शरद ऋतु कर वर्णन (कृष्ण लीला)

जय राधे ,जय राधे राधे ,जय राधेजय ,श्री राधे 

जय कृष्ण ,जय कृष्ण कृष्ण,जय कृष्ण, जय कृष्ण 

हर -हर महादेव !प्रिय पाठकों 
कैसे है आप लोग ,आशा करते है भगवान शिव की कृपा से आप ठीक ही होंगे। प्रभु का आशीर्वाद आप सभी को प्राप्त हो। 

 इस पोस्ट में आप पाएंगे -

शरद का वर्णन

सूर्य कितने दिनों में जल को भाप में बदलता है ? 

श्रीमद्भागवत के अनुसार तपस्या क्यों करनी चाहिए ?

कलियुग में जीवों की तुलना किस ऋतु से की गई है?

कलियुग में  प्रत्येक व्यक्ति  का आचरण कैसा होता है? 

महाकवि विद्यापति के अनुसार मनुष्य किसके समान है ?

सृष्टि का पालन कौन करता है?

कृष्णभावनाभावित व्यक्ति वैकुण्ठलोक जाने का भागी क्यों होता है ?

वर्षाऋतु के मेघो की तुलना किससे की गई है ?

जब भगवान् इस भौतिक जगत में अवतरित होते हैं, तो वे कैसे लगते है ?

चन्द्रमा की तुलना चलायमान व्यक्ति से क्यों की जाती है ?

मोरों की तुलना कैसे व्यक्तियों से  की गई है? 

कृष्णभावनामृत से रहित गृहस्थजनों का जीवन कैसा होता है ?

वर्षा के कारण वृंदावन कैसा लगने लगा ?

शीत ऋतुके आने पर मौसम कैसा लगने लगा ?

हरि का  क्या अर्थ है?

पचास वर्ष पूरे होने पर मनुष्य को क्या करना चाहिए ?

श्रील रूप गोस्वामी जी का उपदेश 

Why compare of rainy season with human/वर्षाऋतु की तुलना मानव से क्यों( शरद का वर्णन )

शरद का वर्णन

कृष्ण तथा बलराम द्वारा प्रलम्बासुर वध तथा विध्वंसक दावानल-पान की चर्चा वृंदावन के घर-घर में चलने लगी। ग्वालों ने इन अद्भुत कार्यों का वर्णन अपनी पत्नियों तथा अन्य सबों से किया और वे सभी आश्चर्यचकित थे। 

वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि कृष्ण तथा बलराम देवता थे, जो कृपा करके उनके बालक बनकर वृन्दावन में आये थे। इस तरह वर्षाऋतु आई। भारतवर्ष में ग्रीष्म के भीषण आतप (गर्मी) के बाद वर्षाऋतु का आगमन अत्यन्त सुहावना लगता है। 

आकाश में बादल घिरकर सूर्य तथा चन्द्रमा को ढकते रहते हैं, जो लोगों को अत्यन्त चित्ताकर्षक लगते हैं और प्रतिक्षण वर्षा की आशा रहती है। ग्रीष्म के बाद, वर्षा ऋतु का आगमन जन-जन को जीवनदायी लगता है। घन-गर्जन तथा बीच-बीच में बिजली की चमक लोगों को पुलकित करती रहती है।

वर्षाऋतु के लक्षणों की तुलना जीवों से की जा सकती है, जो प्रकृति के तीन गुणों से आवृत होते हैं। अनन्त आकाश मानो परब्रह्म हो और क्षुद्र जीव मानो बादलों से घिरा आकाश हो अथवा तीनों गुणों से आवृत ब्रह्म हो। मूलतः प्रत्येक जीव ब्रह्म का अंश है। 

परब्रह्म या अनन्त आकाश कभी भी बादल से आच्छन्न नहीं रह सकता। हाँ, उसका एक अंश आच्छन्न हो सकता है। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, जीव श्रीभगवान् के अंश रूप हैं। किन्तु वे परमेश्वर के एक नगण्य अंश होते हैं। यह अंश प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा प्रच्छन्न रहता है और इसी कारण जीवात्माएँ भौतिक जगत में वास करती हैं। 

ब्रह्मज्योति सूर्यप्रकाश की भाँति है। जिस प्रकार सूर्यप्रकाश में सूक्ष्म चमकीले कण रहते हैं उसी प्रकार ब्रह्मज्योति भगवान् के अंशों से भरी रहती है। परमेश्वर के इसी सूक्ष्म अंश के असीम विस्तार में से कुछ जीव प्रकृति के प्रभाव से प्रच्छन्न रहते हैं और कुछ उससे मुक्त रहते हैं।

सूर्य कितने दिनों में जल को भाप में बदलता है ? 

Why compare of rainy season with human/वर्षाऋतु की तुलना मानव से क्यों( शरद का वर्णन )

पृथ्वी से सूर्य प्रकाश द्वारा जो जल खिंचता है, वही बादल बन जाता है। सूर्य निरन्तर आठ मास तक पृथ्वी की सतह से सभी प्रकार के जल को भाप में परिणत करता रहता है और यही जल बादलों के रूप में एकत्र होता जाता है, जो आवश्यकता के समय वर्षा-जल के रूप में वितरित होता है। 

इसी प्रकार सरकार नागरिकों से आयकर बिक्रीकर संग्रह करती है, जो अपने विभिन्न कार्यकलापों यथा कृषि, व्यापार तथा उद्योग आदि द्वारा धन दे सकते हैं। इसी तरह सरकार आयकर तथा बिक्रीकर के रूप में कर लगाती है। इसकी तुलना सूर्य द्वारा पृथ्वी से जल  निष्कासन से की गई है। 

