punya daan ki mahima (A real story) पुण्यदान की महिमा

 पुण्यदान की महिमा


punya daan ki mahima  (A real  story) पुण्यदान की महिमा



पवित्र सह्याचल के अञ्चल में पहले कोई करवीरपुर नाम का नगर था। वहाँ धर्मदत्त नाम का एक पुण्यात्मा ब्राह्मण रहता था। एक दिन कार्तिक मास में वह एकादशी के दिन जागरण के बाद थोड़ी रात रहते पूजन-सामग्री लिए भगवान के मन्दिर में चला जा रहा था। रास्ते में उसने देखा कि भयंकर नाद करती हुई एक विकराल राक्षसी उसकी ओर दौड़ी चली आ रही है। अब तो बेचारा ब्राह्मण भय से काँप उठा। भगवान का नाम तो वह रट ही रहा था। बस, सारी पूजन-सामग्री को उस राक्षसी पर दे मारा। 


भगवत्राम युक्त तुलसी दल आदि के संस्पर्श (छूने ) से वह राक्षसी निष्पाप सी हो गई। उसी क्षण उसे अपने पूर्वजन्म का स्मरण आया । वह तत्क्षण ब्राह्मण के सामने साष्टाङ्ग प्रणाम करती हुई पृथ्वी पर लेट गई और कहने लगी- 'विप्रवर! अपने पूर्व के कर्मों के कारण मैं इस दुर्दशा को प्राप्त हुई हूँ। अब मैं पुनः उत्तम दशा को कैसे प्राप्त होऊँ, बतलाने का कष्ट करें।' धर्मदत्त को अब दया आ गई। उसने उसके जन्मान्तर के कर्मों की जिज्ञासा को जानने की इच्छा जाहिर की। 


राक्षसी कहने लगी- 'ब्रह्मन् ! सौराष्ट्र नगर में पहले भिक्षु नाम का एक ब्राह्मण था। मैं उसी की पत्नी थी। मेरा नाम कलहा था। मेरा स्वभाव अत्यन्त दुष्ट एवं निष्ठुर था। अधिक क्या कहूं , मैंने वाणी से भी कभी अपने पति का हित नहीं किया। भोजन बनाकर स्वयं तो मैं सभी अच्छी वस्तुओं को पहले खा लेती थी, बाद में निस्सार अवशिष्ट चीजें अपने पति के भोजन के लिए रख छोड़ती थी। मुझे कलहा की यह दशा थी कि पति जो कुछ कहते थे, मैं ठीक उसके प्रतिकूल आचरण करती थी।

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एक बार मेरे पति ने अपने मित्र से मेरी कथा सुनी। थोड़ा सोच-विचार कर उन्होंने मेरे पति से कहा कि 'आप 'निषेधोक्ति' से (उलटा कहकर) कहें तो आपकी स्त्री आपके कार्य को ठीक-ठाक कर देगी।' तत्पश्चात मेरे पति ने मुझसे आकर एक बार कहा- 'देखो, मेरा मित्र बड़ा दुष्ट है, उसे तुम भूलकर भी भोजन के लिए निमन्त्रित न करना।' इस पर मैंने कहा, 'नहीं- नहीं वह तुम्हारा मित्र तो सर्वथा साधु है। मैं आज ही उसे बुलाकर भोजन कराऊँगी।' ऐसा कहकर मैंने उसे बुलाकर उसी दिन भोजन कराया। 


उस दिन से मेरे पति ने सदा 'निषेधोक्ति' से ही कहना आरम्भ किया। एक दिन मेरे ससुर का श्राद्ध-दिवस आ पहुँचा। मेरे पति ने कहा–'प्रिये! मैं पिता का श्राद्ध नहीं करूँगा।' मैंने कहा- 'तुम्हें बार-बार धिक्कार है। मालूम होता है तुम्हें पुत्र धर्म का जरा भी ज्ञान नहीं। भला बतलाओ तो श्राद्ध न करने से तुम्हारी क्या गति होगी?' मैं तुरन्त जाकर ब्राह्मणों को निमन्त्रित कर आयी। तब मेरे पति ने कहा, 'प्रिय! बस एक ही ब्राह्मण को भोजन कराना, विस्तार मत करना ।' 


यह सुनकर मैं अठारह ब्राह्मणों को निमन्त्रित कर आयी। मेरे पति ने कहा- 'पक्वान्न (भोजन ) तुम मत बनाना।' बस, मैंने पक्वान्न बना कर रख दिया। पति ने कहा, 'पहले हम-तुम दोनों भोजन कर लें तो पीछे ब्राह्मणों को भोजन कराया जाए।' मैंने कहा- 'तुम्हें बार-बार धिक्कार है। भला, ब्राह्मणों के खिलाने से पहले खाते तुम्हें लाज नहीं लगती?'


