कालिया नाग व नागपत्नियों द्वारा कृष्ण से प्रार्थना करना

जय श्री राधे कृष्ण 

हर -हर महादेव प्रिय पाठकों !

कैसे है आप लोग ,आशा करते है आप ठीक होंगे,

भगवान शिव का आशीर्वाद आप सभी को प्राप्त हो। 

कालिया नाग व नागपत्नियों द्वारा कृष्ण से प्रार्थना करना 

इस पोस्ट में आप पायेंगे -

यमुना नदी तट के आस पास के स्थानों पर लोग क्यों नहीं जाते थे ?  
नागपत्नियों द्वारा कृष्ण स्तुति करना 

कालिया नाग का कृष्ण से प्रार्थना करना 

कालिया नाग किससे डर कर यमुना झील में रह रहा था ? 

kaaliya naag or naagpatniyon dwara krishna stuti karna /कालिया नाग व नागपत्नियों द्वारा कृष्ण से प्रार्थना करना

जब श्रीकृष्ण जान गये कि यमुना का जल काला सर्प या कालिय दूषित कर रहा है, तो उन्होंने उसके विरुद्ध कार्यवाही की और उसे यमुना छोड़कर अन्यत्र जाने के लिए बाध्य कर दिया। इस तरह यमुना जल शुद्ध हो गया। 

जब शुकदेव गोस्वामी यह कथा सुना रहे थे, तो महाराज परीक्षित को श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं के विषय में अधिक सुनने की जिज्ञासा हुई। उन्होंने शुकदेव गोस्वामी से पूछा कि श्रीकृष्ण ने उस कालिय को किस प्रकार दण्डित किया, जो वर्षों से जल में रह रहा था? 

वस्तुतः महाराज परीक्षित कृष्ण की दिव्य लीलाओं को सुनने के लिए अधिकाधिक उत्सुक हो रहे थे और उन्होंने अपना प्रश्न बड़ी ही रुचि के साथ पूछा। शुकदेव महाराज ने इस कथा को इस प्रकार सुनायाः

यमुना नदी तट के आस पास के स्थानों पर लोग क्यों नहीं जाते थे ?  

यमुना नदी में एक विशाल झील थी जिसमें कालिय नाग रहता था। उसके विष से सारा क्षेत्र इतना दूषित हो गया था कि उसमें से चौबीसों घण्टे विषैली भाप निकलती रहती थी। यदि कोई पक्षी उस स्थान के ऊपर से भूल से भी निकलता, तो वह तुरन्त मर कर जल में गिर जाता था। 

यमुना की भाप के विषैले प्रभाव के कारण यमुना नदी के तटवर्ती सारे वृक्ष तथा तृण सूख गये थे। श्रीकृष्ण ने देखा कि इस विशाल सर्प के विष के प्रभाव से वृन्दावन से होकर बहने वाली पूरी नदी घातक बन चुकी थी। 

वे कृष्ण, जिन्होंने संसार के समस्त दुष्टों का वध करने के लिए अवतार लिया था, तुरन्त यमुना तट स्थित एक विशाल कदम्ब वृक्ष पर चढ़ गये। कदम्ब एक गोल पीले फूल वाला वृक्ष है, 

जो सामान्यतया वृन्दावन क्षेत्र में ही दिखता है। इस वृक्ष की चोटी पर चढ़कर उन्होंने अपना फेंटा कसा और पहलवान की भाँति अपनी भुजाएँ ठोंक कर वे उस विषैली झील के बीचोंबीच कूद पड़े। 

What did Krishna say in praise of Balarama?/कृष्ण ने बलराम की प्रशंसा में क्या कहा ?

श्रीकृष्ण जिस कदम्ब वृक्ष से कूदे, एकमात्र वही वृक्ष था, जो सूखने से बचा हुआ था। कुछ भाष्यकारों का कहना है कि श्रीकृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श पाकर वह वृक्ष तुरन्त जीवित हो उठा। अन्य पुराणों में कहा गया है कि विष्णु के शाश्वत वाहन गरुड़ को पता था कि भविष्य में कृष्ण ऐसा कार्य करेंगे, अतः उसने इस वृक्ष को जीवित रखने के लिए उस पर कुछ अमृत डाल दिया था। 

ज्योंही भगवान् कृष्ण जल में कूदे त्योंही नदी के किनारे एक सौ गज़ की दूरी तक आप्लावित हो उठे मानो जल में कोई बहुत बड़ी वस्तु गिरी हो। कृष्ण द्वारा शक्ति का यह प्रदर्शन अलौकिक नहीं है क्योंकि वे सारी शक्ति के आगार हैं। 

