इंद्रदेव, गोवर्धन पर्वत व सुरभि गाय की सम्पूर्ण जानकारी

जय श्री राधे श्याम 

हर हर महादेव प्रिय पाठकों ! कैसे है आप लोग, 
आशा करते है आप सभी सकुशल होंगे। 
भगवान् शिव का आशीर्वाद हमेशा आपको प्राप्त हो।  

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इस पोस्ट में आप पाएंगे -

गोवर्धन पूजा के पीछे क्या कथा है

गोवर्धन पूजा को अन्य किस नाम से जाना जाता है ?

इंद्र ने वर्षा करने के लिए किस बादल का आह्वान किया ?

वृन्दावनवासी गायों पर निर्भर क्यों थे ?

वृंदावन वासी कितने दिनों तक गोवर्धन पर्वत के नीचे रहे ? 

गोवर्धन पर्वत उठाते समय कृष्ण की आयु कितने वर्ष की थी ?

ग्वालों तथा वृंदावन वासियों द्वारा कृष्ण जी की प्रसंशा

गर्ग मुनि ने कृष्ण जी के बारे में नन्द बाबा को क्या बताया ?

इन्द्र देव द्वारा कृष्ण स्तुति

भगवान् कृष्ण का इंद्र देव को उपदेश देना। 

क्या भगवान की पूजा करने से मनुष्य निर्धन हो जाता है ?

सुरभि गाय द्वारा भगवान् कृष्ण की स्तुति 

सुरभि गाय व इंद्र ने भगवान् कृष्ण का अभिषेक किस प्रकार किया ?

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गोवर्धन पूजा के पीछे क्या कथा है?

जब कृष्ण तथा बलराम वैदिक यज्ञों को सम्पन्न करने वाले ब्राह्मणों से बातें करने में व्यस्त थे, तो उन्होंने यह भी देखा कि स्वर्ग के राजा तथा वर्षा के लिए उत्तरदायी इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए सारे ग्वाले एक वैसे ही यज्ञ की तैयारी कर रहे हैं। 

जैसाकि चैतन्य चरितामृत में कहा गया है कि कृष्ण-भक्त का यह दृढ़ विश्वास है कि यदि वह केवल कृष्णभावनामृत तथा कृष्ण की दिव्य प्रेमा-भक्ति में लगा रहे, तो वह अन्य समस्त ऋणों से मुक्त हो जाता है। 

कृष्ण के विशुद्ध भक्त को वेदों द्वारा बताये गये किसी अनुष्ठान को नहीं करना होता, न ही उसे किसी देवता की पूजा करनी होती है। कृष्ण-भक्त होने से यह मान लिया जाता है कि उसने सारे वैदिक अनुष्ठान या देवताओं की पूजा सम्पन्न कर ली है। 

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वैदिक अनुष्ठान करने से या देवताओं की पूजा करने से ही कृष्णभक्ति उत्पन्न नहीं हो जाती। बल्कि यह समझ लेना चाहिए कि जो भगवान् की सेवा में पूर्णरूपेण लगा रहता है, वह पहले से सारे वैदिक आदेशों को पूरा किये रहता है। 

कृष्ण अपने भक्तों द्वारा ऐसे सारे कार्य बन्द करवाने के लिए अपनी उपस्थिति में वृन्दावन में अनन्य भक्ति स्थापित कर देना चाहते थे। सर्वज्ञ कृष्ण को ज्ञात था कि सारे ग्वाले इन्द्र-यज्ञ की तैयारी कर रहे हैं, किन्तु शिष्टाचारवश उन्होंने अत्यन्त विनय से तथा आदरपूर्वक नन्द महाराज तथा अन्य गुरुजनों से इसके सम्बन्ध में पूछना प्रारम्भ कर दिया। 

उन्होंने अपने पिता से पूछा, "हे पिताजी! विशाल यज्ञ के लिए यह सारा प्रबन्ध क्यों हो रहा है? इस यज्ञ का क्या फल है और यह किसके निमित्त है? यह किस तरह सम्पन्न होता है? कृपा करके मुझे बताएँ क्योंकि में इसका उद्देश्य जानने का इच्छुक हूँ।" 

उनकी इस पूछताछ पर उनके पिता नन्द महाराज यह सोचकर मौन बने रहे कि यह तरुण बालक यज्ञ सम्पन्न करने की गुत्थियों को नहीं समझ सकेगा। किन्तु कृष्ण ने हठ किया: "हे पिता! उदार तथा पुरुषों के लिए कुछ भी गोपनीय नहीं होता। 

वे किसी को भी न तो मित्र मानते हैं और न शत्रु और न ही तटस्थ क्योंकि वे सबों के प्रति सदैव उदार होते हैं। यहाँ तक कि जो लोग इतने उदार नहीं होते वे भी अपने परिवार के सदस्यों तथा मित्रों से कुछ नहीं छिपाते। हाँ, जो लोग शत्रुता रखते हैं उनसे गोपनीयता बरती जा सकती है। 

अत: आप मुझसे कुछ भी गोपनीय न रखें। सारे के सारे मनुष्य सकाम कर्म में लगे रहते हैं। इनमें से कुछ जानते रहते हैं कि ये कर्म क्या हैं और उन्हें फल का भी पता रहता है। कुछ लोग ऐसे हैं, जो उद्देश्य या फल को जाने बिना कर्म करते हैं। 

yagyakarta braahmanon kee patniyon ka uddhaar/यज्ञकर्ता ब्राह्मणों की पत्नियों का उद्धार

जो व्यक्ति पूरी समझ में कर्म करता है उसे पूरा फल मिलता है और जो बिना जाने ऐसा करता है उसे पूरा फल नहीं मिलता। अत: आप मुझे इस यज्ञ का प्रयोजन बता दें, जिसे आप करने जा रहे हैं। क्या यह वैदिक आदेशानुसार है? या यह केवल लौकिक उत्सव है? कृपा करके मुझे इस यज्ञ के विषय में विस्तार से बताएँ।” 

कृष्ण से यह प्रश्न सुनकर महाराज नन्द ने उत्तर दिया, "मेरे बेटे! यह उत्सव न्यूनाधिक परम्परागत है। चूँकि वर्षा राजा इन्द्र की कृपा से होती है और बादल उसके प्रतिनिधि हैं और चूँकि हमारे जीवन के लिए जल इतना महत्त्वपूर्ण है, 

अत: हमें वर्षा के नियामक महाराज इन्द्र के प्रति कुछ कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए। अतः हम राजा इन्द्र को प्रसन्न करने का प्रबन्ध कर रहे हैं क्योंकि उसने कृषिकर्मों को सफल बनाने के लिए ही बादलों को प्रचुर वर्षा करने के लिए भेजा है। 

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जल अत्यन्त आवश्यक है, जल के बिना न तो हम जोत-बो सकते हैं, न अन्न उत्पन्न कर सकते हैं। यदि वर्षा न हो, तो हम जीवित नहीं रह सकते। यह वर्षा धर्म, अर्थ तथा मोक्ष के लिए आवश्यक है। अतः हमें परम्परागत उत्सवों को छोड़ना नहीं चाहिए; यदि कोई काम, लोभ या भय के कारण इनका परित्याग करता है, तो यह उसे शोभा नहीं देता।"

ये बात सुनकर भगवान् कृष्ण अपने पिता तथा वृन्दावन के समस्त प्रौढ़ ग्वालों के समक्ष इस प्रकार बोले जिससे स्वर्ग का राजा इन्द्र अत्यन्त कुपित हो जाये। भगवान ने कहा यज्ञ बन्द कर दिया जाये। इन्द्र को प्रसन्न करने वाले इस यज्ञ का निषेध करने के दो कारण थे। 

पहला-जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है किसी भौतिक उन्नति के लिए देवताओं की पूजा करना व्यर्थ है, देवताओं की पूजा से प्राप्त होने वाले सारे फल क्षणिक होते हैं और केवल अल्पज्ञ ही ऐसे; क्षणिक फलों में रुचि रखते हैं। दूसरा-देवताओं की पूजा से जो भी क्षणिक फल प्राप्त होता है, वह वस्तुत: भगवान् की कृपा से होता है। 