जब पृथ्वी की सतह पर पुन: जल की आवश्यकता पड़ती है, तो वही सूर्य जल को बादल में बदलकर उस जल को सारे विश्व में वितरित करता है। इसी तरह सरकार द्वारा संचित कर पुनः लोगों में शैक्षिक कार्य, जन कार्य, सफाई के कार्य आदि के लिए वितरित हो जाना चाहिए। अच्छी सरकार के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है। 

सरकार को मनमाना व्यय करने के लिए कर संग्रह  नहीं करना चाहिए, अपितु संचित कर का उपयोग राज्य के जन-कल्याण कार्यों में किया जाना चाहिए। वर्षा ऋतु में समूचे देश में तेज हवाएँ चलती हैं, जो बादलों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाकर जरूरतमंद जीवों में जल वितरण कराने के लिए वर्षा कराती हैं। 

ग्रीष्म ऋतु के बाद जल (वर्षा) की नितान्त आवश्यकता होती है, अतः ये बादल उस धनी व्यक्ति के समान हैं, जो आवश्यकता पड़ने पर अपना पूरा कोष लुटा देता है। इसी तरह ये बादल पूरे विश्व में जल वितरित करके अपने को रिक्त कर देते हैं।

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जब भगवान् रामचन्द्र के पिता महाराज दशरथ अपने शत्रुओं से लड़ते थे, तो कहा जाता है कि वे उस किसान की तरह उनके पास पहुँचते थे, जो खेत में उगे अनावश्यक पेड़-पौधों को समूल नष्ट कर देता है। और जब दान देने का अवसर आता था, तो वे उसी प्रकार धन वितरित करते जिस प्रकार बादल जल बरसाते हैं। 

बादलों द्वारा वर्षाजल का वितरण इतनी प्रचुर मात्रा में होता है कि इसकी उपमा अत्यन्त उदार धनी पुरुष द्वारा धन-वितरण से की जाती है। बादलों से इतनी वर्षा होती है कि जहाँ जल की आवश्यकता नहीं होती, यथा चट्टानों, पर्वतों तथा समुद्रों में, वहाँ भी प्रचुर जल बरसता है। 

ये बादल उस दानी पुरुष जैसे हैं, जो पात्र-कुपात्र का विचार किये बिना ही दान के लिए अपना कोष खोल देता है। वह मुक्तहस्त दान देता है।

वर्षा के पूर्व सम्पूर्ण धरातल विभिन्न प्रकार की शक्तियों से लगभग क्षीण जाता है और अत्यन्त कृश प्रतीत होता है। किन्तु वर्षा के बाद पूरा धरातल वनस्पति से हरा-भरा होकर अत्यन्त स्वस्थ तथा बलिष्ठ प्रतीत होने लगता है। यहाँ पर उस  व्यक्ति से तुलना की गई है, जो अपनी भौतिक इच्छा की पूर्ति के लिए तपस्या करता है। 

वर्षा के बाद पृथ्वी का हरा-भरा होना भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के समान है। कभी-कभी जब देश में अवांछित सरकार का शासन होता है, तो लोग सरकार को वश में करने के लिए कठिन तपस्या करते हैं और शासन सँभाल लेने पर वे मोटे-मोटे वेतन लेकर समृद्ध बन जाते हैं। 

यह क्षणिक लाभ वर्षा ऋतु में पृथ्वी के हरे-भरे हो जाने के समान है। वस्तुतः आध्यात्मिक सुख प्राप्त करने के उद्देश्य से ही कठिन तपस्या की जानी चाहिए। 

श्रीमद्भागवत के अनुसार तपस्या क्यों करनी चाहिए ?

श्रीमद्भागवत में संस्तुति की गई है कि परमेश्वर के साक्षात्कार के लिए ही तपस्या करनी चाहिए। भक्ति में तपस्या करते हुए मनुष्य आध्यात्मिक जीवन की पुन: प्राप्ति कर सकता है और उसके बाद उसे असीम आध्यात्मिक आनन्द की प्राप्ति होती है। 

किन्तु यदि कोई भौतिक लाभ को दृष्टि में रख कर कठिन तपस्या करता है, तो भागवत के अनुसार उसके परिणाम क्षणिक होते हैं और केवल अल्पज्ञ ही ऐसी इच्छा करते हैं।

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कलियुग में जीवों की तुलना किस ऋतु से की गई है?

वर्षाऋतु में संध्या समय वृक्षों की चोटी पर इधर-उधर अनेक जुगनू दिखते हैं, जो दीपों की भाँति टिमटिमाते हैं। किन्तु आकाश के ज्योतिष्क यथा सूर्य तथा चन्द्रमा नहीं दिखते। इसी प्रकार कलियुग में नास्तिक या दुष्ट लोग सर्वत्र दिखते हैं, किन्तु वास्तविक आध्यात्मिक उत्थान के लिए वैदिक नियमों का पालन करने वाले लोगों का अभाव हो जाता है। 

इस कलियुग की तुलना जीवों की मेघाच्छादित ऋतु से की गई है। इस युग में वास्तविक ज्ञान तो सभ्यता की भौतिक उन्नति के द्वारा आच्छादित रहता है। इसमें शुष्क चिन्तक, नास्तिक एवं तथाकथित धर्मनिर्माता जुगनुओं की तरह प्रगट होते रहते हैं, जबकि वैदिक नियमों या शास्त्रों का पालन करने वाले व्यक्ति इस युग के बादलों से प्रच्छन्न हो जाते हैं। 

लोगों को आकाश के असली ज्योतिष्कों, सूर्य, चन्द्र एवम् नक्षत्रों से प्रकाश ग्रहण करना सीखना चाहिए, न कि जुगनुओं से। वस्तुतः जुगनू रात्रि के अंधकार में प्रकाश नहीं दे सकता। 

