श्री कृष्ण ने वत्सासुर तथा बकासुर वध किस प्रकार किया ?

जय -जय श्री राधे कृष्ण 

श्री कृष्ण ने वत्सासुर तथा बकासुर वध किस प्रकार किया  ?

इस पोस्ट में आप पाएंगे -

श्री कृष्ण भगवान् बाल -सुलभ क्रीड़ाएं क्यों करते रहते थे ?

नन्द महाराज के भाई का क्या नाम था ?

उपनन्द ने समस्याओ से बचने के लिए क्या सलाह दी ?

उपनन्द ने वृंदावन की क्या -क्या ख़ासियत बताई ?

श्री कृष्ण ने वत्सासुर और बकासुर को किस प्रकार मारा ?

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प्रिय पाठकों !जब श्री कृष्ण यमलार्जुन वृक्ष वज्रपात के समान आवाज करते हुए पृथ्वी पर गिर पड़े, तो नन्द महाराज सहित गोकुल के सारे निवासी उस स्थान पर आये। उन्हें विस्मय हो रहा था कि ये दोनों विशाल वृक्ष अकस्मात् किस तरह गिरे! 

चूँकि उन्हें इनके गिरने का कोई कारण नहीं मिल रहा था, अतः वे सभी अचम्भित थे। जब उन्होंने यशोदा द्वारा ऊखल से बाँधे गये बालकृष्ण को देखा, तो वे सोचने लगे कि हो न हो यह किसी असुर की करतूत है। अन्यथा यह कैसे सम्भव हो सकता है? साथ ही वे अत्यधिक चिन्तित भी थे, क्योंकि बालक कृष्ण के साथ ऐसी घटनाएँ नित्य ही घट रही थीं। 

khijhte-hue-krishna-kya-kya-baal-sulabh-cheshthaye-karne-lagte-hai /माता यशोदा ने कृष्ण को क्यों बाँधा?

जब वयोवृद्ध ग्वाले इस प्रकार सोच-विचार रहे थे तभी खेलने वाले छोटे-छोटे बालकों ने आकर लोगों को सूचित किया कि ये वृक्ष कृष्ण द्वारा रस्सी से बन्धे ऊखल खींचे जाने के कारण गिरे हैं। उन्होंने बताया कि कृष्ण दोनों वृक्षों के बीच में आये, तो ऊखल उलट कर वृक्षों के बीच आ फँसा और जब ये कृष्ण रस्सी खींचने लगे, तो ये वृक्ष गिर पड़े। 

जब ये वृक्ष गिर गये, तो उनमें से दो तेजस्वी पुरुष प्रकट हुए और वे कृष्ण से बातें करने लगे।बालकों के इस कथन पर अधिकांश ग्वालों को विश्वास नहीं हुआ। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ऐसी बातें सम्भव हो सकती हैं। किन्तु उनमें से कुछ ने विश्वास करके नन्द महाराज से कहा, "आपका बालक अन्यों से भिन्न है। हो सकता है कि उसी ने यह किया हो।"

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नन्द महाराज अपने पुत्र की असामान्य क्षमता को सुनकर हँसने लगे। उन्होंने आगे बढ़कर अपने पुत्र को छुड़ाने के लिए गाँठ खोली। इस प्रकार नन्द द्वारा कृष्ण के मुक्त कर दिये जाने पर प्रौढ़ गोपियों ने बालक को अपनी गोद में उठा लिया। वे उसे आँगन में ले आई और ताली बजा- बजाकर उसके अद्भुत कार्यों की प्रशंसा करने लगीं। 

कृष्ण भी सामान्य बालक की तरह उनके ताली बजाने के साथ साथ नाचने लगे। गोपियों के पूर्ण वश में होने के कारण वे नाचने तथा गाने लगे, मानो उनके हाथ की कठपुतली हों। कभी-कभी माता यशोदा कृष्ण से पीढ़ा लाने के लिए कहतीं। जबकि पीड़ा कृष्ण जी के उठाने लायक नहीं था ,क्योकि वह भारी था। लेकिन फिर भी वह किसी न किसी तरह माता के पास पीड़ा ले आते। 

श्री कृष्ण भगवान् बाल -सुलभ क्रीड़ाएं क्यों करते रहते थे ?

