किस कारण नारद जी विश्व मोहिनी पर मोहित हुए /कहानी -नारद जी का अहंकार (रामायण कथा के अनुसार)

श्री गणेशाय नमः 

 हर हर महादेव 

प्रिये पाठको --भोले नाथ की कृपा दृष्टि आप सभी को प्राप्त हो। 

नारद जी भगवान थे।और श्री हरी के भक्त थे।  इसलिए उन्हें अभिमान से तुरंत मुक्ति मिल गयी।पर हम सब कलियुग के इंसान है।सबके मन में छल ,कपट ,झूठ चाहे थोड़ा हो या ज्यादा  भरा पड़ा है। इसलिए प्रभु हमारी तुरंत सुने ,ये सम्भव नहीं। पर असंभव भी नहीं। सब कुछ कर्मो पर ही आधारित है।इसलिए  मनुष्य को अपने कर्म और आत्मा शुद्ध रखनी चाहिए। हमारे मन में यह अहंकार न पैदा हो इसके लिए सदैव श्री हरी का स्मरण करते रहे। 


इस पोस्ट में आप पाएंगे 

अहंकार विनाश की जड़ 

कहानी -नारद जी का अहंकार 


अहंकार विनाश की जड़

मित्रो ;-मान अभिमान और व्यवहार। ये तीनो आचरण प्रत्येक व्यक्ति में होते है और इनसे ही हमारे व्यक्तित्व की पहचान होती है। अथार्त हमारे व्यवहारों से ही हमारी पहचान है। अगर मनुष्य के कर्म अच्छे है ,तो उसकी तारीफ होती है। यदि मनुष्य के कर्म बुरे  है, तो उसकी बुराई होती है। ठीक इसी प्रकार यदि मनुष्य को अपने कर्मो पर अभिमान हो जाए तो उसकी दशा बहुत बुरी होती है जैसे --यदि किसी मनुष्य ने किसी भूखे को खाना खिलाया ,निर्धन को धन ,कपड़े आदि दिए ---और फिर अन्य व्यक्तियों से बार बार ये कहे की,- मैंने उसे कपड़े दिए ,पैसा दिया ,मैं तो हर साल भंडारा करवाता हूँ। आदि बाते। 

Read more- कौन है काकभुशुण्डि जी ?/काकभुशुण्डि जी को राम भक्ति कैसे प्राप्त हुई ?

ऐसा नहीं करना चाहिए। क्योकि ऐसा करने से मनुष्य द्वारा किये गए पुण्य में से अभिमान की बूं (गंद ,बदबू )आने लगती है।ऐसे कर्म का कोई फल नहीं मिलता। इसलिए चाहे कोई भी व्यक्ति हो यदि वो कोई भी पुण्य का कार्य करे तो -उसका कभी बखान न करे। क्योकि की मनुष्य द्वारा किय गए पुण्य किसी भी व्यक्ति से छुपाये नहीं छुपते। वो हर किसी की ज़ुबान पर अपने आप ही आ जाते है --की फले आदमी ने आज उसको खाना खिलाया ,कि कपड़े दिए ,धन दिया आदि।ये एक खुशबु की तरह होते है जो जगत में चारो तरफ फैल जाते है। और एक दिन ये बाते खुद बखुद उसके कानो तक पहुंच जाती है, जिसने उस अच्छे कर्म को किया होता है। इसलिए अपने पर व् किये गए अच्छे कर्मो पर कभी अभिमान नहीं करना चाहिए। आज  इसी अभिमान की एक  सच्ची घटना के बारे में आपको बताते है 


कहानी -नारद जी का अहंकार 

किस कारण नारद जी विश्व मोहिनी पर मोहित हुए /कहानी -नारद जी का अहंकार (रामायण कथा के अनुसार)

