श्रीमृत्युञ्जयस्तोत्रम् /भगवान् चंद्रशेखर (चंद्राष्टकम स्तोत्र)

 श्रीमृत्युञ्जयस्तोत्रम्


स्तोत्र के रचनाकार श्री मार्कण्डेय जी 

संशिप्त जानकारी  मार्कण्डेय जी 


 महर्षि मृकण्डु को जब  संतान प्राप्ति नहीं हुई तब उन्होंने शिव जी की कृपा प्राप्त करने के लिए तपस्या की ऋषि की कठोर तपस्या से शिव जी प्रसन्ना हुए और वर मांगने को कहा।  ऋषि मृकण्डु ने संतान की इच्छा व्यक्त की।  भगवान शिव ने कहा के तुम्हारे भाग्य में पुत्र नहीं है। मगर तुम्हारे तपस्या से खुश होकर में तुम्हारे इच्छा को पूर्ण कर रहा हु। 

तुम्हारे पास दो विकल्प है।  जिनमे से एक का चयन करो। एक ऐसा पुत्र जो ज्ञानी तो होगा मगर मात्र 16 वर्ष की आयु तक जीवित रहेगा। या एक ऐसा पुत्र जो दीर्घायु होगा मगर अल्पज्ञ होगा। 


ज्ञानी ऋषि ने अल्पायु किन्तु ज्ञानवान पुत्र का चयन किया। 


समय गुजरा और ऋषि के घर एक तेजस्वी बालक ने जन्म लिया।  उस बालक का नाम मार्कण्डेय रखा गया। मार्कण्डेय ने अल्पायु में ही सभी प्रकार का ज्ञान अर्जित किया।  वह समय भी समीप आ गया जब वह बालक सोलह वर्ष का हो गया ,अथार्त उसकी आयु पूर्ण हो गयी। 


सुबह से ही उसके पिता के अश्रु रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। की उनका पुत्र उनसे छीन जायेगा। मार्कण्डेय ने जानना चाहा की ऐसा क्यों हो है ? 


जिसके कारण उसके माता पिता व्यथित है। 


भगवान् शिव का साधक मार्कण्डेय सहज भाव से उठा तथा नदी तट पर जाकर पार्थिव शिवलिंग का निर्माण कर अंतिम बार पूजन करने ही जा रहा था। की तभी यमराज का आगमन हुआ। 


उन्होंने अपना यमपाश फेक कर मार्कण्डेय को बाँध लिया। और उसे ले जाने लगे। शिवाराधना पूर्ण  करने की स्वीकृति भी नहीं दी यमराज ने। 


उसी समय मार्कण्डेय ने भगवान  शिव की की वंदना में एक स्तोत्र की रचना की जिसे चंद्राष्टकम के नाम से जाना जाता  है 


जब चंद्रशेखर मेरे साथ है तो यमराज भी मेरा क्या करेगा।


 श्रीमृत्युञ्जयस्तोत्रम् /भगवान् चन्द्रशेखर स्तोत्र 


श्रीमृत्युञ्जयस्तोत्रम् /भगवान् चन्द्रशेखर स्तोत्र



रत्नसानुशरासनं  रजताद्रिशृङ्गनिकेतनं

शिञ्जिनीकृतपन्नगेश्वरमच्युतानलसायकम्।

क्षिप्रदग्धपुरत्रयं    त्रिदशालयैरभिवन्दितं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥१॥


कैलासके शिखरपर जिनका निवासगृह है, जिन्होंने मेरुगिरिका धनुष, नागराज वासुकिकी प्रत्यंचा और भगवान् विष्णुको अग्निमय बाण बनाकर तत्काल ही दैत्योंके तीनों पुरोंको दग्ध कर डाला था, सम्पूर्ण देवता जिनके चरणोंकी वन्दना करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा? ॥१॥


पञ्चपादपपुष्पगन्धिपदाम्बुजद्वयशोभितं

भाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रहम् ।

भस्मदिग्धकलेवरं भवनाशिनं भवमव्ययं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥२॥



मन्दार, पारिजात, संतान, कल्पवृक्ष और हरिचन्दन-इन पाँच दिव्य वृक्षोंके पुष्पोंसे सुगन्धित युगल चरणकमल जिनकी शोभा बढ़ाते हैं, जिन्होंने अपने ललाटवर्ती नेत्रसे प्रकट हुई आगकी ज्वालामें कामदेवके शरीरको भस्म कर डाला था, जिनका श्रीविग्रह सदा भस्मसे विभूषित रहता है, जो भव- सबकी उत्पत्तिके कारण होते हुए भी भव-संसारके नाशक तथा जिनका कभी विनाश नहीं होता, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा?॥२॥


मत्तवारणमुख्यचर्मकृतोत्तरीयमनोहरं

पङ्कजासनपद्मलोचनपूजिताघ्रिसरोरुहम् ।

देवसिद्धतरङ्गिणीकरसिक्तशीतजटाधरं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥३॥


