nalkuvar tatha manigriv kis vraksh ke naam se jane gaye/नलकूवर तथा मणिग्रीव का उद्धार

हरे कृष्णा ,हरे कृष्णा ,कृष्णा कृष्णा ,हरे हरे

हरे कृष्णा ,हरे कृष्णा ,कृष्णा कृष्णा ,हरे हरे


हर -हर महादेव !प्रिय पाठकों 

कैसे है आप लोग ,आशा करते है भोलेनाथ जी की कृपा से आप सकुशल होंगे। 

विश्वज्ञान में एक बार फिर से आपका स्वागत है। प्रस्तुत है आपके सामने प्रभु श्री कृष्ण की एक और अद्भुत लीला। सभी का कल्याण करने वाले प्रभु श्री कृष्ण हर पल अपने भक्तों के कल्याण के बारे में सोचते रहते है। हर युग में उनका साथ देते है। उनका उद्धार करते है ,श्राप मुक्त करते है। ऐसे ही एक बार दो जुड़वाँ भाईयों जिनका नाम मणिग्रीव और नलकुवर था प्रभु ने बाल अवस्था में उनका उद्धार किया। .आइये साथ मिलकर पढ़ते है इन दोनों भाइयों के इतिहास के बारे में कि ये कौन थे ,क्या थे ,किस कारण इन दोनों को श्राप मिला। 

नलकूवर तथा मणिग्रीव कौन थे व इन्हे किस वृक्ष के नाम से जाना जाता है?

नलकूवर तथा मणिग्रीव अर्जुन वृक्ष के नाम से जाना जाता है। अर्जुन वृक्षों की इस जोड़ी के पीछे एक इतिहास है। अपने पूर्वजन्म में ये कुबेर के पुत्र रूप में मानव शरीर धारण करके उत्पन्न हुए थे और इनके नाम नलकूवर तथा मणिग्रीव थे। 

नलकूवर तथा मणिग्रीव को श्राप किसने दिया ?

नलकूवर तथा मणिग्रीव को नारद ऋषि ने शाप दिया था, क्योंकि ये मद में चूर होकर अपना कर्तव्य भूल गये थे। किन्तु नारद मुनि ने शाप के साथ यह वर भी दिया था कि कृष्ण भगवान् के दर्शन प्राप्त करने से उनका उद्धार हो सकेगा। 

नलकूवर तथा मणिग्रीव का उद्धार 

प्रिय पाठकों यहाँ इस कथा में नलकूवर तथा मणिग्रीव के शापित होने और नारद ऋषि की उनके कृष्ण द्वारा उद्धार की कथा का वर्णन किया गया है। एक बार की बात है नलकूबर तथा मणिग्रीव नामक दोनों महान देवता भगवान शिव के परम भक एवं देवताओं के कोषपाल कुवेर के पुत्र थे। भगवान् शिव की कृपा से कुवेर के भौतिक ऐश्वर्य का पारावार न था। जिस तरह धनी व्यक्ति के पुत्र प्राय: मंदिरा तथा कामिनियों के प्रति आसक्त हो जाते हैं उसी तरह कुबेर के ये दोनों पुत्र भी मंदिरा तथा मैथुन के शिकार थे।

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एक बार ये दोनों सुखोपभोग की इच्छा से मन्दाकिनी गंगा के तट पर स्थित कैलाश प्रान्त में भगवान शिव के उद्यान में प्रविष्ट हुए। वहीं मंदिरापान करके उस सुगन्धित पुष्पों वाले उद्यान में वे साथ में गई हुई सुन्दरियों का मधुर संगीत सुनने में लीन हो गये। 

उसी मत्त अवस्था में ही वे दोनों कमल पुष्पों से युक्त गंगा के जल में घुस कर युवतियों के साथ इस तरह आनन्द लूटने लगे जैसे हाथी जल के भीतर हथिनियों के साथ करता है। जब वे इस प्रकार जलक्रीड़ा का आनन्द लूट रहे थे, तो उधर से सहसा नारद मुनि का आगमन हुआ। वे समझ गये कि नलकूबर तथा मणिग्रीव दोनों देवता इतने मदोन्मत्त हैं कि वे दोनों उन्हें आते भी न देख पाये। 

