हर -हर महादेव!प्रिय पाठकों
भगवान् शिव आप सभी का कल्याण करें।
प्रिय पाठकों !आज हम आपको महाभारत काल की एक ऐसी घटना के बारें में बताने जा रहे है ,जो की बहुत ही अद्भुत है। इससे पहले की हम कथा को जाने स्वागत है आपका एक बार फिर से विश्वज्ञान में।
इस पोस्ट में आप पाएंगे -
कार्तिक मास में वन गमन
मृत यौद्धाओ का जीवित होना
दोस्तों !महाभारत काल में जितने भी लोग थे। उन सभी की अपनी एक अलग भूमिका थी। जितने भी यौद्धा महाभारत थे।आप सभी उनके बारे में बखूबी जानते है जैसे कि - वे कौन -कौन लोग थे ,कैसे थे ,उनकी भूमिकाएं क्या थी यहां तक की उनकी मृत्यु किस प्रकार हुई।
पर क्या आप उस वक़्त को जानते है जब एक रात के लिए महाभारत में मरे हुए यौद्धा दोबारा जीवित हुए। जानते है तो अच्छी बात है ,यदि नहीं तो आज इस पोस्ट में हम इसी बारे में चर्चा करेंगे। पढ़ेंगे की क्या हुआ जब एक रात के लिए मरे योद्धा पुनः जीवित हो उठे।
दोस्तों !महाभारत के भीष्म पितामह ,द्रोणाचार्य और बाकी के सभी अन्य यौद्धा मरने के बाद एक रात के लिए दुबारा जीवित हो उठे। ये विचार करने योग्य बात है की ऐसा कैसा हो सकता है ,की योद्धा पुनः जीवित हो उठे। ये नियति के विरुद्ध था। पर ये हुआ। ये सच है। जिन लोगो ने इस घटना को देखा वो तो कहते थे की इन लोगो पर ईश्वर की कोई विशेष कृपा होगी। उस काल के लोगो की अपनी अलग - अलग धारणायें थी।
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प्रिय पाठको यह धटना महाभारत के युद्ध के समाप्त होने के ठीक 15 वर्ष बाद की है। ये तो सभी जानते है की युद्ध समाप्त होने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर का राजयभिषेक किया। युधिष्ठिर हस्तिनापुर के राजा बने। युद्ध के बाद धृतराष्ट्र और गांधारी पांडवों के साथ ही रहने लगे। युधिष्ठिर उनका अपने माता -पिता की तरह ही सम्मान करते थे। कभी भी उनलोगो के साथ बुरा व्यवहार नहीं करते थे। न कभी कड़वे वचन ही बोलते थे।
वे जब भी कोई कार्य करते तो अपनी माँ कुंती के साथ -साथ धृतराष्ट्र और गांधारी का आशीर्वाद लेकर ही कार्य करते। कभी कोई भेद -भाव नहीं करते थे। कुंती के बाकी पुत्र नकुल ,सहदेव ,अर्जुन और पुत्रवधु (द्रौपदी )भी युधिष्ठिर की तरह ही आचरण करते। वे भी कभी उन लोगो के साथ बुरा आचरण व भेद-भाव नहीं करते थे। बल्कि हरपल उनकी सेवा में लगे रहते थे। परन्तु भीम द्वेष के कारण धृतराष्ट्र और गांधारी से आहात पहुंचाने वाली बात किया करते थे।
यद्यपि युधिष्ठिर उन्हें हर रोज समझाया करते थे परन्तु भीम नहीं मानते थे। एकबार तो भीम ने धृतराष्ट्र और गांधारी को बहुत ही कड़वे ,असहनीय वचन बोल दिए। जिस कारण वे दोनों बहुत ही दुखी हुए। उनका मन बहुत दुखी हुआ। धृतराष्ट्र और गांधारी को पांडवों के अधीन रहते -रहते 15 वर्ष बीत गए। अब उनकी अवस्था पहले जैसी नहीं थी। वे बूढ़े हो चले थे। सो उन्होंने सोचा की अब हमे वन में निवास करना चाहिए।
