हमेशा बच्चे गलत नहीं होते | क्या माता-पिता हमेशा सही होते है , और बच्चे हमेशा गलत ?

पेरेंट्स की सबसे पहली गलती होती है तुलना करना। जी हाँ -पेरेंट्स लोग तुलना बहुत करते है इसलिए सभी पेरेंट्स को चाहिए की कभी भी अपने बच्चों की तुलना दूसरों के बच्चो के साथ न करें........

जय श्री राम! प्रिय पाठकों

कैसे है आप लोग, हम आशा करते हैं कि आप ठीक होंगे। 

प्रिय पाठकों ! एक बार फिर स्वागत है आपका विश्वज्ञान में। 

दोस्तों इस पोस्ट में हम जानेंगे की पैरेंट से कहाँ ,किस जगह गलती होती है ,जो बच्चे उनकी बात नहीं मानते और गलत रास्ते अपनाते है। 

हमेशा बच्चे गलत नहीं होते | क्या माता-पिता हमेशा  सही होते है , और बच्चे हमेशा गलत ?

पेरेंट्स की सबसे पहली गलती होती है तुलना करना। जी हाँ -पेरेंट्स लोग तुलना बहुत करते है इसलिए सभी पेरेंट्स को चाहिए की कभी भी अपने बच्चों की तुलना दूसरों के बच्चो के साथ न करें। 

जैसे की उसका बच्चा कक्षा में first आया है ,कि उसका बच्चा  I.A.S  बन गया ,की वो देखो उसका बच्चा DOCTOR बन गया आदि बातें। कभी नहीं कहना चाहिए और ऐसा जीवन भर के लिए होना चाहिए , न कि केवल बचपन के दौरान। 

वह बच्चा जिसे आप सुना रहें है ,वो एक व्यक्ति है अथार्त वह एक आत्मा है। एक ऐसी आत्मा जो अपने साथ कर्म, संस्कार और भाग्य लेकर आई है। इसलिए उसके पालन-पोषण को व्यक्तिगत रूप से करने की आवश्यकता है। 

जो कुछ भी कर्म, संस्कार, क्षमता ,कौशल और प्रतिभा ,विशेषताएँ यह सब जो वह लाया है उसे पोषित करने की आवश्यकता है। उसकी क्षमता को बढ़ाना है।

उनके संस्कारों में और सुधार करना है। लेकिन केवल अपने बच्चे के संदर्भ में ही। इसका मतलब है कि उसे अपने संदर्भ में सुधार करने की जरूरत है। अन्य बच्चों के संदर्भ में नहीं। तो माता -पिता को चाहिए की जीवन भर किसी प्रकार की कोई तुलना न करें । माता -पिता की दूसरी गलती है -आलोचना करना। 

आलोचना से  केवल शब्दों में ही नहीं बल्कि विचारों में भी बचना चाहिए। वह ऐसा क्यों है ... वह इस तरह क्यों नहीं करता ... काश वह ऐसा होता ... वह बहुत धीमा रहता है ... वह साफ- सुथरा नहीं रहता ... वह अच्छी तरह से पढ़ता नहीं है .. वह अच्छा नहीं खाता ... मतलब हर वक़्त नकारात्मक बयान,टोकना ही टोकना ,डांटना ही डांटना। ये गलत है। 


हमेशा बच्चे गलत नहीं होते | क्या माता-पिता हमेशा  सही होते है , और बच्चे हमेशा गलत ?
हमेशा बच्चे गलत नहीं होते | क्या माता-पिता हमेशा  सही होते है , और बच्चे हमेशा गलत ?

दोस्तों !हमारे विचार हमारी वास्तविकता बन जाते हैं। जो विचार हम बार-बार पैदा करते हैं, वही हमारी वास्तविकता बन जाते हैं।कहने का तात्पर्य है कि - माता-पिता जो विचार पैदा करते हैं, वे बच्चों के लिए पैदा करते हैं, वह बच्चा उन सभी विचारों को आत्मसात कर लेता है अथार्त अपने जीवन में उतार लेते है। 

ऐसे विचारों का बच्चो पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है।  बच्चा खुद भी ऐसे विचार पैदा करने लगता है।  माता-पिता अक्सर ऐसे विचार पैदा करते हैं जब बच्चा छोटा होता है तो कहते या सोचते है कि  --

ये तो बहुत धीमा है मतलब बहुत धीरे -धीरे काम करता है , यह कोई भी काम ठीक से नहीं कर सकता ,ये तो हर चीजे गिरा देता है , तोड़ फोड़ मचाकर रखता है ,हर चीज तोड़ देता है , पढ़ने बैठेगा और थोड़ी ही देर में उठ जाएगा , ये मन को एकाग्र नहीं करता ।