जिस प्रकार वर्षाऋतु में कभी-कभी सूर्य, चन्द्र तथा तारे दिख जाते हैं उसी प्रकार इस कलियुग के भी कुछ लाभ हैं-यथा इसमें भगवान् चैतन्य का वैदिक आन्दोलन अर्थात् हरे कृष्ण मंत्र का वितरण सुनाई पड़ जाता है। 

जो लोग वास्तविक  प्रकाश की खोज में हैं उन्हें शुष्क चिन्तकप्रकाश एवं नास्तिकों के प्रकाश की बाट न जोह कर इस आन्दोलन का लाभ उठाना चाहिए।

Why compare of rainy season with human/वर्षाऋतु की तुलना मानव से क्यों( शरद का वर्णन )

पहली वर्षा के बाद जब बादलों की गर्जना सुनाई पड़ती है, तो सभी मेंढक टर्र-टर्र करने लगते हैं, मानो विद्यार्थी अपने अध्ययन के समय अचानक बोल- बोल कर पढ़ने लग जाएं। विद्यार्थियों को सामान्य रूप से प्रात:काल जल्दी उठना होता है। 

वे प्राय: अपने आप न जगकर मन्दिर में या सांस्कृतिक शाला में घंटी बजने पर जगते हैं। अपने गुरु की आज्ञा पाकर वे उठते हैं और प्रातःकालीन कार्य समाप्त करके वे वेदों का अध्ययन या वैदिक मंत्रों का पाठ करने के लिए बैठ जाते हैं। 

कलयुग के दस महान पाप

कलियुग में  प्रत्येक व्यक्ति  का आचरण कैसा होता है? 

कलियुग में प्रत्येक व्यक्ति अंधकार (रात्रि) में सोता रहता है, किन्तु जब कोई महान् आचार्य आता हो, तो उसकी पुकार मात्र पर वह वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने के लिए वेदाध्ययन में जुट जाता है। 

वर्षाऋतु में अनेक ताल-तलैया,  नदी-नद जल से भर जाते हैं, अन्यथा वर्ष भर वे सूखे रहते हैं। इसी प्रकार भौतिकतावादी पुरुष शुष्क (नीरस) होते हैं, 

किन्तु कभी-कभी जब वे तथाकथित ऐश्वर्यशाली स्थिति में होते हैं उनके घर-बार, सन्तान तथा बैंक-पूँजी होती है- तो वे संवृद्धि करते प्रतीत होते हैं, किन्तु शीघ्र ही नदी-नद की भाँति पुनः सूख जाते हैं। 

महाकवि विद्यापति के अनुसार मनुष्य किसके समान है ?

महाकवि विद्यापति ने कहा है कि मित्र, परिवार, सन्तान, पत्नी आदि के समाज में निश्चय ही कुछ-न-कुछ आनन्द है, किन्तु यह मरुस्थल में जल की एक बूँद के समान है। हर व्यक्ति सुख के पीछे उसी तरह दौड़ रहा है, जिस तरह मरुस्थल में वह जल के लिए भागता है। 

यदि मरुस्थल में जल की केवल एक ही बूँद हो, तो नाम के लिए तो वह जल कहा जाता है, किन्तु उस जल की बूँद का लाभ नगण्य होता है। हम अपने मरुस्थल जैसे भौतिकवादी जीवन में सुख के अथाह सागर की खोज में लगे रहते हैं, किन्तु हमें समाज, मित्र तथा सांसारिक प्यार के रूप में एक जल-बिन्दु से अधिक नहीं मिल पाता। 

कभी-भी हमारी तुष्टि नहीं हो पाती, जिस प्रकार ग्रीष्मऋतु में कभी ताल, तलैया, नदी, नद जल से नहीं भर पाते। वर्षा के कारण तृण, वृक्ष तथा वनस्पतियाँ हरी-भरी लगती हैं। कभी-कभी तृण के ऊपर लाल रंग के कीड़े (बीरबहूटी) एकत्र हो जाते हैं। 

छाते जैसे कुकुरमुत्तों के साथ मिलकर हरा तथा लाल रंग ऐसा दृश्य उपस्थित करते हैं मानो कोई व्यक्ति अचानक धनवान बन गया हो। किसान अपने खेतों को शस्य से पूरित देखकर अत्यन्त प्रसन्न होता है, किन्तु पूंजीपति-जो अलौकिक शक्ति के कार्यों से अपरिचित रहता है-

अप्रसन्न होता है क्योंकि वह अधिक उपज के कारण मन्दी से भयभीत रहता है। कुछ देशों की सरकारों के पूंजीपति किसानों पर अधिक अन्न उत्पादन के लिए प्रतिबन्ध लगा देते हैं क्योंकि उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि अन्न का वास्तविक दाता तो भगवान् है। 

सृष्टि का पालन कौन करता है?

वैदिक आदेश के अनुसार-एको बहूना यो विदधाति कामान्-भगवान् इस सृष्टि का पालन करता है, अत: वह जीवों की आवश्यकता के अनुसार पूर्ति की व्यवस्था करता है। जब जनसंख्या बढ़ जाती है, तो उसका भरण-पोषण परमेश्वर का उत्तरदायित्व होता है। 

किन्तु जो नास्तिक हैं या बदमाश हैं, वे अपने व्यापार में अवरोध मान कर यह नहीं चाहते कि प्रभूत अन्नोत्पादन (अन्न पैदा करने वाला ) हो। वर्षाऋतु में सारे जलचर, स्थलचर तथा नभचर उसी तरह प्रसन्न हो उठते हैं जिस प्रकार दीर्घकाल से भगवान् की दिव्य सेवा करने वाला व्यक्ति होता है।

सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई?सृष्टि की उत्पत्ति कहाँ से हुई ?

