"कृष्ण कौन हैं? कृष्ण के साथ यह किशोरी कौन है?

 जय -जय श्री राधे -कृष्ण 

पाश्चात्य देशों में जब कोई व्यक्ति कृष्ण जैसी पुस्तक के आवरण पृष्ठ को देखता है, तो वह तुरन्त पूछता है, "कृष्ण कौन हैं? कृष्ण के साथ यह किशोरी कौन है?"आदि आदि प्रश्न। इसका तत्काल उत्तर है कि कृष्ण परम भगवान् हैं। वह कैसे? वो इसलिए कि वे परमेश्वर के वर्णनों से पूरी तरह मेल खाते हैं। दूसरे शब्दों में, कृष्ण भगवान् हैं क्योंकि वे सर्वाकर्षक हैं। पूर्ण-आकर्षण सिद्धान्त के अतिरिक्त, भगवान् शब्द कोई अर्थ नहीं रखता। तो कोई सर्वाकर्षक किस तरह हो सकता है? 




सबसे पहली बात यह है कि यदि कोई अत्यन्त धनी है और उसके पास अत्यधिक धन है, तो वह सामान्य जनता के लिए आकर्षक हो जाता है। इसी प्रकार यदि कोई अत्यन्त शक्तिशाली है, वह भी आकर्षक हो जाता है, और यदि कोई अत्यन्त विख्यात है, वह भी आकर्षक हो जाता है; यदि कोई अत्यन्त सुन्दर या ज्ञानी या सभी प्रकार की सम्पदा से अनासक्त होता है, तो भी वह आकर्षक हो जाता है। अतएव हम अनुभव के आधार पर यह देखते हैं कि कोई भी व्यक्ति (1 ) सम्पत्ति, (२)शक्ति, (3 )यश, (4 ) सौन्दर्य, (5 )ज्ञान तथा (6 ) त्याग के कारण आकर्षक बनता है।


जिसके पास ये छहों ऐश्वर्य एकसाथ हों और असीम मात्रा में हों, तो यह समझना चाहिए कि वह परम भगवान् है। भगवान् के ये ऐश्वर्य परम वेदाचार्य पराशर मुनि द्वारा वर्णित किये गये हैं। हमने अनेक धनी, शक्तिशाली, विख्यात, सुन्दर, विद्वान, पंडित तथा भौतिक विषयों के प्रति अनासक्त एवं विरक्त व्यक्ति देखे हैं। लेकिन मानव-इतिहास में हमने कृष्ण के समान असीम तथा एक साथ सम्पत्तिवान्, शक्तिशाली, विख्यात, सुन्दर, बुद्धिमान तथा अनासक्त व्यक्ति नहीं देखा। परम पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण एक ऐतिहासिक पुरुष हैं, जो 5,००० वर्ष पूर्व इस धरा पर प्रकट हुए थे। वे इस पृथ्वी पर १२५ (125 )वर्षों तक रहे और उन्होंने मनुष्य के ही समान आचरण किया लेकिन उनके कार्यकलाप अद्वितीय थे। 


क्यो लेते है कृष्ण भी राधे का नाम


उनके आविर्भाव (प्रकट होने ) के क्षण से लेकर उनके तिरोधान (अंतर्धान ,लोप ) के क्षण तक उनका प्रत्येक कार्य विश्व के इतिहास में अद्वितीय (अनोखा ) रहा, अतएव जो भी यह जानता है कि भगवान् का क्या अर्थ होता है, वह कृष्ण को भगवान् के रूप में स्वीकार कर लेगा। न तो कोई भगवान् के समकक्ष है, न ही कोई उनसे बढ़कर है। "ईश्वर महान् है" 


