sukdev-ki-kshamta | शुकदेवजी की समता। शुकदेव जी का वैराग्य

 शुकदेवजी की समता और वैराग्य 


sukdev-ki-kshamta  | शुकदेवजी की समता। शुकदेव जी का वैराग्य


शुकदेवजी की समता

पिता वेदव्यासजी की आज्ञा से श्रीशुकदेवजी आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिये विदेहराज जनक की मिथिला नगरी में पहुँचे। वहाँ खूब सजे-सजाये हाथी, घोड़े, रथ और स्त्री-पुरुषों को देखा पर उनके मन में कोई विकार नहीं हुआ। महल के सामने पहली ड्योढ़ी पर पहुँचे, तब द्वारपालों ने उन्हें वहीं धूप में रोक दिया। न बैठने को कहा, न कोई बात पूछी।


वे तनिक भी खिन्न न होकर धूप में खड़े हो गये। तीन दिन बीत गये।चौथे दिन एक द्वारपाल ने उन्हें सम्मानपूर्वक दूसरी ड्योढ़ी पर ठंडी छाया में पहुँचा दिया। वे वहीं आत्मचिन्तन करने लगे। उन्हें न तो धूप और अपमान से कोई क्लेश हुआ न ठंडी छाया और सम्मान से कोई सुख ही।


इसके बाद राजमन्त्री ने आकर उनको सम्मान के साथ सुन्दर प्रमदावन में पहुँचा दिया। वहाँ पचास नवयुवती स्त्रियों ने उन्हें भोजन कराया और उन्हें साथ लेकर हँसती, खेलती, गाती और नाना प्रकार की चेष्टा करती हुई प्रमदावन की शोभा दिखाने लगीं। 


रात होने पर उन्होंने शुकदेवजी को सुन्दर पलंग पर बहुमूल्य दिव्य बिछौना बिछाकर बैठा दिया। वे पैर धोकर रात के पहले भाग में ध्यान करने लगे। मध्य भाग में सोये और चौथे पहर में उठकर फिर ध्यान करने लगे। ध्यान के समय भी पचासों युवतियाँ उन्हें घेरकर बैठ गयीं, परन्तु वे किसी प्रकार शुकदेवजी के मन में कोई विकार पैदा नहीं कर सकीं। इतना होने पर दूसरे दिन महाराज जनक ने आकर उनकी पूजा की और ऊँचे आसन पर बैठाकर पाद्य, अर्घ्य और गोदान आदि से उनका सम्मान किया। 


फिर स्वयं आज्ञा लेकर धरती पर बैठ गये और उनसे बातचीत करने लगे। बातचीत के अन्त में जनकजी ने कहा-'आप सुख-दुःख, लोभ- क्षोभ, नाच-गान, भय-भेद-सबसे मुक्त परम ज्ञानी हैं। आप अपने ज्ञान में कमी मानते हैं, इतनी ही कमी है। आप परम विज्ञानधन होकर भी अपना प्रभाव नहीं जानते हैं। ' जनकजी के बोध से उन्हें अपने स्वरूप का पता लग गया। 

शुकदेव जी का वैराग्य


एक बार व्यास जी के मन में ब्याह की अभिलाषा हुई। उन्होंने जाबालि मुनि से कन्या माँगी। जाबालि ने अपनी चेटिका नाम की कन्या उन्हें दे दी। चेटिका का दूसरा नाम पिंगला था। कुछ दिनों के बाद उसके गर्भ में शुकदेव जी आये। 

बारह वर्ष बीत गये, पर वे बाहर नहीं निकले। शुकदेवजी की बुद्धि बड़ी प्रखर थी। उन्होंने सारे वेद, वेदांग, पुराण, धर्मशास्त्र और मोक्ष शास्त्रों का वहीं श्रवण करके गर्भ में ही अभ्यास कर लिया। वहा यदि पाठ करने में कोई भूल होती तो शुकदेव जी गर्भ में से ही डाँट देते। इधर • माता को भी गर्भ के बढ़ने से बड़ी पीड़ा हो रही थी। यह सब देखकर व्यासजी बड़े विस्मित हुए। उन्होंने गर्भस्थ बालक से पूछा-'तुम कौन हो ?' शुक्रदेव जी ने कहा- 'जो चौरासी लाख योनियाँ बतायी गयी हैं, उन सब में मैं घूम चुका हूँ। 