जब उनके वन जाने की बात विदुर और संजय ने सुनी तो उन दोनों ने भी वन जाने का फैसला किया। ये बात जब युधिष्ठिर ने सुनी तो उन्हें बहुत दुःख हुआ। उन्होंने उन लोगों को रोकने का बहुत प्रयास किया। परन्तु वे लोग नहीं माने। महर्षि व्यास के समझाने पर आखिरकार युधिष्ठिर को मानना ही पड़ा। ये बात सुनकर कुंती ने भी सोचा की उन्हें भी अब वन गमन करना चाहिए और वहाँ जाकर उन्हें भगवान् का भजन करना चाहिए।
युधिष्ठिर ने उन्हें भी बहुत समझने की कोशिश की परन्तु वे नहीं मानी। उन्होंने कहा बेटा !यही उचित समय है। वन जाकर हम भजन ,ध्यान आदि सके। इस तरह सभी लोग वन को चले गए। कार्तिक मास में उन्होंने वन प्रस्थान किया। दोस्तों!कार्तिक मास में उन्होंने वन प्रस्थान करने का फैसला किया।
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क्यों किया कार्तिक मास में ही वन गमन
दोस्तों!कार्तिक मास में उन्होंने वन प्रस्थान करने का फैसला किया। क्योकि हमारे हिन्दू सनातन धर्म में कार्तिक मास यानी महीने को बहुत ही शुभ और महत्वपूर्ण माना जाता है। इस महीने को शारीरिक एवं आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त करने के लिए सबसे अच्छा माना गया है। इसके अलावा कार्तिक मास की पूर्णिमा का एक अपना अलग ही महत्व है।
इस दिन भगवान् विष्णु ने धर्म और वेदों की रक्षा करने मतस्य रूप धारण किया। इसी कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन भगवान् शिव ने त्रिपुरासुर नामक राक्षस का वध किया जिससे खुश होकर सभी देवगणों ने भगवान् शिव को त्रिपुरारी नाम दिया। इसी प्रकार अन्य कई और भी घटनाएं घटी जिसके कारण कार्तिक की पूर्णिमा को विशेष माना जाता है।
वन जाने से पहले धृतराष्ट्र ने अपने पुत्रों व अन्य जनों के श्राद्ध के लिए धन माँगा। जोकि भीम को अच्छा नहीं लगा। और उसने धन देने से मन कर दिया। उनके इस व्यहार से युधिष्ठिर को बहुत क्रोध आया। उन्होंने इस गलती के लिए भीम को बहुत डांटा। युधिष्ठिर ने पिता सामान धृतराष्ट्र को बहुत सारा धन देकर ख़ुशी -खशी विदा किया। विदा होने के बाद उन सभी ने एक रात गंगा तट बिताई और अगले कुरुक्षेत्र पहुंचे।
कुरुक्षेत्र पहुंच कर वे वेदव्यास जी से मिले और उनसे वनवास की दीक्षा प्राप्त की। दीक्षा ग्रहण करने के बाद वे लोग वन में रहकर भगवत प्राप्ति की और अग्रसर हो गए। वे सभी लोग मोह को त्याग कर तपस्या करने लगे। वन में रहते उन्हें एक वर्ष बीत गया। एक वर्ष बाद युधिष्ठिर के मन में अपने परिजनों से मिलने की इच्छा उत्पन्न हुई। इच्छा ज्यादा थी की उनसे रहा नहीं गया और वो अपने पुरे परिवार को साथ लेकर वन में अपने परिजनों से मिलने पहुंचे।
