कृष्ण भूमिका (विष्णु जी क्षत्रिय कुल में ही क्यों प्रकट होते हैं)

कृष्ण भूमिका (विष्णु जी क्षत्रिय कुल में ही क्यों प्रकट होते हैं)


भगवद्गीता में कृष्ण ने स्वयं कहा है कि वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं। जब -जब धार्मिक जीवन के नियामक सिद्धान्तों की हानि होती है और अधार्मिक कार्यकलापों में वृद्धि होती है, तब तब वे पृथ्वी लोक में अवतरित होते हैं। दूसरे शब्दों में कहे तो , जब श्रीकृष्ण प्रकट हुए उस समय इस लोक में या ब्रह्माण्ड में पापकर्मी के भार को कम करने की आवश्यकता थी।


कृष्ण भूमिका (विष्णु जी क्षत्रिय कुल में ही क्यों प्रकट होते हैं)


भौतिक सृजन का सारा कार्यभार कृष्ण के पूर्णांश भगवान् महाविष्णु पर है। अतः जब भगवान् अवतरित होते हैं, तो यह अवतार विष्णु से उद्भूत (उत्पन्न ) होता है। महाविष्णु भौतिक सृष्टि के आदि कारण हैं, उनसे गर्भोदकशायी विष्णु का विस्तार होता है और तब क्षीरोदकशायी विष्णु का। सामान्यतया इस ब्रह्माण्ड में जितने भी अवतार होते हैं, वे क्षीरोदकशायी विष्णु के पूर्ण विस्तार (अंश) होते हैं। अतएव इस पृथ्वी पर पापकर्मों के भार को कम करने का कार्य भगवान् कृष्ण का नहीं है। लेकिन जब कृष्ण प्रकट होते हैं, तो सारे विष्णु विस्तार भी उनके साथ हो लेते हैं। 

"कृष्ण कौन हैं? कृष्ण के साथ यह किशोरी कौन है?


कृष्ण के सारे विस्तार (अंश) यथा नारायण, वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध का चतुर्गुना रूप तथा उनके अंशावतार यथा मत्स्य एवं अन्य युगावतार एवं मन्वन्तर अवतार ये सब एकसाथ भगवान् कृष्ण के शरीर के साथ प्रकट होते हैं। कृष्ण परिपूर्ण हैं; अतः सारे पूर्णांश तथा अंश अवतार सदा उन्हीं में निवास करते हैं। अतः जब कृष्ण प्रकट हुए, तो  भगवान् विष्णु भी उनके साथ थे। वास्तव में कृष्ण अपनी वृन्दावन लीलाओं को प्रदर्शित करने तथा भाग्यशाली बद्धजीवों को आकृष्ट करने तथा उन्हें भगवद्धाम का आमंत्रण देने के लिए प्रकट होते हैं।


वृन्दावन में असुरों का वध कृष्ण के विष्णु अंश द्वारा सम्पन्न हुआ। भगवद्गीता ८.२० (8.20)  में भगवान् के निवास स्थान का वर्णन हुआ है जहाँ यह बताया गया है कि एक अपरा नित्यप्रकृति या चिन्मय आकाश होता है। जो इस व्यक्त (प्रकट किया गया ) तथा अव्यक्त पदार्थ (जगत) से परे है। व्यक्त जगत को अनेक नक्षत्रों तथा लोकों यथा सूर्य, चन्द्र, आदि के रूप में देखा जा सकता है लेकिन इसके परे अव्यक्त भाग भी है, जहाँ किसी शरीरधारी द्वारा नहीं पहुँचा जा सकता। और इस अव्यक्त पदार्थ जगत के भी परे आध्यात्मिक जगत है।भगवद्गीता में इस जगत को सर्वोपरि तथा शाश्वत कहा गया है, जिसका विनाश कभी नहीं होता। 


