विद्याधर कौन था/विद्याधर को मोक्ष कैसे मिला(कृष्ण लीला)


विद्याधर एक बहुत ही सुन्दर देवता था। 

विद्याधर स्वयं बतलाता है कि यद्यपि वह देवता था. किन्तु उसे सर्प बनना पड़ा। किन्तु जब कृष्ण ने अपने चरणकमलों से उसका पर्श कर दिया, तो वह तुरन्त कृष्णभावनामृत को प्राप्त हो गया। किन्तु उसने यह स्त्रोकार किया कि पूर्वजन्म में वह सचमुच पापी था। 


कृष्णभावना-भावित पुरुष जानता है। कि वह कृष्ण का दासानुदास है; वह अत्यन्त तुच्छ है और जो कुछ भी सद्कार्य वह करता है, वह सब कृष्ण तथा गुरु की कृपा के कारण होता है।

 

वह देव विद्याधर श्रीकृष्ण से बातें करता रहा, "चूँकि मैं अपने शरीर की अपूर्व सुन्दरता से गर्वित था, अत: मैंने ऋषि अंगिरा के कुरूप स्वरूप का उपहास किया। उन्होंने मेरे पाप के लिए शाप दे दिया और में सर्प बन गया।

 

अब में सोचता कि उस ऋषि का शाप शाप नहीं, अपितु मेरे लिए महान् वरदान था। यदि उन्होंने शाप न दिया होता, तो मुझे सर्प का शरीर न धारण करना पड़ता और आपके चरणकमलों की ठोकर न खाई होती और इस प्रकार सारे भौतिक कल्मष से मुक्त न हो पाता।" 

जय श्री राधे श्याम 

हर हर महादेव प्रिय पाठकों ! 
कैसे है आप लोग, 
आशा करते है आप सभी सकुशल होंगे। 
भगवान् शिव का आशीर्वाद हमेशा आपको प्राप्त हो।  


इस पोस्ट मे आप पायेंगे_

विद्याधर कौन था?

विद्याधर को शाप किस ऋषि ने दिया?

नंदबाबा व ग्वालों का अम्बिकावन क्यो गये? 

अम्बिकावन कहाँ पर हैं?

ब्राह्मण तथा सन्यासी को ही दान क्यो दिया जाता है?

विद्याधर ने नंदबाबा को क्यो निगला?

देवता होने के बावजूद भी विद्याधर को सांप का जीवन क्यो बिताना पड़ा।

विद्याधर को मोक्ष कैसे मिला ?

इस संसार में कौन सी चार चीजें अत्यन्त मूल्यवान हैं। 

किन लोगो को साँप की योनि मिलती है ?

पादस्पर्श का अर्थ क्या है ?

शंखचूड़ को शंखचूड़ नाम से क्यों जाना जाता है 

कृष्ण ने शंखचूड़ के सिर पर ही क्यो मारा?

विद्याधर कौन था?

विद्याधर कौन था?

विद्याधर एक बहुत ही सुन्दर देवता था। 

विद्याधर को शाप किस ऋषि ने दिया?

विद्याधर को शाप अंगिरा ऋषि ने दिया।

नंदबाबा व ग्वाल अम्बिकावन क्यो गये?

एक बार नन्द आदि ग्वालों ने शिवरात्रि मनाने के लिए अम्बिकावन जाने की इच्छा प्रकट की। रासलीला शरदऋतु में सम्पन्न हुई थी और उसके बाद दूसरा बड़ा उत्सव होली या दोलयात्रा होता है। 

दोलयात्रा तथा रासलीला के मध्य एक महत्त्वपूर्ण उत्सव मनाया जाता है, जिसे शिवरात्रि कहते हैं, जो शिवजी के भक्तों या शैवों द्वारा सम्पन्न की जाती है। 

किन्तु कभी-कभी वैष्णव भी इस उत्सव को मनाते हैं, क्योंकि वे शिवजी को परम वैष्णव मानते हैं। किन्तु शिव भक्तों या कृष्ण के भक्तों द्वारा शिवरात्रि का यह समारोह नियमित रूप से नहीं मनाया जाता। 

