कृष्ण ने वापस आकर गोपियों से कहा ?vishvagyaan


जय श्री राधे श्याम 


कृष्ण ने वापस आकर गोपियों से कहा ?

प्रिय सखियों! तुम कभी यह मत सोचना कि मैं तुम्हारे साथ सामान्य भक्तों जैसा व्यवहार करता रहा हूँ। मैं ही जानता हूँ कि तुम क्या हो। तुमने सारी सामाजिक तथा धार्मिक मर्यादाओं का त्याग किया है। तुमने माता-पिता से अपने सारे सम्बन्ध तोड़ लिये हैं। तुम सामाजिक बन्धनों तथा धार्मिक मर्यादा की परवाह न करके मेरे पास आईं और मुझसे प्रेम किया, अत: मैं तुम लोगों का अत्यन्त कृतज्ञ हूँ इसलिए मैं तुम्हें सामान्य भक्तों के रूप में नहीं मानता। तुम यह मत सोचो कि मैं तुमसे दूर था। मैं तुम्हारे पास ही था। मैं तो यही देख रहा था कि मेरी अनुपस्थिति में तुम मेरे लिए कितनी चिन्तित रहती हो। अत: कृपा करके मुझमें दोष न निकालो। चूँकि तुम लोग मुझे इतना प्रिय मानती हो, अतः यदि मैंने कोई त्रुटि की हो तो मुझे क्षमा कर दो। 

हर हर महादेव प्रिय पाठकों !
 कैसे है आप लोग, 
आशा करते है आप सभी सकुशल होंगे। 
भगवान् शिव का आशीर्वाद हमेशा आपको प्राप्त हो।  

मित्रों आज इस पोस्ट मे हम जानेंगे की गोपियों को छोडकर जाने वाले कृष्ण जब वापस लौट कर आये तो उसके बाद क्या हुआ। तो बिना देरी किये पढ़ते है आज की कहानी।

आनन्दचिन्मय-रस का क्या अर्थ है?

Krishna came back and said to the gopis/कृष्ण ने वापस आकर गोपियों से कहा ?vishvagyaan

अन्ततोगत्वा जब कृष्ण पुनः गोपियों के मध्य प्रकट हुए, तो वे अतीव सुन्दर लग रहे थे, जो समस्त ऐश्वयों से युक्त व्यक्ति के अनुकूल था। ब्रह्म-संहिता में कहा गया है-आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभि:-कृष्ण अकेले विशेष सुन्दर नहीं लगते, किन्तु जब उनकी शक्ति-विशेषतः राधारानी के रूप में उनकी ह्लादिनी शक्ति विस्तार करती है, तो वे अत्यन्त भव्य प्रतीत होते हैं। 

शक्तिरहित परम सत्य की पूर्णता की मायावादी विचारधारा अपूर्णज्ञान के कारण है। वस्तुतः अपनी विभिन्न शक्तियों के प्रदर्शन के बिना परम सत्य पूर्ण नहीं हैं। आनन्दचिन्मय-रस का अर्थ है कि उनका शरीर नित्य आनन्द तथा ज्ञान का दिव्य स्वरूप है। कृष्ण विभिन्न शक्तियों से निरन्तर घिरे रहते हैं, अतः वे पूर्ण तथा सुन्दर हैं।

Gopiyon ne krishna ke prati apne anany prem ko kaise vyakt kiya/गोपियों का अद्भूत प्रेम


हजारों गोपियों में से कौन सी गोपी सबसे सर्वोपरि (सबसे बढ़कर) है? 

हमें ब्रह्म-संहिता तथा स्कन्द पुराण से पता चलता है कि कृष्ण निरन्तर हजारों लक्ष्मियों से घिरे रहते हैं। ये गोपियाँ लक्ष्मियाँ ही हैं जिनके साथ कृष्ण यमुना के तट पर हाथ में हाथ डाल कर घूमते थे।

स्कन्द पुराण के अनुसार हजारों गोपियों में से १६,००० (16,000) गोपियाँ प्रमुख हैं। और इनमें से भी १०८ (108)गोपियाँ विशेषरूप से विख्यात हैं। इन १०८ में से भी ८ (8)अत्यधिक प्रधान हैं; इन आठ में से राधारानी तथा चन्द्रावली प्रमुख हैं और इन दो गोपियों में से राधारानी सर्वोपरि हैं। 

स्कन्द पुराण जब कृष्ण ने यमुना तट पर स्थित जंगल में प्रवेश किया, तो चाँदनी से आस पास का सारा अंधकार दूर हो गया। ऋतु के अनुकूल कुन्द तथा कदम्ब फूल खिल रहे थे और मन्द वायु उनकी सुगन्ध को फैला रही थी। 

