ब्रह्मा जी ने बच्चों की चोरी क्यों की ?

जय जय श्री राधे कृष्ण 

ब्रह्मा जी ने बच्चों की चोरी क्यों की ?

इस पोस्ट में आप पाएंगे -

अघासुर की मृत्यु के बारे में महाराज परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से क्या प्रश्न किया ?

भगवान श्री कृष्ण कलेवा (नाश्ता ) करते समय कैसे लग रहे थे ?

ब्रह्मा  जी को किस बात का आश्चर्य हुआ?उन्होंने गायों और बालकों का हरण क्यों किया ?

वृंदावन की सभी माताओं को कृष्ण ने कौन सा अवसर प्रदान किया  ?

ब्रह्मा जी की एक पल की आयु कितनी होती है?

ब्रह्मा जी खुद की योगशक्ति के वशीभूत क्यों हो गए?

                          What surprised Brahma ji? Why did he kidnap cows and children/ ब्रह्मा  जी को किस बात का आश्चर्य हुआ? उन्होंने गायों और बालकों का हरण क्यों किया ?

अघासुर की मृत्यु के बारे में महाराज परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से क्या प्रश्न किया ?  

एक बार महाराज परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी जी से प्रश्न किया कि ग्वालों ने अघासुर की मृत्यु के पश्चात् एक वर्ष तक उसकी चर्चा क्यों नहीं की, तो शुकदेव गोस्वामी अत्यन्त प्रोत्साहित हुए। 

उन्होंने कहा, "हे राजा! आप अपनी उत्सुकता के कारण कृष्ण की दिव्य लीलाओं को नवीनता प्रदान कर रहे हैं। है कि यह भक्त का स्वभाव है कि वह कृष्ण के विषय में श्रवण तथा कीर्तन करने में अपना मन, शक्ति, वाणी, कान सभी कुछ लगा देता है। 

यह कृष्णभावनामृत कहलाता है और जो व्यक्ति कृष्ण के विषय में श्रवण तथा कीर्तन में लीन रहता है उसके लिए यह विषय कभी नीरस या बासी नहीं होता। भौतिक विषय तथा दिव्य विषय के मध्य यही अन्तर है कि भौतिक कथावस्तु बासी पड़ जाती है और कोई भी एक ही विषय-वस्तु को दीर्घकाल तक सुनना नहीं चाहता। 

किन्तु जहाँ तक दिव्य कथावस्तु का सम्बन्ध है, यह तो नित्य नवनवायमान कहलाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि कोई चाहे तो भगवान् के विषय में कितना भी कीर्तन तथा श्रवण करता रहे, किन्तु वह कभी थकता नहीं, अपितु वह अधिकाधिक सुनने के लिए उत्सुक रहता है। गुरु का कर्तव्य है कि वह अपने जिज्ञासु तथा निष्ठावान् शिष्य को सारी गुह्य(गुप्त रखने वाली बातें) बता दे। 

इस प्रकार शुकदेव गोस्वामी यह बताने लगे कि अघासुर वध की चर्चा एक वर्ष तक क्यों नहीं चलाई गई। शुकदेव गोस्वामी ने राजा से कहा, "अब इस रहस्य को सावधान होकर सुनो। भगवान् कृष्ण अपने मित्रों को अघासुर के मुख से निकाल कर और उस असुर का वध करके मित्रों सहित यमुना के तट पर आये और उन्हें इस प्रकार सम्बोधित किया, 

'मित्रो! देखो न, यह स्थान कलेवा करने तथा यमुना के रेतीले तट पर खेलने के लिए कितना सुन्दर है। देखो न, कमल - पुष्प जल में किस प्रकार खिल रहे हैं और चतुर्दिक् अपनी सुगन्ध बिखेर रहे हैं। 

पक्षियों का कलरव और मोरों की केका वृक्षों की पत्तियों की सरसराहट से मिलकर ऐसी ध्वनि उत्पन्न करते हैं जिससे प्रतिध्वनि उत्पन्न होती है। इससे यहाँ के वृक्षों द्वारा उपस्थित सुन्दर दृश्यावली में श्रीवृद्धि होती है। चलो, हम सब यहीं कलेवा करें क्योंकि पहले ही काफी देर हो चुकी है और हमें भूख भी लगी है। 

भगवान श्री कृष्ण कलेवा (नाश्ता ) करते समय कैसे लग रहे थे ? 

बछड़ों को अपने निकट ही रहने दें और यमुना का जल पीने दें। जब तक हम कलेवा करते हैं तब तक ये बछड़े भी इस स्थान पर उगी घास चरते रहेंगे।' कृष्ण से इस प्रस्ताव को सुनकर सारे बालक अत्यन्त प्रसन्न और बोले,"निश्चय ही हम यहीं कलेवा करेंगे।" 

तब उन्होंने बछड़ों को घास चरने के लिए छोड़ दिया। कृष्ण को बीच में बैठा कर सारे बालक उनके चारों ओर जमीन पर बैठ गये और घर से लाए अपने अपने भोजन की पोटली खोलने लगे। 

