नन्द और वसुदेव का मिलन

 नन्द और वसुदेव का मिलन 


यद्यपि कृष्ण वसुदेव तथा देवकी के असली पुत्र थे, किन्तु कंस के अत्याचारों के कारण वे अपने पुत्र का जन्मोत्सव नहीं मना सके। फिर भी धर्मपिता नन्द महाराज ने अत्यन्त उछाह के साथ कृष्ण का जन्मोत्सव मनाया। 

दूसरे दिन ही यह घोषणा कर दी गई कि यशोदा के पुत्र उत्पन्न हुआ है। वैदिक प्रथा के अनुसार नन्द महाराज ने विद्वान ज्योतिषियों तथा ब्राह्मणों को जन्मोत्सव सम्पन्न कराने के लिए आमंत्रित किया।

शिशु के जन्मोपरान्त ज्योतिषी जन्म-लग्न की गणना करते हैं और शिशु के भावी जीवन की जन्म-पत्री तैयार करते हैं। शिशु-जन्म के बाद एक अन्य उत्सव भी किया जाता है; उसमें परिवार के लोग स्नान करके शुद्ध होते हैं,

और आभूषणों तथा सुन्दर वस्त्रों से अपने आपको सजाते हैं और तब वे सब शिशु तथा ज्योतिषी के समक्ष शिशु का भविष्य सुनने के लिये उपस्थित होते हैं। अतः नन्द महाराज तथा उनके परिवार के अन्य लोग वस्त्राभूषित होकर जन्मस्थान के समक्ष आकर बैठ गये। 


नन्द और वसुदेव का मिलन


इस अवसर पर समवेत सारे ब्राह्मणों ने अनुष्ठानों के अनुसार शुभ मंत्रोच्चार किया और ज्योतिषियों ने जन्मोत्सव सम्पन्न कराया। इस अवसर पर सारे देवताओं तथा पितरों की भी पूजा की जाती है। नन्द महाराज ने ब्राह्मणों को दो लाख अलंकृत(सजी हुई ) गौएं (गाये )दान में दीं। गौवों के साथ-साथ उन्होंने स्वर्णालंकृत वस्त्रों तथा विविध आभूषणों से सुशोभित अन्न के ढेर के ढेर भी दान किये।

kans-ke-atyaachaaron-ki-shuruaat /कंस द्वारा उत्पीड़न का प्रारम्भ

इस संसार में धनधान्य की प्राप्ति कई प्रकार से होती है, किन्तु कभी-कभी यह प्राप्ति ईमानदारी तथा पवित्र साधनों से नहीं होती क्योंकि सम्पत्ति संचय की यही प्रकृति है। अतः वैदिक आदेशों के अनुसार इस तरह अर्जित सम्पत्ति की शुद्धि ब्राह्मणों को गौओं तथा सोने का दान देकर की जाती है। 

नवजात शिशु की शुद्धि भी ब्राह्मणों को अन्नदान देकर की जाती है। हमें सदैव समझना चाहिए कि  इस संसार में हम सदैव कल्मषयुक्त अवस्था में रह रहे हैं। अतः हमें अपने जीवन,अपनी सम्पत्ति तथा स्वयं को शुद्ध करना होगा। 

जीवन की शुद्धि नित्य स्नान एवं शरीर को भीतर तथा बाहर से सफाई द्वारा और दस प्रकार के शुद्धि-संस्कारों को स्वीकार करके की जाती है। तप, भगवत्-पूजा तथा दान द्वारा हम सम्पत्ति को शुद्ध कर सकते हैं। 

आत्म-साक्षात्कार तथा परम सत्य के ज्ञान के लिए वेदाध्ययन द्वारा आत्म-शुद्धि की जा सकती है। अतः वेदों में कहा गया है कि जन्मना प्रत्येक व्यक्ति शूद्र होता है और शुद्धि-संस्कार द्वारा वह द्विज बनता है।