ऐसी परिस्थिति में श्रीमद्भागवत में बताया गया है कि नन्द महाराज समेत ग्वालों ने "एक बार अम्बिकावन जाने की  इच्छा की।” इसका यही अर्थ होता है कि वे शिवरात्रि उत्सव को नियमित रूप से नहीं मनाते थे, किन्तु एक बार वे उत्सुकतावश अम्बिकावन जाने के इच्छुक हुए।

अम्बिकावन कहाँ पर हैं?

अम्बिकावन गुजरात प्रदेश में  है। कहा जाता है कि यह सरस्वती नदी के तट पर स्थित है, किन्तु गुजरात प्रदेश में सरस्वती नाम की कोई नदी नहीं है, वहाँ की एकमात्र नदी साबरमती है। 

भारत के सारे महान् तीर्थस्थान गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, गोदावरी, कावेरी आदि उत्तम नदियों के तट पर स्थित हैं। अम्बिकावन सरस्वती नदी के तट पर स्थित था और सारे ग्वाले तथा नन्द महाराज वहाँ गये। 

उन्होंने शिवजी तथा अम्बिका की मूर्तियों की पूजा अत्यन्त भक्तिभाव से प्रारम्भ कर दी। यह सामान्य प्रथा है कि जहाँ कहीं-भी शिवजी का मन्दिर होता है, वहीं अम्बिका (दुर्गा) का भी मन्दिर होता है क्योंकि अम्बिका शिवजी की पत्नी हैं और स्त्रियों में परम पतिव्रता हैं। वे अपने पति के संग से पृथक् नहीं रहतीं।

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ब्राह्मण तथा सन्यासी को ही दान क्यो दिया जाता है?

अम्बिकावन पहुँचकर वृन्दावन के ग्वालों ने सर्वप्रथम सरस्वती नदी में स्नान किया। यदि कोई किसी तीर्थस्थान पर जाता है, तो उसका पहला कर्तव्य है कि वह स्नान करे और कभी-कभी लोग अपना सिर भी मुँड़ाते हैं। यह पहला कार्य होता है। स्नान के बाद लोगों ने श्रीविग्रहों की पूजा की और पवित्र स्थानों में दान दिया। 

वैदिक प्रथा के अनुसार, दान ब्राह्मणों को दिया जाता है। वैदिक शास्त्रों में कहा गया है कि केवल ब्राह्मण तथा संन्यासी ही दान ग्रहण कर सकते हैं। वृन्दावन के ग्वालों ने ब्राह्मणों को स्वर्णाभूषणों तथा सुन्दर हारों से सज्जित गौवें दान कीं। 

ब्राह्मणों को दान इसलिए दिया जाता है, क्योंकि वे कोई व्यापार नहीं करते। उनसे आशा की जाती है कि वे भगवद्गीता में वर्णित ब्राह्मण-कर्मों में लगे रहें। 

उन्हें अत्यन्त विद्वान होना चाहिए और तपस्या करनी चाहिए। उन्हें न केवल स्वयं विद्वान होना चाहिए अपितु अन्यों को भी शिक्षा देनी चाहिए। ब्राह्मणों को केवल ब्राह्मण ही नहीं होना चाहिए, उन्हें अन्य ब्राह्मण भी उत्पन्न करने चाहिए। 

यदि कोई व्यक्ति किसी ब्राह्मण का शिष्यत्व स्वीकार करने पर राज़ी हो जाता है, तो उसे भी ब्राह्मण बनने का अवसर प्रदान किया जाता है। ब्राह्मण सदा ही भगवान् विष्णु की पूजा करने में लगा रहता है। 

अतः ब्राह्मण हर प्रकार के दान स्वीकार करने में योग्य माने जाते हैं। किन्तु यदि ब्राह्मणों को अधिक दान प्राप्त होता है, तो उन्हें इसे विष्णु के सेवार्थ वितरित कर देना होता है। अतः वैदिक शास्त्रों में ब्राह्मणों को दान देने की संस्तुति है क्योंकि ऐसा करने से भगवान् विष्णु तथा सारे देवता प्रसन्न होते हैं। 

विद्याधर ने नंदबाबा को क्यो निगला?