युवतियाँ देवताओं के जितनी मदोन्मत्त न थीं, और वे नग्न होने के कारण नारद मुनि के समक्ष परम लज्जित हुई और जल्दी में अपना-अपना शरीर ढकने लगीं। कुवेर के दोनों देव-पुत्र इतने मदान्ध थे कि उन्होंने नारद की उपस्थिति की परवाह न की, अत: वे अपने शरीरों को आच्छादित नहीं कर पाये। 

जब नारद ने देखा कि ये दोनों मंदिश के कारण इतने पतित हो गये हैं, तो उनके कल्याण की इच्छा से उन्होंने उन्हें शाप देकर अपनी अहेतुकी कृपा प्रदर्शित की। चूँकि ऋषि उन पर दयालु थे, अत: वे चाहते थे कि इनका मंदिरापान तथा तरुणियों की संगति का मिथ्या सुख छूट जाये और वे कृष्ण का साक्षात् दर्शन प्राप्त कर सकें, अत: उन्होंने शाप देने की सोची। 

उन्होंने कहा कि भौतिक सुख के प्रति आकर्षण का कारण रजोगुण की वृद्धि है। भौतिक जगत में, जब मनुष्य को धन तथा वैभव का लाभ होता है, तो उसे सामान्य रूप से तीन वस्तुओं की लत पड़ जाती है-नशा, मैथुन तथा धूतक्रीड़ा। ऐश्वर्यवान मनुष्य सम्पत्ति एकत्र हो जाने के कारण गर्वित हो उठने से इतने निर्दय हो जाते हैं कि वे कसाईघर खोल खोल कर पशुओं की हत्या करते हैं और यह सोचते हैं कि उनकी मृत्यु कभी नहीं होनी है। 

ऐसे मूर्ख व्यक्ति प्राकृतिक नियमों को भूल कर देह-वासना में लिप्त हो जाते हैं। वे भूल जाते हैं कि भौतिक शरीर, चाहे मनुष्य सभ्यता में उन्नत होकर देवताओं के पद को भी क्यों न प्राप्त हो जाए, अन्त में जलकर राख हो जाएगा। और जब तक कोई जीवित रहता है, तब तक शरीर की बाह्य दशा चाहे जैसी हो भीतर केवल मल, मूत्र तथा विविध प्रकार के कीड़े भरे रहते हैं। 

इस प्रकार अन्य जीवों के साथ ईर्ष्या तथा हिंसा में प्रवृत्त रह कर भौतिकतावादी कभी जीवन के चरम-लक्ष्य को नहीं समझ पाता और जीवन लक्ष्य को जाने बिना अगले जन्म में नरक की ओर बढ़ता जाता है। अगले जन्म में ऐसे मूर्ख पुरुष इस नश्वर देह के कारण सभी प्रकार के पापकर्म करते हैं और वे यह भी नहीं सोच पाते कि यह शरीर वास्तव में उनका है भी कि नहीं। 

सामान्यतया यह कहा जाता है कि जो शरीर को पालता है शरीर उसी का होता है। अतः मनुष्य को यह सोचना चाहिए कि यह शरीर स्वयं उसी का है। या उस स्वामी का है, जिसकी वह सेवा करता है। दासों का स्वामी अपने दासों पर पूर्ण स्वामित्व जताता है, क्योंकि वही उनको भोजन प्रदान करता है।

तब यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या यह शरीर उस पिता का है, जो इस शरीर का बीजदाता है या कि माता का है, जिसने अपने गर्भ में बालक के शरीर को विकसित किया ? मूर्ख लोग आत्मा और देह को एक मानने की भ्रान्ति के कारण सभी प्रकार के पाप करते रहते हैं। किन्तु मनुष्य को इतना बुद्धिमान तो होना ही चाहिए कि वह समझ सके कि यह शरीर किसका है। 

मूर्ख व्यक्ति अपने शरीर-पालन के लिए अन्य पशुओं का वध करता है, किन्तु वह यह विचार नहीं करता कि यह शरीर उसका है, या उसके पिता का, या माता अथवा नाना का है। कभी-कभी या पिता अपनी पुत्री को किसी ऐसे व्यक्ति को दे देता है, जिससे वह पुत्री के पुत्र (नाती) को अपने पुत्र रूप में पुनः प्राप्त कर सके। 