कथन का यही आशय है कि संसार में अनेक प्रकार के लोग हैं, जो ईश्वर के विषय में भिन्न-भिन्न प्रकार से बातें करते हैं। लेकिन वैदिक वाङ्मय (साहित्य ) के अनुसार तथा समस्त युगों में शंकर, रामानुज, मध्व, विष्णुस्वामी, महाप्रभु चैतन्य जैसे महान् आचार्यों तथा उनकी शिष्य-परम्परा के समस्त अनुयायियों के अनुसार, सबों ने एक स्वर से स्वीकार किया है कि कृष्ण भगवान् हैं। जहाँ तक वैदिक सभ्यता को मानने वाले हम लोगों का प्रश्न है, हम सभी समग्र (पूरा )ब्रह्माण्ड के वैदिक इतिहास को स्वीकार करते हैं, जिसमें स्वर्गलोक, मर्त्यलोक तथा पाताललोक नामक विविध लोक हैं।


आधुनिक इतिहास-वेत्ता ५,०००(5,000) वर्ष पूर्व की घटनाओं के साक्ष्य नहीं दे सकते और नृतत्त्वशास्त्रियों का कहना है कि इस लोक में ४०,००० (40,000 ) वर्ष पूर्व बुद्धिमान जीवों का उदय नहीं हुआ था, क्योंकि विकास वहाँ तक नहीं पहुँच सका था। लेकिन वैदिक इतिहास ग्रंथ, पुराण तथा महाभारत, उन मानव इतिहासों का उल्लेख करते हैं, जो विगत लाखों-करोड़ों वर्ष पूर्व तक विस्तीर्ण है। उदाहरणार्थ, इन साहित्य-ग्रंथों से हमें कृष्ण के आविर्भाव तथा तिरोधान का लाखों-करोड़ों वर्ष पूर्व का इतिहास प्राप्त होता है।


भगवद्गीता के चतुर्थ अध्यायमें कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि इसके पूर्व उनके तथा अर्जुन के कई जन्म हो चुके थे, जिनका स्मरण उन्हें है, किन्तु अर्जुन को नहीं। इससे कृष्ण तथा अर्जुन के ज्ञान में जो अन्तर है, उसका पता चल जाता है। भले ही अर्जुन एक महान् योद्धा तथा कुरु-वंश का सुसंस्कृत सदस्य रहा हो फिर भी वह था, तो एक सामान्य पुरुष ही, जबकि भगवान् कृष्ण अपार ज्ञान के धारक हैं। चूँकि कृष्ण का ज्ञान अपार है, अतएव उनकी स्मरणशक्ति भी असीम है।


कृष्ण का ज्ञान इतना पूर्ण है कि वे भूतकाल में लाखों-करोड़ों वर्ष पूर्व की अपने आविर्भाव की घटनाएँ स्मरण रखते हैं। लेकिन अर्जुन की स्मृति तथा ज्ञान काल तथा देश द्वारा सीमित हैं, क्योंकि वह सामान्य मानव प्राणी है। भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय में कृष्ण कहते हैं कि लाखों वर्ष पूर्व सूर्यदेव विवस्वान् को दिये गये उपदेश उन्हें आज भी स्मरण हैं।


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आजकल यह फैशन बन गया है कि नास्तिक श्रेणी के लोग कुछ योग-विधियों के द्वारा ईश्वर बनने का प्रयत्न करते हैं। सामान्यतया ऐसे नास्तिक अपनी कल्पना या ध्यान-शक्ति के बल पर अपने को ईश्वर घोषित कर देते हैं। कृष्ण इस प्रकार के ईश्वर नहीं हैं। वे न तो ध्यान की कोई योग-विधि का निर्माण करके ईश्वर बनते हैं न ही यौगिक आसनों की कठोर तपस्या करके ईश्वर बनते हैं। सच बात तो यह है कि वे कभी ईश्वर नहीं बनते, क्योंकि वे समस्त परिस्थितियों में सर्वेश हैं।