भगवद्गीता में स्पष्ट कथन है-मायैव विहितान् हि तान्। देवताओं से जो भी लाभ मिलता है, वह वास्तव में भगवान् द्वारा प्रदत्त है। भगवान् की अनुमति के बिना कोई किसी को लाभ नहीं पहुँचा सकता। किन्तु कभी-कभी देवता भौतिक प्रकृति के वशीभूत होकर गर्वित हो उठते हैं और अपने को सर्वस्व समझ कर भगवान् की सर्वोच्चता भूल जाते हैं।

श्रीमद्भागवत में स्पष्ट उल्लेख है कि इस प्रसंग में तो कृष्ण राजा इन्द्र को कुपित करना चाहते थे। कृष्ण का अवतार असूरों के विनाश तथा भक्तों की रक्षा के लिए हुआ था। इन्द्र निश्चित रूप से भक्त था, असुर नहीं, किन्तु चूँकि वह गर्वित था, इसलिए कृष्ण उसे पाठ पढ़ाना (शिक्षा देना) चाहते थे। 

krishna ne gopiyon ke vastr kyon churaaye /गोपियों का चीर हरण

सर्वप्रथम उन्होंने इन्द्र को कुपित करने के लिए वृन्दावन में ग्वालों द्वारा की जाने वाली इन्द्रपूजा बन्द करा दी। इस उद्देश्य से कृष्ण इस प्रकार बातें करने लगे मानो वे नास्तिक हों और 'कर्म- मीमांसा' दर्शन के समर्थक हों। इस दर्शन के समर्थक भगवान् की सर्वोच्चता को स्वीकार नहीं करते। 

वे यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि यदि कोई अच्छा कार्य करता है, तो उसका फल अवश्य प्राप्त होगा। उनके मत से यदि मनुष्य को उसके कर्मों का फल देने वाला ईश्वर विद्यमान भी हो, तो उसके पूजन की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि जब तक मनुष्य कर्म नहीं करता तब तक वह कोई फल नहीं दे सकता। 

उनका कहना है कि देवता या ईश्वर की पूजा करने के बजाय मनुष्यों को चाहिए कि अपने कर्तव्यों की ओर ध्यान दें और इस प्रकार अवश्य ही अच्छा फल प्राप्त होगा। भगवान् कृष्ण अपने पिता से 'कर्म-मीमांसा' दर्शन के इन्हीं सिद्धान्तों के अनुसार बातें करने लगे। 

उन्होंने कहा, "हे पिता! मेरे विचार से अपने कृषिकार्यों की सफलता के लिए आपको किसी भी देवता के पूजने की आवश्यकता नहीं है। प्रत्येक जीव अपने पूर्वकर्म के अनुसार उत्पन्न होता है और वर्तमान कर्म के फल को साथ लेकर इस जीवन को त्याग देता है। 

प्रत्येक जीव अपने पूर्वकर्मों के अनुसार विविध योनियों में जन्म ग्रहण करता है और इस जीवन में जैसा कर्म करता है उसी के अनुसार अगला जन्म पाता है। विभिन्न प्रकार के भौतिक सुख तथा दुख, लाभ तथा हानि भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मों के प्रतिफल हैं, जो पूर्वजन्म में या इस जन्म में किये जा चुके हैं।' 

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महाराज नन्द तथा अन्य गुरुजनों ने तर्क किया कि प्रमुख देवता को प्रसन्न किये बिना केवल भौतिक कर्मों द्वारा कोई शुभ फल की प्राप्ति नहीं कर सकता। यही तथ्य है। उदाहरणार्थ, कभी-कभी देखा जाता है कि उत्तम डॉक्टर द्वारा उत्तमोत्तम चिकित्सा तथा उपचार करने पर भी रोगी की मृत्यु हो जाती है। 

अत: यह निष्कर्ष निकलता है कि उत्तम उपचार या उत्तम डॉक्टर द्वारा किया गया प्रयास ही रोगी के अच्छा होने के कारण नहीं हैं; इसमें भगवान् का हाथ अवश्य होना चाहिए। इसी प्रकार माता-पिता द्वारा अपनी सन्तानों का लालन-पालन ही बच्चों के सुख का कारण नहीं होता। 

कभी-कभी देखा जाता है कि माता-पिता द्वारा समस्त सावधानी बरतने के बावजूद बच्चे बिगड़ जाते हैं या मर जाते हैं। अतः फल के लिए भौतिक कारण पर्याप्त नहीं हैं। इसमें भगवान् की स्वीकृति (प्रसाद) आवश्यक है। अतः नन्द महाराज ने दलील दी कि कृषिकर्म में अच्छा फल पाने के लिए हमें वर्षा के अधिष्ठाता देव इन्द्र को प्रसन्न करना चाहिए। 

I wish we were also flutes / The pure love of the gopis/काश हम भी बांसुरी होती/गोपियों का निर्मल प्रेम

भगवान् कृष्ण ने इस तर्क को काटते हुए कहा कि देवता केवल उन व्यक्तियों को फल देते हैं, जो अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। देवता ऐसे व्यक्ति को कभी कोई फल नहीं दे सकते जिसने अपना नियत कर्म पूरा न किया हो। 

अतः देवता कर्म सम्पन्नता (कर्मपरायणता) पर आश्रित है और उन्हें किसी को अच्छा फल देने की पूरी छूट नहीं है। अत: किसी को उनकी परवाह क्यों करनी चाहिए? भगवान् कृष्ण ने कहा, "हे पिताजी! इन्द्रदेव की पूजा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रत्येक जीव को अपने कर्म का फल प्राप्त होता है। 

हम देखते हैं कि अपने कर्म की स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार हर व्यक्ति कार्यरत हो जाता है और सारे जीव-चाहे मनुष्य हों या देवता-इसी प्रवृत्ति के द्वारा अपना-अपना फल प्राप्त करते हैं। सारे जीव अपने-अपने कर्म के अनुसार उच्च या निम्न शरीर प्राप्त करते हैं और शत्रु या मित्र बनाते हैं।

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मनुष्य को अपनी सहज प्रवृत्ति के अनुसार ही कर्म करना चाहिए और विविध देवताओं की पूजा में ध्यान नहीं मोड़ना चाहिए। सारे देवता समस्त कर्मों के सही कार्यान्वयन से प्रसन्न होंगे, अतः उनकी पूजा की कोई आवश्यकता नहीं है। 

अच्छा यही है कि हम अपना कर्तव्य सुचारु रीति से करें। वस्तुतः कोई भी व्यक्ति निर्दिष्ट कर्म किये बिना सुखी नहीं हो सकता। अतः जो ढंग से निर्दिष्ट कर्म नहीं करता वह व्यभिचारिणी स्त्री के समान है। ब्राह्मण का उचित निर्दिष्ट कर्तव्य वेदों का अध्ययन है, प्रशासक वर्ग अर्थात् क्षत्रियों का कर्तव्य नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करना है, 

वैश्यों का कर्तव्य कृषि, व्यापार तथा गौवों की सुरक्षा करना है और शूद्रों का कर्तव्य है उच्च वर्गों अर्थात् ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्यों की सेवा करना। हम वैश्य जाति के हैं और हमारा वास्तविक कर्तव्य खेती करना, कृषि उत्पादनों का व्यापार, गौवों की रक्षा या वित्तीय संस्था में लेन-देन का कार्य करना है।" 

कृष्ण ने अपना सम्बन्ध वैश्य जाति से जोड़ा क्योंकि नन्द महाराज अनेक गायों की रक्षा कर रहे थे और कृष्ण उनकी देखरेख करते थे। उन्होंने वैश्य जाति के चार प्रकार के कार्य गिनाये हैं-कृषि, व्यापार, गोरक्षा तथा बैंक की व्यवस्था। 

यद्यपि वैश्यगण इनमें से कोई भी कार्य कर सकते हैं, किन्तु वृन्दावनवासी मुख्यत: गोरक्षा में ही लगे हुए थे। कृष्ण ने अपने पिताजी को आगे भी बताया, "यह दृश्य जगत प्रकृति के तीन गुणों-सतो, रजो तथा तमो-के अधीन चल रहा है। 

ये तीन गुण उत्पत्ति, पालन तथा संहार के कारणस्वरूप हैं। बादल की उत्पत्ति रजोगुण के प्रभाव से होती है, अत: वर्षा का कारण यही रजोगुण है। इस वर्षा के बाद ही जीवों को फल अर्थात् कृषि कार्य में सफलता मिलती है। तो फिर इन्द्र को इस कार्य से क्या प्रयोजन है? 