हिमालय के पर्वतो पर एक बहुत ही बड़ी पवित्र गुफ़ा थी और उसी के पास हमारी आदरणीय सुंदर ,पवित्र माँ गंगा बह रही थी। उसी के पास ही एक परम पवित्र आश्रम था।एक बार रास्ते में जाते हुए नारद मुनि जी को वह आश्रम दिखा। उस आश्रम व् स्थान को देख कर उनका मन मोहित हो गया। और उनके मन में लष्मीपति भगवान श्री विष्णु के  प्रति प्रेम उमड़ आया। और उन्होंने वही बैठ कर भगवान को याद किया। (चूँकि नारद मुनि को दक्ष प्रजापति ने  शाप दिया था - की वे कभी भी किसी एक स्थान पर नहीं ठहर सकते ) लेकिन भगवान् का स्मरण करते ही मुनिजी की गति रुक गई और मन के निर्मल ,निःस्वार्थ होनेसे उनकी समाधि लग गई अथार्त वे प्रभु की आराधना में लग गए। 


देवराज इंद्र ने जब नारद जी को इस तरह तपस्या करते देखा तो उनके मन में भय उत्पन्न हुआ की नारद मुनि इस तपस्या से उनका राज्य छीनना चाहते है। इसलिए इंद्र ने कामदेव को बुलाया और उनका बहुत आदर सत्कार किया। फिर उनसे कहा की तुम नारद मुनि  की तपस्या भंग कर दो।कामदेव प्रसन्न हो कर व अपने साथियो को लेकर वहां चल पड़े जहाँ मुनि तपस्या कर रहे थे। जब कामदेव उस आश्रम में पहुंचे तो उन्होंनेअपनी माया से उस स्थान को बहुत सुन्दर  बना दिया जैसे की बसंत ऋतु आ गई हो। चारो तरफ हरियाली ही हरियाली ,सुंदरता ही सुंदरता थी, पेड़ पौधे सब हरे भरे हो गए व उन पर तरह तरह के रंग बिरंगे फूल खिल गए। और उन वृक्षों पर कोयलें ,तरह तरह के पक्षी बैठ कर कूकने ,चहकने लगे। भौरें गुंजार करने लगे। 

किस कारण नारद जी विश्व मोहिनी पर मोहित हुए /कहानी -नारद जी का अहंकार (रामायण कथा के अनुसार)

Read more-क्रोध क्या है?/क्रोध से बचने का उपाय क्या है? /krodh kya hain

कामाग्नि को भड़काने वाली तीनो प्रकार की सुहावनी हवा जो शीतल ,मंद और सुगन्धित थी --तीव्र गति से बहने लगी। स्वर्ग से आई अप्सराएं वहां विचरने लगी जो सब की सब काम कला में निपुण थी। वे मुनि के इर्द -गिर्द मधुर स्वर से गीत गाने लगी। हाथो मे गेंद ले कर कई प्रकार से खेलने लगी। जब कामदेव ने देखा की मुनि पर कोई असर नहीं हो रहा तो उन्होंने और भी कई तरह के माया जाल रचे।पर मुनि पर कोई माया काम न कर सकी। यह देख कर कामदेव को डर लगा की मुनि जी उन्हें कोई शाप न दे दें - इसलिए उन्होंने नारद मुनि जी के पैर पकड़ कर उनसे क्षमा मांगी।  नारद जी के मन में कोई क्रोध नहीं था इसलिए  उन्होंने उसको माफ कर दिया। फिर मुनि की आज्ञा पाकर वह  कामदेव इंद्र के पास लौट आये और सारा हाल कह सुनाया। 


इन्द्र की सभा में बैठे सभी देवताओ को यह सुन कर बड़ा आशचर्य हुआ। सभी ने नारद मुनि की बड़ाईकी। उसके बाद नारद जी शिव जी के पास गए।उनके मन में  इस बात का बहुत अहंकार हो गया की उन्हें कामदेव की माया नहीं फांस सकी ,उन्होंने कामदेव को जीत लिया (वास्तव में ये सब तो श्री हरी की माया थी। जो नारद जी पर कामदेव की माया का कोई असर नहीं हुआ )नारद जी ने सारी बातें भगवान् शिव से कह सुनाई। भगवान् शिव सब बातें जान चुके थे ,इसलिए उन्होंने नारद जी से कहा की जिस प्रकार  यह कथा तुमने मुझे सुनाई है वैसे श्री हरी को मत बताना। कोई बात भी करे तो भी मत बताना।