भगवान् श्रीकृष्ण केन्द्र में बैठे थे और सभी बालक कृष्ण की ओर मुख करके बैठे थे। वे खा रहे थे और निरन्तर कृष्ण को अपने समक्ष देखकर प्रसन्न हो रहे थे। कृष्ण कमल के फूल के मध्य भाग जैसे प्रतीत हो रहे थे और सारे ग्वालबाल उसकी पंखड़ियाँ लग रहे थे।

सारे बालक फूल, पत्तियाँ तथा वृक्षों की छाल एकत्र कर करके उन्हें अपनी- अपनी पोटली के नीचे रखकर अथवा अपनी पोटली में से ही कृष्ण के साथ-साथ कलेवा करने लगे। कलेवा करते हुए हर बालक कृष्ण के साथ अपना-अपना सम्बन्ध प्रदर्शित कर रहा था और वे सब परस्पर हँसी-ठट्ठा करके आनन्द लूट रहे थे। 

भगवान् कृष्ण जब इस प्रकार मित्रों के साथ कलेवा करने का आनन्द उठा रहे थे, तो उन्होंने अपनी बाँसुरी अपने फेंट में और अपना महिष-सींग तथा अपनी लकुटी अपने वस्त्र की बाईं ओर धकेल दी। 

उन्होंने दही, मक्खन, चावल तथा फलों के खण्ड से तैयार किये गये भोजन को अपनी बाईं हथेली पर रखा जो उनके कमलदल जैसी अँगुलियों के पोरों के बीच से दिखाई पड़ रहा था। 

श्रीभगवान्, जो समस्त महान् यज्ञों के फल को स्वीकार करने वाले हैं, हँसते-हँसाते वृन्दावन में अपने मित्रों के साथ कलेवे का आनन्द लूट रहे थे। यह दृश्य देवतागण आकाश से देख रहे थे। 

सारे बालक श्रीभगवान् के साथ दिव्य आनन्द का सुख भोग रहे थे। कि उसी समय, पास चरते हुए बछड़े नई उगी घास के लालच में निकटवर्ती घने जंगल में चले गये और अचानक दृष्टि (आँखों )से ओझल हो गये। 

जब बालकों ने देखा कि बछड़े उनके पास नहीं हैं, तो वे उनकी सुरक्षा के विषय में भयभीत हुए और तुरन्त ही 'कृष्ण कृष्ण' कह कर चिल्ला उठे। कृष्ण साक्षात् भय के हन्ता हैं। 

प्रत्येक व्यक्ति साक्षात् भय से भयभीत रहता है, किन्तु यही साक्षात् भय कृष्ण से भयभीत रहता है। 'कृष्ण' शब्द चिल्लाने से बच्चों का भय तुरन्त जाता रहा। अपने प्यार के कारण कृष्ण नहीं चाह रहे थे कि उनके मित्र कलेऊ का आनन्द त्याग कर बछड़ों की खोज करने जायें। 

अतः उन्होंने कहा, "मेरे मित्रो! तुम्हें अपना कलेवा छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। इसका आनन्द उठाते रहो। मैं स्वयं जाकर देखता हूँ कि बछड़े कहाँ हैं।” 

इस प्रकार भगवान् कृष्ण अपने बाएँ हाथ में कलेवा (नाश्ता ) का टुकड़ा लिए हुए तुरन्त ही बछड़ों को गुफाओं तथा झाड़ियों में खोजने के लिए चल पड़े। उन्होंने पर्वत की दरारों तथा जंगलों में खोज की, किन्तु वे बछड़े कहीं न मिल पाये। 

ब्रह्मा जी को किस बात का आश्चर्य हुआ?उन्होंने गायों और बालकों का हरण क्यों किया ? 

जिस समय अघासुर का वध हुआ था। देवता इस घटना को अत्यन्त विस्मय के साथ देख रहे थे उसी समय विष्णु की नाभि से उगने वाले कमल-पुष्प से जन्म ग्रहण करने वाले ब्रह्मा भी देखने आये थे। उन्हें आश्चर्य हुआ था कि किस प्रकार कृष्ण जैसा छोटा-सा बालक इतने आश्चर्यमय कार्य कर सकता है। 

यद्यपि उन्हें बताया जा चुका था कि यह नन्हा ग्वालबाल श्रीभगवान् है, तथापि वे भगवान् की अन्य यशस्वी लीलाएँ देखना चाह रहे थे, अतः उन्होंने सारे ग्वालबालों तथा बछड़ों को हर लिया और उन्हें किसी दूसरे स्थान में ले गये। 

इसीलिए भगवान् कृष्ण ढूँढने पर भी उन बछड़ों को नहीं पा सके, यहाँ तक कि वे यमुना तट पर कलेवा करते हुए अपने मित्रों को भी खो बैठे। एक ग्वाले के रूप में भगवान् कृष्ण ब्रह्माजी से बहुत छोटे थे, किन्तु भगवान् होने के कारण उन्हें यह समझने में देर न लगी कि सारे बछड़े तथा बालक ब्रह्माजी द्वारा चुरा लिये गये हैं। 

कृष्ण सोचने लगे, "ब्रह्मा ने सारे बालकों तथा बछड़ों का अपहरण कर लिया है। अब मैं वृन्दावन कौन-सा मुँह लेकर जाऊँगा? सबकी माताएँ अत्यन्त शोकाकुल होंगी।" 

