गोपियों का वियोग,gopiyo ka virah varnan

वृन्दावन की गोपियाँ कृष्ण के प्रति इतनी अनुरक्त थीं कि वे रात्रि के रासनृत्य मात्र से सन्तुष्ट नहीं हुईं। वे दिन में भी उनके सान्निध्य का रस लूटना चाहती थीं। जब कृष्ण अपने ग्वाल मित्रों तथा गौवों के साथ जंगल जाते, तो गोपियाँ शरीर से उनके साथ तो नहीं होती थीं, किन्तु उनके मन उन्हीं के साथ होते थे।मन के चले जाने पर वे वियोग (विरह) की प्रबल भावना से उनके संग का आनन्द ले सकती थीं.......

जय श्री राधे श्याम प्रिय पाठकों! कैसे है आप लोग,आशा करते है आप सभी सकुशल होंगे। 

दोस्तों, आज की इस पोस्ट मे हम गोपियों के वियोग ,और उनके हृदय मे श्री कृष्ण के प्रति विरह के कारण उठने वाले प्रेम के बारे मे जानेंगे। 

गोपियों का वियोग 


Gopiyon ka viyog/ separation of gopis/गोपियों का वियोग
गोपियों का वियोग (कृष्ण लीला)


गोपियों का वियोग 

वृन्दावन की गोपियाँ कृष्ण के प्रति इतनी अनुरक्त थीं कि वे रात्रि के रासनृत्य मात्र से सन्तुष्ट नहीं हुईं। वे दिन में भी उनके सान्निध्य का रस लूटना चाहती थीं। जब कृष्ण अपने ग्वाल मित्रों तथा गौवों के साथ जंगल जाते, तो गोपियाँ शरीर से उनके साथ तो नहीं होती थीं, किन्तु उनके मन उन्हीं के साथ होते थे। 

गोपियों का अद्भूत प्रेम (कृष्ण लीला)

मन के चले जाने पर वे वियोग (विरह) की प्रबल भावना से उनके संग का आनन्द ले सकती थीं। वियोग की इस प्रबल भावना को प्राप्त करना ही हम मनुष्यों का भी लक्ष्य रहा है। 

जब हम कृष्ण के शारीरिक सम्पर्क में नहीं होते उस समय हम गोपियों की भाँति वियोग की भावना द्वारा उनका सान्निध्य प्राप्त कर सकते हैं। कृष्ण का दिव्य रूप, गुण, लीलाएँ तथा उनके संगी उनसे हैं। भक्ति के नौ प्रकार हैं। वियोगावस्था में कृष्ण की भक्ति करने से भक्त उच्चतम सिद्धि के पद को, जो गोपियों का पद है, प्राप्त कर सकते हैं। इसके बारे में श्रीनिवासाचार्य जी ने स्पष्ट रूप से बताया है। 

श्रीनिवासाचार्य जी ने षडगोस्वमियो की प्रार्थना मे क्या कहा?

श्रीनिवासाचार्य द्वारा षड्गोस्वामियों (6 गोस्वामीयों )की प्रार्थना में यह कहा गया है कि उन्होंने सरकारी नौकरी के वैभव तथा जीवन के राजसी ठाठ को त्याग दिया और वृन्दावन चले गये जहाँ वे सामान्य साधुओं की भाँति द्वार-द्वार भिक्षा माँग कर रहने लगे। 

किन्तु उनमें गोपियों की वियोगावस्था का इतना प्राबल्य हुआ कि उन्हें प्रतिक्षण दिव्य आनन्द की प्राप्ति होने लगी। इसी प्रकार जब भगवान् चैतन्य जगन्नाथ पुरी में थे, तो वे राधारानी की भूमिका (राधा-भाव) सम्पन्न करते हुए कृष्ण के वियोग का अनुभव करते रहे। 