यदि आप इन्द्र को प्रसन्न न भी करें, तो वह क्या कर सकता है? हमें इन्द्र से कोई विशेष लाभ नहीं मिलता। यदि वह हो भी तो वह समुद्र के ऊपर भी तो जल बरसाता है जहाँ उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। अतः हम पूजा करें या न करें, वह समुद्र तथा पृथ्वी पर जल की वर्षा करता है। 

जहाँ तक हमारी बात है, हमें किसी अन्य नगर या गाँव या विदेश जाने की आवश्यकता नहीं है। नगरों में बड़े-बड़े महल हैं, किन्तु हम तो वृन्दावन के इसी जंगल में रहने से ही संतुष्ट हैं। हमारा सम्बन्ध गोवर्धन पर्वत तथा वृन्दावन के जंगल से है, अन्य कहीं से नहीं। 

अतः हे पिता! मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप ऐसा यज्ञ करें जिससे स्थानीय ब्राह्मण तथा गोवर्धन पर्वत सन्तुष्ट हो सकें। हमें इन्द्र से कोई सरोकार नहीं है।" कृष्ण के इस कथन को सुनकर नन्द महाराज ने उत्तर दिया, "मेरे बेटे! चूँकि तुम कह रहे हो इसलिए मैं स्थानीय ब्राह्मणों तथा गोवर्धन पर्वत के लिए एक पृथक् यज्ञ का आयोजन किये देता हूँ। 

किन्तु इस समय मुझे यह इन्द्र-यज्ञ करने दो।' किन्तु कृष्ण का प्रत्युत्तर था, "पिताजी! आप विलम्ब न करें। आप गोवर्धन पर्वत तथा स्थानीय ब्राह्मणों के लिए जिस यज्ञ का प्रस्ताव रख रहे हैं उसमें काफी समय लगेगा। अतः अच्छा हो यदि इन्द्र-यज्ञ के लिए आपने जितनी तैयारियाँ की हैं, उनसे गोवर्धन पर्वत तथा स्थानीय ब्राह्मणों को संतुष्ट कर दिया जाये।”

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अन्ततोगत्वा महाराज नन्द को पसीजना पड़ा। तब ग्वालों ने कृष्ण से पूछा कि वे यज्ञ को किस तरह करना चाहते हैं। तो कृष्ण ने उन्हें ये आदेश दिये, "यज्ञ के लिए एकत्र किये गये अन्न तथा घी से विविध पकवान यथा-चावल, दाल, हलवा, पकौड़ी, पूड़ी तथा दूध के व्यजंन-यथा खीर, रबड़ी, रसगुल्ला, सन्देश एवं लड्डू बनाये जाँय और फिर विद्वान ब्राह्मणों को बुलवा कर वैदिक मंत्रों के उच्चारणसहित अग्नि को आहुति प्रदान की जाये। 

ब्राह्मणों को दान में सभी प्रकार के अन्न दिये जाँए। सारी गौवों को सजाकर उन्हें अच्छा चारा दिया जाय। इसके बाद ब्राह्मणों को दान में धन दिया जाये। जहाँ तक निम्न स्तर के पशुओं या लोगों का प्रश्न है, कुत्तों और चण्डालों और अछूत समझे जाने वाले पंचम श्रेणी के लोगों को भी पेट भर कर प्रसाद दिया जाये। गौवों को उत्तम घास खिलाकर तुरन्त ही गोवर्धन पूजा प्रारम्भ की जाये। इस यज्ञ से मैं परम सन्तुष्ट हूँगा।" 

कृष्ण के इस कथन में वैश्य जाति की समस्त अर्थव्यवस्था का वर्णन हुआ है। मानव-समाज की सभी जातियों में तथा पशु-जगत में गायों, कुत्तों, बकरियों आदि में, प्रत्येक जीव को अपनी-अपनी भूमिका अदा करनी होती है। हर एक सदस्य को सम्पूर्ण समाज के लाभ के लिए सहयोग से काम करना होता है। 

इस में न केवल सजीव पदार्थ, अपितु पर्वत तथा भूमि जैसे निर्जीव पदार्थ भी सम्मिलित हैं। वैश्य जाति का विशेष दायित्व रहता है कि समाज के आर्थिक विकास के लिए वह अन्न उत्पन्न करे, गौवों की रक्षा करे, आवश्यकता पड़ने पर खाद्य पदार्थों का यातायात करे तथा बैकिंग और अर्थ को सँभाले । 

इस कथन से हमें यह भी ज्ञात होता है कि यद्यपि कुत्ते तथा बिल्लियाँ अब इतनी महत्त्वपूर्ण हो गई हैं कि इनकी भी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। किन्तु गौवों की रक्षा कुत्तों-बिल्लियों की सुरक्षा से अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस कथन से हमें एक अन्य संकेत यह मिलता है कि उच्चवर्गों को चण्डाल या अस्पृश्य की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए और उन्हें आवश्यक रक्षा प्रदान की जानी चाहिए। 

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गोवर्धन पूजा को अन्य किस नाम से जाना जाता है ?

प्रत्येक व्यक्ति का अपना महत्त्व है, किन्तु इनमें से कुछ मानव-समाज की प्रगति के लिए प्रत्यक्ष उत्तरदायी हैं और कुछ अप्रत्यक्ष रूप से। किन्तु कृष्णभावनामृत होने पर हरएक के लाभ का ध्यान रखा जाता है। 

भगवान् कृष्णभावनामृत-आन्दोलन गोवर्धन पूजा नामक यज्ञ को मान्यता देता है। चैतन्य की संस्तुति है कि चूँकि कृष्ण पूजनीय हैं, अत: उनकी भूमि वृन्दावन तथा गोवर्धन पर्वत भी पूजनीय हैं। 

इस कथन की पुष्टि के लिए कृष्ण ने कहा कि गोवर्धन की पूजा उनकी (कृष्ण ) पूजा के ही समान है। तब से आजतक गोवर्धन पूजा की जाती है, जो अन्नकूट नाम से विख्यात है। 

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इस उत्सव पर वृन्दावन तथा वृन्दावन के बाहर के मन्दिरों में भी प्रचुर मात्रा में भोजन तैयार किया जाता है और जनता में खुले दिल से बाँट दिया जाता है। कभी-कभी यह भोजन भीड़ में फेंक दिया जाता है और लोग उसे जमीन से भी उठाकर खाने में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। 

इस से हम समझ सकते हैं कि कृष्ण को अर्पित प्रसाद कभी दूषित नहीं होता, भले ही वह भूमि पर क्यों न फेंका गया हो। अत: लोग इसे एकत्र करके परम प्रसन्नतापूर्वक खाते हैं। 

अत: भगवान् श्रीकृष्ण ने ग्वालों को सलाह दी कि इन्द्र-यज्ञ बन्द करके इन्द्र को दण्डित करने के लिए गोवर्धन-पूजा प्रारम्भ की जाये क्योंकि इन्द्र स्वर्ग का परम नियन्ता होने के कारण अत्यन्त गर्वीला हो गया था। 

नन्द महाराज तथा सीधे- सादे ईमानदार ग्वालों ने कृष्ण का प्रस्ताव मानकर उनके द्वारा संस्तुत सब कार्य विस्तार से सम्पन्न किए। उन्होंने गोवर्धन की पूजा तथा उसकी परिक्रमा सम्पन्न की (गोवर्धन पूजा के उद्घाटन के बाद आज भी वृन्दावनवासी सुन्दर वस्त्र पहन कर गोवर्धन पर्वत की पूजा करने और गौवों को आगे करके परिक्रमा करने के लिए उसके निकट एकत्र होते हैं)। 

भगवान् के आदेशानुसार नन्द महाराज तथा ग्वालों ने विद्वान ब्राह्मणों को बुलाया और वैदिक मंत्रोच्चार के साथ प्रसाद समर्पण करके गोवर्धन की पूजा की। वृन्दावनवासी एकत्र हुए, उन्होंने अपनी-अपनी गौवें सजाईं और उन्हें हरी-हरी दूब दी। फिर गौवों को आगे करके गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करने लगे। 