भगवान् शिव ने ऐसा उनके हित के लिए कहा -पर नारद जी को यह बात बिलकुल अच्छी नहीं लगी (हरी की इच्छा बहुत बलवान है ,सो उन्होंने जो तमासा किया अब वो सुनो )प्रभु श्री हरी (विष्णु ,श्री राम ,श्री कृष्ण ) जो करना चाहते है ,जैसा चाहते ,वैसा ही होता है। कोई भी मनुष्य उनके विपरीत नहीं चल सकता। भगवान् शिव के मना करने के बाद भी नारद जी ब्रह्मलोक (श्री विष्णु ) की तरफ चल पड़े। वहां पहुंचने पर श्री हरी उनसे बड़े आदर के साथ मिले। सारे जगत के स्वामी ने मुस्कुराते हुए नारद जी से कहा की ---आज आपने बहुत दिनों बाद दर्शन दिए। नारद जी थोड़ा सकुचाते हुए ,ये सोचते हुए की भगवान् शिव ने कामदेव के बारे में बताने के लिए मना किया है फिर भी सारी  बात उन्होंने श्री विष्णु जी को बता दी। 

किस कारण नारद जी विश्व मोहिनी पर मोहित हुए /कहानी -नारद जी का अहंकार (रामायण कथा के अनुसार)

श्री राम जी की माया बड़ी प्रबल है। संसार में ऐसा कोई नहीं जिसे वे मोहित न कर सके। भगवान् ने बड़ी कोमल वाणी से कहा की -----हे मुनीश्वर केवल आपको याद करने से ही दूसरों के मन से काम, मद, मोह और अभिमान मिट जाते है। फिर आपकी तो बात ही अलग है। मोह तो उनके मनमे होता है जिसके मन में ज्ञान ,वैराग्ये नहीं होता। 


आप तो ब्रह्मचर्य के पालन करने वाले और बहुत धीरबुद्धि है फिर क्या आपको कभी कामदेव की माया सता सकती है। नारदजी ने अभिमान के साथ कहा ---प्रभु ,- ये तो आपकी कृपा है। श्री हरी ने जान लिया की नारद जी के  मन में अहंकार का बीज पैदा हो गया है। और इसे तुरंत निकालना बहुत जरूरी है। (अपने भक्तो का  कल्याण करना ही श्री हरी का पहला कर्तव्य है। )ये सोच कर प्रभु ने वही उपाय किया जिससे मुनिका कल्याण हो। 

Read more मनुष्यों को पिछले जन्म का कुछ भी याद क्यों नहीं रहता / PICHLA JANAM YAAD KYON NHI REHTA

तब श्री हरी ने एक माया रची।  श्री हरी ने रास्ते  में 400 कोस का नगर बनाया।  वह नगर बैकुंठ नगर से भी सुंदर था।  उस नगर में उन्होंने  बहुत सुंदर नर-नारी बसा दिए । जैसे की बहुत सारे कामदेव और रति ही मनुष्य  रूप धारण करके आये हो।  उस नगर में शील निधि नाम का एक राजा रहता था।  उसका वैभव और विलास सो इन्द्रियों के सामान था। वह बहुत बुद्धिमान और बलवान था।  उसकी एक पुत्री थी जिसका नाम विश्व मोहिनी था। वह इतनी सूंदर थी।  की लक्ष्मी जी भी देखकर उसे मोहित हो जाए।  उसकी  सुंदरता का क्या वर्णण किया जाए जिसे खुद भगवान् ने अपनी माया से बनाया हो।  

नारदजी का विश्व मोहिनी पर मोहित होना

राजा ने राजकुमारी के स्वयंवर की घोषणा कर रखी थी। जिस कारण वहाँ उस स्वयंबर के लिए बहुत से राजा आये हुए थे।  नारद जी भी जब उस माया नगरी में पहुंचे तो उन्होंने नगर वासियो से सारा हाल पुछा।नगर वासियो से  सारी बातें सुनकर नारद जी राजा के पास पहुंचे। नारद जी को देख कर राजा ने उनका खूब आदर सत्कार किया और फिर आसन पर बैठाया। राजा ने राजकुमारी को नारद जी से आशीर्वाद लेने के लिए बुलाया। राजकुमारी की सुंदरता को देख कर नारद जी मोहित हो गए। और वैराग्य भुला कर उनके मन में उससे विवाह करने का ख्याल  आया। 