श्रीकृष्ण ने तैरते हुए एक विशाल बलशाली हाथी के समान गर्जना की जिसे कालिय नाग ने सुना। यह गर्जना उसके लिए असह्य थी और उसे समझते देर न लगी कि यह उसके आवास पर आक्रमण करने का प्रयास है। अत: वह तुरन्त कृष्ण के सामने आ गया। 

उसने देखा कि कृष्ण सचमुच दर्शनीय हैं, क्योंकि उनका शरीर इतना सुन्दर तथा कोमल था-उनका रंग नीले बादल के समान था। और उनके पाँव कमल-पुष्प जैसे थे-वे श्रीवत्स, रत्नों तथा पीताम्बर से सुशोभित थे। उनके स सुन्दर मुखपर मुसकान थी। 

वे अत्यन्त शक्ति से यमुना नदी में क्रीड़ा कर रहे थे। किन्तु कृष्ण की इतनी सुन्दरता के बावजूद कालिय अपने मन में अत्यन्त क्रुद्ध हुआ, अतः उसने उन्हें अपनी कुंडली में दबोच लिया। कृष्ण को इस अविश्वसनीय प्रकार से सर्प की कुंडली में बँधा देखकर स्नेही ग्वाले तथा वृन्दावन के अन्य वासी अत्यन्त भयभीत हो उठे। 

उन्होंने अपना सर्वस्व अपने प्राण, सम्पत्ति, प्रेम, कार्यकलाप- -कृष्ण को अर्पण कर रखे थे। कृष्ण को उस स्थिति में देखकर वे अत्यन्त भयभीत होकर भूमि पर गिर पड़े। सारी गौवें, बैल तथा बछड़े शोक-संतप्त हो उठे और वे सब चिन्तातुर होकर कृष्ण को देखने लगे। 

भय के कारण वेदनावश वे केवल रो सके। वे अपने प्यारे कृष्ण को सहायता पहुँचाने में असमर्थ थे और मात्र यमुना के तट पर खड़े रहे। जब यह घटना यमुना तट पर घट रही थी, तो कुछ अपशकुन भी प्रकट होने लगे थे। पृथ्वी हिलने लगी थी, आकाश से उल्कापिंड गिरने लगे थे और मनुष्यों के शरीर के बाएँ अंग काँपने लगे थे। 

ये सब आसन्न महान् संकट के संकेत थे। इन संकेतों को देखकर महाराज नन्द समेत सारे ग्वाले भयवश अत्यन्त चिन्तित हो उठे। उसी समय उन्हें सूचित किया गया कि कृष्ण अपने बड़े भाई बलराम के बिना ही चरागाह गये हैं। ज्योंही नन्द, यशोदा तथा ग्वालों ने यह खबर सुनी तो  वे और अधिक चिन्तित हो उठे। 

कृष्ण के प्रति अत्यधिक स्नेह के कारण तथा कृष्ण की शक्ति से अपरिचित होने के कारण वे सब शोक तथा चिन्ता से अभिभूत हो उठे, क्योंकि उन्हें कृष्ण से अधिक प्रिय और कुछ न था और उन्होंने कृष्ण के लिए अपना जीवन, धन, स्नेह, मन तथा कर्म-सब कुछ अर्पित कर दिया था। 

कृष्ण के प्रति अत्यधिक आसक्ति होने से उन्होंने सोचा, “आज कृष्ण अवश्य ही विनष्ट हो जाएँगे।” वृन्दावन के सारे वासी कृष्ण को देखने के लिए गाँव से बाहर आ गये। इस मंडली में बच्चे, युवक तथा वृद्ध, स्त्रियाँ, पशु एवं सारे जीव थे। वे जानते थे कि कृष्ण ही उनका एकमात्र जीवनाधार हैं। 

जब यह सब घटना घट रही थी, तो समस्त ज्ञान के स्वामी बलराम खड़े-खड़े हँस रहे थे। उन्हें पता था कि उनका छोटा भाई कृष्ण कितना शक्तिशाली है, और जब कृष्ण एक सामान्य संसारी सर्प से लड़ रहे थे, तो चिन्ता की कोई बात न थी। 