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गोपियों ने भी अपने को अच्छे वस्त्रों से सजाया और वे बैलगाड़ियों में बैठकर कृष्ण की लीलाओं का कीर्तन करने लगीं। यहाँ एकत्रित ब्राह्मणों ने गोवर्धन-पूजा के लिए पुरोहित बनकर ग्वालों तथा उनकी पत्नियों (गोपियों) को आशीर्वाद दिया। 

जब सब कुछ पूरा हो गया तो कृष्ण ने महान् दिव्य रूप धारण किया और वृन्दावनवासियों के समक्ष घोषित किया कि वे स्वयं गोवर्धन पर्वत हैं जिससे भक्तों को विश्वास हो जाये कि स्वयं कृष्ण तथा गोवर्धन पर्वत अभिन्न हैं। तब वहाँ पर अर्पित सारे व्यंजनों (भोग) को कृष्ण खाने लगे। 

आज भी कृष्ण तथा गोवर्धन पर्वत की अभिन्नता का सम्मान किया जाता है और परम भक्तगण गोवर्धन पर्वत से शिलाखण्ड लेकर उसकी उसी प्रकार पूजा करते हैं जिस प्रकार मन्दिरों में कृष्ण के श्रीविग्रह की। 

इसीलिए कृष्णभावनामृत अनुयायी गोवर्धन पर्वत से छोटी-छोटी शिलाएँ एकत्र करके अपने घर में उनकी पूजा कर सकते हैं क्योंकि यह पूजा श्रीविग्रह पूजा के ही समान है। 

khijhte-hue-krishna-kya-kya-baal-sulabh-cheshthaye-karne-lagte-hai /माता यशोदा ने कृष्ण को क्यों बाँधा?

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जिस रूप में कृष्ण ने भोग लगाया था उसको अलग से बनाकर कृष्ण तथा अन्य वृन्दावनवासियों ने उसे तथा गोवर्धन पर्वत को नमस्कार किया। साक्षात् कृष्ण तथा गोवर्धन पर्वत के विशाल रूप को नमस्कार करते हुए कृष्ण ने उस सभा में घोषित किया, “जरा देखो तो कि गोवर्धन पर्वत किस प्रकार यह विशाल रूप धारण किये है और सारी भेंटें स्वीकार करके हम पर अनुग्रह कर रहा है। 

मैंने स्वयम् गोवर्धन की पूजा जिस प्रकार से सम्पन्न की है, यदि कोई उस रूप में नहीं करेगा, तो वह सुखी नहीं रहेगा। गोवर्धन पर्वत में अनेक सर्प हैं और जो गोवर्धन पूजा सम्बन्धी निर्धारित कर्तव्य का पालन नहीं करेगा उसे ये साँप काटेंगे और वह मर जाएगा। 

गौवों तथा अपने कल्याण के लिए विश्वस्त होने के लिए गोवर्धन के निकटवर्ती समस्त वृन्दावनवासियों को इस पर्वत की पूजा उसी रूप में करनी चाहिए जैसा मैंने बताया है।" इस प्रकार गोवर्धन पूजा रूपी यज्ञ सम्पन्न करके वृन्दावन के समस्त वासियों ने वसुदेव के पुत्र कृष्ण की आज्ञा का पालन किया और बाद में वे अपने-अपने घरों को चले गये।

इंद्र ने वर्षा करने के लिए किस बादल का आह्वान किया ?

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प्रिय पाठकों !जब इन्द्र को ज्ञात हुआ कि वृन्दावन में ग्वालों द्वारा सम्पन्न होने वाला यज्ञ कृष्ण द्वारा रोक दिया गया है, तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और नन्द महाराज आदि वृन्दावनवासियों के ऊपर अपना गुस्सा उतारने लगा, यद्यपि उसे यह पूर्णत: ज्ञात था कि साक्षात् कृष्ण उनकी रक्षा कर रहे हैं। 

फिर भी उसने विविध प्रकार के बादलों के निदेशक के रूप में इन्द्र ने सांवर्तक नामक बादल का आह्वान किया। इसका आह्वान समस्त दृश्य जगत के संहार के लिए किया जाता है। इन्द्र ने सांवर्तक को आदेश दिया कि वह वृन्दावन जाकर सारे क्षेत्र को व्यापक बाढ़ से आप्लावित कर दे। 

इन्द्र अपने को असुरों की तरह सर्वशक्तिमान परम पुरुष मानता था। जब असुर प्रबल हो उठते हैं, तो वे परम नियन्ता श्रीभगवान् की अवहेलना करते। यद्यपि इन्द्र असुर न था, किन्तु अपने भौतिक वैभव से गर्वित था और वह परम नियन्ता को ललकारना चाह रहा था। 

वह उस समय अपने-आपको कृष्ण के ही समान शक्तिशाली मान बैठा। उसने कहा, “जरा वृन्दावनवासियों की धृष्टता तो देखो! वे जंगल के रहने वाले हैं, किन्तु अपने मित्र कृष्ण के बहकावे में आकर, जो एक सामान्य मनुष्य से अधिक कुछ नहीं है, देवताओं की अवहेलना का दुस्साहस कर रहे हैं।” 

भगवद्गीता में कृष्ण ने घोषित किया है कि देवताओं की पूजा करने वाले अधिक बुद्धिमान नहीं होते। उन्होंने यह भी घोषित किया है कि मनुष्य को चाहिए कि सब तरह की पूजा छोड़कर केवल कृष्णभावनामृत में मन को केन्द्रित करे। 

कृष्ण का पहले इन्द्र पर कुपित होना और बाद में उसे दण्डित करना भक्तों के लिए स्पष्ट संकेत है कि जो लोग कृष्णभावनामृत में लगे हैं उन्हें किसी देवता की पूजा करने की आश्यवकता नहीं है, भले ही वह देवता क्रुद्ध क्यों न हो जाए। 

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कृष्ण अपने भक्तों को संरक्षण प्रदान करते हैं, अत: उन्हें उनकी कृपा पर पूर्णतः निर्भर रहना चाहिए। इन्द्र ने वृन्दावनवासियों के इस कृत्य की आलोचना की और कहा, "तुम लोग देवताओं की सत्ता को चुनौती देकर इस संसार में कष्ट भोगोगे। 

देवताओं को बलि न देने के कारण तुम भवसागर के अवरोधों को पार नहीं कर सकोगे।" उसने आगे कहा, "वृन्दावन के ग्वालों ने इस वाचाल बालक कृष्ण के कहने पर मेरी सत्ता की उपेक्षा की है। यह तो निरा बालक है किन्तु इस बालक पर विश्वास करके इन्होंने मुझे कुपित किया है। 

इस प्रकार उसने सांवर्तक को आदेश दिया कि वह जाए और वृन्दावन का सारा वैभव नष्ट कर दे। इन्द्र ने कहा, "ये  वृंदावनवासी अपने भौतिक ऐश्वर्य तथा अपने नन्हें मित्र पर विश्वास करने के कारण अत्यन्त गर्वित हो उठे हैं। 

वह केवल वाचाल, क्षुद्र तथा सांसारिक परिस्थिति से अनजान है, किन्तु अपने को ज्ञान में बढ़ा-चढ़ा बताता है। चूँकि वे कृष्ण को मानते हैं, इसलिए उन्हें दण्ड मिलना चाहिए और उन्हें उनकी गौओं समेत नष्ट कर देना चाहिए। 

वृन्दावनवासी गायों पर निर्भर क्यों थे ?