अतः अपने मित्रों की माताओं को प्रसन्न करने तथा ब्रह्मा को श्रीभगवान् की सर्वोच्चता से आश्वस्त कराने की दृष्टि से उन्होंने तुरन्त ही ग्वालों तथा बछड़ों के रूप में अपना विस्तार किया। 

सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई?सृष्टि की उत्पत्ति कहाँ से हुई ? वेदों में कहा गया है कि श्रीभगवान् अपनी शक्ति के द्वारा असंख्य जीवों के रूप में विस्तार कर चुके हैं। अत: उनके लिए इतने बालकों तथा बछड़ों के रूप में दोबारा विस्तार करना कोई कठिन काम नहीं था। 

उन्होंने अपना विस्तार ठीक उतने ही बालकों के अनुरूप किया, जो विभिन्न आकृति, मुख तथा शरीर की बनावट वाले एवं तथा आभूषण में एवं आचरण तथा व्यक्तिगत कार्यकलापों में भिन्न-भिन्न थे। 

दूसरे शब्दों में, यद्यपि जीवात्मा होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति की अपनी पृथक् रुचि होती है और पृथक्-पृथक् कार्य तथा आचरण होता है, फिर भी कृष्ण ने स्वयं को विभिन्न बालकों के स्वरूपादि में ठीक उसी रूप में विस्तारित किया। 

वे बछड़े भी बने जो अपने आकार, रंग, कार्य में सर्वथा भिन्न थे। यह सब इसलिए सम्भव हो सका, क्योंकि प्रत्येक वस्तु श्रीकृष्ण की शक्ति का विस्तार है। 

वृंदावन की सभी माताओं को कृष्ण ने कौन सा अवसर प्रदान किया ?  

विष्णु पुराण में कहा गया है-परस्य ब्रह्मणः शक्ति। अर्थात् लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण इस दृश्य जगत में हम जो कुछ भी देखते हैं, चाहे वह पदार्थ हो या जीवों के कार्य-कलाप, वह सब कुछ भगवान् की शक्तियों का विस्तार है, ठीक उसी प्रकार जिस तरह उष्मा तथा प्रकाश अग्नि के विभिन्न विस्तार हैं। 

इस प्रकार अपने आपको ग्वाल-बालों तथा बछड़ों के रूप में विस्तारित करते हुए एवं ऐसे विस्तारों से घिरकर श्रीकृष्ण वृन्दावन में प्रविष्ट हुए। व्रजवासियों को कुछ भी ज्ञात न था कि क्या घटना घटी है। 

वृन्दावन में प्रवेश करने के पश्चात् सारे बछड़े अपनी-अपनी शालाओं में चले गये और सारे बालक अपने-अपने घरों तथा माताओं के पास पहुँच गये। 

उनके प्रवेश के पूर्व बालकों की माताओं ने वंशी की ध्वनि सुनी, अतः वे उन्हें लेने के लिए अपने-अपने घरों से बाहर आ गईं और उन्होंने उनका आलिंगन किया। वात्सल्य के कारण उनके स्तनों से दूध की धारा बह निकली और उन्होंने बालकों को स्तनपान कराया। 

किन्तु यह दूध पिलाना अपने बालकों जैसा न होकर भगवान् को दूध पिलाने जैसा था, जिन्होंने इन बालकों के रूप में अपना विस्तार किया था। यह एक अवसर था कि वृन्दावन की माताएँ भगवान् को अपना स्तन-पान करा रही थीं। 

अतः कृष्ण ने इस बार न केवल यशोदा को दूध पिलाने का अवसर दिया, अपितु उन्होंने समस्त वयोवृद्ध गोपिकाओं को भी यह अवसर प्रदान किया। 

सारे बालक अपनी-अपनी माताओं के साथ पूर्ववत् व्यवहार करने लगे और माताएँ भी संध्या होने पर, अपने-अपने बालकों को नहला कर तिलक तथा आभूषणों से सुसज्जित करने तथा दिन-भर के श्रम के बाद भोजन देने की व्यवस्था करने लगीं। 

इसी प्रकार गाएँ भी चरागाहों से संध्या समय लौटीं और अपने-अपने बछड़ों को पुकारने लगी। बछड़े तुरन्त अपनी माताओं के पास आये और उनकी माताएँ (गौवें) उनके शरीरों को चाटने लगीं। 

गौवों तथा गोपियों का अपने-अपने बछड़ों तथा बालकों के प्रति यह सम्बन्ध पहले की तरह बना रहा, यद्यपि वास्तव मूल बछड़े तथा बालक वहाँ नहीं थे। 

वस्तुतः गायों का बछड़ों के प्रति और गोपिकाओं का अपने बालकों के प्रति यह वात्सल्य अकारण ही बढ़ गया। उनका वात्सल्य सहज ही बढ़ गया, यद्यपि ये बछड़े तथा बालक उनकी सन्तानें न थे। 

यद्यपि वृन्दावन की गौवें तथा गोपिकाएँ कृष्ण को अपनी-अपनी सन्तानों से अधिक प्रेम करती थीं, किन्तु इस घटना के बाद उनका यह प्रेम (वात्सल्य) अपनी सन्तानों के प्रति भी उसी तरह बढ़ गया जिस तरह वह कृष्ण के प्रति था। 

कृष्ण ने कितने वर्ष तक बछड़ों तथा बालकों के रूप में स्वयं को विस्तारित रखा ? 

