कारण ही होते है। 

विवेक के अनुभव को समझने के लिए परिवर्तन जरूरी है 

संसार में परिवर्तन ,परिस्थिति का बदलना बहुत जरूरी है। क्योकि अगर परिस्थिति नहीं बदलेगी तो संसार कैसे चलेगा। मनुष्य बालक से जवान कैसे होगा ? मुर्ख से बुद्धिमान कैसे बनेगा ? रोगी से निरोगी कैसे बनेगा ?बीज से पेड़ कैसे बनेगा ?

परिवर्तन के बिना संसार स्थिर (एक ही स्थान पर ठहरा हुए ) चित्र की तरह बन जाएगा। वास्तव में मरनेवाला अथार्त परिवर्तनशील ही मरता है ,रहनेवाला कभी मरता ही नहीं। और ये सबका प्रत्यक्ष अनुभव है -कि मृत्यु होने पर शरीर तो यही हमारे सामने पड़ा रहता है ,पर शरीर का मालिक यानी जीवात्मा मिकल जाती है। 

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यदि हम सभी प्राणी इस अनुभव को महत्व दे तो फिर किसी भी प्राणी यानी मनुष्य को चिंता -शोक हो ही नहीं सकता। 

आशा करते है आप विवेक के महत्व को भलीभांति समझ गए होंगे। फिर यदि कोई शंका हो तो आप हमसे अपने प्रश्न को पूछ सकते है। हम कोशिश करेंगे की आपकी समस्या का समाधान कर सके। 

इसी के साथ आपसे विदा लेते है और भगवान् से आपके मंगल की कामना करते है की वो आप सभी को खुश रखे।

धन्यवाद 

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