यह शरीर ऐसे बलवान् व्यक्ति का भी हो सकता है, जो उससे जबरन कार्य करा ले। कभी-कभी दास का शरीर किसी स्वामी को बेच दिया जाता है और उस दिन से उसका शरीर स्वामी का हो जाता है। और जीवन के अन्त में वही शरीर अग्नि का हो जाता है क्योंकि शरीर अग्नि को समर्पित कर दिया जाता है और वह जल कर क्षार हो जाता है। अथवा यह शरीर सड़क पर फेंक दिया जाता है, जिससे उसे कुत्ते तथा गीध खा जायें । 

शरीर पालन के लिए सब प्रकार के पाप करने के पूर्व मनुष्य को यह जान लेना चाहिए कि यह शरीर किसका है। अन्ततोगत्वा यही निष्कर्ष निकलता है कि शरीर भौतिक प्रकृति का प्रतिफल है और अन्त में यह प्रकृति में ही मिल जाता है, अतः निष्कर्ष यही निकलता है कि शरीर प्रकृति का ही है। मनुष्य को भूल कर भी यह नहीं सोचना चाहिए कि यह शरीर उसका है।

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झूठा स्वत्व जताने के लिए भला मनुष्य हत्या में क्यों प्रवृत्त हो? शरीर पालन के लिए वह निर्दोष पशुओं का वध क्यों करे ? जब मनुष्य ऐश्वर्य की झूठी प्रतिष्ठा में पागल होता है, तो वह किसी प्रकार के नैतिक उपदेश की परवाह न करके मदिरा, प्रमदा तथा पशु-वध में प्रवृत्त हो जाता है। 

ऐसी स्थिति में गरीबी का मारा पुरुष ज्यादा अच्छा होता है क्योंकि गरीब व्यक्ति अपने आपको अन्य जीवों के परिप्रेक्ष्य में सोचता है। एक गरीब व्यक्ति प्रायः अन्य जीवों को हानि नहीं पहुँचाना चाहता, क्योंकि वह सरलता से समझ सकता है कि जब उसे कोई घाव पहुँचता है, तो उसे पीड़ा होती है। 

अतः नारद ऋषि ने सोचा कि चूँकि नलकूवर तथा मणिग्रीव नामक दोनों देवता झूठी प्रतिष्ठा से अन्धे हैं अतः उन्हें ऐश्वर्यविहीन अवस्था में रख दिया जाये। जा तन लागे सोइ तन जाने-एक बुद्धिमान- गरीबी की हालत में रहकर कभी नहीं चाहता कि अन्य कोई इस अवस्था को प्राप्त हो। 

सामान्य रूप से यह देखा जाता है कि जो गरीबी से उठकर धनी बनता है, वह जीवन के अन्त में कोई-न- कोई दातव्य संस्था बना जाता है, जिससे अन्य गरीब लोग लाभान्वित हो सकें। संक्षेप में, एक दयावान् व्यक्ति अन्यों के सुख तथा दुख के प्रति सहानुभूति रखता है। गरीब व्यक्ति गर्व से बहुत कम ही फूलता है-प्राय: वह सारे उन्माद से रहित होता है। 

नारद मुनि द्वारा गरीबी के लाभ 

ईश्वर की कृपा से उसे जो कुछ भी अपने निर्वाह के लिए मिल जाता है, उसी से वह सन्तुष्ट रहता है। गरीबी की अवस्था में रहते जाना एक प्रकार की तपस्या है। अतः वैदिक संस्कृति के अनुसार ब्राह्मण लोग भौतिक ऐश्वर्य की झूठी प्रतिष्ठा से बचे रहने के लिए प्राय: गरीब बने रहना चाहते हैं। भौतिक सम्पन्नता में उन्नति होने से झूठी प्रतिष्ठा आध्यात्मिक उत्थान के लिए सबसे बड़ा अवरोध है।

गरीबी का मारा व्यक्ति अधिकाधिक खा-खाकर जरूरत से ज्यादा मोटा नहीं बन सकता; और आवश्यकता से अधिक न खा सकने के कारण उसकी इन्द्रियाँ अत्यधिक चंचल नहीं रहतीं। जब इन्द्रियाँ अधिक चंचल नहीं होतीं, तो वह हिंसक भी नहीं बन सकता। 