क्यों हैं ऐसे आज के बच्चे/ माँ-बाप के साथ बुरा व्यवहार क्यों।

क्या आप जानते है -- ये सभी दोहराई गई पंक्तियाँ उस बच्चे के लिए एक लेबल बन जाती हैं। हम पर जो लेबल (मैच्योरिटी के  ) लगाए जाते हैं उनमें से अधिकांश हमारे बचपन में हम पर लगाए जाते हैं। और उनमें से अधिकांश हमारे माता-पिता द्वारा लगाए जाते हैं। और हम उन लेबलों को अपनी पहचान बना लेते हैं। 

आज हम 30, 40 या 50 साल के हो सकते हैं। लेकिन हम में से अधिकांश लोग उन लेबलों को बिल्कुल भी नहीं बदलते हैं। क्योकि हम मानते रहते हैं कि हम ऐसे ही हैं। हमसे किसने कहा कि हम ऐसे हैं? 

हमारे माता-पिता ने और माता-पिता हमेशा सही होते हैं ,सही बोलते है । चूंकि मेरे माता-पिता ने मुझे बताया कि मैं ऐसा हूं, तो मैं ऐसा ही हूं। तो यह आपके बच्चे का व्यक्तित्व बन जाता है। इसलिए माता-पिता की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि वे अपने बच्चों पर हमेशा सकारात्मक लेबल का प्रयोग करें। 

आप उन्हें जो बनाना चाहते हैं, उसके लिए सकारात्मक लेबल लगाए। मान लीजिए, उदाहरण के लिए यदि आपका बच्चा थोड़ा धीमा है और वह किसके संदर्भ में धीमा है? ज़ाहिर सी बात है आप उसे किसी और के संदर्भ में देख रहे होते हैं। लेकिन फिर भी अगर हम यह मान लें कि वह थोड़ा धीमा है। 

उसे सब कुछ करने में अधिक समय लगता है। हो सकता है कि वह किसी काम  के बीच में ब्रेक ले लें। इधर से उधर कुछ रखने में ,रुक जाता है ,बैठ जाता है। हाँ है ! वह थोड़ा धीमा है। यह एक तथ्य है। यह एक हकीकत है। लेकिन संकल्प से ही सिद्धि होती है। हमारे विचार ही हमारी वास्तविकता का निर्माण करते हैं।

जिसका अर्थ है कि यदि हम बार-बार सोचते हैं, बोलते हैं, उसे डांटते हैं या दूसरों से उसकी शिकायत करते हैं,उसकी बुराई करते है।  जिसका अर्थ है कि यदि परिवार के सदस्य आपस में चर्चा करते हैं कि वह अत्यंत धीमा है। 

वह भविष्य में क्या करेगा? वह कैसे पढ़ाई करेगा? जरा सोचिये हम किसी से कैसे मुकाबला कर सकते हैं? अगर हम बार-बार नकारात्मक सोचते हैं, बोलते हैं, और अन्य लोगों के साथ चर्चा करते हैं तो यह उस बच्चे के लिए एक लेबल बन जाता है.

वह बच्चा जीवन भर के लिए यह विचार पैदा करेगा - मैं जल्दी से कुछ नहीं कर सकता। मैं धीमा हूँ। मैं कभी कुछ नहीं कर सकता। उस बच्चे ने उस लेबल को स्वीकार कर लिया। उसने उन नकारात्मक विचारों को अपने मन में उतार लिया। 

ऐसे वीचारों से बच्चा जीवन में कभी सफल नहीं हो पाता। दूसरों से बात करने में झिझकना ,माता -पिता से दूर रहना ,घर पर मन न लगना आदि बहुत सी ऐसी बाते होती है जो उनके मन में हर समय चलती रहती है और वो किसी से नहीं कहते क्योकि वह जानते है की कुछ कहेंगे तो माता -पिता फिर से कुछ सुनाएंगे।  

थोड़ा विचार कीजिए कि हम उस बच्चे पर और क्या लेबल लगा सकते हैं?जी हाँ ! हम उसे सकारात्मक लेबल दे सकते हैं जैसे की बेटा या बेटी आप परिपूर्ण हैं। आप सब कुछ बखूबी करते हैं। आपका हर कर्म सटीक है। देखों आपने इसे कितनी जल्दी पूरा किया है। भले ही उसने  उसे बहुत धीमी गति से किया हो। 