कृष्ण ने लगातार एक वर्ष तक बछड़ों तथा बालकों के रूप में स्वयं को विस्तारित रखा और चरागाहों में भी उपस्थित रहे। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, कृष्ण का विस्तार प्रत्येक हृदय में परमात्मा के रूप में स्थित है। 

इसी प्रकार स्वयं को परमात्मा रूप में विस्तारित न करके लगातार एक वर्ष तक वे बछड़ों तथा ग्वालों के रूप में विस्तारित रहते रहे। एक दिन एक वर्ष समाप्त होने से कुछ दिन पहले जब कृष्ण बलराम के साथ जंगल में बछड़ों को चरा रहे थे, तो उन्होंने गोवर्धन पर्वत की चोटी पर कुछ गौवों को चरते देखा। 

ये गौवें वहीं से नीचे घाटी में ग्वालों द्वारा अपने बछड़ों की रखवाली होते देख सकती थीं। अतः सहसा अपने बछड़ों को देख कर गौवें उनकी ओर दौड़ने लगीं। वे अगले तथा पिछले पाँव बँधे होने पर भी पहाड़ी से नीचे कूद आईं। 

ये गौवें अपने बछड़ों के प्रेम से इतनी द्रवित हो गईं कि उन्होंने गोवर्धन पर्वत की चोटी से नीचे चरागाह तक के ऊबड़-खाबड़ मार्ग की तनिक भी परवाह न की। उनके थन दूध से पूरित थे और वे अपनी पूँछें ऊपर उठाये अपने-अपने बछड़ों के पास पहुँच गईं।

जब वे पहाड़ से नीचे आ रही थीं, तो उनके थनों से अपने बछड़ों के प्रेमवश दूध की धारा चू रही थी, यद्यपि ये बछड़े उनके अपने बछड़े न थे। 

इन गायों के अपने-अपने बछड़े थे और गोवर्धन के नीचे, जो बछड़े चर रहे थे वे उनसे कुछ बड़े थे; इन बछड़ों से भी यह आशा नहीं की जाती थी कि वे इन गायों का सीधे स्तनों से पियेंगे; वे तो घास चर कर तृप्त थे। 

फिर भी गाएँ दूध तुरन्त आईं और उनके शरीर चाटने लगीं और बछड़े भी गायों के थन से दूध पीने लगे। इन गौवों तथा बछड़ों में प्रगाढ़ प्रेम-बन्धन दीख पड़ा। 

जब गौवें गोवर्धन पर्वत से नीचे की ओर दौड़ रही थीं, तो उनकी रखवाली करने वाले व्यक्तियों ने उन्हें रोकने का प्रयास किया। प्राय: बड़ी गायों की रखवाली पुरुष करते हैं और बछड़ों की रखवाली बालक करते हैं। 

जहाँ तक सम्भव होता है बछड़ों को गायों से पृथक् रखा जाता है, जिससे वे गायों का सारा दूध न पी जाँए। अतः जो व्यक्ति गोवर्धन की चोटी पर गायों की रखवाली कर रहे थे उन्होंने उन्हें रोकने का प्रयास किया, किन्तु वे असफल रहे। 

अपनी असफलता के कारण वे बहुत लज्जित, क्रुद्ध और अप्रसन्न थे, किन्तु जब वे पर्वत से उतर कर नीचे आये और देखा कि उनके बालक गौवों के बछड़ों की ठीक से देख-रेख कर रहे हैं, तो वे उनके प्रति अत्यन्त प्रेम-विह्वल हो उठे। 

यह अत्यन्त आश्चर्यजनक था। यद्यपि सारे पुरुष निराश, व्यग्र तथा क्रुद्ध होकर पर्वत से नीचे आये थे, किन्तु ज्योंही उन्होंने अपने पुत्रों को देखा, तो उनके हृदय प्रेम से द्रवित हो उठे। उनका क्रोध. असन्तोष तथा अप्रसन्नता सभी तुरन्त छूमन्तर हो गये। 

वे अपने पुत्रों के प्रति पिता का प्रेम प्रदर्शित करने लगे और बड़े ही स्नेह से उन्हें अपनी गोद में उठाकर उनका आलिंगन करने लगे। फिर उन्होंने उनके सिर सूँघे और उनके साथ परम प्रसन्नता का अनुभव किया। 

अपने पुत्रों का आलिंगन करने के बाद वे पुनः अपनी गायों को गोवर्धन की चोटी पर ले गये। रास्ते में वे अपने पुत्रों के विषय में सोचते रहे और उनके नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की वर्षा होती रही। 

जब बलराम ने गौवों तथा बछड़ों एवं पिता तथा पुत्रों के मध्य इस प्रकार प्रेम का अद्भुत आदान-प्रदान देखा-विशेषरूप से जब बछड़ों या बालकों को इतनी देख-रेख की आवश्यकता न थी-तो उन्हें आश्चर्य होने लगा कि यह असामान्य बात क्यों हो रही है। 