इसलिए उन्होंने स्वयं इस चिन्ता में कोई भाग नहीं लिया। दूसरी ओर वृन्दावन के सारे वासी जो विचलित होने के कारण कृष्ण के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए उन्हें ढूँढने लगे थे और इस तरह ढूँढते-ढूँढते वे तेज़ी से यमुना के तट की ओर आगे बढ़े। 

अन्ततोगत्वा ध्वजा, बाण तथा शंख से अंकित पदचिह्नों का अनुसरण करते-करते वृन्दावनवासी नदी तट पर आ पहुँचे और देखा कि सारी गौवें तथा बालक कृष्ण को कालिय नाग की कुंडली में बँधा देखकर विलाप कर रहे थे। 

यद्यपि उनके विलाप पर बलराम हँस रहे थे, किन्तु सारे व्रजवासी तो दुख के सागर में निमग्न थे क्योंकि वे सोच रहे थे कि कृष्ण का अन्त हो चुका है। यद्यपि वृन्दावनवासी कृष्ण के विषय में अधिक नहीं जानते थे, किन्तु कृष्ण के प्रति उनका प्रेम अतुलनीय था। 

ज्योंही उन्होंने देखा कि कृष्ण कालियनाग की कुण्डली में बँधे हैं और सारी गौवें तथा बालक विलाप कर रहे हैं, तो उन्हें कृष्ण की मैत्री, उनका हँसमुख चेहरा, उनके मीठे शब्द तथा अपने साथ उनके व्यवहार की बातें याद आने लगीं। 

यह सब सोचते हुए तथा यह देखकर कि कृष्ण अब कालिय-नाग के चंगुल में फँसे हैं, उन्हें तीनों लोक शून्य प्रतीत होने लगे। भगवान् चैतन्य ने भी कहा है कि कृष्ण के बिना उन्हें तीनों लोक शून्य प्रतीत हो रहे थे। कृष्णभावनामृत की यह चरम अवस्था है। 

वृन्दावन के लगभग समस्त वासी कृष्ण के लिए सर्वाधिक प्यार रखते थे। जब माता यशोदा वहाँ आईं, तो वे यमुना नदी में घुसने लगीं, किन्तु जब लोगों ने उन्हें रोक दिया, तो वे मूर्च्छित हो गईं। अन्य सन्तप्त मित्रों के नेत्रों से झड़ी लगी थी जो नदी की तरंगों जैसी उमड़ रही थी, किन्तु वे सब माता यशोदा को सचेत करने के लिए कृष्ण की दिव्य लीलाओं का जोर-जोर से वर्णन करने लगे। 

फिर भी वे निश्चल बनी रहीं मानो मृत हों, क्योंकि उनकी चेतना कृष्ण के मुख पर केन्द्रित थी। नन्द तथा अन्य सारे लोग, जिन्होंने कृष्ण पर अपने प्राण न्यौछावर कर रखे थे, यमुना जल में घुसने को सन्नद्ध थे, किन्तु बलराम ने उन सबको मना कर दिया, क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि कृष्ण को किसी तरह का संकट नहीं है। 

दो घंटे तक कृष्ण सामान्य शिशु की भाँति कालिय की कुंडली में बँधे रहे, किन्तु जब उन्होंने देखा कि गोकुल के सारे वासी-उनके माता-पिता, गोपियाँ, ग्वाले तथा गाएँ सभी मृतप्राय हैं और आसन्न मृत्यु से उनको कोई छुटकारा नहीं है, तो कृष्ण ने तुरन्त अपने को मुक्त कर लिया। 

वे अपने शरीर का विस्तार करने लगे। अतः जब सर्प ने उन्हें पकड़े रखना चाहा, उसे काफी जोर (खींचतान) लगाना पड़ा। इस जोर के कारण उसकी कुण्डली शिथिल पड़ गई और अब उसके पास भगवान् कृष्ण को छोड़ देने के अतिरिक्त और कोई चारा न रह गया। तब कालिय अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और उसने अपने विशाल फन फैला लिये। 

उसने अपने नथुनों से विषैली फूत्कार की, उसकी आँखें अग्नि के समान दहक उठीं और उसके मुख से ज्वाला निकलने लगी। वह विशाल नाग कुछ काल तक शान्त भाव से कृष्ण को देखता रहा। फिर अपनी दुधारी जीभ से होंठ चाटते हुए दोहरे फनों और विषैले नेत्रों वाले उस नाग ने कृष्ण को देखा। 