उसका कर्म धीमा है। लेकिन हम उसे उसके कर्म के धीमे होने का कंपन (भाव )नहीं देते। क्योंकि यदि भावों में शब्द 'धीमा' होगा  तो वह उस  भाव को अवशोषित कर लेगा अथार्त ग्रहण कर लेगा। वो शब्द उसके मन पर इतना हावी हो जाएगा की उसका हर कर्म हमेशा धीमा ही रहेगा या वह पहले से और भी ज्यादा धीमा हो जाएगा। क्योंकि हमारे विचार हमारी वास्तविकता में प्रकट होते हैं। 

वर्तमान में जो वास्तविकता आप देखते हैं। उसके बारे में न सोचें और न ही बोलें। अपितु उस वास्तविकता के बारे में सोचें और बोलें जो आप देखना चाहते हैं। अध्यात्म और ध्यान हमें यही सिखाते हैं। भगवान हमारा पालन-पोषण कैसे करते हैं? हमें भी इसी तरह अपने बच्चों का पालन-पोषण करना चाहिए। 

अच्छा क्या आप जानते है कि भगवान हमें क्या बताते है? वो कहते है -आप एक शांत आत्मा हैं। आप एक प्यारी आत्मा हैं। तुम शुद्ध आत्मा हो। क्या हम इसमें से कुछ हैं? नहीं, लेकिन भगवान हमें बार-बार यह बताते रहते हैं।किसी न किसी BOOKS के रूप में BHAJNO के रूप में KAHAANI के रूप में व किसी न किसी महापुरूष आदि के रूप में। 

हम भगवान् की बातें सुनते और पढ़ते रहते हैं। उनमे लिखा होता है की मैं शांतिपूर्ण हूँ। मैं शुद्ध हूँ। मैं शक्तिशाली हूँ। और धीरे-धीरे हम वैसे ही बनने लगते हैं। तो जैसे भगवान हमारा पालन-पोषण करते हैं, वैसे ही हमें अपने बच्चों का पालन-पोषण करना चाहिए। 

उनसे कहना चाहिए की आप एक शक्तिशाली आत्मा हैं। आप एक अच्छी आत्मा हैं। आप स्वच्छ हैं, आप ईमानदार हैं, आप समय के पाबंद हैं। ये कभी मत कहो - तुम हमेशा देर से आते हो। आप कभी भी समय पर तैयार नहीं होते। क्योकि हमारे विचार ही हमारी वास्तविकता का निर्माण करते हैं।

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माता-पिता के शब्दों और विचारों का बच्चे के संस्कारों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। और बच्चे का भाग्य बनाया जाता है। तो बच्चे का पालन-पोषण आत्मा के पालन-पोषण से शुरू होता है। 

यदि कोई माता-पिता अपने स्वयं के संस्कारों का पालन- पोषण करते हैं तो बच्चे का पालन-पोषण उन स्पंदनों से स्वतः ही हो जाएगा। तो इसलिए कोई आलोचना नहीं और कोई तुलना नहीं।

हम बच्चों पर जो लेबल लगाते हैं, वह लेबल उच्चतम कंपन आवृत्ति के होने चाहिए। उन पर हमेशा शुद्ध, शक्तिशाली और सकारात्मक लेबल लगाने चाहिए। उस नकारात्मक वास्तविकता का लेबल लागू न करें जिसे आप अभी देख रहे हैं। 

बल्कि उस वास्तविकता का लेबल लागू करें जिसे आप देखना चाहते हैं। बच्चों में प्रतिस्पर्धा का संस्कार कभी न डालें। जब आप इसे पढ़ेंगे तो अभी यह थोड़ा मुश्किल लग सकता है। क्योंकि बचपन से ही हमें सिखाया जाता था कि जीवन एक प्रतियोगिता है। 

लेकिन प्रतियोगिता का संस्कार बच्चे की क्षमता को उसकी पूरी क्षमता तक खिलने नहीं देता है। क्योंकि वह बच्चा हमेशा खुद को दूसरे बच्चों के संदर्भ में देखता है।

जीवन कोई प्रतियोगिता नहीं है। वह बालक अपने कर्म, संस्कार और भाग्य लेकर तुम्हारे घर आया है। उसे दूसरों से आगे जाने की जरूरत नहीं है। चाहे आप किंडरगार्टन (नर्सरी ) क्लास की बात कर रहे हों ,चाहे आप 10वीं या 12वीं की बोर्ड परीक्षाओं की बात कर रहे हों या फिर आप उनके करियर की बात कर रहे हों। 