जो लोग माध्व गौड़ीय सम्प्रदाय की गुरु-परम्परा के हैं उन्हें कृष्ण के वियोग का अनुभव सदा करना चाहिए, उनके दिव्य रूप की पूजा करनी चाहिए। और उनके दिव्य उपदेशों, उनकी लीलाओं, गुणों तथा उनके पार्षदों-संगियों के विषय में बातें करनी चाहिए। 

इस से शिष्य भक्ति की पराकाष्ठा तक पहुँच जाएँगे। कृष्णभावनामृत की पूर्णता इसी में है कि भगवान् की सेवा में लगे रहकर निरन्तर वियोग का अनुभव किया जाये। 

गोपियाँ परस्पर कृष्ण के विषय में इस प्रकार चर्चा चलाती रहती थीं-एक सखी कहती, "सखियों! क्या तुम जानती हो कि जब कृष्ण भूमि पर शयन करते हैं, तो वे अपनी बाईं भुजा के बल लेटते हैं और उनका सिर उनकी बाई भुजा पर टिका रहता है। 

वे कोमल अँगुलियों से बाँसुरी बजाते समय अपनी आकर्षक भौहें मटकाते हैं और जो ध्वनि उत्पन्न होती है उस से इतना उत्तम वातावरण पैदा होता है कि उसे सुनकर स्वर्गलोक के निवासी अपनी पत्नियों तथा प्रेमिकाओं सहित आकाश मार्ग से जाते हुए अपने विमान रोक देते हैं, क्योंकि यह उन्हें स्तंभित कर देती है। 

तब विमान में बैठी देवताओं की पत्नियाँ अपने संगीत पर तथा संगीत की योग्यताओं पर लज्जित हो उठती हैं। इतना ही नहीं, वे दाम्पत्य प्रेम से पीड़ित हो उठती हैं और उनके केश तथा चुस्त वस्त्र शिथिल होने लगते हैं।" 

दूसरी गोपी बोली, "हे सखियों! कृष्णजी इतने सुन्दर हैं कि लक्ष्मीजी सदैव उनके वक्षस्थल पर निवास करती हैं और वे गले में सदैव सुनहरी माला पहने रहते हैं। सुन्दर-घनश्याम अनेक भक्तों के हृदयों को जीवित करने के लिए अपनी वंशी बजाते हैं। वे दीन-दुखियारों के एकमात्र मित्र हैं। 

जब वे बाँसुरी बजाते हैं, तो वृन्दावन की सारी गौवें तथा पशु चारा चबाना छोड़कर मुँह का तृण मुँह में ही रखे रह जाते हैं। वे कान उठाकर स्तम्भित हो उठते हैं। वे जीवित नहीं अपितु चित्र- लिखे से प्रतीत होते हैं। कृष्ण का वंशीवादन इतना मोहक है कि पशु तक मोहित हो जाते हैं, हम लोगों का तो कुछ कहना ही नहीं।”

एक अन्य गोपी कहने लगी, 'सखियों! पशुओं की बात छोड़ दें, वृन्दावन की नदियाँ तथा सरोवर जैसी जड़ वस्तुएँ भी कृष्ण को सिर पर मोर पंख लगाये और वृन्दावन-रज (गैरिक) लपेटे जाते देखकर स्तम्भित हो जाती हैं। वे अपने शरीर को पत्तियों तथा फूलों से अलंकृत किये हुए एक वीर (अभिनेता) की तरह लगते हैं। 

जब वे बाँसुरी बजाकर गौवों तथा बलराम को बुलाते हैं, तो यमुना नदी बहना बन्द कर देती है और वायुद्वारा उनके चरणकमलों की धूल ले जाने की प्रतीक्षा करती है। 

किन्तु बेचारी यमुना भी हमारी तरह अभागी है, उसे कृष्ण-कृपा प्राप्त नहीं हो पाती। नदी बेचारी स्तम्भित होकर अपनी तरंगें रोक देती है, जिस प्रकार हम निराश होकर कृष्ण के लिए विलाप करना बन्द कर देती हैं।" 