वे यह देखकर आश्चर्यचकित थे कि वृन्दावन के समस्त निवासी अपनी-अपनी सन्तानों के प्रति उसी प्रकार वत्सल हैं जिस प्रकार कि वे कृष्ण के प्रति हैं। 

इसी तरह सारी गौवें अपने-अपने बछड़ों के प्रति उतनी ही वत्सल थीं जितनी कि कृष्ण के प्रति। अतः बलराम ने यह निष्कर्ष निकाला कि यह प्रेम का अद्भुत प्रदर्शन रहस्यात्मक है, जो- या तो देवताओं द्वारा सम्पन्न हो रहा हो या किसी शक्तिशाली व्यक्ति द्वारा अन्यथा यह अद्भुत परिवर्तन कैसे आता? 

उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि यह रहस्यात्मक परिवर्तन हो न हो कृष्ण द्वारा लाया गया है, जिन्हें बलराम अपना पूज्य भगवान् मानते थे। उन्होंने सोचा, “यह कृष्ण द्वारा सम्पादित है। अरे! मैं भी इसकी रहस्यात्मक शक्ति को रोक न पाया।" इस प्रकार बलराम समझ गये कि ये बालक तथा बछड़े कृष्ण के ही विस्तार हैं। बलराम ने कृष्ण से वास्तविक स्थिति जाननी चाही। 

अत: वे बोले, "हे कृष्ण! पहले मैं सोच रहा था कि ये सारे, बछड़े तथा ग्वाले या तो ऋषि-मुनि हैं या देवता हैं, किन्तु अब मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि ये सब तुम्हारे विस्तार हैं। ये सब तुम्हीं हो और तुम स्वयं बछड़ों तथा बालकों की लीला कर रहे हो। 

इसका क्या रहस्य है? वे सारे अन्य बछड़े तथा बालक कहाँ हैं? और तुम स्वयं को बछड़ों और ग्वालों में क्यों विस्तार कर रहे हो? क्या तुम मुझे बता सकोगे कि क्या कारण है?" बलराम की प्रार्थना पर कृष्ण ने संक्षेप में सारी स्थिति बतला दी कि-

किस तरह ब्रह्मा ने सारे बछड़े तथा बालक चुरा लिये थे और किस तरह उन्होंने इस घटना को छिपाने के लिए स्वयं का विस्तार किया जिससे व्रजवासी यह न जान पाएँ कि उनके असली बछड़े तथा बालक खो गये हैं। 

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ब्रह्मा जी की एक पल की आयु कितनी होती है 

जब कृष्ण तथा बलराम इस प्रकार बातें कर रहे थे तो ब्रह्मा एक क्षण के अनन्तर (अपनी आयु के अनुसार) लौट आये। हमें भगवद्गीता से भगवान् ब्रह्मा की आयु की जानकारी प्राप्त होती है। ब्रह्मा के बारह घण्टे चारों युगों की अवधि से एक हजार गुने अर्थात् ४३,२०,००० x१,०००(43,20,000 गुणा 1000 ) वर्ष के तुल्य होते है। 

इसी प्रकार ब्रह्मा का एक क्षण हमारे एक सौर वर्ष के तुल्य है। अपनी गणना के अनुसार ब्रह्मा एक क्षण बाद ही अपने द्वारा बालकों तथा बछड़ों के चुराये जाने से उत्पन्न कौतुक देखने के लिए लौटे। किन्तु वे मन ही मन भयभीत थे कि यह आग के साथ खिलवाड़ करने जैसा है। 

"कृष्ण मेरे स्वामी हैं और मैंने कौतुकवश ही उनके बछड़े तथा बालक चुराये हैं।" वे सचमुच चिन्तित थे, अत: वे देर तक वहाँ नहीं रह पाये, वे अपनी गणना के अनुसार एक क्षण बाद ही वापस चले आये। 

उन्होंने देखा कि सारे के सारे बालक तथा, बछड़े गौवें कृष्ण के साथ पूर्ववत् क्रीड़ा-रत हैं, यद्यपि उन्हें विश्वास था कि वे उन्हें चुरा ले जा चुके हैं और अपनी योगशक्ति से उन्हें सुला रखा है। अतः ब्रह्मा सोचने लगे, "मैंने तो सारे बालक तथा बछड़े चुरा लिए थे 

और मुझे ज्ञात है कि वे अब भी सो रहे हैं, तो फिर यह कैसे सम्भव है कि वैसे ही बछड़े तथा बालक कृष्ण के साथ क्रीड़ा कर रहे हैं? कहीं वे मेरी योगशक्ति से अप्रभावित तो नहीं है? क्या वे एक वर्ष तक कृष्ण से लगातार खेलते रहे हैं?” 

ब्रह्मा जी खुद की योगशक्ति के वशीभूत क्यों हो गए ? 