उनके साथ हस्तिनापुर के और भी नर -नारी ,बड़े -बूढ़े और जो भी दर्शनों के अभिलाषी थे। वे सभी लोग वन के लिए रवाना हुए। जब धृतराष्ट्र ,गांधारी ,कुंती ,और संजय ने युधिष्ठिर समेत अपने परिजनों को देखा तो उनकी ख़ुशी का कोई ठिकाना न रहा। लेकिन ख़ुशी के साथ साथ अपने परिजनों को वन के कपड़ों में देखकर उन्हें दुःख भी बहुत हुआ। तभी उन्होंने देखा की विदुर तो यहां कहीं दिखाई नहीं दे रहे। उन्होंने पूछा विदुर जी कहाँ है। तब धृतराष्ट्र जी बोले ! वो घोर तपस्या में लगे है।
विदुर जी जब मिलने के लिए आये तो उन्होंने भीड़ देखी। भीड़ देख कर वो वापस जाने लगे। युधिष्ठिर ने उन्हें जाते हुए देख लिया ,तो वे उनका पीछा करने लगे। विदुर जी एक पेड़ के नीचे खड़े थे। युधिष्ठिर जी जब उनके पास पहुंचे तो विदुर जी के प्राण निकल कर युधिष्ठिर में समा गए। ये सब देख युधिष्ठिर को हैरानी हुई। वे समझ ही नहीं पाये की आखिर विदुर जी को हुआ क्या है। थोड़ी देर बाद उन्होंने देखा की ये तो जीवित नहीं है। उन्हें मृत देखकर उन्होंने उनके अंतिम संस्कार के बारे में सोचा।
तभी आकाशवाणी हुई की विदुर जी बहुत बड़े सन्यासी थे ,इसलिए उनका दाह संस्कार करना उचित नहीं है।उन्होंने ये सब जाकर धृतराष्ट्र आदि सभी मौजूद लोगों को बताई।अगले दिन आश्रम में महर्षि वेदव्यास जी आये।तो उन्हें विदुर जी के बारे में बताया गया। तब महर्षि बोले की विदुर जी यमराज के अवतार थे। और युधिष्ठिर भी धर्मराज का अंश है। इसलिए विदुर जी के प्राण युधिष्ठिर के अंदर समां गए।उसके बाद महर्षि बोले की जिसकी जो इच्छा हो वो मांग सकते हो।
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मृत यौद्धाओ का जीवित होना
वेदव्यास जी बहुत बड़े तपस्वी थे। वे अपने तप के प्रभाव से कुछ भी प्रदान कर सकते थे। तब धृतराष्ट्र और गांधारी ने कहा की वो एक बार अपने मृत पुत्रों को देखना चाहते है। कुंती ने कहा वो कर्ण को देखना चाहती है और द्रोपदी और बाकी अन्य लोगों ने भी अपने परिजनों को देखने की इच्छा जताई। महर्षि वेदव्यास जी ने सभी की इच्छा पूरी करने का आस्वासन देते हुए कहा की आज रात सभी को गंगा तट पर उनके परिजन दिखाई देंगे।
उसी रात सभी लोग गंगा तट पर इकट्ठे हुए। महर्षि वेदव्यास जी ने गंगा में सभी मृत योद्धाओं का आवाहन किया। थोड़ी ही देर में वहां भीष्म पितामह ,द्रोणाचार्य ,शकुनि ,कर्ण ,शिखंडी ,राजा द्रुपद ,अभिमन्यु ,द्रोपदी के पांचो पुत्र ,दुर्योधन ,दुशासन समेत सभी यौद्धा आदि जिसके भी जो परिजन थे ,वे सब वहां प्रकट हुए। किसी के भी मन में कोई क्रोध ,शत्रुता और द्वेष का भाव नहीं था।
महर्षि वेदव्यास जी ने धृतराष्ट्र को दिव्य नेत्र प्रदान किये। जिससे वो अपने पुत्रों को देख सके। ये रात्रि बहुत ही अद्भुत थी। सभी लोगों का मन अपने-अपने परिजनों देखकर बड़ा ही खुश हुआ। सबने जी भर कर बातें की , कोई भी उस रात नहीं सोया। अगली सुबह सभी यौद्धा वापस चले गए।
प्रिय पाठकों !आशा करते है आपको आज की जानकारी अच्छी लगी होगी। इसी के साथ भोलेनाथ से आपके जीवन की मंगल कामना करते हुए आपसे विदा लेते है। विश्वज्ञान में अगली पोस्ट के साथ फिर मुलाकात होगी।
धन्यवाद।