इस प्रकार इन्द्र ने सांवर्तक को आदेश दिया कि वह वहाँ जाकर उस स्थान को जल से आप्लावित कर दे।" यहाँ यह इंगित हुआ है कि गाँवों में या नगरों के बाहर, निवासियों को अपने वैभव के लिए गायों पर निर्भर रहना चाहिए। यदि गाएँ नष्ट कर दी जाती हैं, तो लोग सभी प्रकार के वैभव से विहीन हो जाते हैं। 

जब इन्द्र ने सांवर्तक तथा अन्य संगी बादलों को वृन्दावन जाने का आदेश दिया, तो बादल इस दुष्कृत्य को करने से भयभीत थे। किन्तु राजा इन्द्र ने उन्हें आश्वस्त किया, "तुम आगे-आगे चलो, मैं भी पीछे-पीछे हाथी पर सवार होकर और अंधड़ को साथ लेकर आऊंगा। मैं वृन्दावनवासियों को दण्डित करने में अपनी सारी शक्ति लगा दूँगा।" 

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राजा इन्द्र का आदेश पाकर समस्त घातक बादल वृन्दावन के ऊपर प्रकट हुए और अपनी सारी शक्ति से निरन्तर वर्षा करने लगे। वहाँ निरन्तर बिजली तथा गर्जन, प्रबल झंझा तथा अनवरत वर्षा होने लगी। वर्षा तीखे बाणों के समान बेधने (घाव करने) लगी। 

मोटे-मोटे स्तम्भों के समान अविराम वर्षा करते हुए बादलों ने धीरे-धीरे वृन्दावन की भूमि को जलमग्न कर दिया जिससे ऊँची तथा नीची भूमि में कोई अन्तर न रह गया। इससे पशुओं के लिए स्थिति भयानक हो गई। 

वर्षा के साथ प्रबल वायु चल रही थी जिससे वृन्दावन का प्रत्येक प्राणी शीत से थरथराने लगा। उद्धार का कोई उपाय न पाकर वे सब गोविन्द के चरणकमलों की शरण में आये। 

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गौवें विशेष रूप से भारी वर्षा के कारण दुखी होकर अपना सिर नीचे किये और बछड़ों को अपने नीचे छिपाये भगवान् के पास आईं और उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करने लगीं। उस समय समस्त वृन्दावनवासी भगवान् कृष्ण से प्रार्थना करने लगे, "हे कृष्ण! आप सर्वशक्तिमान हैं और अपने भक्तों के प्रति अत्यधिक वत्सल हैं। 

कुपित इन्द्र ने हम सबको बहुत सता रखा है, अतः हमारी रक्षा करें। इस प्रार्थना को सुनकर कृष्ण को पता लग गया कि इंद्र यज्ञ सम्मान न पाने के कारण मूसलाधार वर्षा कर रहा है, जिसके साथ असमय में बड़े-बड़े ओले पड़ रहे हैं और प्रबल झंझा चल रहा है।

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माँ यशोदा ने कृष्ण के मुँह में क्या देखा /विराट रूप का दर्शन

कृष्ण समझ गये कि इन्द्र जानबूझ कर अपने कोप का प्रदर्शन कर रहा। अतः उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला, अपने को शक्तिशाली समझने वाले इस देवता ने अपने महान् पराक्रम को दिखा दिया, किन्तु में अपने पद के अनुसार इसका उत्तर दूंगा और उसे दिखा दूंगा कि ब्रह्माण्ड के कार्यों के संचालन में वह स्वतंत्र नहीं है। 

मैं सबका परमेश्वर हूँ, अत: मैं इसकी उसी प्रतिष्ठा को समाप्त कर दूंगा, जिसे उसने अपनी शक्ति से प्राप्त किया है। सारे देवता मेरे भक्त हैं, अतः वे मेरी श्रेष्ठता को कभी भूल नहीं सकते, किन्तु यह जाने कैसे भौतिक शक्ति से गर्व से फूल गया है और मदान्ध हो गया है। 

मैं इसके रोग को चूर-चूर कर दूंगा। मैं वृन्दावन के अपने सारे भक्तों को शरण दूंगा, जो पूर्णत: मेरी कृपा पर निर्भर हैं और जिन्हें मैंने शरण दे रखी है। मैं अपनी योगशक्ति से उन्हें बचाऊँगा।" 

ऐसा सोचते हुए भगवान् कृष्ण ने तुरन्त ही एक हाथ से गोवर्धन पर्वत उठा लिया ठीक उस तरह जिस प्रकार कोई बालक धरती से छत्रक (कुकुरमुत्ता) उखाड़ लेता है। 

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इस प्रकार उन्होंने अपनी दिव्य गोवर्धन-धारण-लीला का प्रदर्शन किया। फिर उन्होंने अपने भक्तों को सम्बोधित किया, “हे भाइयो, हे पिता, हे वृन्दावनवासियों। अब आप मेरे द्वारा उठाये गये इस गोवर्धन पर्वत के छत्र के नीचे कुशल-पूर्वक प्रवेश करें। 

इस पर्वत से डरें नहीं और यह भी न सोचें कि यह मेरे हाथ से गिर जाएगा। आप लोग मूसलाधार वर्षा तथा प्रचंड वायु से अत्यधिक पीड़ित हुए है अतः मैंने इसे उठा लिया है और यह बहुत बड़े छाते के समान आपकी रक्षा करेगा। मेरे विचार से आप लोगों को आसन्न संकट से बचाने का यह उचित प्रबंध है। 

इस विशाल छाते के नीचे अपने पशुओं समेत सुख से रहें।" भगवान् कृष्ण द्वारा आश्वस्त किये जाने पर सारे वृन्दावनवासी अपनी-अपनी सम्पत्ति तथा अपने पशुओं समेत गोवर्धन पर्वत के नीचे आ गये और वहाँ पर अपने को सुरक्षित अनुभव करने लगे। 

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वृंदावन वासी कितने दिनों तक गोवर्धन पर्वत के नीचे रहे ? 

वृन्दावन के वासी अपने पशुओं समेत भूख-प्यास अथवा किसी और असुविधा से पीडित हुए बिना एक सप्ताह तक वहाँ रहे। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कृष्ण किस तरह बाएँ हाथ की तर्जनी से पर्वत को धारण किये हुए है कृष्ण की इस असाधारण योगशक्ति को देखकर स्वर्ग के राजा इन्द्र पर मानो वज्रपात हो गया और उसका संकल्प डिगने लगा। 

उसने तुरन्त बादल का बुलाया और वर्षा बन्द करने के लिए कहा। जब आकाश निरभ्र हो गया और फिर से सूर्य निकल आया, तो प्रचंड वायु का बहना रुक गया। उस समय गोवर्धनधारी भगवान् कृष्ण ने कहा, "हे ग्वालों! अब तुम लोग अपनी पत्नियों, गौवों तथा धन सहित यहाँ से जा सकते हो, 

क्योंकि सारा उत्पात समाप्त हो चुका है तथा यह जल-प्लावन समाप्त हो गया है।" तब सारे लोगों ने अपना सामान गाड़ियों में लादा और वे अपनी गौवों यानी गायों तथा अन्य सामग्री सहित वहाँ से धीरे-धीरे रवाना होने लगे। 

जब सब लोग चले गये, तो कृष्ण ने शनैः शनै: गोवर्धन पर्वत को फिर उसी स्थिति में रख दिया। जब सब कुछ समाप्त हो गया, तो सारे वृन्दावन के निवासी कृष्ण के पास आये और आनन्दविभोर होकर वे उनका आलिंगन करने लगे। 

गोपियाँ जो स्वभावतः कृष्ण से प्रेम करती थीं, उन्हें अपने आंसुओं से मिश्रित दही देने लगों और उन्होंने उन्हें अनेक आशीष दिये। माता यशोदा, माता रोहिणी, नन्द तथा सर्व-बलशाली बलराम ने स्नेहवश एक-एक करके कृष्ण का आलिंगन किया और बारम्बार आशीष दिया। 

सिद्धलोक, गन्धर्वलोक तथा चारणलोक के विभिन्न देवों ने भी परम प्रसन्नता प्रदर्शित की। उन्होंने पृथ्वी पर फूलों की वर्षा की और शंखध्वनि की। ढोल बजने लगे और दैवी भावनाओं से पूरित होकर गन्धर्वलोक के वासी भगवान् को प्रसन्न करने के लिए अपने-अपने तम्बूरे बजाने लगे। 

गोवर्धन पर्वत उठाते समय कृष्ण की आयु कितने वर्ष की थी ?