कृष्ण की अनुपस्थिति में गोपियाँ निरन्तर आँसू बहाती रहती थीं, किन्तु कभी- कभी जब उन्हें आशा बँधती कि वे आ रहे हैं, तो विलाप करना बन्द कर देतीं। किन्तु जब गोपियाँ देखतीं कि वे नहीं आ रहे तो निराश होकर पुनः रोने लगतीं । 

कृष्ण आदि भगवान् और समस्त विष्णु-रूपों के मूल है। सारे ग्वाले देवता हैं। भगवान् विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्र आदि देवताओं से सदैव पूजित हैं और-घिरे रहते हैं। 

जब श्रीकृष्ण वृन्दावन के जंगल में विचरण करते या गोवर्धन पर्वत पर जाते, तो उनके साथ-साथ ग्वाल-बाल रहते। विचरण करते हुए वे अपनी गायों को पुकारने के लिए वंशी बजाते। जंगल के सारे वृक्ष, पौधे तथा अन्य वनस्पतियाँ उनके सान्निध्य-मात्र से कृष्णभावनाभावित हो गई थीं। 

कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कृष्ण के लिए सर्वस्व त्याग देता है। यद्यपि वृक्ष तथा पौधे कृष्ण-चेतना में अत्यधिक उन्नत नहीं थे, किन्तु कृष्ण तथा उनके मित्रों की संगति से वे भी कृष्णभावनाभावित हो गए। तब वे अपना सर्वस्व-अपने फल, फूल तथा टहनियों से टपकता मधु-न्योछावर करने को तत्पर रहते थे।

जब कृष्ण यमुनातट पर विचरण करते, तो वे अपने ललाट पर तिलक लगाये रहते। वे विविध वन-फूलों की माला पहने रहते तथा उनका शरीर चन्दन तथा तुलसी दल के लेप से लिप्त रहता। वायुमण्डल की मधुर सुगन्ध के पीछे भौरें दीवाने रहते। 

वे भौरों की गुंजार से प्रसन्न होकर अपनी वंशी बजाते और उस गुंजार से मिलकर सारी ध्वनियाँ इतनी मधुर हो जातीं कि सारस, हंस, बत्तख तथा अन्य जलचर सम्मोहित हो जाते। तैरने अथवा उड़ने की बजाये वे स्तम्भित हो जाते और अपनी आँखें बन्द करके कृष्ण की पूजा में समाधिस्थ हो जाते।

एक गोपी बोली, "हे सखी! कृष्ण तथा बलराम सुन्दर कुंडलों तथा मोती की मालाओं से सुसज्जित हैं। वे गोवर्धन पर्वत की चोटी पर आनन्द ले रहे हैं। जब कृष्ण अपनी बाँसुरी बजाते हैं, तो सारी सृष्टि सम्मोहित हो जाती है और सारी वस्तुएँ दिव्य आनन्द में डूब जाती हैं। 

जब वे वंशीवादन करते हैं, तो डर के मारे बादल अपना गरजना बन्द कर देते हैं। वे वंशी की ध्वनि को विचलित न करके मन्द स्वर से मित्र कृष्ण को बधाई देते हैं।

कृष्ण को बादलों का मित्र क्यो माना जाता है?

कृष्ण को बादलों का मित्र माना जाता है क्योंकि बादल तथा कृष्ण दोनों ही मनुष्यों की विचलित अवस्था में उन्हें प्रसन्न करते हैं। जब लोग भीषण गर्मी जल से उठते हैं, तो बादल वर्षा द्वारा उन्हें प्रसन्न करता है। 

इसी तरह जब लोग भौतिक वेदनाओं की ज्वाला से संतप्त हो उठते हैं, तो कृष्णभावनामृत बादल की भाँति राहत देता हैं। कृष्ण तथा बादलों के शरीर का रंग भी एकजैसा है, इसलिए वे मित्र हैं। 