कृष्ण तुरन्त उस पर टूट पड़े, जिस प्रकार गरुड़ सर्प पर झपटता है। इस प्रकार हमला किये जाने पर कालिय ने कृष्ण को डसना चाहा, किन्तु कृष्ण उसके चारों ओर घूमने लगे। कृष्ण तथा कालिय दोनों के चक्कर काटते रहने से सर्प धीरे-धीरे थकने लगा और उसका बल घटने लगा। कृष्ण ने तुरन्त सर्प के फनों को नीचे दबाया और झट से कूद कर उनपर चढ़ गये। 

भगवान् के चरणकमल सर्प के फनों की मणियों की किरणों से लाल रंग के दिख रहे थे। फिर नृत्य जैसी सम्पूर्ण कलाओं के मूल अधीश्वर भगवान् कृष्ण सर्प के फनों पर नाचने लगे जो इधर उधर हिल रहे थे। 

यह देखकर स्वर्ग के निवासी उन पर पुष्पों की वर्षा करने लगे, दुंदुभियाँ बजाने लगे और विविध प्रकार की बाँसुरियाँ बजाकर गीत तथा स्तुतियाँ गाने लगे। इस प्रकार गन्धर्व, सिद्ध तथा देवता आदि स्वर्ग के निवासी अत्यन्त प्रसन्न हुए। 

Why did Brahma praise Lord Krishna / How did the lotus flower come out of Vishnu's navel/ब्रह्मा ने भगवान् कृष्ण की स्तुति क्यों की /विष्णु जी की नाभि से कमलनाल कैसे निकला ?

जब कृष्ण कालिय के फनों पर नाच रहे थे, तो उसने अन्य फनों के द्वारा उन्हें नीचे गिराना चाहा। कालिय के लगभग एक सौ फन थे, किन्तु कृष्ण ने सबों को अपने वश में कर रखा था। 

वे उन पर अपने चरणकमलों का प्रहार कर रहे थे, जो कालिय के लिए असह्य हो रहा था। धीरे-धीरे कालिय के प्राणों पर आ बनी। वह सभी प्रकार का मल वमन करने लगा और अपने फूत्कार से अग्नि निकालने लगा। 

इस प्रकार अपने भीतर से विषैले पदार्थ निकाल-निकाल कर कालिय पापमय स्थिति को प्राप्त हो गया। वह अत्यन्त क्रोध से आत्मरक्षा के लिए संघर्ष करने लगा और भगवान् को मारने के लिए उसने अपना एक फन उठाया। किन्तु उन्होंने तुरन्त उसे पकड़ कर पाद-प्रहार द्वारा वश में कर लिया और उस पर नाचने लगे। 

नागपत्नियों द्वारा कृष्ण स्तुति करना 

ऐसा लग रहा था मानो भगवान् विष्णु की पूजा हो रही हो; सर्प के मुख से निकल रहे विष पुष्पाञ्जलि-से प्रतीत हो रहे थे। फिर कालिय अपने मुख से विष के स्थान पर रक्त वमन करने लगा और बुरी तरह थक गया। उसका सारा शरीर भगवान् के चरण-प्रहारों से जर्जर हो उठा। 

अन्ततः वह अपने मन में समझ गया कि कृष्ण श्रीभगवान् हैं; अतः वह उनकी शरण में आया। उसे अनुभव हुआ कि कृष्ण ही सबों के स्वामी परमेश्वर हैं।  सर्पपत्नियों ने देखा कि उनका पति भगवान् के पाद-प्रहार द्वारा वशीभूत किया जा चुका है और वह मरणासन्न है।  

भगवान् के भारी बोझ को उठाने के कारण जिनके उदर में सारा ब्रह्माण्ड समाया है। कालिय की पत्नियों ने जल्दी- जल्दी भगवान् की पूजा करने की तैयारी की। इस जल्दी में उनके वस्त्र, केश तथा आभूषण अस्त-व्यस्त हो गये। उन्होंने भी भगवान् को आत्मसमर्पण कर दिया और उनकी प्रार्थना करनी शुरू कर दी। 

वे अपनी-अपनी सन्तानों को सामने किये उनके समक्ष आईं और यमुना के तट पर पृथ्वी पर गिरकर उन्हें प्रणाम करने लगीं। नागपत्नियाँ जानती थीं कि कृष्ण समस्त शरणागतों के शरण हैं और वे अपनी प्रार्थनाओं द्वारा भगवान् को प्रसन्न करके अपने पति को आसन्न संकट से छुड़ाने के लिए इच्छुक थीं। 