सुगन्धि को मधु समझ कर वायु के साथ मधुमक्खियाँ भी मँडरा रही थीं। गोपियों ने नर्म बालू को बराबर किया और उसके ऊपर वस्त्र रखकर कृष्ण के बैठने के लिए गुदगुदा आसन तैयार कर दिया। वहाँ पर जितनी गोपियाँ एकत्र थीं लगभग वे सब वेदान्ती थीं। 

पूर्वजन्म में भगवान् रामचन्द्र के अवतार के समय ये वैदिक विद्वान थीं जिन्होंने माधुर्य प्रेम में भगवान् रामचन्द्र के सान्निध्य की इच्छा की थी। रामचन्द्र जी ने उन्हें वर दिया था कि वे भगवान् कृष्ण के अवतार पर वे उपस्थित होंगी और वे उनकी इच्छाओं की पूर्ति करेंगे। 

कृष्ण के अवतार के समय इन वैदिक विद्वानों ने वृन्दावन में तरुण गोपियों के रूप में जन्म लिया और अपने पूर्वजन्म की इच्छापूर्ति के लिए उन्हें कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त हुआ उनका चरम मन्तव्य प्राप्त हो चुका था ।

और वे इतनी प्रसन्न थी कि उन्हे किसी और वस्तु की इच्छा नहीं रह गई थी।इसकी पुष्टि भगवद्गीता में हुई है-यदि किसी को श्रीभगवान् प्राप्त हो जाते हैं, तो फिर उसे किसी प्रकार की इच्छा नहीं होती। 

Did Lord Krishna create Rasleela of his own free will/क्या भगवान् कृष्ण ने अपनी मर्जी से रासलीला रची ?


गोपियों ने कृष्ण के लिए कैसा आसन बिछाया?

जब गोपियों को कृष्ण की संगति प्राप्त हो गई, तो उनके सारे दुख तो दूर हुए ही, साथ ही कृष्ण के अभाव में जितना विलाप था उससे भी मुक्ति मिल गई। उन्हें लगा कि उन्हें किसी प्रकार की इच्छा नहीं है। कृष्ण की संगति से परम तुष्ट होकर उन्होंने भूमि पर अपने वस्त्र फैला दिये। ये वस्त्र रेशमी थे और उनके वक्षस्थलों पर लेपित लाल कुंकुम से सने थे। 

उन्होंने बड़ी सावधानी से कृष्ण के लिए आसन बिछाया। कृष्ण तो उनके जीवन-धन थे, अतः उन्होंने उनके लिए अत्यन्त सुखदायक आसन बनाया। गोपियों के बीच इस आसन पर बैठे कृष्ण और अधिक सुन्दर लगने लगे। 

यद्यपि शिव, ब्रह्मा, यहाँ तक कि शेष तथा अन्य बड़े-बड़े योगी अपने अन्तःकरण में कृष्ण का ध्यान धरते हैं, किन्तु यहाँ पर गोपियाँ साक्षात् कृष्ण को अपने समक्ष अपने वस्त्रों पर आसीन देख रही थीं। 

गोपी-समाज में कृष्ण अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे। गोपियाँ तीनों लोकों की सर्वाधिक सुन्दर रमणियाँ थीं और वे कृष्ण के चारों ओर समवेत थीं। कृष्ण प्रत्येक गोपी के पास बैठे थे। यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि ऐसा उन्होंने कैसे किया। इस श्लोक में एक महत्त्वपूर्ण शब्द है-ईश्वर। 

जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है-ईश्वरः सर्वभूतानाम् ।ईश्वर जन-जन के हृदय में स्थित परमात्मा का सूचक है। कृष्ण ने भी गोपियों की इस मंडली में परमात्मा रूप में अपनी इस विस्तार-शक्ति का प्रदर्शन किया। 

कृष्ण प्रत्येक गोपी के निकट आसीन थे, किन्तु दूसरी गोपियों से अलक्षित थे। कहने का तात्पर्य है कि कृृष्ण तो सभी गोपियों के साथ थे,पर किसी गोपी को ये नही पता था कि वो दुसरी गोपियों के साथ भी हैं।


Krishna came back and said to the gopis/कृष्ण ने वापस आकर गोपियों से कहा ?