गरीबी का दूसरा लाभ यह है कि साधु पुरुष किसी गरीब के घर में सरलता से प्रवेश कर सकता है और गरीब व्यक्ति साधु पुरुष की संगति का लाभ उठा सकता है। अधिक ऐश्वर्यवान् व्यक्ति किसी को अपने घर में नहीं घुसने देता, अतः साधु पुरुष उसके घर में नहीं जा सकता। वैदिक पद्धति के अनुसार साधु पुरुष एक संन्यासी का स्थान ले लेता है, अतः गृहस्थ से किसी वस्तु को माँगने के बहाने वह किसी भी घर में जा सकता है।

गृहस्थ जो गृहकार्यों में व्यस्त रहने के कारण आध्यात्मिक उन्नति के विषय में सामान्यत: सब कुछ भूला रहता है, साधु पुरुष की संगति से लाभ उठा सकता है। साधु की संगति द्वारा एक गरीब मनुष्य को मुक्त होने के लिए काफी अवसर मिलता रहता है। 

नारद ऋषि ने नलकूवर और मणिग्रीव के बारे में क्या सोचा 

यदि लोग साधु पुरुषों तथा भगवद्भक्तों की संगति से वंचित रह कर भौतिक ऐश्वर्य तथा झूठी प्रतिष्ठा से फूले रहें, तो इससे क्या लाभ ? तत्पश्चात् नारद ऋषि ने सोचा कि यह उनका धर्म है कि इन देवताओं को वे ऐसी स्थिति में पहुँचा दें जहाँ वे भौतिक ऐश्वर्य तथा प्रतिष्ठा से झूठे ही गर्वित न हों। 

नारद दयालु थे और वे उन्हें पतित जीवन से उबारना चाह रहे थे। किन्तु वे तमोगुणी थे और अपनी इन्द्रियों को वश में न रख सकने के कारण विषयी जीवन के प्रति लिप्त थे। उन्हें इस गर्हित अवस्था से बचाना नारद जैसे साधु पुरुष का कर्तव्य था। 

पशु जीवन में पशु को इतना ज्ञान नहीं होता कि वह नंगा है। किन्तु कुवेर तो देवताओं का कोषपाल था और एक अत्यन्त उत्तरदायी पुरुष और नलकूवर तथा मणिग्रीव दोनों उसके पुत्र थे। तो भी वे ऐसे पशुवत् एवं लापरवाह हो गये थे कि मदोन्मत्त होकर वे यह न समझ पाये कि वे नंगे हैं।

अधोभाग को वस्त्र से ढके रहना मानवीय सभ्यता का नियम है और जब मनुष्य या स्त्रियाँ इस नियम को भूल जाते हैं, तो वे पशुओं से बेहतर नहीं रह जाते। अतः नारद ने सोचा कि उनके लिए सबसे उत्तम दण्ड यही होगा कि उन्हें जड़ जीव या वृक्ष बना दिया जाय। वृक्ष स्वभाव से जड़ (अचर) होते हैं। यद्यपि वृक्ष तमोगुण से आच्छादित होते हैं, किन्तु वे कोई हानि नहीं पहुँचा सकते। नारदमुनि ने सोचा कि इनके लिए उपयुक्त यही होगा कि ये दोनों भाई मेरी कृपा से वृक्ष बन जाँए, 

किन्तु उनमें इतनी स्मृति बनी रहे जिससे वे जान सकें कि उन्हें क्यों दण्डित किया जा रहा है। शरीर बदल जाने पर जीवात्मा सामान्य रूप से अपने पूर्व जीवन को भूल जाता है किन्तु विशेष परिस्थितियों में, ईश्वर की कृपा होने पर, वह स्मरण रख सकता है, जैसाकि नलकूवर तथा मणिग्रीव के साथ हुआ। 

अतः नारद मुनि ने विचार किया कि इन दोनों देवों को देवताओं के एक सौ वर्ष तक वृक्षों के रूप में क्यों न रहने दूं और इसके बाद भगवान् की अहेतुकी कृपा से इन्हें भगवान् के साक्षात् दर्शन हो सकेंगे। इस प्रकार वे पुनः देवताओं का तथा भगवद्भक्तों का जीवन प्राप्त कर सकेंगे। 

इसके बाद ऋषि नारद अपने धाम नारायण आश्रम को लौट आये और वे दोनों देवता वृक्ष में परिणत हो गये जिनका नाम यमलार्जुन पड़ा। इन दोनों देवताओं पर नारद की अहैतुकी कृपा थी जिससे वे नन्द के आँगन में उग सके और भगवान् कृष्ण का साक्षात् दर्शन कर सके। 