जो मतवाले गजराजके मुख्य चर्मकी चादर ओढ़े परम मनोहर जान पड़ते हैं, ब्रह्मा और विष्णु भी जिनके चरणकमलोंकी पूजा करते हैं तथा जो देवताओं और सिद्धोंकी नदी गंगाकी तरंगोंसे भीगी हुई शीतल जटा धारण करते हैं, उन भगवान चंद्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा? ॥ ३॥


कुण्डलीकृतकुण्डलीश्वरकुण्डलं     वृषवाहनं

नारदादिमुनीश्वरस्तुतवैभवं            भुवनेश्वरम्।

अन्धकान्तकमाश्रितामरपादपं      शमनान्तकं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥४॥


गेडुल मारे हुए सर्पराज जिनके कानोंमें कुण्डलका काम देते हैं, जो वृषभपर सवारी करते हैं, नारद आदि मुनीश्वर जिनके वैभवकी स्तुति करते हैं, जो समस्त भुवनोंके स्वामी, अन्धकासुरका नाश करनेवाले, आश्रितजनोंके लिये कल्पवृक्षके समान और यमराजको भी शान्त करनेवाले हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा?॥ ४॥


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यक्षराजसखं भगाक्षिहरं भुजङ्गविभूषणं

शैलराजसुतापरिष्कृतचारुवामकलेवरम्

क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥५॥


जो यक्षराज कुबेरके सखा, भग देवताकी आँख फोड़नेवाले और सर्पों के आभूषण धारण करनेवाले हैं, जिनके श्रीविग्रहके सुन्दर वामभागको गिरिराजकिशोरी उमा ने सुशोभित कर रखा है, कालकूट विष पीनेके कारण जिनका कण्ठभाग नीले रंगका दिखायी देता है, जो एक हाथमें फरसा और दूसरेमें मृग लिये रहते हैं, उन भगवान चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा? ॥ ५॥


भेषजं     भवरोगिणामखिलापदामपहारिणं

दक्षयज्ञविनाशिनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम्।

भुक्तिमुक्तिफलप्रदं निखिलाघसंघनिबर्हणं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥६॥


जो जन्म-मरणके रोगसे ग्रस्त पुरुषोंके लिये औषधरूप हैं, समस्त आपत्तियोंका निवारण और दक्षयज्ञका विनाश करनेवाले सत्त्व आदि तीनों गुण जिनके स्वरूप हैं, जो तीन नेत्र धारण करते, भोग और मोक्षरूपी फल देते तथा सम्पूर्ण पापराशि का संहार करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा? ॥६॥


भक्तवत्सलमर्चतां   निधिमक्षयं हरिदम्बरं

सर्वभूतपतिं परात्परमप्रमेयमनूपमम्।

भूमिवारिनभोहुताशनसोमपालितस्वाकृति

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥७॥


जो भक्तोंपर दया करनेवाले हैं, अपनी पूजा करनेवाले मनुष्योंके लिये अक्षय निधि होते हुए भी जो स्वयं दिगम्बर रहते हैं, जो सब भूतोंके स्वामी, परात्पर, अप्रमेय और उपमारहित हैं; पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और चन्द्रमाके द्वारा जिनका श्रीविग्रह सुरक्षित है, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा?॥७॥


विश्वसृष्टिविधायिनं    पुनरेव    पालनतत्परं

संहरन्तमथ    प्रपञ्चमशेषलोकनिवासिनम्।

क्रीडयन्तमहर्निशं     गणनाथयूथसमावृतं 

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥ ८ ॥


जो ब्रह्मारूपसे सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि करते, फिर विष्णुरूप से सबके पालन में संलग्न रहते और अन्तमें सारे प्रपंचका संहार करते हैं, सम्पूर्ण लोकोंमें जिनका निवास है तथा जो गणेशजीके पार्षदों से घिरकर दिन-रात भाँति-भाँतिके खेल किया करते उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा? ॥ ८॥


रुद्रं  पशुपतिं   स्थाणुं   नीलकण्ठमुमापतिम्।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥ ९ ॥


'रु' अर्थात् दु:खको दूर करनेके कारण जिन्हें रुद्र कहते हैं, जो जीवरूपी पशुओंका पालन करनेसे पशुपति, स्थिर होनेसे स्थाणु, गलेमें नीला चिह्न धारण करनेसे नीलकण्ठ और भगवती उमाके स्वामी होनेसे उमापति नाम धारण करते हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी?॥९॥


कालकण्ठं कलामूर्ति कालाग्निं कालनाशनम्।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥१०॥


जिनके गलेमें काला दाग है, जो कलामूर्ति, कालाग्निस्वरूप और कालके नाशक हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी? ॥१०॥


