Three moral story/ nishkaam kee kaamana - ikkees peedhiyaan tar gayeen/तीन शिक्षा पूर्ण कहानी /भक्त की भावना। VISHVA GYAAN

 

जय श्री राधे श्याम 

हर हर महादेव प्रिय पाठकों ! कैसे है आप लोग, 
आशा करते है आप सभी सकुशल होंगे। 
भगवान् शिव का आशीर्वाद हमेशा आपको प्राप्त हो।  


Three moral story/ nishkaam kee kaamana - ikkees peedhiyaan tar gayeen/तीन शिक्षा पूर्ण कहानी /भक्त की भावना।


महान् कौन है ? 

एक बार देवर्षि के मन में यह जानने की इच्छा हुई कि जगत् में सबसे महान् कौन है। उन्होंने सोचा कि चलूँ भगवान् के पास ही। वहीं इसका ठीक-ठीक पता लगा सकेगा। वे सीधे बैकुण्ठ में गये और वहाँ जाकर प्रभु से अपना मनोभाव व्यक्त किया। 

प्रभु ने कहा-नारद! सबसे बड़ी तो यह पृथ्वी ही दीखती है, पर वह समुद्र से घिरी हुई है, अतएव वह भी बड़ी नहीं है। रही बात समुद्र की, सो उसे अगस्त्य मुनि पी गये थे, अत: वह भी बड़ा कैसे हो सकता है। इससे तो अगस्त्यजी सबसे बड़े हो गये। 

पर देखा जाता है कि अनन्ताकाश के एक सीमित सूचिका-सदृश भाग में वे केवल एक खद्योतवत्-जुगनू की तरह चमक रहे हैं, इससे वे भी बड़े कैसे हो सकते हैं? 

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अब रहा आकाश विषयक प्रश्न। प्रसिद्ध है कि भगवान् विष्णु ने वामनावतार में इस आकाश को एक ही पग में नाप लिया था, अतएव वह भी उनके सामने अत्यन्त नगण्य है। इस दृष्टि से भगवान् विष्णु सर्वोपरि महान् सिद्ध होते हैं। 

तथापि नारद! वे भी सर्वाधिक महान् हैं नहीं, क्योंकि तुम्हारे हृदय में वे भी अंगुष्ठ मात्र स्थल में ही सर्वदा अवरुद्ध देखे जाते हैं। इसलिए भैया! तुमसे बड़ा कौन हो सकता है। वास्तव मे तुम ही सबसे महान् हो।

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भक्त की भावना

प्रह्लाद ने गुरुओं की बात मानकर हरिनाम को न छोड़ा, तो गुरुओं ने  गुस्से में भरकर अग्निशिखा के समान प्रचलित शरीरवाली कृत्या को उत्पन्न किया। 

उस भयंकर राक्षसी ने अपने पैरों की चोट से पृथ्वी को कंपाते हुए वहाँ प्रकट होकर प्रह्लाद जी की छाती में त्रिशूल से प्रहार किया, किन्तु उस बाल के हृदय में लगते ही वह झलझलाता हुआ त्रिशूल टुकड़े-टुकड़े होकर जमीन पर गिर पड़ा। 

जिस हृदय में भगवान् श्रीहरि निरन्तर प्रकट रूप से विराजते हैं, उसमें लगने से वज्र के भी टूकड़े - टूकड़े हो जाते हैं, फिर त्रिशूल की तो बात ही क्या है ? 

पापी पुरोहितों ने विष्याप भक्त पर कृत्या का प्रयोग किया था, बुरा करने वाले का ही बुरा होता है, इसलिए कृत्या ने उन पुरोहितों को ही मार डाला। उन्हें मारकर वह स्वयं भी नष्ट हो गयी। अपने गुरुओं को कृत्या के द्वारा जलाये जाते देखकर महामति प्रह्लाद 'हे कृष्ण! रक्षा करो। हे अनन्त। इन्हें बचाओ!' 

यो कहते हुए उनकी ओर दौड़े। प्रह्लादजी ने कहा- 'सर्वव्यापी, विश्वरूप, विश्वस्रष्टा जनार्दन। इन ब्राह्मणों की इस मन्त्राग्निरूप भयानक विपत्ति से रक्षा करो। यदि मैं इस सत्य को मानता हूँ कि सर्वव्यापी जगद्गुरू भगवान् सभी प्राणियों में व्याप्त हैं तो इसके प्रभाव से ये पुरोहित जीवित हो जाएँ। 

यदि मैं सर्वव्यापी और अक्षय भगवान् को आपसे बैर रखने वालों में भी देखता हूँ तो ये पुरोहितगण जीवित हो जाएँ। जो लोग मुझे मारने के लिए आये, जिन्होंने मुझे जहर दिया, आग में जलाया, बड़े-बड़े हाथियों से कुचलवाया और साँपों से हँसवाया, 