कभी -कभी जब पिता भगवान् नारायण की पूजा करते समय खड़ाऊँ लाने के लिए कहते, तो श्री कृष्ण उन्हें अपने सिर पर उठाकर रख लेते और बड़ी कठिनाई द्वारा धीरे -धीरे चल कर अपने पिता के पास चले आते। जब कृष्ण जी से कोई भी ऐसी भारी वस्तु मंगाई जाती ,जिसे वो उठा नहीं पाते ,तो वे केवल अपनी बाँहें हिला देते थे। 

इस प्रकार वे हमेशा अपने माता -पिता के आनंद के आगार बने रहते। और इसी तरह वृंदावन वासीयों के साथ बाल -सुलभ क्रीड़ाएं करते रहते ,क्योकि वे बड़े -बड़े दार्शनिकों तथा परम सत्य की खोज करने वाले ऋषियों को यह दिखा देना चाहते थे कि किस प्रकार श्री भगवान अपने शुद्ध भक्तों की इच्छाओं के वशीभूत रहते है। 

श्री कृष्ण ने  फल  बेचने वाली बूढ़ी अम्मा को फल के बदले में क्या दिया?

एक दिन एक फल बेचने वाली नन्द महाराज के द्वार पर आयी। जब बालक कृष्ण ने उसकी यह पुकार सुनी कि, "जो चाहे सो आकर मुझसे फल ले जाये," तो वे अपनी अंजुली में थोड़ा अन्न लेकर उसके बदले में फल लेने के लिए बाहर आये।उन दिनों बदलन (विनिमय) के द्वारा सौदा होता था, 

अतः कृष्ण ने भी कभी अपने माता-पिता को इस तरह अन्न देकर फल तथा अन्य वस्तुएँ लेते देखा होगा, अतः उन्होंने उसी का अनुकरण किया। किन्तु उनकी अंजुली अत्यन्त छोटी थी और वे अन्न को मजबूती से पकड़ भी नहीं पाये थे, अतः अनाज गिरता जा रहा था। 


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उस फल बेचने वाली ने यह देखा, तो वह भगवान् के सौन्दर्य पर मोहित हो उठी, अतः उसने बचे हुए अन्न को लेकर उनके हाथों को फलों से भर दिया। उसी समय उस फल वाली ने देखा कि उसकी डलिया तो रत्नों से भर गई है। प्रिय पाठकों !भगवान् समस्त वरों को प्रदान करने वाले हैं। यदि कोई भगवान् को कुछ देता है, तो उसे घाटा नहीं होता, अपितु उसे लाखों गुना लाभ मिलता है।

इसी प्रकार एक दिन यमलार्जुन के उद्धारकर्ता कृष्ण बलराम तथा अन्य बालकों के साथ यमुना के तट पर खेल रहे थे और चूँकि दिन काफी चढ़ आया था, अतः बलराम की माता रोहिणी उन्हें वापस बुलाने गईं। किन्तु कृष्ण और बलराम अपने मित्रों के साथ खेल में इतने मग्न थे कि वे खेल छोड़कर वापस जाना नहीं चाहते थे, अतः वे खेल में और अधिक व्यस्त हो गये। 

जब रोहिणी उन्हें घर न ले जा पाई, तो वापस आकर उन्होंने माता यशोदा को भेजा कि वे बुला लाएँ। माता यशोदा अपने पुत्र के प्रति इतनी वत्सल थीं कि ज्योंही वे उन्हें घर वापस चलने के लिए बुलाने आईं कि उनके स्तनों में दूध भर आया। वे जोर से चिल्लाईं, “प्यारे बेटे! घर चलो। तुम्हारे कलेवे का समय हो चुका है। हे कृष्ण! हे मेरे कमलनयन! चलो और दूध पियो। अब बहुत खेल चुके। 


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अब तुम भूखे होगे। मेरे नन्हें मुने! इतनी देर से खेलते-खेलते तुम थक गये होगे।" उन्होंने बलराम को भी इसी तरह पुकारा, “अपने कुल की शान! अपने छोटे भइया कृष्ण के साथ तुरन्त घर चलो। तुम सुबह से खेल में लगे हो और अब थक गये होगे। चलो और घर पर अपना कलेवा कर लो। तुम्हारे पिता नन्द राज तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। 

उन्हें भोजन करना है, अतः तुम लौट चलो जिससे वे भोजन कर सकें।" ज्योंही कृष्ण तथा बलराम ने यह सुना कि नन्द महाराज उनकी प्रतीक्षा कर रहे है और उनके न रहने से भोजन नहीं कर पाये, वैसे ही वे लौट पड़े। उनके अन्य साथी उलाहना देने लगे, "कृष्ण हमारा साथ उस समय छोड़ रहा है जब हमारा खेल अपनी चरम सीमा पर है। अगली बार हम उसे जाने नहीं देंगे।" 