नीलकण्ठं    विरूपाक्षं   निर्मलं   निरुपद्रवम्।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥११॥


जिनका कण्ठ नील और नेत्र विकराल होते हुए भी जो अत्यन्त निर्मल और उपद्रवरहित हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी? ॥११॥


वामदेवं   महादेवं   लोकनाथं   जगद्गुरुम्।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥१२॥


जो वामदेव, महादेव, विश्वनाथ और जगद्गुरु नाम धारण करते हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी?॥१२॥


देवदेवं    जगन्नाथम    देवेशमृषभध्वजम्।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥१३॥


जो देवताओंके भी आराध्यदेव, जगत्के स्वामी और देवताओं पर भी शासन करनेवाले हैं, जिनकी ध्वजा पर वृषभका चिह्न बना हुआ है, उन भगवान् शिव को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी?॥१३॥



अनन्तमव्ययं    शान्तमक्षमालाधरं    हरम्।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥१४॥


जो अनन्त, अविकारी, शान्त, रुद्राक्षमालाधारी और सबके दु:खोंका हरण करनेवाले हैं, उन भगवान् शिव को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी? ॥१४॥


आनन्द   परमं   नित्यं  कैवल्यपदकारणम्।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥१५॥


जो परमानन्दस्वरूप, नित्य एवं कैवल्यपद-मोक्षकी प्राप्ति के कारण हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी?॥ १५॥


स्वर्गापवर्गदातारं    सृष्टिस्थित्यन्तकारिणम्।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥१६॥


जो स्वर्ग और मोक्षके दाता तथा सृष्टि, पालन और संहार के कर्ता हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी?॥१६॥


॥ इति श्रीपद्ममहापुराणान्तर्गत उत्तरखण्डे श्रीमृत्युञ्जयस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥


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 श्रीमृत्युञ्जयस्तोत्रम् केवल संस्कृत


रत्नसानुशरासनं    रजताद्रिशृङ्गनिकेतनं

शिञ्जिनीकृतपन्नगेश्वरमच्युतानलसायकम्।

क्षिप्रदग्धपुरत्रयं    त्रिदशालयैरभिवन्दितं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥१॥



पञ्चपादपपुष्पगन्धिपदाम्बुजद्वयशोभितं

भाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रहम् ।

भस्मदिग्धकलेवरं भवनाशिनं भवमव्ययं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति यमः॥२॥



मत्तवारणमुख्यचर्मकृतोत्तरीयमनोहरं

पङ्कजासनपद्मलोचनपूजिताघ्रिसरोरुहम् ।

देवसिद्धतरङ्गिणीकरसिक्तशीतजटाधरं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥३॥



कुण्डलीकृतकुण्डलीश्वरकुण्डलं     वृषवाहनं

नारदादिमुनीश्वरस्तुतवैभवं            भुवनेश्वरम्।

अन्धकान्तकमाश्रितामरपादपं      शमनान्तकं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥४॥



यक्षराजसखं भगाक्षिहरं भुजङ्गविभूषणं

शैलराजसुतापरिष्कृतचारुवामकलेवरम्

क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥५॥



भेषजं     भवरोगिणामखिलापदामपहारिणं

दक्षयज्ञविनाशिनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम्।

भुक्तिमुक्तिफलप्रदं निखिलाघसंघनिबर्हणं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥६॥



भक्तवत्सलमर्चतां   निधिमक्षयं हरिदम्बरं

सर्वभूतपतिं परात्परमप्रमेयमनूपमम्।

भूमिवारिनभोहुताशनसोमपालितस्वाकृति

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥७॥



विश्वसृष्टिविधायिनं    पुनरेव    पालनतत्परं

संहरन्तमथ    प्रपञ्चमशेषलोकनिवासिनम्।

क्रीडयन्तमहर्निशं     गणनाथयूथसमावृतं 

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥ ८ ॥



रुद्रं  पशुपतिं   स्थाणुं   नीलकण्ठमुमापतिम्।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥ ९ ॥



कालकण्ठं कलामूर्ति कालाग्निं कालनाशनम्।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥१०॥



नीलकण्ठं    विरूपाक्षं   निर्मलं   निरुपद्रवम्।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥११॥



वामदेवं   महादेवं   लोकनाथं   जगद्गुरुम्।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥१२॥



देवदेवं    जगन्नाथम    देवेशमृषभध्वजम्।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥१३॥



अनन्तमव्ययं    शान्तमक्षमालाधरं    हरम्।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥१४॥



आनन्द   परमं   नित्यं  कैवल्यपदकारणम्।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥१५॥



स्वर्गापवर्गदातारं    सृष्टिस्थित्यन्तकारिणम्।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥१६॥



॥ इति श्रीपद्ममहापुराणान्तर्गत उत्तरखण्डे श्रीमृत्युञ्जयस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥


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