उन सबके प्रति यदि मेरे मन में एक-सा मित्रभाव सदा रहा है और मेरी कभी पाप-बुद्धि नहीं हुई है तो इस सत्य के प्रभाव से ये पुरोहित जीवित हो जाएँ। यों कहकर प्रह्लाद ने उनका स्पर्श किया और स्पर्श होते ही वे मरे हुए  पुरोहित जीवित होकर उठ बैठे और प्रह्लाद का मुक्त कण्ठ से गुणगान करने लगे।

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हिरण्यकशिपु जब स्वयं प्रह्लाद को मारने के लिए उद्यत हुआ और क्रोधावेग में उसने सामने के खंभे पर घूंसा मारा तब उसी खंभे को फाड़कर नृसिंह भगवान् प्रकट हो गये और उन्होंने हिरण्यकशिपु को पकड़कर नखो से उसका पेट फाड़ डाला। 

दैत्यराज के अनुचर प्राण लेकर भाग खड़े हुए। हिरण्यकशिपु की आँतों की माला गले में डाले, बार-बार जीभ लपलपाकर विकट गर्जना करते अंगार-नेत्र नृसिंह भगवान् बैठ गये, दैत्यराज के सिंहासन पर। 

उनका प्रचण्ड क्रोध शान्त नहीं हुआ था। शंकरजी तथा ब्रह्माजी के साथ सब देवता वहाँ पधारे। सबने अलग- अलग स्तुति की। लेकिन कोई परिणाम नहीं हुआ। ब्रह्माजी डरे कि यदि प्रभु का क्रोध शान्त न हआ तो पता नहीं क्या अनर्थ होगा। 

उन्होंने भगवती लक्ष्मी को भेजा, किन्तु श्रीलक्ष्मीजी भी वह विकराल रूप देखते ही लौट पड़ीं। उन्होंने भी कह दिया- 'इतना भयंकर रूप अपने आराध्य का मैंने कभी नहीं देखा। मैं उनके समीप नहीं जा सकती।' अन्त में ब्रह्माजी ने प्रह्लाद से कहा-'बेटा तुम्हीं समीप जाकर भगवान् को शान्त करो।' 

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प्रह्लाद को भय क्या होता है, यह तो ज्ञात ही नहीं था। वे सहज भाव से प्रभु के सम्मुख  गये और दण्डवत् प्रणिपात करके भूमि पर लोट गये।

 



भगवान् नृसिंह ने स्वयं उन्हें उठाकर गोद में बैठा लिया और वात्सल्य के मारे जिह्वा से उनका मस्तिष्क चाटने लगे। उन त्रिभुवननाथ ने कहा- 'बेटा। मुझे क्षमा कर। मेरे आने में बहुत देर हुई, इससे तुझे अत्यधिक कष्ट भोगना पड़ा।' प्रह्लाद ने गोद से उतरकर हाथ जोड़कर श्रद्धापूर्ण गद्गद्-स्वर में प्रार्थना की।



भगवान ने कहा-'प्रह्लाद! मैं प्रसन्न हूँ। तेरी जो इच्छा हो, वरदान मांग  ले।

पह्लाद बोले- 'प्रभो! आप यह क्या कह रहे हैं ? जो सेवक की आशा से स्वामी की सेवा करता है, वह तो सेवक ही नहीं है।  आप मेरे परमोदार स्वामी हैं और मैं आपका चरणाश्रित सेवक हूँ। यदि आप मुझे  कुछ  देना ही चाहते हैं तो यही वरदान दें कि मेरे मन में कभी कोई कामना हो ही नहीं । 



उन्होंने 'एवमस्तु' कहकर भी कहा-'प्रह्लाद! कुछ तो मांग ले।

प्रह्लाद ने सोचा-'प्रभु जब मुझसे बार-बार माँगने को कहते हैं तो अवश्य मेरे मन में कोई-न-कोई कामना है।' अन्त में उन्होंने प्रार्थना की ‘नाथ! मेरे पिता ने आपकी बहुत निन्दा की है और उनके सेवकों ने मुझको कष्ट दिया है। मैं चाहता हूँ कि वे इस पाप से छूटकर पवित्र हो जाएँ।' 

भगवान् नृसिंह हंस पड़े 'प्रह्लाद! तुम्हारे जैसा भक्त जिसका पुत्र हो वह तो स्वयं पवित्र हो गया। जिस कुल में तुम जैसे भक्त उत्पन्न हुए, उस कुल की तो इक्कीस पीढ़ियाँ तर गयीं।' अपने को कष्ट देने वाले की भी दुर्गति न हो, यह एक कामना थी प्रह्लाद के मन में। धन्य है यह कामना। सच्चे भगवद्भक्त मे अपने लिए कोई कामना शेष कैसे रह सकती है।

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प्रिय पाठकों !आशा करते है आपको पोस्ट पसंद आई होगी। विश्वज्ञान हमेशा ऐसी ही रियल स्टोरीज आपको मिलती रहेंगी। विश्वज्ञान में अगली पोस्ट के साथ फिर मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपना ख्याल रखे ,खुश रहे और औरों को भी खुशियां बांटते रहें। 

जय जय श्री राधे श्याम 

धन्यवाद। 



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