इस भौतिक प्रकृति का बारम्बार सृजन तथा संहार होता है, किन्तु इस आध्यात्मिक प्रकृति का अंश शाश्वत रूप से वैसा का वैसा बना रहता है। भगवान् कृष्ण के परम धाम को ब्रह्म-संहिता में चिन्तामणि धाम भी कहा गया है। कृष्ण का यह धाम गोलोक वृन्दावन कहलाता है, जो पारसमणि के प्रासादों से परिपूर्ण है। वहाँ के वृक्ष 'कल्पवृक्ष' कहलाते हैं और सुरभि गाय  कही जाती हैं।


वहाँ भगवान् की सेवा में हजारों लक्ष्मियाँ लगी रहती हैं। उनका नाम आदि भगवान गोविंद है और वे समस्त कारणों के कारण हैं। वहाँ भगवान् अपनी वंशी बजाते हैं, उनके नेत्र कमल दलों के समान हैं और उनके शरीर का वर्ण सुन्दर बादल- जैसा है। उनके सिर पर मयूरपंख है। वे इतने आकर्षक है कि सहस्रों कामदेवों को लज्जित कर देते हैं। गीता में भगवान् कृष्ण अपने धाम का संकेत मात्र करते हैं, जो आध्यात्मिक जगत में सर्वोच्च लोक है। लेकिन श्रीमद्भागवत में कृष्ण अपने साज सामान के साथ वास्तव में प्रकट होते हैं और अपने कार्यकलापों को सर्वप्रथम वृन्दावन में, फिर मथुरा में और तब द्वारका में प्रदर्शित करते हैं।


sukdev-ki-kshamta | शुकदेवजी की समता। शुकदेव जी का वैराग्य


जिस वंश में कृष्ण प्रकट हुए वह यदुवंश कहलाता है। यह यदुवंश सोम अर्थात् चन्द्रलोक के देव से चला आ रहा है। राजवंशी क्षत्रियों के दो मुख्य कुल हैं-एक चन्द्रलोक के राजा से अवतरित है (चन्द्रवंशी) तथा दूसरा सूर्य के राजा से अवतरित (सूर्यवंशी) है। जब जब भगवान् अवतरित होते हैं, तब प्रायः वे क्षत्रिय कुल में प्रकट होते हैं क्योंकि उन्हें धर्म की संस्थापना करनी होती है। वैदिक कुल प्रणाली के अनुसार कुल मानव जाति का रक्षक होता है। 


जब भगवान् श्री रामचन्द्र के रूप में अवतरित हुए, तो वे सूर्यवंश में प्रकट हुए, जो रघुवंश के नाम से विख्यात था। और जब वे कृष्ण के रूप में प्रकट हुए तो यदुवंश में हुए। श्रीमद्भागवत के नवम स्कंध के चौबीसवें अध्याय में यदुवंशी राजाओं की एक लम्बी सूची दी गई है। वे सभी महान् शक्तिशाली राजा थे। कृष्ण के पिता का नाम वसुदेव था, जो यदुवंशी सूरसेन के पुत्र थे। वस्तुतः भगवान् इस भौतिक जगत के किसी भी वंश से सम्बन्धित नहीं हैं लेकिन प्रभु जिस कुल में जन्म लेते हैं। वह  कुल उनकी कृपा से जगत विख्यात हो जाता है। 


उदाहरणार्थ, मलय देश में चन्दन उत्पन्न होता है। चन्दन में मलय से भिन्न अपने गुण होते हैं लेकिन चूँकि दैववश यह मुख्य रूप से मलय देश में उत्पन्न होता है इसलिए यह मलय चन्दन कहलाता है। इसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण सबों के हैं। लेकिन जिस प्रकार सूर्य पूर्व से उदय होता है यद्यपि अन्य दिशाएं भी हैं जिनसे वह उदय हो सकता है उसी प्रकार भगवान् भी अपनी रुचि से किसी विशेष कुल में प्रकट होते हैं और वह कुल विख्यात हो जाता है।


जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है, जब कृष्ण प्रकट होते हैं, तो उनके सारे पूर्ण अंश भी उनके साथ-साथ प्रकट होते हैं। कृष्ण बलराम (बलदेव) के साथ प्रकट हुए, जो उनके बड़े भाई के रूप में जाने जाते हैं। बलराम चतुर्व्यूह के मूल संकर्षण हैं। वे कृष्ण के पूर्ण अंशावतार भी हैं। इस पोस्ट में यह बताने का प्रयास किया गया है  कि किस प्रकार कृष्ण यदु कुल में उत्पन्न हुए और किस प्रकार उन्होंने अपने दिव्य गुणों का प्रदर्शन किया। इसका विशद वर्णन श्रीमद्भागवत में, विशेषतया, दशम स्कंध में मिलता है; अतः इस पुस्तक का आधार श्रीमद्भागवत का दशम


सामान्यतया मुक्तात्माएँ ही भगवान् की लीलाओं का श्रवण एवं आस्वादन  करती हैं। जो बद्धजीव हैं, वे तो किसी सामान्य व्यक्ति के भौतिक कार्यकलापों की कहानियाँ पढ़ने में रुचि लेते हैं। यद्यपि भगवान् के दिव्य कार्यकलापों से सम्बन्धित ऐसी कथाएँ श्रीमद्भागवत तथा अन्य पुराणों में पायी जाती हैं तथापि बद्धजीव सामान्य कथाओं को पढ़ना पसन्द करते हैं। वे कृष्ण की लीलाओं की कथाओं को पढ़ने में उतनी रुचि नहीं दिखाते। 


भगवान् कृष्ण की लीलाओं के वर्णन इतने आकर्षक हैं कि वे सभी श्रेणी के मनुष्यों के लिए आस्वाद्य हैं। इस संसार में तीन श्रेणी के मनुष्य हैं। पहली श्रेणी मुक्तात्माओं की है, दूसरी श्रेणी उन लोगों की है, जो मुक्त होना चाहते हैं और तीसरी श्रेणी भौतिकतावादी मनुष्यों की है। भगवान् कृष्ण  की लीलाएँ इन तीनों श्रेणी के व्यक्तियों द्वारा पठनीय (पढ़ने योग्य ) हैं। मुक्तात्माओं को भौतिकतावादी कार्यकलापों में कोई रुचि नहीं होती। यह मायावादी सिद्धान्त कि मुक्ति के बाद मनुष्य निष्क्रिय हो जाता है और उसे किसी प्रकार के श्रवण करने की आवश्यकता नहीं रहती, 


यह सिद्ध नहीं करता कि मुक्त पुरुष वास्तव में निष्क्रिय हो जाता है। जीवात्मा निष्क्रिय नहीं हो सकता। वह बद्ध अवस्था में अथवा मुक्त अवस्था में भी सक्रिय रहता है। उदाहरणार्थ, एक रुग्ण व्यक्ति भी सक्रिय रहता है लेकिन उसके सारे कार्य कष्टदायक होते हैं। वही व्यक्ति रोगमुक्त होने पर भी सक्रिय रहता है लेकिन रोगमुक्त अवस्था में उसके सारे कार्यकलाप आनन्दमय होते हैं।


इसी प्रकार से मायावादी लोग रुग्ण बद्धावस्था से किसी तरह मुक्ति पाने का प्रयास करते हैं लेकिन उन्हें स्वस्थ अवस्था के कार्यकलापों का कोई ज्ञान नहीं रहता। जो लोग वास्तव में मुक्त हैं और ज्ञान से ओत-प्रोत हैं, वे कृष्ण के कार्यकलापों का श्रवण करते हैं; ऐसी व्यस्तता शुद्ध आध्यात्मिक क्रिया है। जो लोग सचमुच मुक्त हैं उनके लिए अनिवार्य है कि वे कृष्ण की लीलाओं का श्रवण करें।


मुक्तावस्था प्राप्त व्यक्ति के लिए यह परम आस्वादनीय विषय होता है। साथ ही यदि मुक्ति के इच्छुक व्यक्ति भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत जैसी कथाओं का श्रवण करते हैं, तो उनका मुक्ति का मार्ग स्पष्ट हो जाता है।भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत का प्रारम्भिक अध्ययन है। गीता का अध्ययन करने से मनुष्य भगवान् कृष्ण की स्थिति से पूर्ण अवगत हो जाता है और जब वह कृष्ण के चरणकमलों में स्थित होता है, तो वह श्रीमद्भागवत में वर्णित कृष्ण की कथाओं को समझता है। 