कृष्ण अपने मामा कंस के बन्दीगृह में, जहाँ उन के माता-पिता बन्दी बनाकर रखे गये थे, अपनी माता के गर्भ से चतुर्भुज विष्णु नारायण के रूप में प्रकट हुए। तब उन्होंने बाल-रूप धारण करके अपने पिता से कहा कि वे उन्हें नन्द महाराज तथा उनकी पत्नी यशोदा के घर ले चलें। अभी कृष्ण छोटे से बालक ही थे कि विकराल राक्षसी असुरनी पूतना ने उन्हें मारना चाहा लेकिन उन्होंने उसका स्तन- पान करते हुए उसका प्राणान्त कर दिया। यही अन्तर है वास्तविक सर्वेश्वर तथा योग की शाला द्वारा निर्मित ईश्वर में। 


कृष्ण को कभी-भी योगक्रिया का अभ्यास करने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ, फिर भी वे पद-पद पर अपने शिशुकाल से बाल्य काल में, फिर बाल्य काल्य से किशोरवस्था में और किशोरावस्था से तरुणावस्था में अपने आपको भगवान् के रूप में प्रदर्शित करते रहे।  यद्यपि कृष्ण सदैव मनुष्य की भाँति आचरण करते हैं, वे सदैव भगवान् की पहचान बनाये रखते हैं।


चूँकि कृष्ण सर्व-आकर्षक हैं, अतएव मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी सारी इच्छाएँ कृष्ण पर केन्द्रित करे। भगवद्गीता में कहा गया है कि हर व्यक्ति अपने शरीर का स्वामी है, लेकिन कृष्ण जो प्रत्येक हृदय में उपस्थित परमात्मा हैं, परमस्वामी हैं और प्रत्येक शरीर के स्वामी हैं। अतएव यदि हम अपने सारे प्रेम को एकमात्र कृष्ण पर केन्द्रित करें, तो तत्काल स्वतः ही विश्व-प्रेम, एकता तथा शान्ति सम्पन्न हो जायेगी।


जब कोई वृक्ष की जड़ों को सींचता है, तो वह शाखाओं, पत्तियों तथा पुष्पों को स्वत: सींचता होता है; जब कोई मुँह के द्वारा उदर में भोजन पहुँचाता है, तो वह शरीर के विभिन्न भागों की तुष्टि करता होता है। परमेश्वर में ध्यान केन्द्रित करने और उन्हें ही अपना प्रेम प्रदान करने की कला कृष्णभावनामृत कहलाती है। प्रत्येक व्यक्ति कृष्ण के प्रति अपने प्रेम को अर्पित करके अन्यों से प्रेम करने की अपनी इच्छा की पूर्ति कर सके। 

 हम कृष्ण को प्रेम करने की कला से अनजान हैं। लोगों की सामान्य धारणा है कि नैतिक सिद्धान्तों तथा धार्मिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करके सुखी बना जा सकता है। कुछ लोग सोच सकते हैं कि आर्थिक विकास के द्वारा सुख प्राप्त किया जा सकता है और कुछ लोग ऐसे हैं, जो सोचते हैं कि इन्द्रियतृप्ति के द्वारा ही वे सुखी हो सकते हैं। लेकिन तथ्य तो यह है कि केवल कृष्ण से प्रेम करके ही लोग सुखी हो सकते हैं।

बारह प्रकार के प्रेम सम्बन्ध हैं।

 पाँच मूल प्रेम रस हैं।

श्रीकृष्ण मनुष्य से प्रेम-भावों का विनिमय विभिन्न सम्बन्धों के रूप में करतेहैं, जिन्हें रस कहा जाता है। मूलत: बारह प्रकार के प्रेम सम्बन्ध हैं। कृष्ण से परम अज्ञात के रूप में, परम स्वामी के रूप में, परम मित्र के रूप में, परम शिशु के रूप में, परम प्रेमी के रूप में, प्रेम किया जा सकता है। ये पाँच मूल प्रेम रस हैं। 