हमें अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ के विद्यार्थियों का व्यावहारिक अनुभव है। विद्यार्थी बनने के पूर्व वे अत्यन्त मैले-कुचैले लगते थे, यद्यपि उनका प्राकृतिक स्वरूप सुन्दर था; कृष्ण-चेतना विषयक ज्ञान न होने के कारण वे मलिन तथा दयनीय प्रतीत होते थे। 

किन्तु जब से वे कृष्णभावनाभावित हुए हैं, उनका स्वास्थ्य सुधर गया है और विधि-विधानों का पालन करने से उनकी शारीरिक कान्ति बढ़ गई है। जब वे केसरिया रंग का वस्त्र धारण करके मस्तक पर तिलक लगाकर अपने हाथों तथा गर्दन में मालाएँ पहन लेते हैं, तो वे इस तरह लगते हैं मानो सीधे वैकुण्ठलोक से आए हों।

कृष्णभावनाभावित व्यक्ति वैकुण्ठलोक जाने का भागी क्यों होता है ?

वर्षा ऋतु में नदियाँ उमड़कर सागर की ओर भागती हैं, तो ऐसा लगता है। कि वे सागर को क्षुब्ध कर रही हैं। इसी प्रकार योगाभ्यास में प्रवृत्त व्यक्ति यदि आध्यात्मिक जीवन में अग्रसर नहीं होता, तो उसे कामवासना क्षुब्ध कर सकती है। 

किन्तु उच्च पर्वतों पर चाहे मूसलाधार वर्षा क्यों न हो, वे बदलते नहीं; उसी तरह कृष्णभावनाभावित व्यक्ति, चाहे कितनी ही कठिनाई में क्यों न पड़ा हो, कभी चिन्तित नहीं होता क्योंकि जो व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से अग्रसर होता है, 

वह जीवन की किसी भी विषम परिस्थिति को भी भगवान् की कृपा मानता है और इस तरह वह वैकुण्ठलोक जाने का भागी बन जाता है।

श्रीमद भगवद-गीता के तीसरे अध्याय का माहात्म्य। जब एक भूत गया बैकुंठ

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वर्षाऋतु में जिन मार्गों पर यातायात ज्यादा नहीं होता उनमें लम्बी-लम्बी घासें उग आती हैं। यह वैसा ही है, जिस प्रकार कि वेदों के अध्ययन तथा संस्कारों से अनभ्यस्त कोई ब्राह्मण माया रूपी घास से आवृत हो जाये। 

ऐसी दशा में वह अपनी स्वाभाविक स्थिति भूल जाने से भगवान् के प्रति अपने नित्य सेवक भाव को भी भूल जाता है। सभी तरह माया द्वारा उत्पन्न इस लम्बी-लम्बी घास से विपथ होकर मनुष्य अपने को मायारूप मानकर अपने आध्यात्मिक जीवन को भूल जाता है और मोह में पड़ जाता है।

वर्षाऋतु के मेघो की तुलना किससे की गई है ?

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वर्षाऋतु में बिजली कभी इस बादल समूह में दिखती है, तो दूसरे ही क्षण दूसरे बादलों में। यह दशा उस विषयी स्त्री की सी है, जो अपने मन को किसी एक व्यक्ति पर स्थिर नहीं कर पाती। मेघों की तुलना योग्य व्यक्ति से की गई है, क्योंकि वह पानी बरसा कर अनेक लोगों को जीवनदान देता है। 

इसी प्रकार योग्य व्यक्ति अपने परिवार वालों को तथा व्यापार में लगे अन्य अनेक लोगों को सहारा देता है। दुर्भाग्यवश यदि उसकी पत्नी उसका परित्याग कर दे, तो उसका सारा जीवन अस्त-व्यस्त हो सकता है, 

और जब पति विक्षिप्त हो जाता है, तो सारा परिवार नष्ट हो जाता है; बच्चे तितर-बितर हो जाते हैं या सारा व्यापार ठप्प हो जाता है। और प्रत्येक काम पर असर पड़ता है। 

अत: यह संस्तुति की जाती है कि जो स्त्री कृष्णभावनामृत में आगे बढ़ना चाहती हो वह अपने पति के साथ शान्तिपूर्वक रहे और उनकी जोड़ी किसी भी परिस्थिति में विलग न हो। पति-पत्नी को आत्मसंयम रखते हुए कृष्णभक्ति में मन केन्द्रित करना चाहिए जिससे जीवन सार्थक हो। 

आखिर इस संसार में पुरुष को स्त्री की आवश्यकता होती है और स्त्री को पुरुष की चाह होती है। साथ-साथ होने पर वे शान्तिपूर्वक कृष्णभावनामृत में लग सकते हैं। उन्हें बिजली की भाँति चंचल नहीं होना चाहिए, और एक बादल से दूसरे में नहीं चमकते रहना चाहिए।

जब भगवान् इस भौतिक जगत में अवतरित होते हैं, तो वे कैसे लगते है ?

Why compare of rainy season with human/वर्षाऋतु की तुलना मानव से क्यों( शरद का वर्णन )

कभी-कभी घन-गर्जन के अतिरिक्त इन्द्रधनुष भी दिखाई पड़ता है, जो बिना डोरी वाले धनुष की तरह होता है। वास्तव में जब धनुष के दोनों सिरों को डोरी से बाँध दिया जाता है, तो वह झुक जाता है, किन्तु इस इन्द्रधनुष में कोई डोरी नहीं रहती फिर भी यह आकाश में इतने सुन्दर ढंग से टिका रहता है। 

इसी प्रकार जब भगवान् इस भौतिक जगत में अवतरित होते हैं, तो वे सामान्य व्यक्ति का भाँति प्रतीत होते हैं किन्तु वे किसी भौतिक आधार पर टिके नहीं होते। 

भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं कि मैं अपनी ही अन्तरंगा शक्ति से प्रकट होता हूँ, जो बहिरंगा शक्ति के बंधन से सर्वथा स्वतंत्र रहती है। सामान्य व्यक्ति के लिए, जो बन्धनतुल्य है, वही भगवान् के लिए स्वतंत्रता है। 

चन्द्रमा की तुलना चलायमान व्यक्ति से क्यों की जाती है ?