नागपत्नियों ने इस प्रकार प्रार्थना की, "हे भगवान्! आप समदर्शी हैं। आपके लिए अपने पुत्रों, मित्रों या शत्रुओं में कोई भी अन्तर नहीं है। अतः आपने कालिय को जो दण्ड दिया है, वह सर्वथा अनुकूल है। 

हे स्वामी! आप दुष्टों के संहार के लिए ही इस जगत में अवतरित हुए हैं और चूँकि आप परम सत्य हैं अतः आपकी कृपा तथा दण्ड में कोई अन्तर नहीं है। अतः हम सोचती हैं कि कालिय को दिया गया दिखने में दण्ड लगने वाला यह दण्ड वस्तुत: कोई वरदान है। 

हम आपके दण्ड को आपकी परम कृपा समझती हैं, क्योंकि जब आप किसी को दण्ड देते हैं, तो उसका अर्थ यह लगाया जाता है उसके पापकर्मों का फल समूल नष्ट हो गया है। यह स्पष्ट है कि कालिय नाग के शरीर में प्रकट यह तुच्छ प्राणी समस्त प्रकार के पापों से पूरित हो चुका होगा, अन्यथा उसे सर्प का शरीर क्यों प्राप्त होता ? 

उसके फनों पर आपके नाचने से उसके सर्प-शरीर से उत्पन्न सारे पापों के फल क्षीण हो चुके हैं। अतः यह अत्यन्त शुभ है कि आपने क्रुद्ध होकर उसे इस प्रकार दण्डित किया। हम सभी आश्चर्यचकित हैं कि आप इस सर्प पर इतने प्रसन्न क्यों हुए हैं? 

निश्चय ही इसने पूर्वजन्म में विभिन्न धार्मिक कृत्य किये होंगे और कई प्रकार की तपस्याएँ की होंगी जिन से, सभी लोग प्रसन्न हुए होंगे और उसने समस्त जीवों के लिए विश्वव्यापी कल्याण-कार्य किये होंगे। 

नागपत्नियों से इसकी पुष्टि होती है कि जब तक कोई पूर्वजन्म में भक्ति द्वारा सुकृति नहीं करता तब तक उसे कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त नहीं होता। भगवान् चैतन्य ने अपने शिक्षाष्टक में कहा है कि मनुष्य को अत्यन्त विनीत भाव से अपने को तृण से भी तुच्छ मानकर तथा अपने सम्मान की परवाह न करके दूसरों को सभी प्रकार से सम्मान देते हुए हरे कृष्ण मंत्र का उच्चारण करना चाहिए। 

नागपत्नियाँ आश्चर्यचकित थीं कि यद्यपि अत्यन्त भयानक पापकर्मों के कारण कालिय को सर्प का शरीर प्राप्त हुआ था, किन्तु तो भी वह कृष्ण के चरणकमलों का सान्निध्य प्राप्त कर रहा था। निश्चय ही यह किसी साधारण पुण्यकर्म का फल न था। इन दो विरोधी तथ्यों से वे विस्मित थीं। इस तरह से वे आगे प्रार्थना करती रहीं, 

पूतना वध के समय भगवान् ने अपनी आँखे क्यों बंद की /कृष्ण द्वारा पूतना का वध

"हे भगवन्! हमें यह देखकर विस्मय है कि उसे अपने सिर पर आपके चरणकमलों की धूलि धारण करने का शुभ अवसर मिला। इसकी कामना बड़े-बड़े साधु लोग करते हैं। यहाँ तक कि लक्ष्मीजी तक को आपके चरणकमलों की धूलि का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए कठिन तपस्या करनी पड़ी, 

अतः यह कैसे सम्भव हो सका कि कालिय नाग को अपने शीश पर आपकी चरणधूलि धारण करने का अवसर इतनी आसानी से प्राप्त हुआ? हमने शास्त्रों से सुन रखा है कि जिन्हें आपके चरणकमलों की रज का वरदान प्राप्त हो जाता है वे इस ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा जैसे सर्वोच्च पद या कि स्वर्ग का राजत्व अथवा इस लोक की सार्वभौम सत्ता तक की परवाह नहीं करते। 

न ही वे इस पृथ्वी के ऊपर स्थित लोकों, यथा सिद्धलोक पर राज्य करने की आकांक्षा करते हैं; न ही वे योगद्वारा योगशक्ति प्राप्त करने की इच्छा करते हैं। न ही शुद्ध भक्त आपसे तादात्म्य स्थापित करके मोक्ष की कामना करते हैं। 