सात परोक्ष सम्बन्ध होते है। 

कृष्ण से सात परोक्ष सम्बन्धों में भी प्रेम किया जा सकता है, जो इन पाँच मूल सम्बन्धों से भिन्न हैं। किन्तु यदि कोई अपनी सुप्त प्रेम-भावना को कृष्ण में केन्द्रित करता है, तो उसका जीवन सफल बन जाता है। यह कोई कल्पना नहीं है, अपितु यह सत्य है, जो व्यवहारिक रूप से पालन करके अनुभव किया जा सकता है। मनुष्य के जीवन पर कृष्ण प्रेम का जो प्रभाव पड़ता है उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति की जा सकती है।


भगवद्गीता के नवें अध्याय में इस कृष्णभावनामृत विज्ञान को समस्त विद्याओं का राजा (राजविद्या), समस्त गुह्यों का राजा और दिव्य अनुभूति का परम विज्ञान कहा गया है। फिर भी हम इस कृष्णभावनामृत-विज्ञान के परिणामों का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं, क्योंकि इसका अभ्यास अत्यन्त सुगम एवं अत्यन्त आनन्ददायक है। हम कृष्णभावनामृत का जितना भी अंश सम्पन्न कर सकेंगे वह हमारे जीवन की शाश्वत निधि बन जाएगा, क्योंकि यह प्रत्येक परिस्थिति में अविनाशी है। 


अब यह वास्तव में सिद्ध हो चुका है कि पाश्चात्य देशों की हताश तथा निराश युवा पीढ़ी मात्र कृष्ण ओर अपनी प्रेमासक्ति मोड़ने के परिणाम प्रत्यक्ष अनुभव कर सकती है।कहा जाता है कि कोई अपने जीवन में कितना ही कठोर तप तथा यज्ञ क्यों न करे, किन्तु यदि वह कृष्ण के प्रति अपने सुप्त प्रेम को जाग्रत करने में सफल नहीं होता, तो उसकी सारी तपस्याएँ व्यर्थ समझी जानी चाहिए। किन्तु यदि वह कृष्ण के प्रति अपने सुप्त प्रेम को जाग्रत कर लेता है, तो फिर कठोर तपस्याएं करना व्यर्थ है।


लोग अपना समय काटने तथा शक्ति का उपयोग करने के लिए नाना प्रकार की कथाएँ पढ़ना चाहते हैं। इस प्रवृत्ति को कृष्ण की ओर मोड़ा जा सकता है। इसके परिणामस्वरूप व्यष्टि तथा समष्टि रूप से आत्मा को अखण्ड संतोष प्राप्त होगा। भगवद्गीता में कहा गया है कि यदि कृष्णभावनामृत के मार्ग पर थोड़ा-सा भी प्रयास किया जाये, तो बड़े से बड़े संकट से भी बचा जा सकता है। ऐसे लोगों के लाखों दृष्टान्त दिये जा सकते हैं, जो कृष्णभावनामृत में स्वल्प प्रगति करने के कारण बड़े से बड़े संकटों में दूर रहे हैं। 

प्रिय पाठकों - हम प्रत्येक व्यक्ति से प्रार्थना करते हैं कि इन दिव्य बातों  का लाभ उठाएँ। इस ब्लॉब पर आपको कृष्ण और राधारानी जी की सम्पूर्ण समस्त कथाएं पढ़ने को मिलेंगी। आपको अनुभव होगा कि ज्यों-ज्यों आप एक-एक पोस्ट पढ़ते  जाएंगे त्यों-त्यों प्रभु के समक्ष कला, विज्ञान, साहित्य, दर्शन तथा धर्म की प्रभूत ज्ञान-राशि प्रकट होती जाएगी। 

इसी के साथ विदा लेते है विश्वज्ञान में अगली पोस्ट के साथ फिर मुलाकात होगी। प्रभु श्री राधे -कृष्ण जी की कृपा आप पर बरसती रहे। 

धन्यवाद 


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