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वर्षाऋतु में बादलों के कारण चाँदनी ढकी रहती है और कभी-कभी ही दृष्टिगोचर होती है। कभी-कभी चन्द्रमा बादलों के साथ चलता प्रतीत होता है, किन्तु वह स्थिर होता है, बादलों के कारण वह चलायमान लगता है। 

इसी प्रकार, जो व्यक्ति इस चलायमान भौतिक जगत के साथ अपनी पहचान करता है, उसकी वास्तविक आध्यात्मिक कान्ति मोह से ढक जाती है और भौतिक कार्यों की गति के साथ वह अपने को जीवन के विविध क्षेत्रों में गतिशील मानता है। 

यह अहंकार के कारण है, जो आध्यात्मिक तथा भौतिक सत्ता के बीच विभाजक रेखा है, जिस प्रकार चलता हुआ बादल चाँदनी तथा अंधकार के बीच की विभाजक रेखा होता है। 

मोरों की तुलना कैसे व्यक्तियों से  की गई है? 

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वर्षाऋतु में जब बादल पहली बार दिखते हैं, तो मोर उन्हें देखकर आनन्दित होकर नाच उठते हैं। मोरों की तुलना उन व्यक्तियों से की जा सकती है, जो भौतिक जीवन से त्रस्त हैं और यदि उन्हें किसी भगवद्भक्त का सानिध्य प्राप्त हो जाता है, तो उनमें प्रकाश जाग उठता है और उनका मन- मयूर नाच उठता है। 

पौधे तथा लताएँ पृथ्वी से जल ले कर बढ़ते हैं। इसी तरह तपस्यारत व्यक्ति शुष्क दिखने लगता है, किन्तु तपस्या पूरी होने पर और उसका फल प्राप्त कर लेने के बाद वह अपने परिवार, समाज, प्रेम, घर तथा अन्य साज-सामान के साथ जीवन का आनन्द भोगने लगता है। वह नए उगे पौधों तथा घास की भाँति प्रसन्नचित्त हो जाता है। 

कृष्णभावनामृत से रहित गृहस्थजनों का जीवन कैसा होता है ?

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कभी-कभी सारस तथा बत्तख सरोवरों तथा नदियों के किनारों पर निरन्तर घूमते देखे जाते हैं, भले ही ये किनारे कीचड़ तथा कँटीली लताओं से युक्त क्यों न हों। इसी तरह कृष्णभावनामृत से रहित गृहस्थजन अनेक भौतिक असुविधाओं के रहते हुए भी भौतिक जीवन में निरन्तर बने रहते हैं।

चाहे वह पारिवारिक जीवन हो या अन्य किसी प्रकार का जीवन, कृष्णभावनाभावित हुए बिना पूर्ण सुख नहीं मिल सकता। श्रील नरोत्तमदास ठाकुर प्रार्थना करते हैं कि उन्हें किसी न किसी व्यक्ति की संगति चाहिए-चाहे वह गृहस्थ हो या संन्यासी-

जो सदा भगवान् की प्रेमा-भक्ति में लगा रहता हो और भगवान् चैतन्य का पवित्र नाम लेता हो। भौतिकतावादी व्यक्ति के लिए सांसारिक कृत्य दुखदायी बन जाते हैं, किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के लिए प्रत्येक वस्तु प्रसन्नतापूर्वक स्थित प्रतीत होती है।

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कभी-कभी अतिवृष्टि के कारण खेतों की मेड़ें टूट जाती हैं। इसी तरह कलियुग में अवैध नास्तिक प्रचार के कारण वैदिक आदेशों की सीमाएँ भंग होती रहती हैं। इस तरह लोग धीरे-धीरे ईश्वरविहीनता को प्राप्त हो जाते हैं। 

वर्षाऋतु में वायु द्वारा इधर-उधर ले जाये गये बादल अमृततुल्य वृष्टि यानी वर्षा करते हैं। जब वेदों के अनुयायी ब्राह्मणजन राजाओं तथा वैश्यों को महान् यज्ञ सम्पन्न हो जाने पर दान के लिए प्रेरित करते हैं, तो ऐसा धन-वितरण भी अमृततुल्य होता है। 

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र-ये चारों वर्ण शान्तिपूर्वक सहयोग से जीवन बिताने के लिए हैं; यह तभी सम्भव होता है जब पटु (कुशल )वादक (बोलनेवाला ) ब्राह्मण यज्ञ सम्पन्न करके तथा धन का समान वितरण करके उनका मार्गदर्शन करते हैं।

वर्षा के कारण वृंदावन कैसा लगने लगा ?