वेदों के अध्ययन से मनुष्य विप्र बनता है, जो ब्राह्मण बनने के लिए अनिवार्य योग्यता है। जब मनुष्य परम सत्य को पूर्णरूपेण समझ लेता है, तो वह ब्राह्मण कहलाता है। जब ब्राह्मण और अधिक पूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तो वह वैष्णव या भक्त बन जाता है।

उस उत्सव में एकत्रित सारे ब्राह्मणों ने शिशु के सौभाग्य के लिए विविध वैदिक मंत्रों का स्तवन किया। विविध मंत्रोच्चार सूत, मागध, वन्दी तथा विरुदावली कहलाते हैं। इन मंत्रों तथा गीतों के उच्चारण के अतिरिक्त भेरी और दुन्दुभियाँ भी घर के बाहर बज रही थीं।

इस अवसर पर सभी घरों में तथा गोचरों तक में विविध हर्षध्वनियाँ सुनाई पड़ती थीं। घरों के भीतर तथा बाहर पिसे चावल से नाना प्रकार के कलापूर्ण चित्र बनाये गये थे और सड़कों तथा गलियों भर में सुगन्धित जल छिड़का गया था। छतों तथा छज्जों को विविध प्रकार की झंडियों तथा बन्दनवारों से सजाया गया था। 

सारे द्वार हरी पत्तियों तथा फूलों से बनाये गये थे। सारी गौवों, बछड़ों तथा साँड़ों को तेल तथा हल्दी का लेप लगाया गया था। गेरू आदि रंगीन खनिजों से उन्हें चित्रित किया गया था। उन्हें मोर पंखों के हार पहनाये गये थे और वे रंगीन वस्त्रों तथा सुनहरे हारों से सुसज्जित थे।

जब सभी हर्षोन्मत्त ग्वालों ने सुना कि कृष्ण के पिता नन्द महाराज पुत्र का जन्मोत्सव मना रहे हैं, तो वे परम प्रसन्न हुए। उन्होंने बहुमूल्य वस्त्र धारण किये और विविध प्रकार के कर्णाभूषणों तथा हारों से अपने शरीर को सजाया तथा अपने सिरों में बड़ी बड़ी पगड़ियाँ धारण कीं। इस प्रकार से वस्त्राभूषित होकर वे विविध प्रकार की भेंटें लेकर नन्द महाराज के घर आये।

भगवान्-श्री-कृष्ण-का-जन्म

जब समस्त गोपियों ने सुना कि यशोदा ने पुत्र को जन्म दिया है, तो वे आनन्द से विभोर हो उठीं और उन्होंने भी विविध प्रकार के अमूल्य वस्त्रों तथा आभूषणों से अपने को अलंकृत किया और अपने शरीर में सुगन्धित द्रव लगाए। 

जिस प्रकार पराग की धूलि से कमल पुष्प की शोभा दिखने लगती है, उसी प्रकार समस्त गोपियों ने अपने कमल के समान मुखमण्डलों पर कुमकुम रज का लेप किया। फिर ये सुन्दर गोपियाँ अपनी-अपनी भेंटें लेकर नन्द महाराज के घर पहुँचीं।

अपने भारी नितम्बों तथा उन्नत उरोजों से बोझिल ये गोपियाँ नन्द के घर की ओर तेजी से नहीं चल पा रही थीं, किन्तु कृष्ण के आह्लादकारी प्रेम से वे जल्दी-जल्दी चलने लगीं। उनके कानों में मोती की बालियाँ थीं, गले में रत्नजटित हार थे और उनके होंठ तथा नेत्र विभिन्न प्रकार के रंजकों तथा काजल से अलंकृत थे। 

उनके हाथों में स्वर्णिम चूड़ियाँ थीं। चूँकि वे तेजी से पक्की सड़क पार कर रही थीं उनके शरीर को अलंकृत करने वाली पुष्पमालाएँ टूट-टूट कर गिर रही थीं, और ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो आकाश से पुष्प वर्षा हो रही हो। 

शरीर के विविध आभूषणों की गति से वे और भी सुन्दर लग रही थीं। इस प्रकार वे गोपिकाएँ नन्द-यशोदा के घर पहुँचीं और बालक को इस प्रकार आशीष देने लगीं, "हे बालक! तुम हमारी रक्षा के लिए चिरंजीवी होओ।" 