ऐसी दशा में मैं क्या बताऊँ कि कौन हूँ ?' व्यासजी ने कहा-'तुम बाहर क्यों नहीं आते ?' शुक्रदेव—'भयंकर संसार में भटकते-भटकते मुझे बड़ा वैराग्य हो गया। है। पर मैं जानता हूँ गर्भ से बाहर आते ही वैष्णवी माया के स्पर्श से सारा ज्ञान-वैराग्य हवा हो जायेगा। अतएव मेरा विचार इस बार गर्भ में रहकर ही योगाभ्यास में तत्पर हो मोक्ष सिद्धि करने का है। अन्त में व्यासजी के वैष्णवी माया के न स्पर्श करने का आश्वासन देने पर वे किसी प्रकार गर्भ से बाहर तो आये, पर तुरन्त ही वन के लिए चलने । लगे।


 यह देख व्यास जी बोले-'बेटा! मेरे ही घर में ही ठहरो। मैं तुम्हारा जात कर्म आदि संस्कार तो कर दूँ।' इस पर शुकदेवजी ने कहा, 'अब तक जन्म-जन्मान्तरों में सैंकड़ों संस्कार हो चुके हैं। उन बन्धनप्रद संस्कारों ने ही मुझे भवसागर में भटका रखा है। अतएव अब मुझे उनसे कोई प्रयोजन नहीं है।' लिए व्यासदेव–'द्विज के बालक को पहले विधिपूर्वक ब्रह्मचर्याश्रम में रहकर वेदाध्ययन करना चाहिए। 


तदनन्तर उसे गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यासाश्रम में प्रवेश करना चाहिये। इसके बाद ही वह मोक्ष को प्राप्त होता है। अन्यथा पतन अवश्यम्भावी है।' शुकदेव-'यदि ब्रह्मचर्य से मोक्ष होता हो तब तो नपुंसकों को वह सदा ही प्राप्त रहता होगा, पर ऐसा नहीं दीखता। 


यदि गृहस्थाश्रम मोक्ष का सहायक हो, तब तो सम्पूर्ण जगत् ही मुक्त हो जाय। यदि वानप्रस्थियों को मोक्ष होने लगे, तब तो सभी मृग पहले मुक्त हो जाएँ। यदि आपके विचार से संन्यास धर्म का पालन करने वालों को मोक्ष अवश्य मिलता हो, तब तो दरिद्रों को पहले मोक्ष मिलना चाहिए।


' व्यासदेव-'मनु का कहना है कि सद्-गृहस्थों के लिए लोक-परलोक दोनों ही सुखद होते हैं। गृहस्थ का समन्वयात्मक संग्रह सनातन सुखदायक होता है।' शुकदेव–'सम्भव है दैवयोग से कभी आग भी शीत उत्पन्न कर सके, चन्द्रमा से ताप निकलने लग जाय, पर परिग्रह से कोई सुखी हो जाये, यह तो त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है।


' व्यासदेव : 'मनुष्य का पुत्र हो या गदहे का, जब वह धूल में लिपटा, चञ्चल गति से चलता और तोतली वाणी में बोलता है, तब उसका शब्द लोगों के लिए अपार आनन्दप्रद होता है।' शुकदेव : 'मुने! धूल में लोटते हुए अपवित्र शिशु से सुख या संतोष की प्राप्ति सर्वथा अज्ञानमूलक ही है। उसमें सुख मानने वाले सभी अज्ञानी हैं।' व्यासदेव: 'यमलोक में एक महाभयंकर नरक है, जिसका नाम है 'पुम्'। 


पुत्रहीन मनुष्य वहीं जाता है। इयलिये पुत्र की प्रशंसा की जाती है।' शुकदेव : 'यदि पुत्र से ही स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती तो सुअर, कूकर और टिड्डियों को यह विशेष रूप से मिल सकता।' व्यासदेव: 'पुत्र के दर्शन से मनुष्य पितृ ऋण से मुक्त हो जाता है। 


पौत्र-दर्शन से देव-ऋण से मुक्त हो जाता है और प्रपौत्र के दर्शन से उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है।' शुकदेव : 'गीध दीर्घजीवी होते हैं, वे सभी अपनी कई पीढ़ियों को देखते हैं। पौत्र प्रपौत्र तो सर्वथा नगण्य वस्तु हैं उनकी दृष्टि में। पर पता नहीं उनमें से अब तक कितनों को मोक्ष मिला।' यों कहकर विरक्त शुकदेवजी वन में चले गये।

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