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इस वर्षा से वृन्दावन की शोभा बढ़ गई और वह पके खजूर, आम, जामुन तथा अन्य फलों से भर उठा। भगवान् कृष्ण तथा उनके संगी एवं बलराम ने नई वर्षाऋतु का आनन्द लूटने के उद्देश्य से वन में प्रवेश किया। गाएँ हरी घास चरकर अत्यन्त हृष्ट-पुष्ट हो गईं और उनके थन दूध से भर गये। 

जब कृष्ण ने उन्हें उनके नाम ले लेकर बुलाया, तो वे अत्यन्त प्रेमवश तुरन्त ही उनके पास आ गईं और प्रसन्नता में उनके थनों से दूध की धारा बह निकली। जब कृष्ण गोवर्धन पर्वत के पास ही स्थित वृन्दावन विपिन से होकर जा रहे थे, तो वे अत्यन्त प्रसन्न थे। 

उन्होंने यमुना तट पर वृक्षों को मधुमक्खी के छत्तों से सुशोभित देखा जो मधु टपका रहे थे। गोवर्धन पर्वत पर अनेक झरने थे जिनके बहने से मधुर ध्वनि हो रही थी। जब कृष्ण ने पर्वत गुफाओं में झांका, तो उन्हें यह ध्वनि सुनाई पड़ी। 

वर्षा ऋतु अभी समाप्त नहीं हुई थी, किन्तु धीरे-धीरे शरद्ऋतु आ रही थी। अत: कभी-कभी जब वन में वृष्टि होती रहती, तो कृष्ण तथा उनके साथी किसी वृक्ष के नीचे या गोवर्धन पर्वत की कन्दराओं में बैठ जाते और पके फलों का स्वाद लेते तथा आनन्दपूर्वक परस्पर बातें करते रहते। 

जब कृष्ण तथा बलराम दिन-भर वन में रहते, तो माता यशोदा उनके भोजन के लिए चावल तथा दही, फल एवं मिठाइयाँ भेजा करतीं। कृष्ण उन्हें लेकर यमुना-तट पर एक शिला पर बैठ जाते और अपने सखाओं को साथ देने के लिए बुला लेते। 

भोजन करते-करते कृष्ण, उनके साथी तथा बलराम गौवों, बछड़ों तथा बैलों की रखवाली करते रहते। गाएँ अपने दुग्धपूरित भारी थनों के कारण खड़ी-खड़ी थकी हुईं लगतीं, वे बैठकर जुगाली करने लगतीं और प्रसन्न हो जातीं; कृष्ण उन्हें देखकर प्रमुदित होते। वे वर्षाऋतु के कारण वन की शोभा देखकर अत्यन्त हर्षित थे। यह उन्हीं की शक्ति (माया) का प्रदर्शन था।

ऐसे अवसरों पर कृष्ण वर्षाकालीन प्रकृति के विशिष्ट कार्यकलापों की प्रशंसा करते थे। भगवद्गीता में कहा गया है कि भौतिक शक्ति या प्रकृति अपने कार्यों के लिए स्वतंत्र नहीं है। वह कृष्ण के अधीन कार्य करती है। 

ब्रह्म-संहिता में इसकी भी पुष्टि की गई है, जो यह कहती है कि दुर्गा नाम से विख्यात भौतिक प्रकृति कृष्ण की छाया रूप में कार्य करती है। कृष्ण जो भी आदेश देते हैं, प्रकृति उसका पालन करती है। 

अतः यह प्राकृतिक सौन्दर्य कृष्ण के संकेतों पर ही वर्षाऋतु द्वारा उत्पन्न किया गया था, जो भौतिक प्रकृति के मोहक कार्यकलाप देख कर गर्वित अनुभव करने लगे। 

शीत ऋतुके आने पर मौसम कैसा लगने लगा ?

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जब कृष्ण तथा बलराम वर्षाऋतु के उपहारों का इस प्रकार आनन्द ले रहे थे, शीत ऋतु आ गई और शीघ्र ही सारे जलाशय स्वच्छ तथा सुहावने दिखने लगे और शरद् के आगमन से सर्वत्र मन को प्रसन्न करने वाली वायु बहने लगी।

आकाश से सारे बादल साफ हो गये और आकाश अपने स्वाभाविक नीले रंग का हो गया। वन में स्वच्छ जल में खिले कमल के फूल उस योगभ्रष्ट व्यक्ति की तरह प्रतीत हो रहे थे, 

जो योगाभ्यास से  पतित हो गया हो किन्तु आध्यात्मिक जीवन प्राप्त हो जाने पर फिर से सुन्दर बन गया हो। शरऋतु का आगमन होते ही सारी वस्तुएँ स्वाभाविक रूप से सुन्दर लगने लगती हैं। 

क्या मांस खाने वाले लोगों की पूजा भगवान स्वीकार करते हैं? मांस खाना पाप हैया पुण्य

हरि का  क्या अर्थ है?

इसी तरह जब कोई भौतिकतावादी व्यक्ति कृष्णभावनामृत अंगीकार करता है, तो वह भी शरद्कालीन आकाश तथा जल की भाँति निर्मल हो जाता है। शरऋतु में श्याम मेघों का उमड़ना रुक जाता है और जल दूषित नहीं रहता।है। 

शरऋतु स्थल का गन्दा वातावरण समाप्त हो जाता है। इसी तरह जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत स्वीकार करता है उसका सारा अन्तः तथा बाह्य मल दूर हो जाता है। अत: कृष्ण 'हरि' कहलाते है। 

हरि का अर्थ है हरण करने वाला। जो भी कृष्णभावनामृत अपनाता है, कृष्ण उसकी सारी गंदी आदतें हर लेते हैं।

शरद्कालीन बादल श्वेत होते हैं, क्योंकि उनमें पानी नहीं रहता। इसी प्रकार अवकाशप्राप्त व्यक्ति (वानप्रस्थ) अपने पारिवारिक कार्यों के उत्तरदायित्व से मुक्त होकर पूर्णतः कृष्णभावनामृत अपनाने पर समस्त चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है और शारदीय बादल की भाँति श्वेत (निर्मल) दिखता है। 