जब वे इस प्रकार बालक कृष्ण को आशीर्वाद दे रही थीं, तो उन्होंने तेल में बना हल्दी का लेप, दधि, दूध तथा जल का मिश्रण न केवल बालक पर, अपितु वहाँ पर उपस्थित अन्य सभी लोगों पर छिड़का। 

इस शुभ अवसर पर पटु संगीतकारों द्वारा विविध प्रकार के बाजे भी बजाये जा रहे थे। जब ग्वालों ने गोपियों की लीलाएँ देखीं, तो वे अत्यन्त प्रमुदित हुए और वे भी उन पर दधि, दूध, मक्खन तथा जल छिड़कने लगे। फिर दोनों ओर से मक्खन फेंका जाने लगा। 

नन्द महाराज भी गोप-गोपियों की ये लीलाएँ देखकर परम प्रसन्न हो रहे थे। उन्होंने एकत्रित चारणों को अत्यन्त उदारतापूर्वक दान दिया। इनमें से कुछ चारण उपनिषदों तथा पुराणों से आख्यान गा रहे थे, कुछ पूर्वजों का गुणगान कर रहे थे और कुछ मनोहर गीत गा रहे थे। 

गोकुल के ग्वाले कैसे थे ?

वहाँ पर अनेक विद्वान ब्राह्मण भी उपस्थित थे। नन्द महाराज इस अवसर पर परम प्रसन्न होकर उन सबों को वस्त्र, आभूषणों तथा गौवों का दान दे रहे थे। इस सम्बन्ध में यह जान लेना आवश्यक होगा कि वृन्दावनवासी मात्र गो- पालन के कारण कितने समृद्ध थे। 

सारे ग्वाले वैश्य जाति के थे जिनकी वृत्ति गो- पालन तथा कृषि थी। उनकी वेशभूषा तथा आभूषणों एवं आचरण से ऐसा प्रतीत होता था कि वे एक छोटे गाँव के वासी हैं, किन्तु वे अत्यन्त समृद्ध थे। 

उनके पास इतनी प्रचुर मात्रा में दूध तथा दूध से बनने वाले उत्पाद थे कि वे उन्हें बेरोकटोक एक दूसरे पर फेंक रहे थे। उनकी सम्पत्ति दुग्ध, दही, घी तथा अन्य दुग्ध उत्पाद थी और वे कृषि उत्पादों का व्यापार करने से विविध प्रकार के रत्नाभूषणों एवं परिधानों से समृद्ध थे। उनके पास न केवल ये सारी वस्तुएँ थीं, अपितु वे उन्हें नन्द महाराज की तरह दान में लुटा सकते थे।

कृष्ण के धर्मपिता कौन थे ?

इस प्रकार कृष्ण के धर्मपिता नन्द महाराज ने वहाँ पर एकत्रित सभी लोगों की इच्छाओं की पूर्ति करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने हर एक का सादर स्वागत किया और जिसने जो चाहा उसे दान में दिया। विद्वान ब्राह्मणों के पास आय का अन्य साधन न था, अतः वे अपने भरण के लिए वैश्य तथा क्षत्रिय जातियों पर पूर्णत: आश्रित रहते थे। 

उन्हें जन्मदिवस, ब्याह आदि शुभ अवसरों पर उपहार प्राप्त होते रहते थे। इस अवसर पर जब नन्द महाराज भगवान् विष्णु की पूजा कर रहे थे और लोगों की इच्छाएँ पूरी करने के प्रयास में लगे थे, तब उनकी एकमात्र अभिलाषा यही थी कि नवजात शिशु कृष्ण प्रसन्न रहे। 

नन्द महाराज को इसका तनिक भी ज्ञान न था कि यह बालक विष्णु का मूल है; वे उसकी रक्षा के लिए भगवान् विष्णु से प्रार्थना कर रहे थे। बलराम की माता रोहिणी देवी वसुदेव की अत्यन्त भाग्यशालिनी पत्नी थीं। 