कृष्ण के साथियों ने पुनः धमकी दी कि वे उसे फिर से अपने साथ नहीं खेलने देंगे। कृष्ण डर गये और घर न जाकर वे बच्चों के साथ फिर से खेलने लगे। उस समय माता यशोदा ने उन बच्चों को डाँटा और कृष्ण से कहा ,क्या  तुम अपने को राह चलता बालक समझे हो? क्या तुम्हारे घर नहीं है? चलो, अपने घर चलो। 

मैं देख रही हूँ कि सुबह से खेलते रहने से तुम्हारा शरीर गंदा हो गया है। चलो, घर चलकर स्नान करो। साथ ही, आज तुम्हारा जन्मदिन है, अतः तुम्हें घर चलकर ब्राह्मणों को गौवों का दान करना है। क्या तुम देख नहीं रहे कि तुम्हारे साथी किस तरह अपनी-अपनी माताओं द्वारा पहनाये गये आभूषणों से अलंकृत हैं? 


तुम्हें भी स्वच्छ होकर सुन्दर वस्त्र तथा आभूषणों से अलंकृत हो लेना चाहिए। अतः तुम घर चलो, स्नान करो, ठीक से वस्त्र धारण करो और तब तुम खेलने आ सकते हो।" इस प्रकार से माता यशोदा उन कृष्ण तथा बलराम को वापस ले आईं जो ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवताओं द्वारा पूजनीय हैं। वे उन्हें पुत्रों के रूप में मान रहीं थीं। 

नन्द महाराज के भाई का क्या नाम था ?

जब कृष्ण तथा बलराम घर आ गये, तो माता यशोदा ने उन्हें ढंग से नहलाकर आभूषणों से सज्जित किया। फिर उन्होंने ब्राह्मणों को बुलाया और कृष्ण के जन्मदिन के अवसर पर उनके हाथों से अनेक गौवें दान कराईं। इस प्रकार उन्होंने घर पर कृष्ण का जन्मदिन मनाया।  

इस घटना के पश्चात् सारे वयोवृद्ध ग्वाले एकत्र हुए और नन्द महाराज ने उनकी अध्यक्षता की। सबों ने मिलकर परामर्श दिया कि असुरों के कारण महावन में होने वाले उत्पातों को किस प्रकार रोका जाय। इस सभा में नन्द महाराज के भाई उपनन्द उपस्थित थे।

उपनन्द ने समस्याओ से बचने के लिए क्या सलाह दी ?

वे विद्वान तथा अनुभवी माने जाते थे और कृष्ण तथा बलराम के हितैषी भी थे। वे अग्रणी भी थे, अतः सभा को सम्बोधित करते हुए बोले, "मित्रो! अब हमें यहाँ से दूसरे स्थान पर चले जाना चाहिए क्योंकि नित्य ही बड़े-बड़े असुर आकर शान्ति भंग कर रहे हैं और वे नन्हें बच्चों को मारने के लिए विशेष प्रयत्न करते रहते हैं। 

जरा पूतना और कृष्ण के विषय में सोचिये। यह केवल भगवान् हरि की कृपा थी कि कृष्ण इतनी बड़ी असुरनी के हाथ से बच गये। इसके पश्चात् बवंडर असुर आया जो उन्हें आकाश में ले गया और भगवान् हरि की कृपा से उसकी रक्षा हो पाई और वह असुर शिलाखण्ड पर गिरकर मर गया। 

हाल ही में यह बालक दो वृक्षों के मध्य खेल रहा था कि अकस्मात् दोनों वृक्ष धमाके से गिर पड़े। फिर भी इस बालक को चोट नहीं आई। अतः भगवान् हरि ने पुनः उसकी रक्षा की। जरा सोचिये कि यही बच्चा या इसके साथ खेलता हुआ अन्य बच्चा गिरते हुए वृक्षों से दब गया होता तो! 

इन सारी घटनाओं पर विचार करते हुए हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि यह स्थान अब सुरक्षित नहीं रह गया। हमें इसे छोड़ देना चाहिए। 

उपनन्द ने वृंदावन की क्या -क्या ख़ासियत बताई ?