कभी भी दो बच्चों या सामान्य रूप से दो लोगों के बीच कभी प्रतिस्पर्धा नहीं हो सकती। यह बिलकुल भी संभव नहीं है। क्योंकि वे अपने साथ अपनी क्षमता, संस्कार, भाग्य और विशेषता लेकर आए हैं। 

वे अकेले अपने संदर्भ में आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन अगर हम उन्हें किसी और के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं या अगर हम उन्हें प्रतिस्पर्धा सिखाते हैं तो हम उनमें अहंकार,ईर्ष्या व औरों से बेहतर होने के हीन संस्कार महसूस करा रहे होते हैं । हम उन्हें यही सब संस्कार सिखाते हैं। क्योंकि हम उन्हें बताते हैं कि आपको किसी और से आगे रहने की जरूरत है। 

हम उनमें संस्कार लगाते हैं कि अगर आप किसी और से कम हासिल करते हैं तो आप खुश नहीं हो सकते क्योंकि आपने उनसे कम हासिल किया है। इसलिए हम उन्हें प्रदर्शन के आधार पर संस्कार सिखाते हैं कि आप तभी अच्छे होते हैं जब आप इसे हासिल करते हैं या जब आप किसी और से ज्यादा हासिल करते हैं। 

यह पालन-पोषण नहीं है। पालन-पोषण का अर्थ है, उन्हें याद दिलाना - आप बहुत पवित्र और बहुत शक्तिशाली हैं और अब आपको अपनी पवित्रता, शक्ति और विशेषताओं को और बढ़ाने की आवश्यकता है। 

हम आत्मा को जितना मजबूत करेंगे, उनकी क्षमता उतनी ही ज्यादा बढ़ती जाएगी। लेकिन जितना अधिक वे दूसरों के साथ तुलना और प्रतिस्पर्धा करते हैं, शायद वे कई लोगों से आगे निकल जाते हैं, 

लेकिन वह खुशी, संतोष और भावनात्मक शक्ति जो आत्मा में मौजूद होनी चाहिए, वह मौजूद नहीं होगी। क्योंकि हम हमेशा दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में व्यस्त रहते हैं। 

आलोचना, तुलना, प्रतिस्पर्धा, नियंत्रण हर माता-पिता को इन 4 संस्कारों से बचने के लिए बेहद सावधान रहने की जरूरत है, हमें बच्चों को अनुशासित करने की जरूरत है लेकिन गुस्से का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। 

प्रेम और कानून को संतुलित करें। उन्हें प्यार से अनुशासित करें। इससे उन्हें होने वाले फायदों के बारे में बताएं और फिर उन्हें अनुशासित करें। तो प्यार से अनुशासन करें और बच्चों पर कभी हाथ मत उठाओ। कभी नहीं।

भले ही वे गलत हों, उन्हें अनुशासित करने का एक तरीका है। उन पर हाथ उठाकर नहीं। हमें उनके स्वाभिमान को प्रभावित नहीं होने देना चाहिए। और फिर जब बच्चे एक ऐसी उम्र में पहुँच जाते हैं जहाँ वे अपनी पसंद बनाने लगते हैं जहाँ वे अधिकारों और गलत के बारे में खुद निर्णय लेने लगते हैं। 

खासकर टीनएजर्स (13 से 19 साल के बच्चे )को हमें बेहद सावधान रहने की जरूरत है और मौजूदा हालात में हमें और भी ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि बच्चा अपने जीवन में होने वाली हर चीज के बारे में माता-पिता को अवगत कराए।

इस रिश्ते में बहुत ईमानदारी और पारदर्शिता होनी चाहिए। तभी आप अपने बच्चे का पालन-पोषण करना जारी रख सकते हैं। जब आपका बच्चा छोटा होता है, वह आता है और आपको वह सब कुछ बताता है जो हुआ था। क्योंकि आप उसे उस उम्र में स्वीकार करते हैं। एक बच्चे को स्वीकृति की आवश्यकता होती है। आलोचना या तुलना नहीं। 

वास्तव में प्रत्येक आत्मा को स्वीकृति की आवश्यकता होती है। शरीर कितना भी पुराना क्यों न हो जाए हमें आत्मा के रूप में हमेशा स्वीकृति (स्वीकार करने ) की आवश्यकता होती है। 

इसी तरह एक बच्चे को स्वीकृति की आवश्यकता होती है। जब बच्चा छोटा होता है और स्कूल जाता है तो वह घर वापस आता है और माता-पिता के साथ सारी बाते शेयर करता है ,सब कुछ बताता  है।