ब्रह्मा यह जानने का प्रयत्न करते रहे कि वे सब कौन थे और उनकी योगशक्ति से किस प्रकार अप्रभावित रह रहे थे, किन्तु वे निश्चित नहीं कर पाये। दूसरे शब्दों में, वे स्वयं अपनी योगशक्ति के वशीभूत हो गये। उनकी योगशक्ति अंधकार में हिम के समान अथवा दिन में जुगनू के समान प्रतीत होने लगी। 

रात्रि के अंधकार में जुगनू अपने प्रकाश का कुछ प्रदर्शन कर सकता है और दिन के समय पर्वत की चोटी पर संचित या भूमि पर पड़ी हिम चमक सकती है। किन्तु रात्रि में हिम में वह श्वेत दीप्ति नहीं रहती और न जुगनू में ही दिन के समय प्रकाशित करने की शक्ति रहती है। 

इसी प्रकार ब्रह्मा ने कृष्ण की योगशक्ति के समक्ष जो अपनी लघु योगशक्ति प्रदर्शित की वह रात्रि के समय हिम या दिन के समय जुगनू के समान थी। जब कोई लघु योगशक्ति वाला व्यक्ति महान् योगशक्ति के समक्ष अपनी शक्ति प्रदर्शित करना चाहता है, तो वह स्वयं अपने प्रभाव को घटा देता है, उसमें वृद्धि नहीं करता। 

यहाँ तक कि ब्रह्मा जैसे महान् पुरुष ने जब कृष्ण के समक्ष अपनी योगशक्ति का प्रदर्शन करना चाहा, तो वह हास्यास्पद हो गई। इस प्रकार ब्रह्मा अपनी निजी योगशक्ति के सम्बन्ध में भ्रमित थे। ब्रह्मा को इस बात से विश्वस्त करने के लिए कि ये सब बछड़े तथा बालक, जो कृष्ण के साथ खेल रहे हैं, असली नहीं हैं, वे सब विष्णु रूप में रूपान्तरित हो गये थे। 

वास्तव में असली ग्वालबाल तथा बछड़े तो ब्रह्मा की योगशक्ति के कारण सोये हुए थे, किन्तु जिन रूपों को ब्रह्मा देख रहे थे वे कृष्ण या विष्णु के अंश थे। चूँकि विष्णु कृष्ण के अंश हैं, अतः ब्रह्मा के समक्ष इतने विष्णु-रूप प्रकट हुए। 

सारे विष्णु रूप साँवले रंग के थे और पीताम्बर धारण किये थे, सबों के चार- चार भुजाएँ थीं जिनमें वे शंख, चक्र, पद्म और गदा धारण किये थे। उनके शीशों पर स्वर्णमण्डित रत्नजटित देदीप्यमान मुकुट थे। 

वे मोतियों तथा कर्णाभूषणों से मण्डित थे और फूलों की मालाएँ धारण किये थे। उनके वक्षस्थलों पर श्रीवत्स का चिह्न था, उनकी भुजाएँ बाजूबन्दों तथा अन्य रत्नों से मंडित थीं। उनकी ग्रीवाएँ शंख के समान थीं, उनके पैरों में नूपुर थे, कटि में सुनहरी घंटिकाएँ थीं और अँगुलियों में रत्नजटित मुद्रिकाएँ थीं। 

ब्रह्मा ने यह भी देखा कि प्रत्येक विष्णु के सारे शरीर पर, चरणकमलों से लेकर सिर तक, ताज़ा तुलसीदल अर्पित किये गए थे। विष्णु-रूपों की अन्य विशेषता यह थी कि वे सब दिव्य रूप से अत्यन्त सुन्दर लगते थे। उनकी मुस्कान चन्द्रप्रकाश से मिलती थी और उनकी चितवन उदय होते हुए सूर्य के समान थी। वे तमो तथा रजोगुणों के स्रष्टा तथा पालक प्रतीत हो रहे थे। 

विष्णु सतोगुण के, ब्रह्मा रजोगुण के तथा शिव तमोगुण के प्रतीक हैं। अतः इस दृश्य जगत में प्रत्येक वस्तु के पालक के रूप में विष्णु ब्रह्मा तथा शिव के भी स्रष्टा तथा पालक हैं। 

विष्णु भगवान् की इस अभिव्यक्ति के बाद ब्रह्मा ने देखा कि विष्णु को चारों ओर से घेर कर अनेक ब्रह्मा, शिव, देवता तथा एक क्षुद्र चींटी और तिनके से लेकर जड़-जंगम सारे जीव नाच रहे हैं। 

उनके नृत्य के साथ अनेक प्रकार का संगीत बज रहा है और वे सब विष्णु की पूजा कर रहे हैं। ब्रह्मा को ज्ञान हुआ कि विष्णु के वे सारे रूप योगशक्ति से पूर्ण हैं। 

उनमें अणिमा (अणु के समान सूक्ष्म बनने की सिद्धि) से लेकर दृश्य जगत जैसे असीम होने की सिद्धियाँ हैं। विष्णु के शरीर में ब्रह्मा की सारी योगशक्तियों, शिव, सारे देवता तथा दृश्य जगत के चौबीसों तत्त्वों को पूरा प्रतिनिधित्व प्राप्त था। 

भगवान् विष्णु के प्रभाव से सारी अधीन योग-शक्तियाँ उनकी पूजा में लगी थीं। काल, आकाश, दृश्य जगत, संस्कार, इच्छा, कर्म तथा भौतिक प्रकृति के तीनों गुण उनकी पूजा कर रहे थे। ब्रह्मा को यह भी अनुभव हुआ कि भगवान् विष्णु समस्त सत्, चित् तथा आनन्द के आगार हैं। 