इसी प्रकार निषेधोक्ति से ही मेरे पति ने सारी श्राद्ध-क्रिया जैसे-तैसे सम्पन्न कर ली। दैववशात अन्त में उन्हें निषेधोक्ति की याद भूल गयी और बोल उठे–'प्रिये ! इन पिण्डों को किसी सत्तीर्थ में डाल आओ।' बस, मैंने उन्हें विष्ठा कूप  (शौचगृह )में डाल दिया। अब तो वे खिन्न (दुःखी ) होकर हाहाकार कर उठे। थोड़ा सोचकर उन्होंने फिर कहा-'अच्छा! देखना इन पिण्डों को बाहर मत निकालना।' मैं झट शौच कूप (शौचगृह ) में उतर कर उन पिण्डों को बाहर निकाल लायी। तब उन्होंने कहा-'इन्हें किसी अच्छे तीर्थ में न डाल देना।' तब मैंने बड़े आदर से उन्हें ले जाकर तीर्थ में डाल दिया।


अन्त में मेरी दुष्टता से व्यथित होकर पति ने दूसरा विवाह करने का निश्चय किया। यह सुनकर मैंने जहर खाकर प्राण-परित्याग कर दिया। तत्पश्चात् यमदूत मुझे बाँधकर ले गये। यमराज ने मुझे देखकर चित्रगुप्त से पूछा। चित्रगुप्त ने कहा-'इसके द्वारा शुभ कर्म तो कभी हुआ ही नहीं। यह सदा स्वयं मिठाइयाँ खाती थी और पति को निस्सार उच्छिष्ट (खाने से बचा हुआ ,बासी खाना ) देती थी। अतः इसे झिंगुर की योनी प्राप्त हो। यह पति के साथ सदा द्वेष तथा कलह करती थी अतः विष्ठा-भक्षी शूकरी योनि में भी रहे।' जिन पात्रों में भोजन बनाती थी, उन्ही में यह खाती भी रहती थी, अतएव इसे स्वजातपत्य भक्षिणी वैडाली-योनि भी मिले।


 पति के अकल्याण के लिए इसने आत्म-हत्या कर डाली है, इसलिये चिरकाल तक इसे प्रेत योनि में भी रक्खा जाए। बस चित्रगुप्त का यह कहना था कि यमदूतों ने मुझे मरुदेश में ढकेल दिया। एक बार एक व्यापारी उधर से आ रहा था। मैं उसके शरीर में घुस गयी। जब उसके साथ यहाँ कृष्णावेणी के तट पर पहुँची, तब विष्णु तथा शिव के दूतों ने  मुझे लात मारकर उसके शरीर से अलग कर दिया। मैं इधर-उधर भटक ही रही थी, तब तक तुम दीख पड़े।


तुम्हारे द्वारा तुलसी-जल फेंके जाने पर मेरे सब पाप नष्ट हो गए। अब मुनिश्रेष्ठ! मैं तुम्हारे चरणों की शरण हूँ। आगे होने वाली विडाल, शूकरादि तीन योनियाँ तथा दीर्घकालिक इस प्रेत-शरीर से तुम्हीं त्राण (बचा ) सकते हो। धर्मदत्त को राक्षसी पर बड़ी दया लगी। उसने सोचा, 'साधारण पुण्यों से तो इसका उद्धार होगा नहीं। अतएव मैंने यावज्जीवन (अब तक ,जीवन भर ) जितना भी कार्तिक व्रत किया है, उसका आधा भाग इसे दे दूँ।' ऐसा सोचकर धर्मदत्त ने द्वादशाक्षर (बारह अक्षरों ) का मन्त्र तथा तुलसीदल से उसका अभिषेक कर दिया और अपना संकल्पित पुण्य दे डाला। बस, तत्क्षण वह राक्षसी प्रज्वलित अग्नि के समान उर्वशी जैसी सौन्दर्य-राशि में परिणत हो गयी।

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इधर आकाश से एक विमान उतरा। उस पर पुण्यशील और सुशील  भगवान के दो गण थे। धर्मदत्त ने विस्मित होकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। गणों ने उन्हें उठाकर गले लगाया और धन्यवाद दिया। वे बोले, 'विप्रश्रेष्ठ! तुम धन्य हो, जो दीनों पर इस प्रकार की दया करते हो। तुम्हारी कृपा से इसके सारे पाप नष्ट हो गये। यह अनंत काल तक विष्णुलोक में रहेगी। अब तुम्हारा पुण्य दूना (दुगुना ) हो गया।' अतएव तुम भी अपनी दोनों स्त्रियों के साथ मरने पर वहीं आओगे।


अगले जन्म में तुम राजा दशरथ होओगे। तब तुम्हारी दोनों स्त्रियों के साथ अर्धपुण्य भागिनी यह स्त्री भी कैकेयी नाम से तुम्हारी स्त्री होगी। वहाँ भी तुम्हें भगवान पुत्र रूप से प्राप्त होंगे। तदनन्तर तुम्हें परमधाम की पुनः प्राप्ति होगी।

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