हम उस समय बच्चे को स्वीकार करते हैं। लेकिन जब बच्चा थोड़ा बड़ा हो जाता है तो कभी-कभी वह कुछ ऐसे काम भी कर देता है जो हमें सही नहीं लगता। 

मान लीजिए, उदाहरण के लिए उन्होंने क्लास बंक की(मतलब स्कुल के निकलना पर स्कुल न पहुंचना ) और पिकनिक पर गए ,उसने स्कूल बंक किया और दोस्तों के साथ  फिल्म देखने चले गये । क्योंकि उसके सारे दोस्त वहां गए थे। उस दिन भी उसने आकर तुम्हारे साथ सारी बाते शेयर कर दी । उसने सब कुछ प्रकट कर दिया होगा। 

उस समय उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उनके पास अपने माता-पिता को सब कुछ बताने का संस्कार था। लेकिन उस दिन उसने जो किया वह आपके पालन-पोषण से मेल नहीं खा रहा था। और उस दिन पहली बार तुमने अपने बच्चे को ठुकराया। 

तुमने कहा - तुम गलत हो। आप यह कैसे कर सकते हैं? क्या हम आपको इसके लिए स्कूल भेजते हैं? क्या हमने आपको यही सिखाया है? ऐसी बहुत सी बातें हमने पहली बार कही हैं। बच्चे को नहीं पता था कि वह आपको यह बताने से बच सकता था।

वो चाहता तो आपको न बताता पर जैसे वह रोज करता था, उस दिन भी जो कुछ भी हुआ, उसने तुम्हें बताया। लेकिन उस दिन उसे आपसे रिजेक्शन मिल गया। 

जिस दिन बच्चे को माता-पिता से रिजेक्शन मिल जाता है , उसी दिन दोस्तों से स्वीकृति मिल जाती है। यह बहुत जोखिम भरा है। हमें कभी-कभी आश्चर्य होता है कि हमारे बच्चे साथियों के दबाव का अनुभव क्यों करते हैं। 

माता-पिता से ज्यादा दोस्तों की क्यों सुनते हैं? क्योकि हर बच्चा स्वीकृति चाहता है। अगर हर बच्चे को माता-पिता से स्वीकृति मिल जाती है तो उन्हें दोस्तों से स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होगी। 

इसलिए माता-पिता की स्वीकृति बच्चों को इतना मजबूत बनाती है कि बच्चा हमेशा सही के लिए खड़ा होगा। भले ही उसे अकेला खड़ा होना पड़े। तो जब बच्चे ने पहली बार कुछ ऐसा किया जो उसके लिए सही नहीं था.

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शायद पहली बार स्कूल बंक किया हो या पहली बार कोई परीक्षा छूट गई हो। या उसने पहली बार कुछ अस्वास्थ्यकर खाया हो या उसने पहली बार किसी नशीले पदार्थ का सेवन किया। 

जब यह सब पहली बार हुआ तो पहली बार उनका पालन-पोषण कैसे करें? कैसे करें उनका पोषण ? उसने जो किया वह उसके लिए सही नहीं था। लेकिन वह खुद गलत नहीं है। उसने जो किया वह गलत था। लेकिन हमने गुस्से में आकर उससे कहा कि वह गलत है। 

तुम गलत हो। तुम बुरे हो। आप यह कैसे कर सकते हैं? बुरा लड़का -बुरी लड़की ,अच्छे लड़के और अच्छी लड़कियां ऐसा नहीं करते हैं। हम बच्चों को ऐसे ही पढ़ाते हैं।  उस बच्चे को उस दिन पहली बार माता-पिता से रिजेक्शन मिलता है  । 

दूसरी बार उसे फिर किसी और घटना के लिए रिजेक्शन मिलता है। और फिर तीसरी बार बच्चा माता-पिता को बताना बंद कर देता है। हमें लगता है कि बच्चे ने गलत काम करना बंद कर दिया है। उसने गलत काम करना बंद नहीं किया है। 

उसने केवल अपने माता-पिता को बताना बंद कर दिया है। और यहीं से जनरेशन गैप शुरू होता है। एक गैप बन जाता है जहां हम कहते हैं कि हम आपको समझ नहीं सकते। बच्चा कहता है कि मैं भी तुम्हें नहीं समझ सकता। इसलिए  इसे जेनरेशन गैप कहते है ।

लोगों को समझने का क्या मतलब है? समझने का अर्थ केवल यह जानना है कि वे एक आत्मा हैं। हमें लगता है कि वह मेरा बच्चा है तो मैं उससे जो कुछ भी कहता हूं वो ही  उसके लिए सही है। मैं जो निर्णय लेता हूं वह उसके लिए सही होता है। 