वे सच्चिदानन्दस्वरूप हैं और उपनिषदों के अनुयायियों के द्वारा पूज्य हैं। ब्रह्मा ने अनुभव किया कि बालकों तथा बछड़ों के ये रूपान्तरित विष्णु-रूप किसी योगी की योगशक्ति या देवताओं में निहित किसी शक्ति द्वारा नहीं बने हैं। 

ये विष्णुरूप (मूर्तियाँ) किसी विष्णु-माया के प्रदर्शन न होकर साक्षात् विष्णु हैं। विष्णु तथा विष्णु-माया के गुण क्रमश: अग्नि तथा उसके ताप के सदृश हैं। ताप में अग्नि का गुण उष्णता रहती है, किन्तु फिर भी ताप अग्नि नहीं होता। 

बालकों तथा बछड़ों के विष्णुरूप ताप के समान नहीं, अपितु वे अग्नि तुल्य थे-वे सारे के सारे असली विष्णु थे। वस्तुतः विष्णु का गुण है उनका पूर्ण सत्य, पूर्ण ज्ञान तथा पूर्ण आनन्द। दूसरा उदाहरण भौतिक वस्तुओं का दिया जा सकता है, जो अनेकानेक रूपों में प्रतिबिम्बित होती हैं। 

उदाहरणार्थ, सूर्य अनेक जलपात्रों में प्रतिबिम्बित होता है, किन्तु इन पात्रों में सूर्य के प्रतिबिम्ब वास्तविक सूर्य नहीं होते। पात्र में सूर्य का वास्तविक ताप या प्रकाश नहीं रहता, यद्यपि वह सूर्य जैसा प्रतीत होता है। 

किन्तु कृष्ण ने जो स्वरूप धारण किये थे उनमें से प्रत्येक पूर्ण विष्णु थे। इस सम्बन्ध में जिस विशेष शब्द का उपयोग किया गया है, वह सत्यज्ञानान्तानंद सत्य का अर्थ सच्चाई, ज्ञान का अर्थ पूर्ण ज्ञान, अनन्त का अर्थ है असीम और आनन्द का अर्थ है पूर्ण हर्ष। 

भगवान् की दिव्य महिमाएं इतनी विशाल हैं कि उपनिषदों के निर्गुण अनुयायी के उस धरातल तक नहीं पहुँच पाते कि उन्हें समझ सकें। 

विशेषतया भगवान् के दिव्य रूप इन निर्विशेषवादियों की पहुँच के परे हैं, क्योंकि ये उपनिषदों के अध्ययन द्वारा इतना ही समझ पाते हैं कि परम सत्य न तो पदार्थ है और न भौतिक दृष्टि से सीमित है। 

ब्रह्माजी कृष्ण के विष्णु रूपों में विस्तार (अंश) से अपनी सीमित शक्ति द्वारा यह समझ गये कि परमेश्वर की शक्ति के विस्तार से ही इस दृश्य जगत की सारी जड़ तथा जंगम वस्तुएँ विद्यमान हैं। 

जब ब्रह्मा इस प्रकार अपनी सीमित शक्ति से हतप्रभ होकर और अपनी ग्यारहों इन्द्रियों के भीतर अपने सीमित कर्मों से अवगत होकर खड़े थे तब वे यह अनुभव कर सके कि वे स्वयं कठपुतली के समान भौतिक शक्ति (माया) की ही सृष्टि हैं। 

जिस प्रकार कठपुतली में नाचने की स्वतंत्र शक्ति नहीं होती, और अपने स्वामी के आदेशानुसार नाचती है उसी प्रकार सारे देवता तथा जीव भी श्रीभगवान् के अधीन हैं। 

कृष्ण ही एकमात्र स्वामी हैं और अन्य सभी उनके दास हैं। सारा संसार भौतिक तरंगों के वश में है और सारे प्राणी तिनकों के समान जल में तैर रहे हैं। अतः उनका जीवन संघर्ष चलता रहता है। 

किन्तु ज्योंही मनुष्य को यह बोध हो जाता है कि वह भगवान् का शाश्वत दास है, तो यह माया या जीवन-संघर्ष तुरन्त समाप्त हो जाता है। 

इस प्रकार ज्ञान की देवी के अधिष्ठाता तथा वैदिक ज्ञान के सर्वोत्कृष्ट अधिकारी ब्रह्माजी भगवान् द्वारा प्रकट असामान्य शक्ति को न समझ पाने के कारण अत्यधिक व्यग्र थे। 

प्राकृतिक जगत में ब्रह्मा जैसा व्यक्ति भी परमेश्वर की योगशक्ति (माया) को समझ पाने में असमर्थ रहता है। वे न केवल उन्हें समझने में असमर्थ थे, अपितु कृष्ण ने उनके समक्ष जो कुछ प्रकट किया था उसे देख कर भी व्यग्र थे। 