इस घटना के पश्चात् भगवान् अपने प्रिय मित्रों तथा पशुओं समेत अपने घर वापस आये। सदा की भाँति गोपियों ने अत्यन्त श्रद्धाभाव से भगवान् कृष्ण की पुण्य लीलाओं का कीर्तन किया। भगवान कृष्ण की लीलाओं की जटिलताओं को समझे बिना तथा उनके असाधारण के अद्भुत कार्यों की चर्चा करने लगे। 

आध्यात्मिक ऐश्वर्य को जाने बिना, सीधे सादे ग्वाले तथा वृन्दावन के वासी कृष्ण    उनमें से एक ने कहा, "मित्रों। उनके अद्भुत कार्यों को देखते हुए यह कैसे सम्भव हो सकता है कि ऐसा असाधारण बालक वृन्दावन आकर हम लोगों के साथ रह सके? सचमुच ऐसा सम्भव नहीं है। 

जरा सोचो तो! अभी वे केवल सात वर्ष के हैं। उनके लिए अपने एक हाथ से गोवर्धन पर्वत को उठाकर उसे पारण करना कैसे सम्भव हो सकता है, जैसे कोई गजराज कमल का फूल उठाये हो। 

ग्वालों तथा वृंदावन वासियों द्वारा कृष्ण जी की प्रसंशा 

हाथी के लिए कमल का फूल उठाना तुच्छ कार्य है उसी प्रकार कृष्ण ने बिना किसी श्रम के गोवर्धन पर्वत को उठा लिया है। जब वे शिशु थे और ठीक से देख भी नहीं सकते थे, तभी उन्होंने पूतना जैसी बड़ी राक्षसी का वध किया था, उसका स्तन- पान करते हुए उसके प्राण भी चूस लिये। 

कृष्ण ने पूतना को उसी प्रकार मारा जिस प्रकार समय आने पर शाश्वत काल प्राणी को मारता है। जब वे केवल तीन मास के थे और एक छकड़े के नीचे सो रहे थे, तो माता का दूध पीने के लिए रोने लगे और ऊपर की ओर पाँव चलाने लगे। 

उनके छोटे-छोटे पाँव लगने से वह छकड़ा टूटकर खण्ड-खण्ड हो गया। जब वे एक वर्ष के हुए, तो बवंडर के वेश में तृणावर्त असुर उन्हें उड़ाकर आकाश में बहुत ऊँचाई तक ले गया, तब वे उस असुर की गर्दन पर लटक गये और उसे आकाश से नीचे गिरने पर बाध्य कर दिया जिससे वह तुरन्त मर गया। 

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कृष्ण और तृणावर्त की कथा / तृणावर्त का उद्धार

एक बार उनकी माता ने, उनकी माखन चोरी से ऊबकर उन्हें लकड़ी के उलूख से बाँध दिया, तो वे उसे यमलार्जुन वृक्षों की ओर खींच कर ले गए जिससे वे वृक्ष पृथ्वी पर गिर पड़े। इसी तरह एक बार वे अपने बड़े भाई बलराम के साथ बछड़े चरा रहे थे, तो बकासुर नाम का असुर प्रकट हुआ। 

कृष्ण ने तुरन्त ही इस असुर की चोंच के दो खण्ड कर दिये। जब वत्सासुर नामक राक्षस कृष्ण के बछड़ों को मारने के उद्देश्य से उनके बीच में घुस आया, तो उन्होंने तुरन्त उस असुर को पहचान लिया और उसे मारकर वृक्ष ऊपर फेंक दिया। जब कृष्ण बलराम सहित तालवन में पहुंचे तो गधे के रूप में धेनकासुर ने आक्रमण कर दिया। 

बलराम ने तुरंत उसके पिछले पाँव को पकड़ कर तालवृक्ष के ऊपर फेंक दिया। यद्यपि धेनकासुर के साषी अन्य गधे  भी उसकी सहायता कर रहे थे, किन्तु वे सभी मार डाले गये और तालवन सभी पशुओं तथा वृन्दावनवासियों के लिए खुल गया। जब प्रलम्बासुर ग्वालों के बीच घुस आया तो कृष्ण से उसका वध करा दिया। 

तत्पश्चात् कृष्ण ने अपने मित्रों तथा गोवों को भयंकर दावाग्रि से बचाया, यमुना में कालिनाग को दण्ड दिया तथा उसे यमुना नदी छोड़ने के लिए बाध्य किया जिससे यमुना का जल विषरहित हो गया।" 

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नन्द महाराज के एक और मित्र ने कहा, "हे नन्द। हम यही नहीं जान पा रहे कि आपके पुत्र कृष्ण के प्रति हम इतने आकृष्ट क्यों हैं? हम उन्हें भुलाना चाहते है, किन्तु भुला नहीं पाते। हम उनके प्रति प्राकृतिक रूप से इतने वत्सल क्यों हैं? जरा सोचो तो यह कितना अद्भुत हैं? 

कहाँ केवल सात वर्ष का बालक और कहाँ गोवर्धन जैसा विशाल पर्वत, किन्तु उन्होंने उसे इतनी आसानी से उठा लिया। है नन्द। हम अत्यंत सोच में पड़ गए हैं- हो न हो आपका पुत्र कृष्ण कोई देवता है। वह कोई सामान्य बालक नहीं, हो सकता है कि वह भगवान् ही हो।” 

गर्ग मुनि ने कृष्ण जी के बारे में नन्द बाबा को क्या बताया ?

वृन्दावन में ग्वालों से कृष्ण की प्रशंसा सुनकर नन्द बोले, "मित्रों! अपने उत्तर में मैं गर्ग मुनि के वचनों को बताना चाहता हूँ जिससे तुम लोगों का सन्देह दूर हो जाये। जब वे नामकरण संस्कार करने पधारे थे, तो उन्होंने बताया था कि विभिन्न कालों में यह बालक विविध रंग धारण करके प्रकट होता रहा है और इस बार वह वृन्दावन में श्याम रंग में प्रकट होने के कारण कृष्ण कहलाएगा। 

पूर्व जन्म में इसके रंग श्वेत, फिर लाल और पीले थे। उन्होंने यह भी कहा था कि यह बालक एक बार वसुदेव का पुत्र भी था, अत: जो भी इसके पूर्वजन्म से परिचित है, वह इसे वासुदेव नाम से पुकारता है। वस्तुतः उन्होंने बताया था कि मेरा यह पुत्र अपने गुणों तथा कर्मों के अनुसार अनेक नाम धारण करता है। 

गर्गाचार्य ने मुझे आश्वस्त किया था। कि यह बालक मेरे परिवार के लिए कल्याणकारी होगा और यह वृन्दावन में सभी ग्वालों तथा गौवों को दिव्य आनन्द प्रदान करेगा। यद्यपि हम लोग अनेक कष्टों में फँसते रहेंगे, किन्तु इस बालक के अनुग्रह से हम उनसे मुक्त होते रहेंगे। 

उन्होंने यह भी कहा था कि पूर्वकाल में इसने संसार को दुर्व्यवस्था से उबारकर सत्यनिष्ठ पुरुषों को असत्यवादियों के चंगुल से बचाया था। जो भाग्यशाली व्यक्ति इस बालक कृष्ण के प्रति अनुरक्त होगा उसे उसके शत्रु कभी परास्त नहीं कर पाएँगे। 

कहने का तात्पर्य यह कि यह बालक भगवान् विष्णु के समान है, जो देवताओं के पक्षघर रहते हैं, जिस कारण देवता असुरों से कभी परास्त नहीं होते।

गर्गाचार्य ने निष्कर्ष निकाला कि यह बालक दिव्य रूप, गुण, कर्म, प्रभाव तथा यश में विष्णु के ही अनुरूप होगा, अतः हमें इसके अद्भुत कार्यों से चकित नहीं होना चाहिए। यह कहकर गर्गाचार्य अपने घर चले गये थे और तब से हम इस बालक के अद्भुत कार्यों का अवलोकन करते आ रहे हैं। 

गर्गाचार्य के कथनानुसार मै विचार करता हूँ कि ये अवश्य ही साक्षात् नारायण या नारायण के अंश होंगे।" जब सब ग्वालों ने नन्द महाराज के मुख से गर्गाचार्य के कथनों को ध्यान से सुना, तो वे कृष्ण के अद्भुत कार्यों को भलीभाँति समझ गये और परम प्रसन्न तथा सन्तुष्ट हुए। 

वे नन्द महाराज की प्रशंसा करने लगे, क्योंकि उनसे बातें करने से कृष्ण के बारे में उन सबके सन्देह दूर हो गये। उन्होंने कहा, "जो कृष्ण इतने दयालु, सुन्दर तथा करुणापूर्ण हैं, वे हमारी रक्षा करें। जब क्रुद्ध इन्द्र ने मूसलाधार वर्षा के साथ उपलवृष्टि प्रबल झंझा भेजा, 

तो कृष्ण ने तुरन्त हम पर दया की और जिस प्रकार एक बालक कुकुरमुत्ता उखाड़ लेता है उसी तरह गोवर्धन पर्वत उठाकर हमें तथा हमारे परिवारों, गौवों तथा अमूल्य सम्पत्ति को बचा लिया। उनकी कृपादृष्टि हम पर तथा हमारी गौवों पर बनी रहे। हम अद्भुत कृष्ण की छाया में शान्तिपूर्वक जीवित रहें!" 