किस कारण नारद जी विश्व मोहिनी पर मोहित हुए /कहानी -नारद जी का अहंकार (रामायण कथा के अनुसार)

सो उस वक्त तो नारद जी  वहाँ  से चले गए और चलते -चलते विचार करने लगे की ऐसे तो मेरा विवाह राजकुमारी से हो नहीं सकता। भला कोई मुनि से विवाह करना क्यों चाहेगा।इस समय तो मुझे बहुत दिव्य व सुन्दर रूप की जरूरत है। जिससे वो कन्या सिर्फ मुझसे ही शादी करे। अब तो श्री हरी ही कुछ कर सकते है। पर वहाँ तक पहुंचने में तो बहुत देर लगेगी। पर उनके बिना काम बनेगा भी नहीं। इसलिए उन्होंने प्रभु को उसी स्थान पर याद किया। उनकी पुकार सुन कर प्रभु वही प्रकट हो गए।


प्रभु को देख कर नारद मुनि जी को बड़ी प्रसन्नता हुई और मन में बड़े खुश हुए की अब चिंता की कोई बात नहीं ,,अब सब काम हो जाएगा। नारद जी ने सारी बात प्रभु को बताई और प्रार्थना की कि ---हे दीन बन्धु ;हे कृपालु ;सबकी इच्छा पूरी करने वाले प्रभु ,,,मेरी इच्छा पूरी कीजिये -मुझे अपना रूप दे दीजिये जिससे में उस कन्या से विवाह कर सकूँ। मैं आपका दास हूँ। शीघ्र मेरे हित  के लिए कुछ कीजिये। प्रभु ने मुनि को माया के वश हुआ देख प्रसन्न हो कर कहा की हम वही करेंगे जिसमे तुम्हारा हित हो।हम सत्य कहते है। जिस प्रकार किसी रोग के दर्द से पीड़ित व्यक्ति यदि जहर मांगे तो वैध उसे नहीं देता। ठीक उसी प्रकार मैंने भी तुम्हारा हित करने की ठान ली है। इसलिए आप चिंता न करें। उस के बाद प्रभु वहाँ से चले गए। 

किस कारण नारद जी विश्व मोहिनी पर मोहित हुए /कहानी -नारद जी का अहंकार (रामायण कथा के अनुसार)

राजकन्या के मोह में नारदजी ऐसे वशीभूत हो गए की उन्हें प्रभु की सीधी बात भी समझ में नहीं आई (जबकि नारद जी से बुद्धिमान और ज्ञानी कोई नहीं है। )फिर भी प्रभु के माया जाल में फँस कर वे सब कुछ भूल गए। उन्हें तो बस चारो तरफ वही कन्या दिखाई दे रही थी। उसके बाद नारद जी उस स्वयंवर भूमि में गए, जिसे प्रभु ने अपनी माया से बनाया था। अन्य प्रदेशो के राजा भी वहाँ सज -धज कर आये। उसमे रूप बदल कर दो  गण (लोग ) शिवजी के भी आये हुए थे। मुनि तो मन ही मन बड़े खुश हो रहे थेऔर मन में सोच रहे थे की कोई चाहे कितना भी सज धज कर आये पर राजकन्या तो मुझे ही वरेगी। किसी और को नहीं। 


प्रभु ने नारदजी  के कल्याण के लिए उन्हें बहुत ही कुरूप बना दिया था। इतना कुरूप की पूरे जगत में कोई नहीं था। स्वयंवर में आये किसी भी व्यक्ति को इस राज के बारे में नहीं पता चला। केवल शिवजी के गण ही जानते थे। नारद जी जिस पंक्ति (लाईन )में बैठे थे ,वो दोनों गण भी वहीँ जा कर बैठ गए। और नारद जी को चिढ़ा- चिढ़ा  कहने लगे की कि बनाने वाले ने भी इनको क्या खूब बनाया है। राजकुमारी तो इन्हे देखकर मोहित हो ही जाएँगी। और इनसे ही विवाह करेंगी। ऐसा कह कर दोनों ज़ोर -ज़ोर से हंसने लगे। नारद जी को उनकी बाते बहुत अजीब लग रही थी पर माया के वशीभूत होने के कारण उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था। वो उनकी बातो से खुश हो रहे थे।