भगवान् श्री कृष्ण को ब्रह्मा पर दया आ गई कि वे यह देखते हुए कि कृष्ण किस प्रकार स्वयं को बछड़ों तथा ग्वालों में रूपान्तरित करके विष्णु के रूपों का प्रदर्शन कर रहे थे, इसे समझने में असमर्थ थे, अत: उन्होंने सहसा उस दृश्य पर से अपनी योगमाया का आवरण हटा लिया। 

भगवद्गीता में कहा गया है कि भगवान् योगमाया द्वारा फैलाये गये आवरण के कारण दृश्य नहीं हैं। जो वास्तविकता को आवरित कर ले वह महामाया या बहिरंगा शक्ति है, जिसके कारण बद्धजीव भगवान् को दृश्य जगत से परे नहीं समझ पाता। 

किन्तु जो शक्ति भगवान् को अंशत: प्रकट करती है। और अंशतः मनुष्य को देखने नहीं देती वह योगमाया कहलाती है। ब्रह्माजी कोई सामान्य बद्धजीव नहीं हैं। 

वे अन्य सभी देवताओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं; फिर भी वे श्रीभगवान् के प्रदर्शन को नहीं समझ पाये, अतः कृष्ण ने जानबूझ कर और आगे शक्ति का प्रदर्शन बन्द कर दिया। बद्धजीव न केवल मोहग्रस्त हो जाता है, अपितु समझ पाने में पूर्णत: असमर्थ रहता है।

इसलिए श्री कृष्ण ने योगमाया का आवरण इसलिए हटा दिया जिससे ब्रह्माजी और अधिक व्यग्र न हो जायें। जब ब्रह्माजी की व्यग्रता दूर हुई, तो ऐसा लगा मानो वे मृतक अवस्था से जगे हों। 

वे अपने नेत्र कठिनाई से खोल पा रहे थे। तब उन्होंने बाह्य दृश्य जगत को सामान्य चक्षुओं से देखा। उन्हें अपने चारों ओर वृन्दावन का अत्यन्त मनोहारी दृश्य दिखा जिसमें वृक्ष ही वृक्ष थे और जो समस्त जीवों का जीवन-स्रोत है। उन्हें वृन्दावन की दिव्य भूमि का अनुमान लग सका जहाँ के सारे वासी दिव्य हैं। 

वृन्दावन के जंगल में शेर तथा अन्य हिंस्र पशु हिरणों तथा मनुष्यों के साथ शान्तिपूर्वक निवास करते हैं। वे यह जान सके कि वृन्दावन में भगवान् कृष्ण की उपस्थिति के कारण यह स्थान अन्य स्थानों की अपेक्षा दिव्य है जहाँ न काम- वासना है और न लोभ। 

इस प्रकार ब्रह्मा ने भगवान् श्रीकृष्ण को एक छोटे से ग्वाले का अनिभय करते देखा-वे अपने बाएँ हाथ में का एक टुकड़ा रोटी लिए अपने मित्रों, बछड़ों को ढूँढ रहे हैं, जिस प्रकार वे एक वर्ष पूर्व इन सबके अन्तर्धान हो के पूर्व ढूँढ रहे थे। 

ब्रह्मा तुरन्त अपने वाहन हंस से उतर आये और भगवान् के समक्ष इस प्रकार गिर पड़े मानो कोई सोने का दण्ड हो। वैष्णवों में सम्मान प्रदान करने के लिए दण्डवत् शब्द का व्यवहार किया जाता है। इस शब्द का अर्थ है दण्ड (डंडा) के समान गिरना। 

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ब्रह्मा जी ने बच्चो की चोरी क्यों की

मनुष्य को चाहिए कि श्रेष्ठ वैष्णव को सम्मान प्रदर्शित करने के लिए वह दण्ड के समान पृथ्वी पर सीधा गिरे। अतः ब्रह्माजी भगवान् के समक्ष सुनहरे दण्ड के समान पड़े प्रतीत हुए। चूँकि ब्रह्माजी का वर्ण सुनहरी है, वे भगवान् कृष्ण के समक्ष एक सुनहरे दण्ड के समान पड़े हुए प्रतीत हुए। 

ब्रह्मा के चारों शिरों के मुकुट कृष्ण के चरणकमलों को छू रहे थे। ब्रह्मा अत्यधिक प्रसन्नता के कारण अश्रुपात करने लगे और उन्होंने अपने अश्रुओं से कृष्ण के चरणकमलों को धो डाला। ज्यों-ज्यों उन्हें भगवान् के कार्यकलापों का स्मरण होता रहा त्यों- त्यों वे बारम्बार उठते और गिरते रहे। अनेक बार प्रणाम करने के बाद ब्रह्माजी उठे और अपने हाथों से उन्होंने अपनी आँखें पोछीं। 

भगवान् को अपने समक्ष देखकर वे कम्पित होकर अत्यन्त सम्मान, विनय तथा ध्यानपूर्वक प्रार्थना करने लगे। to मित्रों is तरह ब्रह्मा ने बच्चों तथा बछड़ों की चोरी की।

प्रिय पाठकों! आशा करते है आपको पोस्ट पसंद आई होगी। विश्वज्ञान अगली पोस्ट के साथ फिर मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपना ख्याल रखे। खुद भी खुश रहें और औरों को भी खुश रखें। 

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