यद्यपि वे अपने पति से दूर थीं, किन्तु महाराज नन्द के पुत्र कृष्ण के जन्मोत्सव पर उन्हें बधाई देने के लिए उन्होंने भी सुन्दर-सुन्दर वस्त्र धारण किये। वे माला, कंठहार तथा अन्य आभूषण पहन कर उस स्थान में गईं और इधर-उधर टहलने लगीं।

वैदिक प्रथा के अनुसार जिस स्त्री का पति घर में नहीं होता वह शृंगार नहीं करती, किन्तु रोहिणी ने पति के दूर होने पर भी इस अवसर पर शृंगार किया। कृष्ण जन्मोत्सव के वैभव से यह सुस्पष्ट है कि उस समय वृन्दावन सभी प्रकार से सम्पन्न था। 

चूँकि भगवान् कृष्ण ने राजा नन्द तथा माता यशोदा के घर में जन्म लिया, अतः लक्ष्मी देवी को वृन्दावन में अपना ऐश्वर्य प्रकट करना ही पड़ा। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वृन्दावन पहले से लक्ष्मी देवी की क्रीड़ास्थली बन चुका हो।

जन्मोत्सव के बाद नन्द महाराज ने कंस सरकार का वार्षिक कर चुकता करने के उद्देश्य से मथुरा जाने का निश्चय किया। जाने से पूर्व उन्होंने गाँव के सक्षम ग्वालों बुलाया और अपनी अनुपस्थिति में वृन्दावन की देखरेख करने का आदेश दिया। 

जब नन्द महाराज मथुरा आये, तो वसुदेव को समाचार मिला और वे अपने मित्र को बधाई देने के लिए परम उत्सुक हुए। वे तुरन्त उस स्थान में गये जहाँ नन्द महाराज ठहरे थे। जब नन्द ने वसुदेव को देखा, तो उन्हें लगा मानो नया जीवनदान मिला हो। 

नन्द भी भावविभोर होकर खड़े हो गये और उन्होंने वसुदेव का आलिंगन किया। वसुदेव का स्वागत करके उन्हें सुन्दर आसन पर बिठाया गया। उस समय वसुदेव अपने उन दोनों पुत्रों के लिए उत्सुक थे जिन्हें नन्द की जानकारी के बिना उनके संरक्षण में रखा गया था। 

वसुदेव ने अत्यन्त चिन्तापूर्वक उनके विषय में पूछताछ की। कृष्ण और बलराम दोनों ही वसुदेव के पुत्र थे। बलराम को वसुदेव की ही पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थानान्तरित किया गया था, किन्तु रोहिणी को नन्द महाराज के संरक्षण में रखा गया था। 

कृष्ण यशोदा को उनकी पुत्री के बदले में ले जाकर साक्षात् सौंपे गये थे। नन्द महाराज जानते थे कि बलराम वसुदेव के पुत्र हैं, किन्तु उन्हें यह ज्ञात न था कि कृष्ण भी वसुदेव के ही पुत्र हैं। वसुदेव को पता था ही, अतः उन्होंने उत्सुकता से कृष्ण तथा बलराम दोनों की कुशल-क्षेम पूछी। 

फिर वसुदेव ने नन्द को सम्बोधित करते हुए कहा, “बन्धुवर। इस वृद्धावस्था में आपकी परम इच्छा थी कि पुत्र उत्पन्न हो, किन्तु आपके कोई पुत्र उत्पन्न न हुआ। अब भगवान् की कृपा से आपको सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई है। मेरे विचार से यह अवसर आपके लिए अत्यन्त शुभ है।

क्यों है बांके बिहारी जी काले रंग के ?/निधिवन की सम्पूर्ण जानकारी (हरिदास जी की अचल भक्ति)निधिवन की एक प्रचलित सत्य घटना