राजकन्या जयमाला ले कर सखियों के साथ चल पड़ी। एक एक करके वे सभी राजाओ को देखते हुये आगे बढ़ती चली गई। जिस रूप के अभिमान में नारद जी इतना खुश हो रहे थे। फूले नहीं समां रहे थे। उस बन्दर जैसे रूप को देख कर राजकुमारी अत्यंत क्रोधित हो गई और आग बबूला हो कर ,मुँह झटकाते हुए आगे बढ़ चली। नारद मुनि बार-बार उचकते है , छटपटाते है।  जिससे की राजकुमारी उनको देखे। पर वो देखती नहीं। कहने लगी जाने कैसे कैसे लोग आ जाते है। (नारद जी का बन्दर रूप सिर्फ राजकन्या को ही दिखा उनकी सखियों को नहीं ) नारद जी को बड़ा अचम्भा हुआ की ऐसे कैसे हो सकता है। राजकुमारी को क्रोध क्यों आया।  वो इन सब बातो को समझ पाते उससे पहले शिवजी के दोनों गण हँसने लगे। श्री हरी भी राजा का रूप धरके वहाँ जा पहुंचे। 

किस कारण नारद जी विश्व मोहिनी पर मोहित हुए /कहानी -नारद जी का अहंकार (रामायण कथा के अनुसार)

राजकुमारी ने खुश होकर उनके गले में माला डाल  दी। भगवान श्री हरी राजकुमारी को लेके चले गए।  मोह के कारण नारद जी की बुद्धि नष्ट हो गयी।  राजकुमारी को जाते हुए देखकर वो बहुत बेचैन गए।  जैसे की उनके हाथो से कोई मणि छूटकर गिर गयी हो।  तब शिव जी के गणो ने कहा की पहले जा कर अपना मुँह तो देखो। नारद जी ने जल में अपना मुँह देखा तो उन्हें श्री हरी पर बहुत गुस्सा आया और उन्होंने शिव जी के गणो को शाप  दिया की तुमने मेरा मजाक उड़ाया इसलिए तुम कपटी और पापी राक्षश बन जाओ।  मुनि ने फिर दोबारा अपना चेहरा जल में देखा तो उनका असली रूप वापस आ गया।  फिर भी उन्हें तसल्ली नहीं हुई.और कहने लगे की मैंने प्रभु से रूप माँगा और उन्होंने मुझे कुरूप बना दिया। इसका फल उन्हें भोगना पड़ेगा। 

READ MORE- शिव मानस पूजा

क्रोधित हुए नारद जी बैकुंठ की तरफ चल पड़े। मन में सोचते हुए जा रहे थे।  या तो मैं  उन्हें शाप दूंगा या तो अपने प्राण ही त्याग दूंगा। उन्होंने सारे जगत में मेरा मजाक उड़वाया।  सोच ही रहे थे की उन्हें बीच रास्ते में ही श्री हरी मिल गए।  और उनके साथ लक्ष्मी जी और वही राजकुमारी थी।  भगवान् ने प्यार से कहा की हे मुनि- इतना परेशान होकर कहाँ जा रहे हो।  ये सुनकर नारद जी को और भी ज्यादा क्रोध आया और उन्होंने भगवान् विष्णु से कहा कि तुम ईर्ष्यालु और कपटी हो।  तुम दूसरो की सम्पदा और सुख नहीं देख सकते।


तुमने समुन्द्र मथते समय शिव जी को बावला बना दिया।  और उन्हें जहर पीला दिया। और देवताओ को अमृत दे दिया।  तुम बड़े धोकेबाज़ और मतलबी हो।  तुम आज़ाद हो , सिरपर तो तुम्हारे कोई है नहीं इसलिए जब तुम्हे जो अच्छा लगता है तुम वही करते हो। अच्छे को बुरा और बुरे को भला बना देते हो। , तुम्हारे मन में सुख-दुःख कुछ नहीं है।  अबतक तुमको किसी ने ठीक नहीं किया।  पर इस बार तुमने मुझसे छेड़ खानी की है।  अतः इसका फल तुम्हे जरूर मिलेगा।  जिस शरीर को धारण करके तुमने मुझे ठगा है।  तुम भी वही शरीर धारण करो ( अथार्त जैसे तुमने भगवान् होने के बावजूद मनुष्य रूप धारण किया वैसे ही शरीर तुम धारण करोगे ) यह मेरा शाप  है।  