हे नाथ! यद्यपि यह सर्प प्रकृति के अत्यन्त निकृष्ट गुण द्वारा पालित योनि में जन्मा है और यह क्रोध से युक्त है, किन्तु इस सर्पराज को अत्यन्त दुर्लभ वस्तु प्राप्त हुई है। सारे जीव जो इस ब्रह्माण्ड में चक्कर लगा रहे हैं और विभिन्न  योनियों को प्राप्त हो रहे हैं, केवल आपकी कृपा से ही सर्वश्रेष्ठ वर प्राप्त कर सकते हैं। 

चैतन्य चरितामृत में इसकी भी पुष्टि हुई है कि इस ब्रह्माण्ड में सारे जीव विविध योनियों में घूमते रहते हैं, किन्तु कृष्ण तथा गुरु की कृपा से उन्हें भक्ति का बीज प्राप्त हो सकता है और इस प्रकार उनकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। नागपत्नियों ने आगे निवेदन किया, 

हे स्वामी! हम आपको सादर नमस्कार करती हैं, क्योंकि आप परम पुरुष हैं और प्रत्येक जीव के भीतर परमात्मा रूप में निवास करते हैं; आप इस दृश्य जगत से परे हैं, किन्तु आप पर ही सब कुछ निर्भर है। आप साक्षात् दुर्दान्त काल हैं। 

सम्पूर्ण काल-शक्ति आप में स्थित है, अतः आप भूत, वर्तमान तथा भविष्य; मास, दिन, घंटा, क्षण के रूप में समग्र काल के द्रष्टा और प्रतिरूप हैं। दूसरे शब्दों में, हे भगवान्! आप प्रत्येक क्षण, घंटा, दिन, वर्ष तथा भूत, वर्तमान, भविष्य में घटित होने वाले सारे कार्य-कलापों को भली- भाँति देख सकते हैं। आप स्वयं विराट रूप हैं, तो भी आप इस ब्रह्माण्ड से भिन्न हैं। 

आप एक ही समय इस ब्रह्माण्ड से अभिन्न तथा भिन्न हैं। अतः हम आपको सादर नमस्कार करती हैं। आप साक्षात् पूर्ण ब्रह्माण्ड हैं, फिर भी आप उसके स्रष्टा हैं। आप ही इस समस्त ब्रह्माण्ड के अधीक्षक तथा पालक हैं और आप ही इसके आदि कारण भी हैं। यद्यपि आप अपने त्रिगुणात्मक अवतारों-ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर-के रूप में इस ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं, तथापि आप भौतिक सृष्टि से परे हैं। 

यद्यपि आप सभी प्रकार के जीवों, उनकी इन्द्रियों, प्राणों, मनों तथा बुद्धि की उत्पत्ति के कारण हैं किन्तु आप अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा जाने जाते हैं। अत: हम आपको सादर नमस्कार करती हैं, क्योंकि आप अनन्त, सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतर समस्त उत्पत्ति के केन्द्र तथा सब कुछ जानने वाले हैं। विविध श्रेणी के चिन्तक आप तक पहुँचने का यत्न करते रहते हैं। 

आप ही समस्त दार्शनिक प्रयासों के चरम लक्ष्य हैं और वस्तुतः आप ही समस्त दर्शनों तथा विभिन्न सिद्धान्तों द्वारा वर्णित हैं। हम आपको सादर प्रणाम करती हैं, क्योंकि आप समस्त शास्त्रों के तथा ज्ञान के स्रोत हैं। आप समस्त साक्ष्यों के मूल हैं और आप हम सबों को परम ज्ञान प्रदान करने वाले परम पुरुष हैं। 

आप समस्त इच्छाओं के कारण हैं और सभी प्रकार की संतुष्टि कारण हैं। आप साक्षात् वेद हैं, अत: हम आपको सादर नमस्कार करती हैं।" “हे भगवान्! आप भगवान् श्रीकृष्ण हैं और परम भोक्ता भी हैं, जो अब सात्विक भाव रूप वसुदेव के पुत्र रूप में प्रकट हुए हैं। आप मन तथा बुद्धि के अधिष्ठाता अनिरुद्ध तथा प्रद्युम्न हैं और समस्त वैष्णवों के स्वामी हैं। 

आप अपने चतुर्व्यूह रूप में वासुदेव, संकर्षण, अनिरुद्ध तथा प्रद्युम्न हैं और मन तथा बुद्धि के विकास के कारणस्वरूप हैं। आपके कार्यकलापों से ही सारे जीव या तो विस्मृति से आवृत्त हो जाते हैं या अपने असली स्वरूप को पहचान लेते हैं। 