मित्रों इतना कहकर सभी लोग अपने अपने घर को चले गये। स्वर्ग के राजा इन्द्र को जब अपनी गलती का अहसास हुआ तो वह गोलोक वृन्दावन से सुरभि गाय को लेकर उनके समक्ष प्रकट हुए। स्वर्ग के राजा इन्द्र का कृष्ण के प्रति किये गये अपने अपराध का ज्ञान था, अतः वह चुपके से एक निर्जन स्थान में उनके समक्ष प्रकट हुआ। 

वह तुरन्त ही कृष्ण के चरणकमलों पर गिर पड़ा, यद्यपि उसका अपना मुकुट सूर्य के समान दीप्तिमान था। इन्द्र को कृष्ण के महान् पद का ज्ञान था, क्योंकि वे इन्द्र के भी स्वामी हैं, किन्तु उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि कृष्ण अवतार लेकर वृन्दावन के ग्वालों के बीच रह सकते हैं। 

जब कृष्ण ने उनकी सत्ता को चुनौती दी, तो इन्द्र क्रुद्ध हो गया क्योंकि वह सोचता था कि इस ब्रह्माण्ड का सर्वेसर्वा मैं ही हूँ और मेरे समान कोई भी बलशाली नहीं है। 

किन्तु इस घटना के बाद उसका झूठा अंहकार नष्ट हो गया। अतः अपनी अधीन अवस्था समझकर वह हाथ जोड़कर कृष्ण के समक्ष प्रकट हुआ और इस प्रकार स्तुति करने लगा 

santaan -moh -se -vipatti (a real story )सन्तान के मोह से विपत्ति

इन्द्र देव द्वारा कृष्ण स्तुति

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"हे प्रभु! मैंने झूठे अंहकार के वश में होकर सोचा कि आपने ग्वालों को इन्द्र- यज्ञ करने से रोक कर मेरा अपमान किया है और आप स्वयं यज्ञ की सारी सामग्री का भोग करना चाहते हैं। मैंने सोचा कि आप गोवर्धन पूजा के नाम पर मेरा भाग ग्रहण कर रहे हैं, अतः मैंने आपके पद को गलत समझा। 

अब आपकी कृपा से में समझ पाया हूँ कि आप परमेश्वर, श्रीभगवान् हैं और समस्त भौतिक गुणों से परे हैं। आपकी दिव्य स्थिति विशुद्ध सत्त्व की है, जो सतोगुण के पद से ऊपर है और आपका दिव्य धाम भौतिक गुणों के उत्पात से परे है। 

आपके नाम, यश, रूप, गुण, साज सामग्री तथा लीला सभी इस प्रकृति से परे हैं और तीनों गुणों का इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। आपका धाम उसी को प्राप्त होता है, जो कठिन तपस्या करता है और रजो तथा तमो गुणों के प्रभाव से मुक्त रहता है। 

यदि कोई यह सोचता है कि जब आप इस जगत में अवतरित होते हैं तब आप प्रकृति के गुणों को स्वीकार करते हैं, तो वह भ्रम में है। भौतिक गुणों की तरंगें आपका स्पर्श भी नहीं कर पातीं और न ही आप उन्हें स्वीकार करते हैं। आप प्रकृति के नियमों द्वारा कभी बद्ध नहीं होते।

"हे स्वामी! आप इस दृश्य जगत के आदि पिता हैं। आप ही इसके परम गुरु हैं और सभी वस्तुओं के आदि स्वामी हैं। आप शाश्वत काल के रूप में अपराधियों को दण्डित करने के अधिकारी हैं। इस संसार में मेरे समान अनेक मूर्ख हैं, जो अपने आपको परमेश्वर या इस ब्रह्माण्ड का सर्वेसर्वा मानते हैं। 

आप इतने दयालु हैं कि आप उनके अपराधों को स्वीकार न करके ऐसा उपाय निकाल लेते हैं कि उनका अंहकार दमित हो जाये और वे जान लें कि आप ही एकमात्र श्रीभगवान् हैं और कोई नहीं। 

"हे नाथ! आप परम पिता, परम गुरु तथा परम राजा हैं। अतः जब भी जीवात्माओं के आचरण में कोई त्रुटि आए, तो उन्हें दण्डित करने का आपको अधिकार है। 

पिता, गुरु तथा राज्य का परम कार्यकारी अधिकारी सदैव क्रमशः अपने पुत्र, शिष्य तथा प्रजा के शुभचिन्तक होते हैं, अतः शुभचिन्तक होने के नाते उन्हें अपने आश्रितों को दण्डित करने का अधिकार है। 

आप स्वेच्छा से इस धरा पर विविध शाश्वत शुभ रूपों में अवतरित होते हैं; आप इस धरा-लोक को महिमामण्डित करने तथा विशेषतः अपने को झूठे ही ईश्वर घोषित करने वाले व्यक्तियों को दण्डित करने के लिए आते हैं। 

इस भौतिक जगत में समाज का सर्वोच्च नायक बनने के लिए विभिन्न प्रकार के जीवों में निरन्तर स्पर्धा चलती रहती है और नायकत्व का उच्च स्थान न प्राप्त करने के कारण वे मूर्ख हताश होकर अपने को ईश्वर या भगवान् मान लेते हैं। 

इस संसार में मेरे जैसे अनेक मूर्ख हैं, किन्तु कालान्तर में जब उन्हें ज्ञान होता है, तो वे आपकी शरण ग्रहण करते हैं। और पुन: आपकी सेवा में अपने को लगा देते हैं। आपसे ईर्ष्या करने वाले व्यक्तियों को आपके द्वारा दण्डित करने का यही कारण है।  

"हे भगवान्! मैंने आपकी असीम शक्ति को जाने बिना अपने भौतिक ऐश्वर्य के अहंकार के कारण आपके चरणकमलों के प्रति महान् अपराध किया है। अतः हे भगवान्! मुझे क्षमा कर दें, क्योंकि मैं परले दर्जे का मूर्ख हूँ। कृपया मुझे आशीर्वाद दें जिससे मैं पुन: ऐसा मूर्खतापूर्ण कार्य न करूँ। 

यदि आप सोचें कि मेरा अपराध इतना बड़ा है कि क्षमा नहीं किया जा सकता, तो मेरी प्रार्थना है कि मैं आपका शाश्वत दास बना रहूँ। इस जगत में आपका अवतरण आपके शाश्वत दासों की रक्षा करने तथा उन शत्रुओं का विनाश करने के लिए होता है, जो महान् सैन्य-शक्ति रखकर पृथ्वी को अपने भार से बोझिल बनाते हैं। मैं आपका शाश्वत दास हूँ, अतः मुझे क्षमा कर दें।  


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"हे नाथ! आप भगवान् है। मैं आपको सादर नमस्कार करता है क्योंकि आप परम पुरुष तथा परमात्मा हैं। आप वसुदेव के पुत्र तथा शुद्ध भक्तों के स्वामी परमेश्वर कृष्ण है। कृपया मेरा दण्डवत् प्रणाम स्वीकार करें। आप साक्षात् परम ज्ञान है। आप स्वेच्छा से कहीं भी अपने किसी एक नित्य रूप में अवतार ले सकते हैं। 

आप सृष्टि के मूल कारण तथा समस्त जीवों के परमात्मा है। मैंने अपनी निपट मूर्खता के कारण मूसलाधार वृष्टि तथा उपल वृष्टि कराकर वृन्दावन में उपद्रव मचवाया। मैंने आपके द्वारा मेरी तुष्टि के लिये होने वाला यज्ञ रोके जाने से उत्पन्न परम क्रोध के कारण ही ऐसा उपद्रव मचवाया। 