 हे मित्र! मुझे तो कंस ने बन्दी बना लिया था और अब मैं मुक्त कर दिया गया हूँ, अतएव मेरे लिए यह नया जन्म है। मुझे आशा न थी कि आपके दर्शन कर सकूँगा, किन्तु ईश्वर की कृपा से मैं आपको देख रहा हूँ।” वसुदेव ने कृष्ण के सम्बन्ध में इस तरह अपनी चिन्ता व्यक्त की। 

कृष्ण को गुप्त रूप से माता यशोदा की शय्या में भेजा गया था और अब उनके जन्मोत्सव को धूमधाम से मनाने के बाद नन्द मथुरा आये थे। अतः वसुदेव अत्यन्त प्रसन्न हुए और बोले, "यह मेरा नया जन्म है।" उन्होंने कभी यह आशा नहीं की थी कि कृष्ण जीवित रह पाएँगे, क्योंकि कंस ने उनके अन्य सभी पुत्रों का वध कर दिया था।

वसुदेव कहते रहे, “प्रिय मित्र! हम दोनों का एकसाथ रह पाना कठिन है। यद्यपि हमारे कुटुम्ब तथा कुटुम्बी, पुत्र तथा पुत्रियाँ हैं, किन्तु प्रकृति के नियमस्वरूप हम प्रायः एक दूसरे से पृथक् रहते हैं। इसका कारण यह है कि प्रत्येक जीवात्मा विभिन्न सकाम कर्मों के फलस्वरूप इस पृथ्वी पर जन्म लेता है और यद्यपि वे सब एक स्थान पर एकत्र होते हैं, किन्तु दीर्घकाल इकट्ठे तरह रहना निश्चित नहीं है। 

हर एक को अपने सकाम कर्मों के अनुसार पृथक्-पृथक् ढंग से कार्य करना होता है। और इस प्रकार विलग हो जाना पड़ता है। उदाहरणार्थ, सागर की लहरों पर अनेक पौधे तथा लताएँ तैरती रहती हैं। कभी वे पास-पास रहते हैं, तो कभी सदा के लिए बिछुड़ जाते हैं-एक पौधा इधर जाता है, तो दूसरा उधर। 

इसी प्रकार जब हम साथ साथ रहते हैं, तो हमारी पारिवारिक संगति अत्यन्त सुन्दर लगती है, किन्तु काल की तरंगों के फलस्वरूप कुछ समय बाद हम विलग हो जाते हैं।" एक वसुदेव के ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि यद्यपि देवकी के गर्भ से उन्हें आठ पुत्र प्राप्त हुए थे, किन्तु दुर्भाग्यवश वे सभी जाते रहे। 

यहाँ तक कि वे अपने एक पुत्र कृष्ण को भी अपने पास नहीं रख सके। वसुदेव को उसका वियोग अनुभव हो रहा था किन्तु वे असली बात अभिव्यक्त कर न सके। उन्होंने कहा, कृपया मुझे वृन्दावन का कुशल-क्षेम बताएँ। 

आपके पास इतने सारे पशु है-वे सभी प्रसन्न तो हैं? उन्हें पर्याप्त घास तथा पानी मिल तो रहा है? मुझे यह भी बताएँ कि इस समय आप जहाँ रह रहे हैं वह स्थान उपद्रव से मुक्त तथा शान्त तो है?" वसुदेव ने कृष्ण की कुशलता जानने के उद्देश्य से ही इतने सारे प्रश्न किये थे। 

उन्हें ज्ञात था कि कंस तथा उसके अनुयायी नाना प्रकार के असुरों को भेज कर कृष्ण का वध करने का प्रयत्न कर रहे थे। वे सब पहले ही यह निर्णय ले चुके थे कि कृष्ण-जन्म के बाद दस दिनों के भीतर उत्पन्न सारे बालकों का वध कर दिया जाये। 

चूँकि वसुदेव कृष्ण के विषय में अत्यधिक चिन्तित थे, इसलिए उन्होंने उनके निवासस्थान की सुरक्षा के विषय में पूछा। उन्होंने बलराम तथा उनकी माता रोहिणी का भी समाचार पूछा जिन्हें नन्द महाराज को सौंप दिया गया था। 

वसुदेव ने नन्द महाराज को यह भी स्मरण दिलाया कि बलराम अपने असली पिता को नहीं जानता, "वह आपको ही अपना पिता जानता है और अब आपके पास दूसरा पुत्र कृष्ण भी हो गया। मेरे विचार से आप इन दोनों की ठीक से देखभाल कर रहे हैं।"

वसुदेव और नन्द किस जाति के थे?