इसकी पुष्टि भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय में भी इस प्रकार हुई है : भगवान् सबों के हृदय में परमात्मा रूप में स्थित हैं और उनकी उपस्थिति के कारण ही जीव या तो अपने आपको भूल जाता है या अपने आदि स्वरूप को पहचान लेता है। 

हम कुछ-कुछ समझती हैं कि आप हमारे हृदयों में हमारे सारे कार्यों के साक्षी रूप में स्थित हैं, किन्तु आपकी उपस्थिति की अनुभूति कर पाना अत्यन्त कठिन है, यद्यपि हममें से प्रत्येक कुछ सीमा तक ऐसा कर सकती है। 

आप भौतिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों के परम नियन्ता हैं, अतः आप परम अग्रणी हैं। यद्यपि आप इस दृश्य जगत से भिन्न हैं। आप इस दृश्य जगत के प्रत्येक अवयव के साक्षी तथा स्रष्टा हैं। अतः हम आपको नमस्कार करती हैं। 

हे भगवान्! आपको इस दृश्य जगत की उत्पत्ति करने में व्यक्तिगत रूप से कुछ भी नहीं करना पड़ता; आप अपनी विविध शक्तियों-सतो, रजो तथा तमो गुणों के द्वारा इस दृश्य जगत की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करते हैं। 

आप समस्त काल शक्ति के नियन्ता रूप में अपने भृकुटिविलास मात्र से ही इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति करते हैं और प्रकृति की उन विभिन्न शक्तियों को, जो विभिन्न प्राणियों पर विभिन्न रूप से कार्य कर रही हैं, शक्ति प्रदान करते हैं। अतः कोई भी इसका अनुमान नहीं लगा सकता कि इस संसार के भीतर आपके कार्यकलाप किस तरह चलते रहते हैं। 

हे प्रभु! यद्यपि आपने उत्पत्ति, पालन तथा संहार के लिए ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव, इन तीन प्रमुख देवों के रूप में अपना विस्तार किया है, किन्तु भगवान् विष्णु के रूप में आपका अवतार प्राणियों के वरदान के लिए है। अतः जो लोग शान्त हैं। और परम शान्ति के इच्छुक हैं उनके लिए आपके विष्णु रूप शान्त अवतार की पूजा की संस्तुति की जाती है। 

इसी हे भगवान्! हम आपके समक्ष प्रार्थना कर रही हैं। आप यह जान सकते हैं कि यह बेचारा सर्प अपने  प्राण त्यागने वाला है। आप जानते हैं कि हम स्त्रियों के लिए हमारा पति ही सर्वस्व है, अत: हमारी प्रार्थना है कि आप हमारे पति कालिय नाग को क्षमा कर दें, क्योंकि यदि यह सर्प मर गया , तो हम सब घोर संकट में पड़ जाएँगी। 

आप हम पर कृपा करें और इस परम पापी को क्षमादान करें। हे प्रभु! प्रत्येक जीव आपकी सन्तान है और आप हर एक का पालन करते हैं। यह सर्प भी आपकी सन्तान है, अतः आप इसे क्षमा करें, भले ही इसने आपकी शक्ति को जाने बिना आपके प्रति अपराध किया है। हमारी प्रार्थना है कि इसे इस बार क्षमा करें। 

हे प्रभु! हम अपको अपनी प्रेममयी सेवाएँ अर्पित कर रही हैं, क्योंकि हम सभी आपकी नित्य सेविकाएँ हैं। आप हमें जो भी आदेश देंगे हम उसका पालन करेंगी। यदि कोई आपके आदेशों का पालन करे, तो वह अपनी सारी निराशा से मुक्त हो सकता है।"

कालिया नाग का कृष्ण से प्रार्थना करना 

नागपत्नियों द्वारा प्रार्थना किये जाने पर भगवान् कृष्ण ने कालिय को अपने पाश से मुक्त कर दिया। कालिय पहले ही भगवान् के प्रहार से अचेत था। अतः चेतना आने पर तथा पाश से मुक्त होने पर कालिय में प्राण का संचार हुआ और उसकी इन्द्रियाँ चैतन्य हो उठीं। 