वह उम्र बीत चुकी है। वे आत्मा हैं जो अपने विचारों, निर्णयों और संस्कारों से चलती हैं। और उन्होंने अपने भाग्य को आगे बढ़ाया है। हम उन्हें हमेशा सही सलाह दे सकते हैं। लेकिन उन्हें कभी भी गलत या बुरा न कहें। 

उन्होंने जो किया वह गलत है लेकिन फिर भी आप उनसे कह सकते है - तुम बहुत अच्छे हो। मैं आपको वैसे ही स्वीकार करता हूं जैसे आप हैं। लेकिन आपने जो किया है वह सही नहीं है।

ऐसा करने से आप अपने कम्युनिकेशन चैनल को हमेशा खुला रखेंगे अथार्त आप और आपके बच्चे में बातचीत का सिलसिला चालू रहेगा। एक दिन ईमानदारी की जीत होगी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आप अपने बच्चे को स्वीकार करेंगे। 

उस समय आपका बच्चा साथियों के दबाव के आधार पर स्वीकृति पर निर्भर नहीं रहेगा। जिंदगी के इस सफर में जरूरी नहीं कि आपका बच्चा हमेशा आपकी बात माने। आज वह 15 वर्ष का हो सकता है। जल्द ही वह 20 या 30 वर्ष का हो जाएगा। उसे अपने जीवन में कई निर्णय लेने होंगे। 

यह जरूरी नहीं है कि वह हमेशा आपकी बात माने। उसके अपने कर्म और संस्कार अब सक्रिय हो गए हैं। अक्सर आप देख सकते हैं कि वह जो कर रहा है वह सही नहीं है। लेकिन वह आत्मा अक्सर आपकी सलाह नहीं सुनेगी। क्योंकि वह अपने कर्मों, संस्कारों और भाग्य के दास हैं।

कभी-कभी जब बच्चे मौखिक रूप से यानी हमारे बोलने से हमारी बात नहीं मानते हैं तो उन्हें अपने दिमाग से कंपन भेजें (सन्देश भेजे )। सब कुछ मौखिक रूप से नहीं किया जा सकता है। इसलिए यदि माता-पिता प्रतिदिन आध्यात्मिक अध्ययन और ध्यान में संलग्न हों। 

वे उस विधि को सीखेंगे जिसमें आप सुबह ध्यान के दौरान मौन में बैठ सकते हैं और अपने सभी संदेशों को कंपन के माध्यम से अपने बच्चों को भेज सकते हैं और उन्हें सही कर्म करने की शक्ति भेज सकते हैं।  मौखिक रूप से बोलने से सब कुछ नहीं हो सकता। इसलिए हम अपने बच्चे के भाग्य को नियंत्रित नहीं कर सकते। 

आपके लगातार समझाने के बाद भी यदि आपका बच्चा कोई ऐसा निर्णय लेता है जो आपको लगता है कि उसके लिए सही नहीं है लेकिन एक बार उसने निर्णय ले लिया और यह कर्म में आ गया तो आपको अपनी मनःस्थिति को बदलने की आवश्यकता होगी। 

अब आप यह नहीं सोच सकते कि मुझे पता है कि उसने निर्णय ले लिया है। मुझे पता है कि उसे इसका पछतावा होगा। मुझे पता है कि इस फैसले से उन्हें नुकसान होगा। मुझे पता है कि यह रिश्ता उसके लिए ठीक नहीं है। ये बहुत, बहुत मजबूत बयान हैं। 

आपके ये बोल ,विचार आपके बच्चे तक पहुंच रहे हैं। आपका बच्चा इस बात,विचार  को अवशोषित कर रहा है। ऐसी स्थिति में क्या करें जहाँ उन्होंने पहले ही फैसला ले लिया है। यदि आप उसे बताना चाहते हैं कि यह निर्णय आपके लिए सही नहीं है तो आप उसके निर्णय लेने से पहले ही सारी बाते कह सकते थे, समझा सकते थे । 

लेकिन एक बार जब आपका बच्चा पहले ही निर्णय ले चुका होता है तो उसके बाद आपको एक पल में अपने विचार बदलने की जरूरत होती है। और अब आपको डर और चिंता से अपने विचारों को बदलने की जरूरत है और अपने विचार को अपने बच्चे के लिए एक आशीर्वाद के रूप में बदलने की जरूरत है। 