भगवान् चैतन्य ने भी अपने अनुयायियों को उपदेश दिया है कि उनका कार्य है कि कृष्ण-कथा का प्रसार करें। कृष्ण-कथा का अर्थ है कृष्ण विषयक कथाएँ। कृष्ण-कथाएँ दो हैं-एक तो वे जो कृष्ण द्वारा कही गई हैं और दूसरी वे जो कृष्ण के विषय में हैं। भगवद्गीता साक्षात् कृष्ण द्वारा कही गई कथा अथवा दर्शन अथवा भगवद् विज्ञान है।श्रीमद्भागवत कृष्ण के कार्यकलापों तथा उनकी दिव्य लीलाओं की कथा है।



कृष्ण भूमिका (विष्णु जी क्षत्रिय कुल में ही क्यों प्रकट होते हैं)


यह कृष्ण-कथा अधिकांश भौतिकतावादी व्यक्तियों को भी रुचिकर लगेगी क्योंकि गोपियों के साथ कृष्ण की लीलाएँ इस भौतिक जगत में तरुणों तथा तरुणियों के प्रेम-व्यापार के ही समान हैं। वस्तुत: मानव समाज में व्याप्त काम-भावना अस्वाभाविक नहीं है क्योंकि यही काम-भावना आदि पुरुष भगवान् में भी पाई जाती है। श्रीमती राधारानी आह्लादिनी शक्ति कहलाती हैं। काम-भावना के आधार पर प्रेम-व्यापार का आकर्षण भगवान् का आदि स्वरूप है और हम बद्धजीव भी परमेश्वर के अंश होने के कारण ऐसी भावना से युक्त हैं लेकिन वे उल्टी सूक्ष्म दशा में अनुभव की जाती हैं। 


अतएव इस जगत में जो लोग विषयी जीवन के पीछे लगे रहते हैं जब वे गोपियों के साथ कृष्ण की लीलाओं को सुनते हैं, तो उन्हें दिव्य आनन्द प्राप्त होगा, यद्यपि यह उन्हें भौतिकतावादी लगता है। इसका लाभ यह होगा कि वे क्रमशः आध्यात्मिक स्तर को प्राप्त हो सकेंगे। भागवत में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति गोपियों के साथ कृष्ण की लीलाओं को किसी अधिकारी से विनीत भाव से सुनता है, तो वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति के स्तर को प्राप्त होता है और उसके हृदय का काम-वासना रूपी भौतिक रोग पूर्णतया विलुप्त हो जाता है। 


दूसरे शब्दों में यह भौतिक विषयी जीवन का निराकरण करेगा। यह 'कृष्ण' भूमिका  कृष्ण कथा से भरी हुई है, मुक्तात्माओं के लिए तो रुचिकर है ही, वे मुक्तिकामी पुरुषों के लिए तथा निपट बद्ध भौतिकतावादी व्यक्तियों के लिए भी है। महाराज परीक्षित के अनुसार, जिन्होंने शुकदेव गोस्वामी से कृष्ण के विषय में सुना, कृष्ण-कथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए रुचिकर है चाहे वह कैसा भी जीवन बिता रहा हो। 


निश्चय ही प्रत्येक व्यक्ति इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करेगा। लेकिन महाराज परीक्षित ने सचेत भी किया है कि जो लोग पशुओं की हत्या करने तथा आत्महत्या करने मात्र में लगे रहते हैं, वे कृष्ण-कथा के प्रति अधिक आकृष्ट नहीं होते। दूसरे शब्दों में, सामान्य पुरुष जो शास्त्रों के नैतिक सिद्धान्तों का पालन करते हैं, वे चाहे जिस किसी परिस्थिति में भी रहें निश्चित रूप से आकर्षित होंगे लेकिन जो आत्महत्या में प्रवृत्त हैं, वे नहीं होंगे।