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यद्यपि बालक कृष्ण काष्ठ की ऊखल में बँधे थे, किन्तु वे अपने परम भक्त नारद की भविष्यवाणी को पूरा करने के लिए यमल वृक्षों की ओर बढ़ते गये। भगवान् कृष्ण को ज्ञात था कि नारद उनके परम भक्त हैं और उनके समक्ष खड़े यमलार्जुन वृक्ष वास्तव में कुवेर के पुत्र हैं। 

उन्होंने सोचा, “अब मुझे अपने परम भक्त नारद के वचनों को पूरा करना चाहिए।” अतः वे इन दोनों वृक्षों के बीच के मार्ग से आगे जाने लगे। यद्यपि वे स्वयं उस मार्ग से आगे निकल गये, किन्तु काष्ठ का ऊखल बड़ा होने के कारण दोनों वृक्षों के बीच फँस गया। इस अवसर का लाभ उठाकर श्रीकृष्ण उलूख से बँधी रस्सी को जोर से खींचते रहे।

nalkuvar tatha manigriv koun the inhe kis vraksh ke naam se jana jaata hai/नलकूवर तथा मणिग्रीव का उद्धार


नलकूवर तथा मणिग्रीव द्वारा कृष्ण स्तुति 

ज्योंही उन्होंने बल लगा कर रस्सी खींची त्योंही दोनों वृक्ष तने तथा शाखाओं समेत धम्म से पृथ्वी पर गिर पड़े। इन गिरे टूटे वृक्षों में से अग्नि के समान प्रज्ज्वलित दो महापुरुष प्रकट हुए। उनकी उपस्थिति से सारी दिशाएँ प्रकाशित हो उठीं। वे दोनों विशुद्ध पुरुष बालक कृष्ण के समक्ष उपस्थित हुए और प्रणाम करने के लिए झुक कर इस प्रकार स्तुति करने लगे- 

"हे कृष्ण! आप आदि भगवान् तथा योगेश्वर हैं। विद्वान ब्राह्मण जानते हैं कि यह दृश्य जगत आपकी उन शक्तियों का विस्तार है, जो कभी प्रकट होती हैं और कभी अप्रकट रहती हैं। आप समस्त प्राणियों के जीवन, शरीर तथा इन्द्रियों के आदि दाता हैं। आप शाश्वत ईश्वर भगवान् विष्णु हैं, जो सर्वव्यापी हैं तथा प्रत्येक के शाश्वत नियामक और नित्य काल हैं।

आप इस दृश्य जगत के मूल स्रोत वस्तु हैं, जो प्रकृति के तीन गुणों सत्त्व, रज तथा तमस् के अधीन कार्य कर रहा है। आप नाना रूपधारी प्राणियों में परमात्मा रूप में निवास करते हैं और भलीभाँति जानते हैं कि उनके शरीरों तथा मनों के भीतर क्या हो रहा है। अतः आप समस्त जीवात्माओं के समस्त कार्यों के श्रेष्ठ निदेशक हैं। 

यद्यपि आप माया के गुणों के वशीभूत वस्तुओं के बीच रहते हैं, किन्तु ऐसे कलुषित गुणों से प्रभावित नहीं होते। भौतिक गुणों के वशीभूत होकर कोई भी आपके दिव्य गुणों को नहीं समझ सकता, क्योंकि वे सृष्टि की उत्पत्ति के पहले से विद्यमान थे, अतः आप परब्रह्म कहलाते हैं, जो अपनी अंतरंगा शक्तियों के कारण महिमामण्डित हैं।

हे भगवान् वासुदेव! हम आपके चरणकमलों में सादर नमस्कार करते हैं। इस संसार में आप अपने नाना अवतारों के द्वारा ही जाने जाते हैं। यद्यपि आप विभिन्न शरीर धारण करते रहते हैं, किन्तु ये शरीर इस भौतिक सृष्टि के अंगस्वरूप नहीं होते।

ये शरीर असीम ऐश्वर्य, बल, सौंदर्य, यश, बुद्धि तथा त्याग की दिव्य शक्तियों से पूरित रहते हैं। इस संसार में शरीर तथा शरीरी में अन्तर होता है। किन्तु आप अपने आध्यात्मिक शरीर में प्रकट होते रहते हैं, अतः आपके लिए ऐसा भेद नहीं रहता। जब आप प्रकट होते हैं, तो आपके असामान्य कार्य सूचित करते हैं। कि आप श्रीभगवान् हैं।