हम भगवान् हरि की कृपा से अभी तक सारे विघ्नों से बचते आये हैं। अब हमें सतर्क रहना होगा और इन स्थान को छोड़ कर ऐसे अन्य स्थान में रहना होगा जहाँ शान्ति हो। मैं सोचता हूँ कि हमें वृन्दावन नामक जंगल में चलना चाहिए जहाँ ताज़े उगे हुए पौधे तथा झाड़ियाँ हैं। 

यह हमारी गायों के लिए अत्युत्तम चरागाह होगा। हम, हमारे परिवार, गोपियाँ तथा उनके बच्चे सभी वहाँ अत्यन्त शान्तिपूर्वक रह सकेंगे। वृन्दावन के निकट ही गोवर्धन पर्वत है, जो अत्यन्त रमणीक है। वहाँ पर गायों के लिए नया चारा तथा घास है, अत: वहाँ रहने में कोई कठिनाई नहीं होगी। 

अतः मेरा सुझाव है कि हम उस रम्य स्थान के लिए तुरन्त प्रस्थान कर दें और अब अधिक समय नष्ट न करें। हम तुरन्त अपने छकड़े तैयार करें और यदि चाहें तो गायों को आगे-आगे करके ले चलें।" 

उपनन्द के भाषण को सुनकर सारे गोपगण तुरन्त राजी हो गये और बोले, “अब तुरन्त चल दिया जाये।” फिर सबों ने अपनी गृहस्थी का सामान तथा बर्तन- भांडे गाड़ियों पर लाद लिये और वृन्दावन जाने के लिए तैयार हो गये। गाँव के बच्चे तथा स्त्रियाँ गाड़ियों पर बैठा दी गई और ग्वाले स्वयं हाथों सारे वृद्ध पुरुष, धनुष-बाण लेकर गाड़ियों के पीछे हो लिये। 

सारी गौवें तथा उनके बछड़े और में साँड़ आगे कर लिए गये और पुरुषों ने धनुष-बाण से सज्जित हो इन बैल गाड़ियों को चारों ओर से घेर लिया। वे अपने सींग तथा तुरही बजाने लगे। इस प्रकार घोर शब्द के साथ वे वृन्दावन के लिए चल पड़े। 

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व्रज की बालाओं का भला कौन वर्णन कर सकता है? वे सब गाड़ियों पर बैठी थीं। वे महँगी से महँगी साड़ियाँ पहने थीं और आभूषणों से सज्जित थीं। वे सदा की भाँति कृष्ण की लीलाओं का जाप करने लगीं। माता यशोदा तथा रोहिणी पृथक्-पृथक् बैलगाड़ियों पर सवार थीं और कृष्ण तथा बलराम उनकी गोद में थे। 

माता यशोदा तथा रोहिणी छकड़ों पर सवार थीं, वे कृष्ण तथा बलराम से बातें करती जा रही थीं और इन बातों का आनन्द लेती हुई परम सुन्दर लग रही थीं। इस प्रकार वृन्दावन पहुँचकर उन्होंने वृन्दावन की चारों ओर जहाँ सभी लोग परम शान्ति तथा प्रसन्नतापूर्वक शाश्वत वास करते हैं, सारी बैलगाड़ियाँ अर्धवृत्ताकार में एक स्थान पर खड़ी कर दी गई और वहीं पर अस्थायी निवास बना लिया। 

यमुना के तट पर गोवर्धन पर्वत तथा वृन्दावन की सुन्दर छटा देखकर वे लोग अत्यन्त प्रसन्न हुए। बड़े होने पर वे अपने माता-पिता तथा अन्य लोगों से तोतली भाषा में बातें करने लगे और इस प्रकार सभी वृन्दावनवासियों को आनन्द देने लगे। इसी समय कृष्ण तथा बलराम के बड़े हो जाने के कारण उन पर बछड़ों का भार सौंपा गया। 

ग्वालबालों को बचपन में ही गौवों की देखभाल करना सिखाया जाता है। उन्हें सबसे पहले बछड़ों की रखवाली का उत्तरादायित्व सौंपा जाता है। अतः कृष्ण तथा बलराम अन्य ग्वालबालों के साथ चरागाह गये जहाँ बछड़ों का भार सम्भालकर वे अपने संगियों के साथ खेलने लगे। 

