मृत्यु से भय कैसा ?

 

श्री गणेशाय नम

मृत्यु से भय कैसा ?

मृत्यु से भय कैसा ?

राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण सुनातें हुए जब शुकदेव जी महाराज को छह दिन बीत गए और तक्षक (सर्प) के काटने से मृत्यु होने का एक दिन शेष रह गया, तब भी राजा परीक्षित का शोक और मृत्यु का भय दूर नहीं हुआ। अपने मरने की घड़ी निकट आता देखकर राजा का मन क्षुब्ध हो रहा था।

तब शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को एक कथा सुनानी आरंभ की।  

राजन! बहुत समय पहले की बात है, एक राजा जंगल में शिकार खेलने गया, संयोगवश वह रास्ता भूलकर घने जंगल में जा पहुँचा। उसे रास्ता ढूंढते-ढूंढते रात हो गई और बारिश होने लगी। राजा बहुत डर गया और किसी प्रकार उस भयानक जंगल में रात बिताने के लिए ठहरने का स्थान ढूंढने लगा।

कुछ दूर चलने पर उसे एक दीपक जलता हुआ दिखाई दिया। वहाँ पहुँचने पर उसे एक झोंपड़ी दिखाई दी। वह झोंपड़ी एक बहेलिया की थी।जो कि ज्यादा चल-फिर नहीं सकता था, इसलिए झोंपड़ी में ही रहता था। उसने अपने मल-मूत्र त्यागने का स्थान भी वहीं एक कोने मे बना रखा था। अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था।

वह झोंपड़ी बहुत ही गंदी और छोटी थी।उसमे बहुत ही अंधेरा था और झोंपड़ी बदबू से भरी पड़ी थी। उस झोंपड़ी को देखकर पहले तो राजा धबराया लेकिन जब रात को ठहरने के लिए उसे कोई और स्थान नही मिला तो उसने बहेलिये से अपनी झोंपड़ी में रात भर ठहर देने के लिए प्रार्थना की।

बहेलिये ने चिल्लाते हुए कहा कि यहाँ सभी राहगीर ऐसे ही कभी - कभी भटकते हुए आ जाते हैं और ठहरने के लिए कहते है। मैं उन्हें ठहरा तो लेता हूँ, लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे बहुत ही झंझट करते हैं।

उन्हें इस झोंपड़ी की बदबू ऐसी भा जाती है कि वे फिर उसे छोड़ना ही नहीं चाहते और इसी में ही रहने की कोशिश करते हैं और अपना कब्जा जमाते हैं। ऐसे झंझटों में ,मैं कई बार पड़ चुका हूँ, इसलिए मैं अब किसी को भी यहां रुकने के लिए स्थान नही देता। मैं आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूंगा।

राजा ने प्रतिज्ञा की, वादा किया कि वह सुबह होते ही इस झोंपड़ी को जरुर खाली कर देगा। यहाँ तो वह संयोगवश भटकते हुए आया है, उसे तो सिर्फ एक रात गुजारनी है।

तब जाकर उस बहेलिये ने राजा को वहाँ ठहरने की अनुमति दे दी और  राजा से कहा कि सुबह होते ही बिना कोई झंझट किए झोंपड़ी खाली कर देना । राजा ने कहा-ठीक है और राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा।

सोते समय झोंपड़ी की बदबू राजा के मस्तिष्क(दिमाग) में ऐसी बस गई कि सुबह जब उठा तो वही झोंपड़ी उसे सबसे परम प्रिय लगने लगी। राजा अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर वहीं रहने के बारे मे सोचने लगा। और बहेलिये से वहीं ठहरने की प्रार्थना करने लगा।

इस पर बहेलिया भड़क गया। वह चिल्लाने लगा और राजा को भला-बुरा कहने लगा। राजा को अब वह जगह छोड़ने मे बहुत ही कष्ट होने लगा और उन दोनों के बीच उस स्थान को लेकर बड़ा विवाद खड़ा हो गया।

कहानी सुनाने के बाद शुकदेव जी महाराज ने "परीक्षित" से पूछा, "परीक्षित" बताओ, उस राजा का उस स्थान पर सदा के लिए रहने की जिद करना सही था?

राजा परीक्षित ने उत्तर दिया, हे गुरुदेव!-आखिर वह राजा कौन था, उसका नाम तो बताइये? मुझे तो वह कोई मूर्ख जान पड़ता है, जो एक ऐसी गंदी झोंपड़ी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर एवं अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर, नियत अवधि से भी अधिक वहाँ रहना चाहता है। उसकी मूर्खता पर तो मुझे हैरानी हो रही है।

श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा, हे राजा परीक्षित! वह बड़े भारी मूर्ख तो स्वयं आप ही हैं।

इस मल-मूत्र की गठरी यानी आपकी "देह(शरीर)" में जितने समय आपकी आत्मा को रहना आवश्यक था, वह उतना समय बिता चुकिं है। वह अवधि तो कल समाप्त हो रही है। अब आपको उस लोक जाना है, जहाँ से आप आएं हैं। फिर भी आप मरना नहीं चाहते।क्या यह आपकी मूर्खता नहीं है ?"

राजा परीक्षित का ज्ञान जाग गया और वे बंधन मुक्ति (मरने )के लिए सहर्ष तैयार हो गए। मृत्यु पर से उनका भय (डर) हमेशा-हमेशा के लिए दूर हो गया।

प्रिय पाठकों-"वस्तुतः यही सत्य है।"

*जब एक जीव (बालक) अपनी माँ की कोख से जन्म लेता है तो अपनी माँ की कोख के अन्दर भगवान से प्रार्थना करता है कि, हे भगवन् ! मुझे यहाँ (इस कोख) से मुक्त कीजिए, मुझे यहाँ से  निकालिये।मैं आपका भजन-सुमिरन करूँगा। और जब वह जन्म लेकर इस संसार में आता है तो (उस राजा की तरह हैरान होकर) सोचने लगता है कि मैं ये कहाँ आ गया (और पैदा होते ही रोने लगता है) फिर धीरे धीरे उसे उस गंध भरी झोंपड़ी की तरह यहाँ की खुशबू ऐसी भा जाती है कि वह अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर यहाँ से जाना ही नहीं चाहता है।

प्रिय पाठकों!आशा करते हैं कि आपको कहानी अच्छी लगी होगी।इसी के साथ विदा लेते है।विश्वज्ञान मे अगली पोस्ट के साथ फिर मुलाकात होगी।

धन्यवाद।


सदैव प्रसन्न रहिये।

*जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।*



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