ऐसे असामान्य कार्य करना इस जगत में रहने वाले किसी भी प्राणी के लिए सम्भव नहीं। आप परम भगवान् जीवों के जन्म, मृत्यु तथा मुक्ति के कारण हैं और आप अपने सभी अंशों से पूर्ण हैं। आप किसी को कोई भी वर दे सकते हैं। 

हे भगवान्! हे भाग्य तथा कल्याण के कारणस्वरूप! हम आपको सादर नमस्कार करते हैं। आप सर्वव्यापी, शान्तिदाता तथा यदुवंश के परम पुरुष हैं। हे प्रभु! हमारे पिता कुवेर आपके दास हैं। इसी तरह, ऋषि नारद भी आपके सेवक हैं और यह उन्हीं की कृपा है कि हमें आपके साक्षात् दर्शन हो सके।

अतः हम प्रार्थना करते हैं कि हम आपकी ही महिमा का कथन करते तथा आपके दिव्य कार्यकलापों का श्रवण करते हुए आपकी दिव्य प्रेमा-भक्ति में लगे रहें। हमारे हाथ तथा अन्य अंग आपकी सेवा में रत रहें और हमारे मन आपके चरणकमलों में केन्द्रित रहें और हमारे सिर आपके सर्वव्यापक विराट स्वरूप के समक्ष सदा नत रहें।"

 नलकूवर तथा मणिग्रीव की स्तुति सुनकर श्री कृष्ण ने क्या कहा ?

जब नलकूवर तथा मणिग्रीव ने अपनी स्तुति समाप्त की तो बालकृष्ण, जो यशोदा द्वारा ऊलूख से बाँधे गये थे, हँसे और बोले, "यह मुझे पहले से ज्ञात था कि मेरे प्रिय भक्त नारद ने तुम दोनों को देवकुल के अद्वितीय सौन्दर्य तथा ऐश्वर्य के कारण उत्पन्न गर्व की गर्हित स्थिति से उबारने के लिए अहेतुकी दया प्रदर्शित की है। उन्होंने तुम्हें नरक में जाने से बचाया है। ये सारी बातें मुझे पहले से ज्ञात हैं। 

तुम लोग भाग्याशाली हो कि उन्होंने न केवल तुम्हें शाप दिया अपितु तुम दोनों ने उनके दर्शन भी किये। यदि कोई बद्धजीव संयोगवश जैसे साधु पुरुष का साक्षात् दर्शन प्राप्त करता है, जो सदैव गम्भीर और सब पर दयालु रहते हैं, तो वह तुरन्त ही मुक्त हो जाता है। यह तो वैसा ही हुआ जैसे कोई सूर्य के पूर्ण प्रकाश में हो-तब किसी प्रकार का दृष्टि-व्यवधान नहीं हो सकता।

सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई?सृष्टि की उत्पत्ति कहाँ से हुई ?

अतः हे नलकूवर तथा मणिग्रीव! अब तम्हारा जीवन सफल हो गया है, क्योंकि तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति उत्कृष्ट प्रेम उत्पन्न हो चुका है। इस संसार में यह तुम्हारा अन्तिम जन्म है। अब तुम अपने पिता के धाम स्वर्गलोक को जा सकते हो और भक्ति करते रहने के कारण तुम इसी जीवन में मुक्त हो सकोगे।” इसके पश्चात् उन दोनों ने भगवान् की कई परिक्रमाएँ कीं और पुनः पुनः प्रणाम करके वे वहाँ से चले गये। और भगवान् उसी प्रकार ऊखल से बँधे वहीं पर रहे। 

प्रिय पाठकों ! इस तरह से प्रभु श्री कृष्ण ने नलकूवर तथा मणिग्रीव का उद्धार किया। विश्वज्ञान में आपको ऐसे ही कृष्ण लीलाओं से सम्बंधित जानकारियां मिलती रहेंगी। आप अपना ख्याल रखें, प्रभु को याद रखे ,उनकी लीलाओं को याद कर मुस्कुराते रहिये ,इसी के साथ विदा लेते है। अगली पोस्ट के साथ फिर मुलाक़ात होगी,तब तक के लिए जय -जय श्री राधे श्याम। 

धन्यवाद 

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