शरऋतु में कभी-कभी झरने पर्वत की चोटी से नीचे आकर स्वच्छ जल प्रदान करते हैं, तो कभी वे अवरुद्ध हो जाते हैं। इसी प्रकार कभी कभी साधुपुरुष विमल ज्ञान का वितरण करते हैं, तो कभी वे मौन हो जाते हैं। 

छोटे-छोटे पोखर, जो वर्षाऋतु के कारण जल से भर गये थे, धीरे-धीरे शरऋतु में सूखने लगते हैं। इन जलाशयों में रहने वाले छोटे-छोटे जलचर प्राणी यह नहीं जान पाते कि दिन-अनुदिन इन जलाशयों की संख्या घटती जा रही है,

जिस प्रकार कि भौतिकता में निमग्न व्यक्ति यह नहीं समझ पाते कि उनकी आयु दिन-प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है। ऐसे लोग गाय, धन, सन्तान, स्त्री, समाज तथा मित्रता बनाये रखने में लगे रहते हैं। शरद ऋतु में जल घटने तथा प्रखर आतप से इन जलाशयों में रहने वाले छोटे-छोटे प्राणी अत्यधिक विचलित हो उठते हैं। 

ये उन विवश व्यक्तियों के तुल्य हैं, जो न तो जीवन का आनन्द भोग पाने अथवा, न  ही पारिवारिक सदस्यों का भरण कर पाने के कारण सदा दुखी रहते हैं। धीरे-धीरे पंकिल धरती सूख जाती है और नवांकुरित वनस्पतियाँ मुरझाने लगती हैं। 

इसी  प्रकार जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत स्वीकार करता है, उसकी पारिवारिक सुख भोग की लालसा धीरे-धीरे समाप्त होती जाती है।

पचास वर्ष पूरे होने पर मनुष्य को क्या करना चाहिए ?

Why compare of rainy season with human/वर्षाऋतु की तुलना मानव से क्यों( शरद का वर्णन )

शरद् काल के प्रकट होते ही सागर का जल उसी तरह शान्त और गम्भीर हो जाता है, जिस प्रकार आत्म-साक्षात्कार हो जाने पर मनुष्य को प्रकृति के तीनों गुण नहीं सता पाते। शरद्ऋतु में किसान अपने खेतों के चारों ओर मेड़ें बाँध देते हैं जिससे उनके खेत का पानी बहकर बाहर न निकल पाये। 

चूँकि अब आगे वर्षा की कोई आशा नहीं रह जाती इसलिए खेत में जितना पानी रहता है उसको वह सुरक्षित रखना चाहता है। इसी प्रकार स्वरूपसिद्ध व्यक्ति अपनी शक्ति की रक्षा इन्द्रियों के संयम द्वारा करता है। इसलिए यह सलाह दी जाती है कि मनुष्य पचास वर्ष की आयु के बाद गृहस्थ जीवन से विरक्त होकर अपनी शक्ति का संचय कृष्णभावनामृत को अग्रसर करने के लिए करे। 

जब तक मनुष्य अपनी इन्द्रियों को वश में करके उन्हें मुकुन्द की दिव्य प्रेमा-भक्ति में नहीं लगाता तब तक मुक्ति की कोई सम्भावना नहीं है।

शरद् में दिन के समय कड़ी धूप होती है, किन्तु रात्रि में स्वच्छ चाँदनी से लोगों को दिन की थकान से छुटकारा मिलता है। इसी प्रकार यदि मनुष्य मुकुन्द या कृष्ण की शरण ग्रहण करता है, तो वह अपने आपको शरीर समझने की भ्रान्ति से मुक्त हो सकता है। 

मुकुन्द या कृष्ण वृन्दावन की गोपियों के लिए भी सान्त्वना प्रदान करने वाले हैं। व्रजभूमि की गोपियाँ कृष्ण के विरह के कारण सदैव दुखी रहती हैं, किन्तु जब वे शरद्कालीन चाँदनी रात में कृष्ण से मिलती हैं, तो उनकी वियोगजनित क्लान्ति मिट जाती है। 

जिस तरह बादलों से रहित आकाश में रात्रि के समय तारे अत्यन्त सुन्दरता से चमकते हैं उसी तरह कृष्णभावनाभावित व्यक्ति समस्त कल्मष से रहित होकर शरद्कालीन आकाश में तारों की भाँति सुन्दर लगने लगते हैं। 

Why compare of rainy season with human/वर्षाऋतु की तुलना मानव से क्यों( शरद का वर्णन )


हमेशा अच्छे लोगों के साथ बुरा ही क्यों होता है ?

यद्यपि वेदों में योगाभ्यास के लिए ज्ञान अर्जित करने हेतु और यज्ञों द्वारा कर्म करने हेतु आदेश दिए हुए हैं, किन्तु उनका चरम प्रयोजन भगवद्गीता में वर्णित है। मनुष्य को चाहिए कि वेदों के प्रयोजन को ठीक समझ कर कृष्णभावनामृत करे। 

अत: कृष्णभावनामृत में लीन भक्त के विमल हृदय की तुलना शरद्कालीन शुभ्र आकाश से की जा सकती है। शरद्ऋतु में निर्मल आकाश में तारों समेत चन्द्रमा अत्यन्त चमकीला लगता है। कृष्ण भगवान् स्वयं यदुवंश के आकाश प्रकट हुए। 

वे यदुवंशियों से घिरकर तारों से घिरे चन्द्रमा के समान प्रतीत हो रहे थे। जब उद्यान में अनेक फूल खिले रहते हैं, तो ग्रीष्म तथा वर्षां ऋतु से त्रस्त पुरुष को ताजी सुगंधित वायु अत्यन्त सुखद लगती है। 