कृष्ण गोपियों पर इतने दयालु थे कि उनके हृदयों में विराजमान होकर योगध्यान में अवगम्य होने के बजाय वे गोपियों के निकट आसीन हो गए। अपने आपको बाहर आसीन करके उन्होंने गोपियों पर विशेष कृपा की, क्योंकि वे सारी सृष्टि की चुनी हुई सुन्दरियाँ थीं। 

अपने प्राणप्यारे को पाकर गोपियाँ अपनी भौहें मटका कर उन्हें प्रसन्न करने लगीं और अपना क्रोध छिपाकर हँसने लगीं। कुछ गोपियाँ उनके चरणकमलों को अपनी गोद में लेकर सहलाने लगीं और हँस-हँस कर अपना गौण क्रोध इस प्रकार प्रकट करने लगीं. 

जब कृष्ण वापस लौटे तो गोपियों ने क्या प्रश्न किया ? 

"हे कृष्ण! हम वृन्दावन की सामान्य स्त्रियाँ हैं और वैदिक ज्ञान: में अधिक नहीं जानतीं कि क्या सही है और क्या गलत। अतः हम आपसे प्रश्न कर रही हैं और आप परम विद्वान हैं, अतः आप सही-सही उत्तर दे सकते हैं। हम देखती हैं कि प्रेमी पुरुषों की तीन श्रेणियाँ हैं। 

एक श्रेणी तो केवल प्रेम ग्रहण करती है, दूसरी अनुकूल होकर प्रतिदान करती है, भले ही प्रेमिका विपरीत हो और तीसरी न तो अनुकूल होती है न ही प्रतिकूल। अतः आप इन तीनों में से किसे पसन्द करते हैं या किसे प्रामाणिक मानते हैं?" 

प्रभु श्री कृष्ण द्वारा बताई गई प्रेम की तीन श्रेणियां 

प्रत्युत्तर में कृष्ण ने कहा, "सखियों! जो लोग प्रेम व्यापार में केवल प्रतिदान करना जानते हैं, वे व्यापारी तुल्य हैं। वे उतना ही देना जानते हैं जितना उन्हें प्राप्त होता है। अतः यहाँ पर प्रेम का प्रश्न ही नहीं उठता। यह तो मात्र स्वार्थपूर्ण अथवा स्वकेन्द्रित व्यापार है। 

भले ही किसी में रंचभर भी प्रेम न हो, वह इन व्यापारियों से श्रेष्ठ है। दूसरी श्रेणी के लोग पहली श्रेणी से श्रेष्ठ हैं, जो दूसरे पक्ष से विरोध पाने पर भी प्रेम करते हैं। जब माता-पिता अपनी सन्तानों को उनकी उपेक्षा के बावजूद प्रेम करते हैं, तो वह एकनिष्ठ प्रेम है। तीसरी श्रेणी के लोग न तो प्रतिदान करते हैं, न उपेक्षा। 

इनकी दो उपश्रेणियाँ हैं। एक आत्मतुष्ट रहती है, जिसे किसी के प्रेम की आवश्यकता नहीं है; ये लोग आत्माराम कहलाते हैं अर्थात् वे भगवान् के विचारों में ही लीन रहते हैं, अतः उन्हें इसकी परवाह नहीं रहती कि कोई उन्हें प्रेम करता है अथवा नहीं। 

किन्तु दूसरी उपश्रेणी कृतघ्नों की है। ये लोग अपने गुरुजनों के प्रति विद्रोह करते हैं। उदाहरणार्थ, एक पुत्र अपने प्रिय माता-पिता से सारी वस्तुएँ प्राप्त करके भी कृतघ्न होकर प्रतिदान नहीं करता। इस श्रेणी के लोग सामान्यतः गुरुद्रुह कहलाते हैं जिसका अर्थ है कि वे अपने माता-पिता अथवा गुरु की कृपा प्राप्त करके भी उनकी उपेक्षा करते हैं।"

इस प्रकार कृष्ण ने गोपियों के उन प्रश्नों का भी उत्तर दे दिया, जो अप्रत्यक्ष रूप में उनसे सम्बन्धित थे कि उन्होंने गोपियों के व्यवहार को ठीक से नहीं समझा। उत्तर में कृष्ण ने कहा कि भगवान् रूप में वे आत्मतुष्ट (आत्माराम) हैं। 

उन्हें किसी के प्रेम की आवश्यकता नहीं है, किन्तु साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि वे कृतघ्न नहीं हैं। कृष्ण ने आगे कहा, "सखियों! कदाचित् मेरे शब्दों तथा कार्यों से तुम्हें पीड़ा पहुँची हो, किन्तु तुम्हे ज्ञात हो कि कभी-कभी मैं अपने प्रति भक्तों द्वारा किये गये कार्यों का प्रत्युत्तर नहीं देता। 