ऐसा आशीर्वाद- किआप उनसे कह सकते है कि -बेटा आप पहले ही यह निर्णय ले चुके हैं। कोई बात नहीं ,ईश्वर की शक्तियाँ आपके साथ हैं। हमारा सारा आशीर्वाद आपके साथ है। आप जरूर सफल होओगे। अपने बच्चे को इस तरह आशीर्वाद दें। सिर्फ शब्दों से ही नहीं बल्कि अपने विचारों से भी अपने बच्चे को आशीर्वाद दें। 

भले ही आप एक कठिन कर्म खाते का सामना कर रहे हों।आपके लिए ऐसा करना कठिन हो ,तो भी उसे मन से आशीर्वाद दे। यदि उसने एक ऐसा रिश्ता चुना है जो उसके लिए मुश्किल है, यदि उसने एक ऐसा करियर चुना है जो उसके लिए मुश्किल है तो उसने इसे अपने भाग्य में ले लिया था। लेकिन यह उस अतीत का परिणाम है जो वह अपने साथ लेकर आया है। 

लेकिन अगर अब आप उसे वर्तमान में आशीर्वाद देते हैं तो उसका मतलब है कि यदि आपका हर विचार उसके लिए शुद्ध और शक्तिशाली है ,यदि आप उसके संस्कारों को मजबूत बनाते हैं तो वर्तमान में वह उस कर्म खाते को खूबसूरती से, सम्मानपूर्वक और गरिमापूर्ण तरीके से पार करेगा। 

माता-पिता को हमेशा याद रखना चाहिए आप अपने बच्चे के जीवन को परिपूर्ण नहीं बना सकते। यह उसकी नियति है जिसे वह पहले ही अपने साथ ले चुका है। तुम्हारे गर्भ में प्रवेश करने से पहले ही वह उसे अपने साथ ले गया था। अपने पिछले कर्मों के आधार पर।

अब तुम उसके जीवन को परिपूर्ण नहीं बना सकते। लेकिन आप उसे सिखा सकते हैं कि जीवन की यात्रा में पूरी तरह से कैसे चलना है। आप उसे जीवन के हर दृश्य पर पूरी तरह से प्रतिक्रिया देना सिखा सकते हैं। 

आप उसे हर स्थिति में पूर्ण कर्म करना सिखा सकते हैं। यह ऐसा है, मान लीजिए आप शारीरिक रूप से अपने बच्चे को कहीं ले जा रहे हैं। तुम उस मार्ग को पूर्ण नहीं बना सकते। सड़क जैसी है- वैसी है। हम उस रास्ते को नहीं बदल सकते। 

लेकिन आपके बच्चे को सड़क पर कैसे चलना चाहिए , पत्थरों या मोड़ों के आसपास कैसे जाना है , कहां झुकना है, कहां उठना है, और कहां कूदना है।

आप उसे उस रास्ते पर चलने का तरीका सिखा सकते हैं, आप अपने विचारों से कर सकते हैं, आपके आशीर्वाद आपकी सलाह और सबसे महत्वपूर्ण अपने संस्कारों की शक्ति के माध्यम से आप अपने बच्चे को उसके जीवन की यात्रा पर चलने का तरीका सिखा सकते हैं। 

और उसे सही रास्ते पर चलने की शक्ति दे सकते है - तो पालन-पोषण का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है आपका संस्कार। तो जो संस्कार आप अपने बच्चों में देखना चाहते हैं, संस्कारों की शक्ति जो आप उन्हें देना चाहते हैं , सबसे आसान तरीका है कि उस संस्कार को अपने आप में आत्मसात कर लें। 


हमेशा बच्चे गलत नहीं होते | क्या माता-पिता हमेशा  सही होते है , और बच्चे हमेशा गलत ?
हमेशा बच्चे गलत नहीं होते | क्या माता-पिता हमेशा  सही होते है , और बच्चे हमेशा गलत ?

माता-पिता ध्यान करना शुरू करें , हर रोज आध्यात्मिकता का अध्ययन शुरू करें। जब वे खुद को भगवान के ज्ञान से भरते हैं, जब वे खुद में बदलाव लाते हैं ,जब माता-पिता अपने आप में बदलाव लाते हैं - तो बच्चे में बदलाव खुद ही आ जाएगा। 

यह हर माता-पिता का अनुभव है की जब हमने अपने अंदर में बदलाव लाया  तो हमारे बच्चों में खुद से एक बदलाव आया था। चाहे वो बच्चे किसी भी उम्र के क्यों न हों। माता-पिता में बदलाव से ही बच्चे में बदलाव आता है। इसलिए माता-पिता की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि उनका बदलाव हमेशा सही दिशा में हो। 