श्रीमद्भागवत में इसके लिए पशुघ्न शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ है पशुओं की हत्या अथवा अपनी स्वयं की हत्या। जो लोग स्वरूपसिद्ध नहीं हैं और आत्म-साक्षात्कार में रुचि नहीं रखते वे आत्म-हनन करते हैं, वे आत्महत्या कर रहे हैं। चूँकि यह मनुष्य जीवन विशेषतया आत्म-साक्षात्कार के निमित्त मिला है अतएव जो अपने कार्यकलापों के इस महत्त्वपूर्ण अंग की उपेक्षा करता है, वह पशुओं के समान मात्र अपने समय को गँवाता है। अतएव वह पशुघ्न है। 


इस शब्द का दूसरा अर्थ उन लोगों का सूचक है, जो वास्तव में पशु का वध करते हैं। इसका अर्थ उन व्यक्तियों से है, जो पशुभक्षी या कुत्तों के भक्षक (चांडाल तक) हैं क्योंकि वे अनेक प्रकार से पशुओं का वध करते रहते हैं-यथा शिकार द्वारा या कसाई-घर खोल कर। ऐसे लोगों की रुचि कभी भी कृष्ण-कथा के प्रति नहीं हो सकती।


राजा परीक्षित की विशेष रुचि कृष्ण-कथा सुनने के प्रति थी क्योंकि वे जानते थे कि उनके पूर्वज और विशेष रूप से उनके पितामह अर्जुन, कृष्ण के ही कारण कुरुक्षेत्र महायुद्ध में विजयी हुए थे। हम भी इस भौतिक जगत को कुरुक्षेत्र की युद्ध-भूमि मान सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति इस युद्ध भूमि पर अपने अस्तित्व के लिए कठोर संघर्ष कर रहा है और प्रत्येक पग पर खतरा बना हुआ है। 


महाराज परीक्षित के अनुसार कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि घातक पशुओं से परिपूर्ण विशाल सागर के समान थी। उनके पितामह अर्जुन को भीष्म, द्रोण, कर्ण जैसे शूरवीरों तथा अन्य व्यक्तियों से युद्ध करना पड़ा, जो सामान्य योद्धा न थे। ऐसे योद्धाओं की तुलना में तिमिंगिल मछली से की गई है। यह तिमिंगिल मछली बड़ी से बड़ी ह्वेल समुद्र मछलियों को आसानी से निगल सकती है। 


कुरुक्षेत्र युद्ध भूमि में समवेत महान् योद्धा ऐसे अनेक अर्जुनों को निगल सकते थे लेकिन कृष्ण की कृपा से ही अर्जुन

उन सबों को मारने में समर्थ हो सका। जिस प्रकार गोपद में भरे जल को बिना प्रयास के लाँघा जा सकता है उसी प्रकार कृष्ण की कृपा से अर्जुन कुरुक्षेत्र युद्ध-भूमि रूपी सागर को सहज ही लाँघ सका।


अन्य अनेक कारणों से भी महाराज परीक्षित ने कृष्ण के कार्यकलापों की प्रशंसा की। कृष्ण के कारण न केवल उनके पितामह बचे थे, अपितु वे स्वयं भी कृष्ण के कारण ही बच सके थे। कुरुक्षेत्र के युद्ध समाप्त होने पर कुरु वंश के सारे सदस्य यहाँ तक कि धृतराष्ट्र तथा पाण्डव दोनों पक्षों के सारे पुत्र तथा पौत्र युद्ध में काम आये। पाँचों पाण्डवों के अतिरिक्त सारे लोग कुरुक्षेत्र की युद्ध-भूमि में मारे गये। उस समय महाराज परीक्षित अपनी माता के गर्भ में थे। 