और इसीलिए बादलों ने अपने वरिष्ठ मित्र कृष्ण का सत्कार करने के लिए उनके ऊपर जल-वृष्टि ही नहीं की, अपितु उनके ऊपर फूल बरसाये और ऊपर से छाया कर दी जिससे कड़ी धूप से उनकी रक्षा हो सके।

एक गोपी ने माता यशोदा से कहा, "हे माता। आपका पुत्र ग्वाल-बालों में अत्यन्त चालाक है। वह समस्त कलाएँ जानता है कि किस तरह गाएँ चराई जाती हैं और किस तरह बाँसुरी बजाई जाती है। वह अपने गीत स्वयम् रचता है और उन्हें गाने के लिए अधरों पर वंशी धरता है। 

जब भी वह वंशी बजाता है, चाहे सुबह हो या शाम, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र तथा चन्द्र जैसे सारे देवता उसे मस्तक झुकाते हैं और बड़े ध्यान से वंशी सुनते हैं। परम विद्वान एवं चालाक होते हुए भी वे वंशी की तानों को नहीं समझ पाते। वे ध्यान से केवल सुनते हैं और समझने का यत्न करते हैं, किन्तु मोहित हो जाते हैं और समझ नहीं पाते।"

अन्य गोपी बोली, "हे सखी! जब कृष्ण अपनी गौवों समेत घर लौटते हैं, तो पृथ्वी को गौवों के चलने से जो पीड़ा होती है, वह कृष्ण के चरणचिह्नों से-जिसमें ध्वजा, वज्र, त्रिशूल तथा कमल फूल अंकित रहते हैं-दूर हो जाती है। उनके लम्बे डग अत्यधिक आकर्षक लगते हैं।

वे बाँसुरी लिये रहते हैं। हम तो उन्हें देखकर ही उनकी संगति का आनन्द लेने के लिए कामाभिभूत हो जाती हैं। उस समय हमारी गति बन्द हो जाती है। हम वृक्ष के समान जड़ बन जाती हैं। हम इतना तक भूल जाती हैं कि हमारे केश तथा वस्त्र ढीले हो रहे हैं।”

कृष्ण के पास सहस्रों (हजारों) गाएँ थीं और ये उनके रंगों के अनुसार टोलियों में बँटी थीं। रंगों के अनुसार ही उनके नाम थे। जब वे चरागाह से लौटने वाले होते, तो वे सारी गौवों के एकत्र कर लेते। 

जिस प्रकार वैष्णवजन अपनी माला पर १०८ (108)गुरियों को जपते हैं, जो १०८ गोपियों की सूचक हैं, उसी तरह कृष्ण गौवों की टोलियों का १०८ गुरियों की तरह जप करते। 

एक गोपी ने अपनी सखी से कृष्ण का इस तरह वर्णन किया, "जब कृष्ण लौटते हैं, तो तुलसी की माला पहने रहते हैं। वे अपना हाथ किसी ग्वाल-मित्र के कंधे पर रखे रहते हैं और अपनी दिव्य बाँसुरी बजाना प्रारम्भ करते हैं।

उनकी वंशी की ध्वनि वीणा की ध्वनि के समान होती है, जिसे सुनकर श्याम हिरनियाँ (कृष्णसार मृग-पत्नियाँ) सम्मोहित हो जाती हैं। ये हिरनियाँ इतनी मोहित हो जाती है कि वे कृष्ण के पास आकर शान्त खड़ी रहती हैं और वे अपने घर तथा पतियों की सुधि भूल जाती हैं। जिस प्रकार हम कृष्ण के दिव्य गुणों के सागर द्वारा मोहित हैं उसी तरह हिरनियाँ भी उनकी वंशी की ध्वनि से सम्मोहित होती हैं।"

कृष्ण कौन हैं? कृष्ण के साथ यह किशोरी कौन है?