इसलिए यदि माता-पिता घर पर प्रतिदिन ध्यान करते हैं ,यदि वे सात्विक भोजन बनाते हैं।तो बच्चे में बदलाव अवश्य ही आएगा। आपको अपने बच्चे को एक स्वस्थ आहार देने की आवश्यकता है। 

कौन सा स्वस्थ आहार ? आध्यात्म का आहार ,ये वो आहार जिसमें केवल प्रोटीन शामिल नहीं है बल्कि आहार में कंपन भी शामिल है। आप ही बताइये -क्या क्रूरता के स्पंदनों वाला आहार आपके बच्चे के लिए अच्छा है? जहां दर्द, हिंसा, भय, पीड़ा थी। 

क्रूरता और मृत्यु का वह भोजन आपके बच्चे के लिए सही है? अपने बच्चों को ऐसा भोजन दें जिसमें प्रेम, आशीर्वाद, शांति और शक्ति के स्पंदन हों। जब माता-पिता आध्यात्मिक जीवन शैली अपनाते हैं तो इसका सीधा प्रभाव बच्चे पर पड़ता है। और बच्चे के संस्कारों में परिवर्तन होने लगता है। 

यह जरूरी नहीं है कि बच्चा तुरंत अध्यात्म या ध्यान को अपना ले। जब माता-पिता घर पर प्रतिदिन ध्यान करते हैं तो ध्यान के स्पंदन उनके बच्चों को सशक्त बनाते हैं। अगर आपके बच्चे पढ़ रहे हैं तो घर में शक्ति के स्पंदन की जरूरत है। 

यदि माता-पिता नियमित रूप से ध्यान करते हैं तो बच्चों के प्रदर्शन में काफी सुधार होता है। क्योंकि बच्चों की आंतरिक शक्ति बढ़ती है। पहले माता-पिता चिंता करते थे इससे बच्चे का प्रदर्शन प्रभावित होगा। अब माता-पिता आंतरिक रूप से शक्तिशाली रहते हैं। 

बच्चों का प्रदर्शन सकारात्मक रूप से प्रभावित होता है इसलिए प्रत्येक माता-पिता को, अपने लिए और अपने बच्चों के लिए आध्यात्मिक अध्ययन और ध्यान को अपनी जीवन शैली का हिस्सा बनाने की आवश्यकता है। 

यह आपके पालन-पोषण का एक हिस्सा है। ये मत कहो - मेरे पास ध्यान के लिए समय नहीं है क्योंकि मुझे बच्चों की देखभाल करने की आवश्यकता है। अपने बच्चों को अच्छी तरह से पोषित करने के लिए आपको केवल ध्यान करने की आवश्यकता है। 

क्योंकि यह केवल आपके बच्चे के शरीर का पोषण करने के बारे में नहीं है। बल्कि सबसे पहले आत्मा को संस्कारित करने की आवश्यकता है। संस्कारों को पहले पोषित करने की आवश्यकता है। तो पहले आत्मा का पोषण करने के लिए और फिर अपने बच्चे के शरीर की देखभाल करने के लिए।

प्रत्येक माता-पिता को प्रतिदिन कम से कम एक घंटा आध्यात्मिक अध्ययन और ध्यान में लगाना चाहिए। घर का वातावरण बहुत ही शुद्ध और दिव्य हो जाता है। और घर में हर कोई जो कुछ भी सुनता है, पढ़ता है, देखता है, खाता है और पीता है यदि वह सब शुद्ध है तो वह घर स्वर्ग बन जाता है। 

और जब हमारा घर स्वर्ग बन जाता है तो उस घर में बड़े होने वाले बच्चे इस दुनिया के फरिश्ते बन जाते हैं। आपकी जिम्मेदारी सिर्फ अपने बच्चे की परवरिश करना नहीं है। आपको इस दुनिया के लिए देवदूतों या सतयुगी, दिव्य आत्माओं को तैयार करने की जरूरत है। 

तो भगवान द्वारा पोषित हो और पहले अपने मन की स्थिति को सतयुगी या दिव्य बनाओ। और अपने मन की स्थिति और संस्कारों का उपयोग करके अपने बच्चों को देवदूत और सतयुगी, दिव्य आत्मा बनाएं। 

आशा करते है आपको ये पोस्ट अच्छी लगी होगी।इस पोस्ट को पढ़ कर यदि आपके मन में कोई प्रश्न उठता हो तो आप उसे कमेंट बॉक्स में पूछ सकते है। इसी के साथ हम आपसे विदा लेते है और भोलेनाथ से आपके जीवन की मंगलकामना करते है की वो आपको हमेशा खुश रखे।

धन्यवाद

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