कभी-कभी ये दोनों भाई बछड़े चराते समय बाँसुरी बजाते थे। कभी ये दोनों आमलक तथा बेल के फलों से वैसे ही खेलते जैसे छोटे-छोटे बालक गेंद खेलते हैं। कभी-कभी वे नाचते तो उनके नूपुरों की रुन-झुन ध्वनि सुनाई पड़ती। कभी-कभी वे कंबल ओढ़ कर स्वयं बैल तथा गइया बन जाते। इस तरह कृष्ण तथा बलराम खेलते रहते। 

दोनों भइया साँडों तथा गौवों की बोली का अनुकरण करते और खेल-खेल में साँड- भिड़न्त करते। कभी कभी वे विविध पशुओं और पक्षियों की आवाजों की नकल करते। इस प्रकार वे सामान्य संसारी बालकों की भाँति अपनी बाल लीलाओं का आनन्द लूटते।

श्री कृष्ण ने वत्सासुर और बकासुर को किस प्रकार मारा ?

वत्सासुर एक बार जब कृष्ण तथा बलराम यमुना के तट पर खेल रहे थे, तो वत्सासुर नामक एक असुर बछड़े का रूप धारण करके दोनों भाइयों को मारने के उद्देश्य से आया। बछड़े का रूप धारण करने से यह असुर अन्य बछड़ों में मिल गया। किन्तु कृष्ण ने उसे देख लिया था, अत: उन्होंने तुरन्त ही बलराम को इस असुर के घुस आने की जानकारी दी। 

अत: दोनों भाइयों ने उसका चुपके से पीछा किया। कृष्ण ने वत्सासुर की पिछली टाँगें तथा पूँछ पकड़ लीं और बलपूर्वक घुमाकर एक वृक्ष पर फेंक दिया। इससे असुर के प्राण निकल गये और वह पेड़ की चोटी से भूमि पर आ गिरा। जब यह असुर भूमि पर मृत पड़ा था, तो कृष्ण के सारे संगियों ने आकर बधाई दी, "बहुत अच्छे! बहुत अच्छे!" 

और देवतागण परम प्रसन्न होकर आकाश से पुष्पवृष्टि करने लगे।इस प्रकार सम्पूर्ण सृष्टि के पालक कृष्ण तथा बलराम नित्य प्रातः बछड़ों की रखवाली करते और इस प्रकार वृन्दावन में ग्वालों की भाँति अपनी बाल लीलाओं का आनन्द उठाते। 


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एक दिन सारे ग्वाले यमुना नदी के तट पर अपने बछड़ों को जल पिलाने ले गए। सामान्य रूप से जब बछड़े जल पीते रहते, तो सारे बालक भी जल पीते। जब वे सब जल पीकर नदी के किनारे बैठे हुए थे, तो उन्होंने एक विशाल पशु देखा जो बत्तख जैसा लगता था, किन्तु था पर्वत के समान विशालकाय। उसकी चोटी वज्र के समान कठोर थी। जब उन्होंने इस असामान्य पशु को देखा, तो वे सब भयभीत हुए। 

इस पशु का नाम बकासुर था और यह कंस का मित्र था। वह सहसा वहाँ प्रकट हुआ और उसने झट अपनी नुकीली, तीक्ष्ण चोंच से कृष्ण पर आक्रमण कर दिया तथा उन्हें निगल गया। जब वह इस तरह कृष्ण को निगल गया, तो बलराम आदि सारे लड़के निष्प्राण हो गये, मानो उनकी मृत्यु हो गई हो। किन्तु जब बकासुर कृष्ण को निगल रहा था तभी उसके गले में तीव्र जलन होने लगी। 

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यह कृष्ण के चमकदार तेज के कारण थी। उस असुर ने तुरन्त कृष्ण को ऊपर उछाला और अपनी चोंच में भींचकर मारना चाहा। बकासुर यह नहीं जानता था कि यद्यपि कृष्ण नन्द महाराज के पुत्र का अभिनय कर रहे हैं, तो भी वे सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी के आदि पिता हैं। 

माता यशोदा के पुत्र ने जो देवताओं के लिए आनन्दकन्द हैं और साधु पुरुषों के पालक हैं, उस विशाल बकासुर की चोंच पकड़ ली और अपने ग्वाल साथियों के समक्ष उसके मुँह को दो भागों में उसी तरह चीर डाला जिस प्रकार कोई बच्चा तिनके के दो टुकड़े कर देता है। 