वह हाथ जोड़कर परम भगवान् कृष्ण से प्रार्थना करने लगा, "मेरा जन्म ऐसी योनि में हुआ कि मैं तमोगुण के कारण स्वभाव से क्रोधी और ईर्ष्यालु हूँ। आप भली-भाँति जानते हैं कि प्राकृतिक स्वभाव को त्याग पाना कितना कठिन है, यद्यपि इस स्वभाव के कारण ही जीव एक शरीर से दूसरे में देहान्तर करता रहता है।" 

भगवद्गीता में भी कहा गया है कि भौतिक प्रकृति के चंगुल से छुटकारा पाना अतीव कठिन है, किन्तु यदि मनुष्य भगवान् कृष्ण की शरण में चला जाता है, तो प्रकृति के गुणों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कालिय ने आगे कहा, "हे प्रभु! आप प्रकृति के उन समस्त गुणों के मूल स्रष्टा हैं जिनसे इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होती है। 

आय जीवों की उन विभिन्न प्रवृत्तियों के कारणस्वरूप हैं जिनके कारण उन्हें विभिन्न प्रकार के शरीर प्राप्त होते हैं। हे स्वामी! मैं सर्प के रूप में उत्पन्न हुआ हूँ, अतः स्वभाव से ही मैं अत्यन्त क्रोधी अतः आपकी कृपा के बिना इस स्वभाव को त्याग सकना कैसे सम्भव हो सकता है? आपकी माया के बंधन से छूट पाना बहुत कठिन है। आपकी माया से ही हम दास बने हुए हैं। 

हे भगवन्! मेरी इन अपरिहार्य भौतिक प्रवृत्तियों के लिए मुझे क्षमा प्रदान करें। मैं आपकी शरण में आया हूँ। अब आप चाहें तो मुझे दण्ड दें या मुझे बचा लें।” यह सुनकर बालरूप श्री भगवान् ने सर्प को इस प्रकार आदेश दिया, "तुम तुरन्त इस स्थान को छोड़कर सागर में चले जाओ। अब इसमें तनिक भी विलम्ब न लगे। 

तुम अपने साथ अपनी पत्नियाँ, पुत्र तथा अपनी सम्पत्ति ले जा सकते हो। अब तुम यमुना के जल को दूषित न करना जिससे इसके निर्मल जल को निर्बाध होकर हमारी गौवें तथा ग्वालबाल पी सकें।

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कालिया नाग किससे डर कर यमुना झील में रह रहा था ? 

 तब भगवान् ने घोषणा की कि कालिय नाग को दिया गया आदेश सब कोई सुन लें जिससे अब कोई कालिय से न डरे । जो कोई कालिय दमन की इस कथा को सुनता है उसे सर्पों के ईर्ष्यालु कर्मों से डरने की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी। 

भगवान् ने यह भी उद्घोष किया, "यदि कोई इस कालियझील में स्नान करता है जहाँ मैंने तथा मेरे ग्वालबालों ने स्नान किया है या यदि कोई एक दिन उपवास रख कर इसके जल से पितरों का तर्पण करता है, तो वह सारे पापों के फलों से मुक्त हो जाएगा।” 

भगवान् ने कालिय को भी आश्वासन दिया, “तुम यहाँ पर गरुड़ के भय से भाग कर आये थे, क्योंकि वह समुद्र की निकटवर्ती सुन्दर भूमि पर तुम्हारा भक्षण करना चाहता था। अब तुम्हारे सिर पर मेरे चरणकमलों के चिह्न देखकर गरुड़ तुमसे कोई शत्रुता नहीं करेगा।” भगवान् कालिय तथा उसकी पत्नियों पर प्रसन्न हुए। 

उनका आदेश पाते ही कालिया तथा उसकी पत्नियाँ सुन्दर वस्त्र, फूल, माला, रत्न, आभूषण, चन्दन, कमलपुष्प तथा फलों की भेंट चढ़ाकर उनकी पूजा करने लगे। इस प्रकार उन्होंने अपने शत्रु गरुड़ के स्वामी को प्रसन्न कर लिया जिस से वे बहुत भयभीत थे। फिर कृष्ण के आदेश का पालन करते हुए उन्होंने यमुना-झील छोड़ दी।

प्रिय पाठकों ! इस पोस्ट में आपने जाना की किस प्रकार प्रभु श्री कृष्ण ने कालिया नाग को मारा। आशा करते है आपको पोस्ट पसंद आई होगी। भगवान कृष्ण की कृपा आप पर बरसती रहे। विश्वज्ञान में ऐसी ही अनेक कहानियों के साथ फिर मुलाक़ात होगी ,तब तक के लिए जय श्री राधे -कृष्ण।

धन्यवाद 


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