यह भी महत्त्वपूर्ण बात है कि वसुदेव ने नन्द महराज के गोधन की कुशल-क्षेम पूछी। पशुओं की और विशेष रूप से गायों की रक्षा अपनी सन्तान की ही भाँति की जाती थी। वसुदेव क्षत्रिय थे और नन्द महाराज वैश्य थे। 

क्षत्रिय का धर्म है कि वह प्रजा की रक्षा करे और वैश्य का धर्म है कि गायों को सुरक्षा प्रदान करे। गायें उतनी ही महत्त्वपूर्ण हैं जितनी कि प्रजा। जिस प्रकार से प्रजा को सभी प्रकार की सुरक्षा प्रदान की जाती है उसी तरह गौवों की भी की जानी चाहिए।

वसुदेव कहते रहे कि धर्म-पालन, आर्थिक विकास तथा इन्द्रिय-तुष्टि (काम) के कार्य परिजनों, राष्ट्रों तथा सम्पूर्ण मानवता के सहयोग पर निर्भर करते हैं। अतः यह प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि उसके समान नागरिकों तथा गौवों को कोई कष्ट न पहुँचे। 

उसे अपने बन्धुओं तथा पशुओं की शान्ति तथा सुविधा का ध्यान रखना चाहिए। तभी धर्म, अर्थ तथा काम की प्राप्ति सरलता से हो सकती है। वसुदेव को दुख था कि वे देवकी से उत्पन्न अपने ही पुत्रों को संरक्षण प्रदान करने में असमर्थ रहे। उन्हें लग रहा था कि वे धर्म, अर्थ तथा काम सभी खो बैठे हैं।

यह सुनकर नन्द महाराज ने उत्तर दिया, "हे प्रिय वसुदेव! मुझे पता है कि आप देवकी से उत्पन्न सारे पुत्रों के कंस द्वारा वध किये जाने के कारण अत्यन्त सन्तप्त है। यद्यपि अन्तिम शिशु कन्या थी, किन्तु कंस उसे मार नहीं पाया। 

वह स्वर्गलोक में चली गई है। हे मित्र! शोक न करें, हम सभी अपने विगत अश्य कर्मों द्वारा नियंत्रित हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने पूर्व कर्मों के वश में है और जो कर्म तथा फल के दर्शन से परिचित है, वही ज्ञानी मनुष्य है। 

श्रीमद भगवद-गीता के तीसरे अध्याय का माहात्म्य। जब एक भूत गया बैकुंठ

ऐसा मनुष्य सुख या दुख से शोकाकुल नहीं होता।" तब वसुदेव ने उत्तर दिया, "प्रिय नन्द! यदि आप सरकारी कर का भुगतान कर चुके हों, तो शीघ्र ही अपने स्थान को लौट जाँय, क्योंकि मेरे विचार से गोकुल में उत्पात हो सकता है।” 

नन्द महाराज तथा वसुदेव में इस मैत्रीपूर्ण वार्ता के बाद वसुदेव अपने घर चले आये। कर चुकाने के बाद नन्द महाराज तथा उनके साथ मथुरा आया ग्वालवृन्द भी लौट गया।

प्रिय पाठकों !इस  पोस्ट में आपने कृष्ण जन्मोत्सव के नन्द तथा वसुदेव के मिलन के बारे पढ़ा। आशा है आपको पोस्ट पसंद आई होगी। अपनी राय प्रकट करे। विश्वज्ञान में अगली पोस्ट के साथ फिर मुलाकात होगी,तब तक के लिए राधे -राधे ,जय श्री राधे श्याम। अगली पोस्ट है -पूतना वध 

धन्यवाद 


Previous Post Next Post