तुमने मुझे बन्दर का रूप दिया था।  इससे उस जन्म  में बन्दर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। मै  जिस स्त्री को बहुत चाहता था , तुमने मुझको उससे अलग कर दिया। जिससे  मुझे बहुत दुःख हुआ । ठीक इसी तरह  तुम भी स्त्री के वियोग में दुखी रहोगे ( प्रभु श्री राम और सीता माँ के बिछड़ने का कारण यही श्राप था। जिस कारण उन्हें एक दुसरे से अलग होकर दुःख भोगना पड़ा ) नारद जी से बिना कोई शिकायत किये उनके श्राप को सर माथे पर रखकर, मन में खुश होते हुए प्रभु ने नारद जी से विनती की और भगवान ने अपनी माया खीचली।  जब भगवान् ने अपनी माया को हटा लिया तो वहां  ना लक्ष्मीजी ही रही न राजकुमारी।  


यह देखकर मुनि बहुत घबरा गए। नारद जी ने  श्री हरी के पैर पकड़ लिए।  और बोले हे दुःखो को दूर करने वाले,हे कृपालु, मेरी रक्षा कीजिये। मैंने आपको बहुत बुरा भला कहा।  मेरा शाप मिट जाए। आपको न लगे। तब दयालूँ  प्रभु ने कहा-- इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं। यह सब मेरी मर्ज़ी से हुआ है।  अहंकार विनाश की जड़ है । और यह सब आपके मन से अहंकार को दूर करने के लिए किया है। यदि मैं  ऐसा नहीं करता तो ये अभिमान आपके विनाश का कारण बन जाता। थोड़े ही अभिमान ने आपकी बुद्धि ख़राब कर दी ,आप अपने कर्तव्यो को भूल गए। पूरा अभिमान होने पर तो आपका विनाश ही हो जाता। 


 नारद जी ने कहाँ की-- मैं जानता हूँ। की अहंकार विनाश की जड़  है। पर प्रभु मैंने आपको जो अपशब्द कहे उसका मैं क्या करूँ। मेरे पाप कैसे मिटेंगे। तब श्री हरी ने कहाँ की ---तुम जाकर शिवजी के शतनाम का जाप करो ,,,,तुम्हारे मन को शांति मिलेगी। शिवजी मुझे बहुत प्रिये है। शिवजी जिस पर कृपा नहीं करते उसे मेरी भक्ति भी नहीं मिलती।इसलिए  मन में  विश्वास रखते हुए जाओ और पृथ्वी पर घूमो। अब मेरी माया तुम्हे नहीं सताएगी। ये कह कर श्री भगवान चले गए। 


प्रिय पाठकों ! हम सभी जानते है कि अहंकार विनाश की जड़ है। इसलिए हमारा आप सभी से अनुरोध है की -आप भी कभी जीवन में अहंकार को अपने मन में मत आने देना। नारद जी भगवान थे।और श्री हरी के भक्त थे।  इसलिए उन्हें अभिमान से तुरंत मुक्ति मिल गयी।पर हम सब कलियुग के इंसान है।सबके मन में छल ,कपट ,झूठ चाहे थोड़ा हो या ज्यादा  भरा पड़ा है। इसलिए प्रभु हमारी तुरंत सुने ,ये सम्भव नहीं। पर असंभव भी नहीं। सब कुछ कर्मो पर ही आधारित है।इसलिए  मनुष्य को अपने कर्म और आत्मा शुद्ध रखनी चाहिए। हमारे मन में यह अहंकार न पैदा हो इसके लिए सदैव श्री हरी का स्मरण करते रहे। 

इसी के साथ विदा लेते है।विश्वज्ञान में अगली पोस्ट के साथ फिर मुलाकात होगी।तब तक के लिए हर-हर महादेव।भोलेनाथ आप पर कृपा बनाये रखे।

 धन्यवाद।

Previous Post Next Post