मेरे भक्त मुझ पर अत्यधिक आसक्त हैं, किन्तु कभी-कभी मैं ठीक से उनके भावों का प्रत्युत्तर नहीं देता जिससे मेरे प्रति उनका प्रेम और बड़े। यदि में सरलता से उपलब्ध हो जाऊँ, तो वे सोच सकते हैं कि कृष्ण इतने सर्वसुलभ है। अतः मैं कभी-कभीप्रत्युत्तर नहीं देता। 

यदि किसी पुरुष के पास धन न हो, किन्तु कुछ काल बाद यदि वह कुछ सम्पत्ति संचित कर ले और तब यह सम्पत्ति नष्ट हो जाये तो वह इस नष्ट हुई सम्पत्ति का चिन्तन चौबीसों घंटे करेगा। 

इसी प्रकार अपने भक्तों के प्रेम को बढ़ाने के उद्देश्य से कभी-कभी मैं उनसे ओझल हुआ प्रतीत होता हूँ और वे मुझे भुलाने के बजाय मेरे प्रति अपनी प्रेमानुभूति बढ़ी हुई अनुभव करते हैं।

I wish we were also flutes / The pure love of the gopis/काश हम भी बांसुरी होती/गोपियों का निर्मल प्रेम

कृष्ण ने वापस आकर गोपियों से कहा ?

Krishna came back and said to the gopis/कृष्ण ने वापस आकर गोपियों से कहा ?

प्रिय सखियों! तुम कभी यह मत सोचना कि मैं तुम्हारे साथ सामान्य भक्तों जैसा व्यवहार करता रहा हूँ। मैं ही जानता हूँ कि तुम क्या हो। तुमने सारी सामाजिक तथा धार्मिक मर्यादाओं का त्याग किया है। तुमने माता-पिता से अपने सारे सम्बन्ध तोड़ लिये हैं। तुम सामाजिक बन्धनों तथा धार्मिक मर्यादा की परवाह न करके मेरे पास आईं और मुझसे प्रेम किया, अत: मैं तुम लोगों का अत्यन्त कृतज्ञ हूँ इसलिए मैं तुम्हें सामान्य भक्तों के रूप में नहीं मानता। 

तुम यह मत सोचो कि मैं तुमसे दूर था। मैं तुम्हारे पास ही था। मैं तो यही देख रहा था कि मेरी अनुपस्थिति में तुम मेरे लिए कितनी चिन्तित रहती हो। अत: कृपा करके मुझमें दोष न निकालो। चूँकि तुम लोग मुझे इतना प्रिय मानती हो, अतः यदि मैंने कोई त्रुटि की हो तो मुझे क्षमा कर दो। 

मैं तुम्हारे अविरत प्रेम से उऋण नहीं हो सकता, चाहे मेरी जीवन अवधि स्वर्ग के देवताओं जितनी ही क्यों न हो। तुम्हारे ऋण से उऋण होना या तुम्हारे प्रेम के प्रति कृतज्ञता प्रकट कर पाना असम्भव है, अतः तुम लोग अपने पुण्यकार्यों से संतुष्ट होओ। 

तुम लोगों ने मेरे प्रति आदर्श अनुराग का प्रदर्शन किया है और पारिवारिक सम्बन्धों से उत्पन्न सारी कठिनाइयों को पार किया है। कृपया अपने उच्च आदर्श चरित्र से प्रसन्न होओ क्योंकि तुम्हारे ऋण को चुका पाना मेरे लिए सम्भव नहीं है।" 

वृन्दावन के भक्तों द्वारा प्रकट यह आदर्श भक्तिभाव भक्ति का विशुद्धतम रूप है। प्रामाणिक शास्त्रों का आदेश है कि भक्ति को अहैतुक तथा अप्रतिहत होना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि कृष्णभक्ति को किसी राजनीतिक या धार्मिक मर्यादा से नहीं आंका जा सकता। भक्ति सदा दिव्य होती है। 

गोपियों ने कृष्ण के प्रति विशेष रूप से शुद्ध भक्ति प्रदर्शित की यहाँ तक कि कृष्ण स्वयं उनके ऋणी बने रहे। अत: भगवान् चैतन्य ने कहा है कि वृन्दावन में गोपियों द्वारा प्रदर्शित भक्ति भगवान् तक पहुँचने की अन्य समस्त विधियों को लाँघ गई थी। 

प्रिय पाठकों !आशा करते है आपको पोस्ट पसंद आई होगी। विश्वज्ञान हमेशा ऐसी ही रियल स्टोरीज आपको मिलती रहेंगी। विश्वज्ञान में प्रभु श्री कृष्ण की अन्य लीलाओं के साथ फिर मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपना ख्याल रखे ,खुश रहे और औरों को भी खुशियां बांटते रहें। 

जय जय श्री राधे श्याम 

धन्यवाद। 

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