किन्तु हे स्वामी! आप मुझ पर इतने दयालु हैं कि आपने मेरा झूठा अहंकार खण्डित कर, मुझ पर कृपा की है। अत: मैं आपके चरणों की शरण ग्रहण करता हूँ। आप न केवल परम नियन्ता, अपितु समस्त जीवों के गुरु भी हैं।" 

भगवान् कृष्ण का इंद्र देव को उपदेश देना। 

इस प्रकार भगवान् कृष्ण इन्द्र द्वारा प्रशंसित होने के बाद मुस्कराते हुए तथा मेघ की भाँति घन गम्भीर वाणी में बोले, "हे इन्द्र! मैंने तुम्हारा यह यज्ञ तुम पर अपनी अहैतुकी कृपा दिखाने और तुमको यह स्मरण दिलाने के लिए कि है की मैं तुम्हारा शाश्वत स्वामी हूँ, रोक दिया है। मैं न केवल तुम्हारा अपितु अन्य सारे देवताओं का भी स्वामी हूँ। 

तुम्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि तुम्हारा सारा भौतिक ऐश्वर्य मेरी कृपा के कारण है। कोई भी व्यक्ति स्वतंत्र रूप से ऐश्वर्यवान् नहीं बन सकता; उस पर मेरी कृपा होनी ही चाहिए। हर व्यक्ति को सदैव स्मरण रखना चाहिए कि मैं परमेश्वर हूँ। 

मैं किसी पर भी कृपा कर सकता हूँ और किसी को भी प्रताड़ित कर सकता हूँ, क्योंकि मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं है। यदि मैं देखता हूँ कि कोई अहंकार के वशीभूत हो चुका है, तो उस पर अपनी अहेतुकी कृपा दिखाने के लिए मैं उसका सारा वैभव हर लेता हूँ।" 

Koun se bhagwaan jaldi prasann hote hai

क्या भगवान की पूजा करने से मनुष्य निर्धन हो जाता है ?

मित्रों !यह ध्यान देने योग्य है कि कृष्ण 'कभी-कभी धनी व्यक्ति को अपनी शरण ग्रहण कराने के लिए उसका सारा ऐश्वर्य हर लेते हैं।' यह भगवान् की विशेष अनुकम्पा है। 

कभी-कभी यह देखा जाता है कि अत्यन्त ऐश्वर्यशाली व्यक्ति अपनी भक्ति के कारण दरिद्रता को प्राप्त हो जाता है। किन्तु किसी को कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि उसने परमेश्वर की पूजा की इसलिए वह निर्धन हो गया। 

कहने का वास्तविक तात्पर्य यह है कि जब कोई शुद्ध भक्त होता है, किन्तु गलत गणना से वह प्रकृति पर अपना प्रभुत्व जताना चाहता है, तो भगवान् उसका सारा ऐश्वर्य हर कर उस पर विशेष अनुग्रह प्रदर्शित करते हैं, जिससे अन्ततः वह परमेश्वर की शरण ग्रहण कर ले। 

इन्द्र को शिक्षा देने के बाद कृष्ण ने उसे अपने स्वर्गधाम लौट जाने तथा सदैव यह स्मरण रखने के लिए कहा कि कभी अपने को सर्वोच्च न मानना, अपितु परमेश्वर के अधीनस्थ समझना। उन्होंने उसे स्वर्ग का राजा बने रहने किन्तु झूठे अहंकार से बचने के लिए कहा। 

सुरभि गाय द्वारा भगवान् कृष्ण की स्तुति 

तत्पश्चात् इन्द्र के साथ कृष्ण का दर्शन करने आई दिव्य सुरभि गाय ने उन्हें सादर नमस्कार किया और उनकी पूजा की। सुरभि ने इस प्रकार स्तुति की, "हे कृष्ण! आप समस्त योगियों में सर्वाधिक शक्तिशाली हैं क्योंकि आप ब्रह्माण्ड के आत्मा हैं और आपसे ही यह दृश्य जगत उत्पन्न हुआ है। 

अतः यद्यपि इन्द्र ने वृन्दावन में मेरे-वंशधरों अर्थात् गौओं को मारने का यथाशक्ति प्रयास किया, किन्तु वे आपकी शरण में बनी रहीं और आपने उन सबों की रक्षा की। हम अन्य किसी को परमेश्वर नहीं जानतीं, न ही हम अपनी रक्षा के लिए किसी अन्य देवता या देवताओं के पास जाती हैं। 

अतः आप हमारे इन्द्र हैं, इस दृश्य जगत के परम पिता हैं और आप गौ, ब्राह्मण, देवता तथा अपने शुद्ध भक्तों के रक्षक तथा उद्धारक हैं। 

सुरभि गाय व इंद्र ने भगवान् कृष्ण का अभिषेक किस प्रकार किया ?

फिर सुरभि गाय आगे बोली ! हे ब्रह्माण्ड के परमात्मा! मैं आपको अपने दूध से स्नान कराना चाहती हूँ क्योंकि आप हमारे इन्द्र हैं। हे भगवन्! आप इस पृथ्वी पर अशुद्ध कमों के भार को कम करने के लिए प्रकट होते हैं।" 

इस प्रकार कृष्ण का अभिषेक सुरभि गाय ने अपने दुग्ध से तथा इन्द्र ने अपने हाथी की सूँड द्वारा आकाश गंगा के जल से किया। इसके बाद सुरभि गायों तथा अन्य देवों तथा उनकी माताओं ने कृष्ण को गंगाजल तथा सुरभि के दूध से स्नान कराने में इन्द्र का साथ दिया और प्रार्थना की। 

इस प्रकार कृष्ण सब पर प्रसन्न हुए। गन्धर्वलोक, पितृलोक, सिद्धलोक तथा चारणलोक से सारे वासियों ने मिलकर भगवन्नाम का जप करते हुए भगवान् का यशोगान किया। उनकी पत्नियाँ तथा अप्सराएँ अत्यन्त हर्ष के कारण नाचने लगीं। 

उन्होंने आकाश से निरन्तर पुष्प वर्षा करके भगवान् को प्रसन्न किया। जब सब कुछ हँसी-खुशी से सम्पन्न हो गया, तो गौवों ने अपने दुग्ध से सारी पृथ्वी को आप्लावित कर दिया। नदियों का जल उमड़ कर विविध स्वादों से पूरित होकर बहने लगा और वृक्षों को पोषण पहुँचाने लगा, जिससे उनमें विविध रंगों तथा स्वाद के फूल तथा फल उत्पन्न होने लगे। 

वृक्षों से मधु चूने लगा। पर्वत तथा पहाड़ियाँ विविध ओषधियाँ एवं बहुमूल्य रत्न उत्पन्न करने लगीं। कृष्ण की उपस्थिति के कारण ये सारी घटनाएँ सुचारु रूप से घटती गई और अधम पशु, जो सामान्यतया ईर्ष्यालु होते हैं, ईर्ष्यारहित हो गये। 

वृन्दावन में समस्त गौवों के स्वामी तथा गोविन्द नाम से विख्यात श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के बाद इन्द्र ने स्वर्ग को लौट जाने की अनुमति माँगी। उसके चारों ओर देवता थे, जब इन्द्र आकाश मार्ग से जा रहे थे। 

यह महान् घटना इसका ज्वलन्त उदाहरण है कि किस प्रकार कृष्णभावनामृत से विश्वकल्याण होता है। यहाँ तक कि अधम पशु भी ईर्ष्याभाव भूल कर देवताओं के गुणों को प्राप्त होते हैं।

क्यों है बांके बिहारी जी काले रंग के ?/निधिवन की सम्पूर्ण जानकारी (हरिदास जी की अचल भक्ति)निधिवन की एक प्रचलित सत्य घटना

प्रिय पाठकों !आशा करते है आपको पोस्ट पसंद आई होगी। विश्वज्ञान हमेशा ऐसी ही रियल स्टोरीज आपको मिलती रहेंगी। विश्वज्ञान में प्रभु श्री कृष्ण की अन्य लीलाओं के साथ फिर मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपना ख्याल रखे ,खुश रहे और औरों को भी खुशियां बांटते रहें। जय जय श्री राधे श्याम 

धन्यवाद। 

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