उनके पिता अर्जुन पुत्र अभिमन्यु भी कुरुक्षेत्र के युद्ध में मारे गए थे अतएव महाराज परीक्षित अपने पिता के बाद उत्पन्न हुए थे। जब वे अपनी माता के गर्भ में थे, तो अश्वत्थामा ने इस बालक को मारने के लिए ब्रह्मास्त्र छोड़ा था। जब महाराज परीक्षित की माता, उत्तरा, कृष्ण के पास पहुँचीं, तो कृष्ण ने गर्भपात के भय से परमात्मा रूप में गर्भ में प्रवेश करके महाराज परीक्षित को बचाया था। महाराज परीक्षित का दूसरा नाम विष्णुरात है क्योंकि स्वयं भगवान् विष्णु ने गर्भ के भीतर उनकी रक्षा की थी।


इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को, चाहे वह जिस अवस्था में हो, कृष्ण तथा उनके कार्यकलापों के विषय में श्रवण करने में रुचि लेनी चाहिए क्योंकि वे परम सत्य भगवान् हैं। वे सर्वव्यापी हैं, वे जन-जन के हृदय के भीतर वास करने वाले हैं और बाहर अपने विश्व रूप में रहने वाले हैं। फिर भी जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है वे मानव समाज में अपने यथारूप में प्रकट होकर प्रत्येक व्यक्ति को अपने दिव्य धाम में वापस चलने के लिए आमंत्रित करते हैं।


कृष्ण के विषय में जानने के लिए प्रत्येक व्यक्ति में रुचि होनी चाहिए। यह पोस्ट इस उद्देश्य से प्रस्तुत की जा रही है कि लोग कृष्ण के विषय में जानें और इस मनुष्य जीवन में पूर्णरूपेण लाभान्वित हो सकें।श्रीमद्भागवत के नवम स्कंध में श्री बलदेव को वसुदेव-पत्नी रोहिणी का पुत्र बताया गया है। कृष्ण के पिता वसुदेव के सोलह पत्नियाँ थीं जिनमें से बलराम की माता रोहिणी भी एक थीं। लेकिन बलराम को देवकी-पुत्र भी कहा गया है; अतएव वे देवकी तथा रोहिणी दोनों के ही पुत्र किस प्रकार हो सकते थे? 


प्रिय पाठकों - महाराज परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से यह भी पूछा कि वसुदेव के पुत्र रूप में प्रकट होते ही श्रीकृष्ण को क्यों तुरन्त गाकुल वृन्दावन में नन्द महाराज के यहाँ पहुँचाया गया? वे यह भी जानना चाहते थे कि वृन्दावन तथा मथुरा में रहते हुए कृष्ण ने कौन-कौन से कार्य किये? इसके अतिरिक्त वे यह जानने के लिए, विशेष उत्सुक थे कि उन्होंने अपने मामा कंस का वध क्यों किया? उनकी माता का भाई होने के कारण कंस अत्यन्त घनिष्ठ गुरुजन था, तो फिर उन्होंने कंस का वध क्यों किया?


उन्होंने यह भी पूछा कि भगवान् कृष्ण कितने वर्षों तक मानव समाज में रहे और कितने वर्षों तक द्वारका के राज्य पर शासन किया ? और वहाँ उन्होंने कितनी पत्नियाँ स्वीकार कीं? क्षत्रिय राजा सामान्यतया एक से अधिक पत्नियाँ स्वीकार कर सकता है; अतएव महाराज परीक्षित ने उनकी पत्नियों की संख्या भी जाननी चाही।

महाराज परीक्षित द्वारा पूछ गये इन तथा अन्य प्रश्नों का शुकदेव गोस्वामी द्वारा समाधान।

महाराज परीक्षित तथा शुकदेव गोस्वामी की स्थिति अत्यन्त विलक्षण है।महाराज परीक्षित कृष्ण की दिव्य लीलाओं को श्रवण करने लिए उपयुक्त पात्र (श्रोता ) हैं और शुकदेव गोस्वामी उनका वर्णन करने वाले उपयुक्त पात्र (वक्ता) हैं। यदि ऐसा मणि-कांचन संयोग प्राप्त हो जाये, तो कृष्ण-कथा तुरन्त प्रकाशित हो जाती है और लोग ऐसे संवाद से अधिकाधिक लाभ उठा सकते हैं।