एक अन्य गोपी माता यशोदा से बोली, "हे माता! जब आपका लाडला घर लौटता है, तो वह कुन्द कलियों की माला पहन लेता है और अपने मित्रों को प्रसन्न करने के लिए बाँसुरी बजाता है। 

दक्षिण से बहने वाली बयार सुगन्धित एवं शीतल होने के कारण वायुमण्डल को प्रमुदित करती है और गन्धर्व तथा सिद्ध जैसे छोटे देवता इस वायुमण्डल का लाभ उठाते हैं तथा अपनी दुन्दुभि तथा बिगुल बजाकर कृष्ण की स्तुति करते हैं। 

कृष्ण वृन्दावनवासियों तथा व्रजभूमि के प्रति अत्यन्त सदय हैं और जब वे अपनी गौवों तथा मित्रों समेत लौटकर आते हैं, तो वे गोवर्धनधारी के रूप में स्मरण किये जाते हैं। 

इस अवसर का लाभ उठाकर ब्रह्मा तथा शिव जैसे बड़े-बड़े देवता नीचे उतर कर सन्ध्या की प्रार्थना करते हैं और ग्वालों के साथ मिलकर कृष्ण के गुणों का इस प्रकार गान करते हैं।”

कृष्ण देवकी के गर्भ रूपी समुद्र से उत्पन्न चन्द्रमा के तुल्य हैं। जब वे सायंकाल लौटते हैं, तो वे थके प्रतीत होते हैं, किन्तु फिर भी वे अपनी शुभ उपस्थिति से वृन्दावनवासियों को प्रमुदित करने का प्रयत्न करते हैं। जब वे फूलों की माला पहने लौटते हैं, तो उनका मुख स्वर्ण कुंडलों से सजा हुआ होने के कारण सुन्दर लगता है। 

वे हाथी जैसी चाल से वृन्दावन में विचरण करते हुए अपने घर में मन्दगति से प्रविष्ट होते हैं। उनके आते ही वृन्दावन के सारे पुरुष, स्त्रियाँ तथा गौवें तुरन्त ही दिन की तेज गर्मी को भूल जाती हैं।”

कृष्ण की दिव्य लीलाओं तथा कार्यकलापों का यह वर्णन गोपियों द्वारा वृन्दावन से उनकी अनुपस्थिति में किया जाता था। इससे हमें पता चलता है कि कृष्ण कितने आकर्षक हैं-न केवल मनुष्यों, बल्कि सभी जड़-चेतन वस्तुओं के लिए। श्री वृन्दावन में हर व्यक्ति तथा हर वस्तु कृष्ण द्वारा आकर्षित होती है, 

जिसमें वृक्ष, पौधें जल और हिरण तथा गौवों जैसे पशु भी सम्मिलित हैं-कृष्ण के आकर्षण का यही पूर्ण विवरण है। जो लोग कृष्णभावनामृत में तल्लीन रहने का प्रयास करते हैं उनके लिए गोपियों का उदाहरण अत्यन्त शिक्षाप्रद है।

कोई भी व्यक्ति कृष्ण की दिव्य लीलाओं के स्मरण-मात्र से उनका सान्निध्य प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति में किसी-न-किसी से प्रेम करने की प्रवृत्ति होती है। कृष्णभावनामृत केन्द्रबिन्दु ही कृष्ण को प्रेम का लक्ष्य बनाना है। 

निरन्तर हरे कृष्ण मंत्र के कीर्तन तथा कृष्ण की दिव्य लीलाओं के स्मरण से मनुष्य पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हो सकता है और इस प्रकार वह अपने जीवन को सफल तथा भव्य बना सकता।

प्रिय पाठकों! हम.आशा करते है कि आपको पोस्ट पसंद आई होगी। vishvagyaan मे आपको ऐसी ही सत्य कथायें मिलती रहेंगी। vishvagyaan मे प्रभु श्री कृष्ण की अन्य लीलाओं के साथ फिर मुलाकात होगी। तब तक के लिए आप अपने ख्याल रखें, खुश रहें और औरों को भी खुशियाँ बांटते रहें। 

धन्यवाद,

जय जय श्री राधे श्याम 

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