स्वर्गलोक के निवासियों ने बधाई के रूप में आकाश से चमेली के सुगन्धित पुष्पों की वर्षा की। पुष्प वर्षा के साथ ही बिगुल, ढोल तथा शंख की ध्वनि गूंज उठी।

जब लड़कों ने पुष्प वर्षा देखी और स्वर्गिक ध्वनियाँ सुनीं, तो वे आश्चर्यचकित रह गये। जब उन्होंने कृष्ण को बकासुर के मुँह से मुक्त हुए देखा, तो बलराम समेत सारे ग्वाल बाल इतने प्रसन्न हुए मानो उन्हें अपना जीवनाधार प्राप्त हुआ हो। जैसे ही उन्होंने कृष्ण को अपनी ओर आते देखा, तो एक-एक करके सबों ने नन्द के पुत्र को गले लगा लिया। 

इसके बाद उन्होंने सारे बछड़े एकत्र किये और वे घर वापस जाने लगे। जब वे घर आ गये, तो वे नन्द के पुत्र के आश्चर्यजनक कार्यकलापों का वर्णन करने लगे। जब समस्त गोपियों तथा ग्वालों ने लड़कों से यह कहानी सुनी, तो वे परम प्रसन्न हुए, क्योंकि वे कृष्ण को अपने अन्त:करण से चाहते थे और उनकी महिमा तथा उनके विजय-कार्यों को सुन-सुन करके उनके प्रति और अधिक वत्सल हो उठे। 

यह सोचकर कि बाल कन्हाई मृत्यु के मुख से लौट आया है वे उनके मुखमण्डल को और भी अधिक प्रेम तथा वात्सल्य से देखने लगे। वे चिन्ताओं से पूर्ण थे किन्तु कृष्ण की ओर से अपने मुख हटा नहीं पा रहे थे। 

गोपियाँ तथा गोप परस्पर बातें करने लगे कि कितने आश्चर्य की बात है कि बाल कृष्ण पर कितनी-कितनी बार कितने प्रकार के कितने असुरों ने आक्रमण किये, तो भी वे सारे असुर ही मारे गये और कृष्ण अक्षत बने आये। 

वे लगातार बातें करते रहे कि कितने-कितने भयानक असुरों ने कृष्ण को मारने के लिए न जाने कितनी बार आक्रमण किया, किन्तु हरि की कृपा से उनका बाल बाँका न हो पाया। उल्टे वे सब पतंग की भाँति दीपक में जल मरे। 

इस प्रकार उन्हें गर्गमुनि के वचन स्मरण हो आये जिन्होंने अपने अपार वौदिक ज्ञान तथा ज्योतिष के आधार पर भविष्यवाणी की थी कि इस बालक पर अनेक असुरों का आक्रमण होगा। अब वे साक्षात् देख रहे थे कि उनका प्रत्येक शब्द सत्य सिद्ध हो रहा है। 

नन्द महाराज समेत सारे वयोवृद्ध ग्वाले भगवान् कृष्ण तथा बलराम के आश्चर्यजनक कार्यों की चर्चा चलाते और इन बातों में इतने तल्लीन हो जाते कि उन्हें इस संसार के तीनों ताप भूल जाते। यह कृष्णभावनामृत का प्रभाव है। 

आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व नन्द महाराज ने जो कुछ सुखोपभोग किया उसे आज भी कृष्ण-भावनाभावित लोग भोग सकते हैं यदि वे कृष्ण तथा उनके सहयोगियों की दिव्य लीलाओं की केवल चर्चा चलाते रहें। 

इस प्रकार सागर पर सेतु बनाने वाले भगवान् रामचन्द्र के बन्दरों तथा समुद्र को लाँघकर लंका जाने वाले हनुमान जी की लीलाओं का अनुकरण करते हुए बलराम तथा कृष्ण अपनी बाललीलाओं का आनन्द उठाते रहे। वे अपने मित्रों के बीच ऐसी लीलाओं का अनुकरण करते हुए अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक अपना बाल्यकाल बिताने लगे। 

प्रिय पाठकों ! आशा करते है आपको भगवान् श्री कृष्ण की ये बाल लीला पसंद आई होगी। विश्वज्ञान में ऐसी ही अन्य लीलाओं के साथ फिर मुलाक़ात होगी। तब तक आप अपना ख्याल रखें व प्रभु की लीलाओ का स्मरण करते हुए उन्हें महसूस करने का प्रयत्न करें। 

धन्यवाद। 


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