यह कथा शुकदेव गोस्वामी जी  द्वारा महाराज परीक्षित को उस समय सुनाई गई जब वे गंगा नदी के तट पर उपवास करते हुए शरीर त्यागने जा रहे थे। शुकदेव गोस्वामी को आश्वस्त करने के लिए कि कृष्ण-कथा सुनने से वे कभी थकेंगे नहीं महाराज परीक्षित ने स्पष्ट कहा, “भले ही सामान्य पुरुषों को या मुझको भूख-प्यास कष्ट दे सकती है लेकिन कृष्ण की कथाएँ इतनी सरस हैं कि कोई भी व्यक्ति थकान का अनुभव किये बिना ही उन्हें सुनता रह सकता है क्योंकि इनके सुनने से मनुष्य दिव्य पद को प्राप्त होता है।" 


ऐसा प्रतीत होता है कि जो कृष्ण-कथा को महाराज परीक्षित के ही समान गम्भीरतापूर्वक सुनता है, वह अत्यन्त भाग्यशाली होता है।वे इस कथा को सुनने के लिए विशेष तौर पर कृतसंकल्प थे क्योंकि वे किसी भी क्षण मृत्यु को प्राप्त हो सकते थे। हम में से प्रत्येक को मृत्यु के किसी भी क्षण आने से अवगत होना चाहिए। इस जीवन का कोई भरोसा नहीं है क्योंकि किसी हो सकती है-भले ही वह युवक हो या वृद्ध हो। अतएव मरने के पहले हमें पूरी तरह से कृष्णभावनाभावित होना चाहिए।

मृत्यु के समय राजा परीक्षित शुकदेव गोस्वामी से श्रीमद्भागवत सुन रहे थे। जब राजा ने कृष्ण के विषय में सुनने की उत्कट इच्छा प्रकट की तो शुकदेव गोस्वामी अत्यन्त प्रसन्न हुए। शुकदेव समस्त भागवत वाचकों में सर्वश्रेष्ठ थे; अतएव वे कृष्ण की लीलाओं के विषय में बोलने लगे, जो इस कलियुग के समस्त अमंगल को नष्ट करने वाली हैं। शुकदेव गोस्वामी ने राजा को कृष्ण के विषय में इतनी उत्कंठापूर्वक सुनने के लिए धन्यवाद दिया और यह कह कर उन्हें प्रोत्साहित किया, “हे राजन्! आपकी बुद्धि अत्यन्त प्रखर है क्योंकि आप कृष्ण की लीलाओं को सुनने के लिए इतने आतुर हैं।"


उन्होंने महाराज परीक्षित को बताया कि कृष्ण की लीलाओं का श्रवण तथा कीर्तन इतना मंगलकारी है कि यह तीनों प्रकार के लोगों को शुद्ध कर देता है-वक्ता, श्रोता तथा जिज्ञासु। ये लीलाएँ उस गंगाजल के समान हैं, जो भगवान् विष्णु के अँगूठे से निकला है, वे तीनों लोकों को-आकाश, पाताल तथा पृथ्वी को-पवित्र करने वाली हैं।


प्रिय पाठकों -राजा परीक्षित द्वारा जितने भी प्रश्न पूछे गए ,उन सभी प्रश्नो के उत्तर आपको आने वाली पोस्टो में मिलते रहेंगे। क्योंकि कृष्ण लीलाएं इतनी है कि एक ही पोस्ट में उनका उत्तर देना संभव नहीं है। पोस्ट लम्बी  जाएगी और आप बोर हो जाएंगे। आप बोर न हो इसके लिए हर कथा को अलग -अलग पोस्ट में दर्शाया गया है। अगली पोस्ट है  - भगवान् श्री कृष्ण का अवतरण। 

 प्रभु श्री राधे -कृष्ण जी से आपके जीवन की मंगल कामना करते हुए आपसे विदा लेते है। विश्वज्ञान में अगली पोस्ट के साथ फिर मुलाकात होगी। तब तक के लिए राधे -राधे। 

अगली पोस्ट है  - भगवान् श्री कृष्ण का अवतरण। 

धन्यवाद 




Previous Post Next Post