दुर्भाग्यवश गोपियों को ऐसी वायु से कोई लाभ नहीं मिल सका, क्योंकि वे अपना हृदय कृष्ण को अर्पित कर चुकी थीं। सामान्य लोगों को शरद्कालीन उत्तम मन्द समीर भले ही आनन्दप्रद लगा हो, किन्तु गोपियाँ कृष्ण के आलिंगन बिना प्रसन्न न थीं। 

शरद्ऋतु आने पर सारी गौवें, हिरन, पक्षी तथा अन्य मादाएँ गर्भ धारण करती हैं क्योंकि इस ऋतु में सारे नर (पति) कामाभिभूत हो उठते हैं। ऐसी गर्भवती मादाएँ ठीक उन अध्यात्मवादियों की भाँति है जिनको भगवान् की कृपा से जीवनलक्ष्य प्राप्त होने का वरदान मिल गया हो। 

श्रील रूप गोस्वामी जी का उपदेश 

श्रील रूप गोस्वामी ने अपने उपदेशामृत में उपदेश दिया है कि मनुष्य को चाहिए कि अत्यन्त उत्साह, धैर्य तथा संकल्प के साथ भक्ति का पालन करे, विधि-विधानों को माने, भौतिक कल्मष से अपने को दूर रखे और भक्तों के सान्निध्य में रहे। 

जो इन छ: सिद्धान्तों का पालन करता है उसे भक्ति का वांछित फल आवश्य मिलता है। जो मनुष्य धैर्यपूर्वक भक्ति के अनुष्ठानों को पालता है, उसे समय आने पर उसी प्रकार फल प्राप्त होगा, जिस प्रकार पत्नियों को गर्भधारण करने पर सन्तान सुख मिलता है।

Why compare of rainy season with human/वर्षाऋतु की तुलना मानव से क्यों( शरद का वर्णन )

शरऋतु में सरोवरों में असंख्य कमल के फूल खिलते हैं, क्योंकि कुमुदिनियाँ नहीं रहतीं। वैसे दिन के समय कमल तथा कुमुदिनी साथ-साथ खिलते हैं, किन्तु शरद्ऋतु में प्रचण्ड आतप (धूप) के कारण केवल कमल ही खिल पाते हैं। 

यह दृष्टान्त उस देश की तरह है जहाँ का राजा या शासन प्रबल होता है; उसमें चोर तथा डाकू जैसे अवांछित तत्त्व नहीं पनप पाते। जब नागरिकों को विश्वास हो जाता है कि उन पर डाकुओं का आक्रमण नहीं होगा, तो वे सन्तोषजनक विकास करते हैं। 

प्रबल शासन की तुलना शरद्कालीन प्रचण्ड धूप से की गई है; कुमुदिनियाँ डाकू इत्यादि अवांछित तत्त्वों जैसी हैं और कमल-पुष्पों की तुलना संतुष्ट नागरिकों  से की गई है। 

खेत पके अत्र से भर जाते हैं। लोग फसल से अत्यन्त प्रमुदित हो उठते हैं और अनेक प्रकार के उत्सव मनाते हैं-यथा नवान्न या भगवान् को नवीन अन्न की भेंट करना। नया अन्न सर्वप्रथम विविध मन्दिरों में अर्चा-विग्रहों को भेंट चढ़ाया जाता है और सबों को इस नए अत्र से बनी खीर खाने के लिए न्यौता जाता है। 

इसके अतिरिक्त अन्य धार्मिक उत्सव तथा पूजाविधियाँ हैं जिनमें से विशेष रूप से बंगाल में दुर्गापूजा नामक सबसे बड़ा उत्सव मनाया जाता है।उस काल वृन्दावन में भगवान् कृष्ण तथा बलराम की उपस्थिति के कारण शरदऋतु अत्यन्त आकर्षक बनी हुई थी।

व्यापारिक समुदाय, राजकीय वर्ग तथा ऋषि सभी वांछित वर प्राप्त करने के लिए इधर उधर जाने के लिए स्वतंत्र थे। इसी प्रकार भौतिक शरीर के बन्धन से मुक्त होकर अध्यात्मवादी भी मनवांछित फल प्राप्त करते थे। 

वर्षाऋतु में व्यापारी वर्ग एक स्थान से दूसरे स्थान को नहीं जा सकता, अतः उसे वांछित फल नहीं मिल सकता। इसी प्रकार राजकीय वर्ग लोगों से कर संग्रह करने के उद्देश्य से इधर-उधर नहीं जा सकता। 

यहाँ तक कि साधु पुरुष भी जिन्हें दिव्य ज्ञान का उपदेश करने के लिए विचरण करना पड़ता है, वर्षाऋतु में वैसा नहीं कर पाते। किन्तु शरद्ऋतु में सभी लोग अपना-अपना बसेरा छोड़ने लगते हैं। एक अध्यात्मवादी- चाहे वह ज्ञानी हो या योगी या भक्त-शरीर होने से आध्यात्मिक उपलब्धि का भोग नहीं कर सकता। 

किन्तु शरीर त्याग करते ही या मृत्यु के पश्चात् ज्ञानी परमेश्वर के तेज में लीन हो जाता है, योगी उच्चलोकों को चला जाता है और भक्त भगवान् के लोक, गोलोक वृन्दावन या वैकुण्ठलोक को जाता है, जहाँ वह शाश्वत आध्यात्मिक जीवन भोगता है।

प्रिय पाठकों !आशा करते है आपको पोस्ट पसंद आई होगी। विश्वज्ञान में ऐसी ही रोचक जानकारियों के साथ फिर मुलाक़ात होगी,तब तक के लिए प्रभु को याद करते हुए आप अपना ख्याल रखे ,खुश रहें और औरो को भी खुशिया बाँटते रहे। 

जय-जय श्री राधे श्याम 

धन्यवाद। 

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