सारे यात्री स्नान करते हैं, श्रीविग्रह को पूजते हैं और दान देते हैं। उन्हें कम से कम एक दिन उपवास करना होता है। उन्हें चाहिए कि वे तीर्थयात्रा के स्थल पर जाये और वहाँ पर कम से कम तीन दिन तक रुकें। पहला दिन उपवास रखने में बीत जाता है और रात में थोड़ा-सा जल पिया जाता है, क्योंकि जल से व्रत भंग नहीं होता। 

नन्द महाराज समेत सारे ग्वालों ने सरस्वती के तट पर ही रात बिताई। उन्होंने दिन भर उपवास रखा और रात्रि में थोड़ा-सा जल पिया। किन्तु जब वे विश्राम कर रहे थे, तो पास के जंगल से एक विशाल सर्प निकल कर उनके समक्ष प्रकट हुआ और भूख के मारे नन्द महाराज को निगलने लगा। नन्द असहाय होकर चिल्लाने लगे, “बेटे कृष्ण! आओ और इस संकट से मुझे उबारो। यह सर्प मुझे निगलने जा रहा है।” 

जब नन्द ने टेर लगाई, तो सारे ग्वाले जग गये और उन्होंने सारी घटना देखी। उन्होंने तुरन्त जलते लठ्ठे उठा लिये और वे उन्हीं से सर्प को मारने लगे, किन्तु तब भी सर्प नन्द महाराज को निगलना नहीं छोड़ रहा था। 

उस समय कृष्ण उस स्थान पर प्रकट हुए और सर्प को अपने चरणकमलों से छुआ। पाँव का स्पर्श पाते ही उसने अपना रेंगता हुआ शरीर त्याग दिया और एक सुन्दर देवता के रूप में प्रकट हुआ जिसका नाम विद्याधर था। 

उसका शरीर इतना सुन्दर था कि वह पूजा-योग्य लगता था। उसके शरीर से कान्ति तथा तेज फूट रहा था और वह सोने का हार पहने था। उसने कृष्ण की नमस्कार किया। और अत्यन्त विनीत भाव से उनके समक्ष खड़ा हो गया। 

तब कृष्ण ने उस देव से पूछा, "तुम अत्यन्त सुन्दर देव प्रतीत होते हो जिस पर लक्ष्मी जी की कृपा है। तुमने ऐसा कौनसा घृणित कार्य किया कि तुम्हें सर्प का शरीर मिला? तब इस देव ने अपने पूर्वजन्म की कथा कहनी प्रारम्भ की,

देवता होने के बावजूद भी विद्याधर को सांप का जीवन क्यो बिताना पड़ा।

"हे भगवान्! अपने पूर्वजन्म में मेरा नाम विद्याधर था और मैं सारे संसार में अपनी सुन्दरता के लिए विख्यात था। विख्यात व्यक्ति होने के कारण मैं अपने विमान में सर्वत्र विचरण करता रहता था। विचरण करते हुए मुझे अंगिरा नामक ऋषि दिखे। 

वे अत्यन्त कुरूप थे और चूँकि मुझे अपनी सुन्दरता का गर्व था, अतः मैंने उनका उपहास किया। इसी पापकर्म के कारण ऋषि ने मुझे सर्प बनने का शाप दे डाला।' 

यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि कृष्ण की कृपा के पहले मनुष्य सदैव प्रकृति के गुणों के अधीन रहता है, चाहे वह भौतिक दृष्टि से कितना ही ऊजत क्यों न हो। 

विद्याधर भौतिक दृष्टि से ऊन्नत देवता था और वह अत्यन्त सुन्दर था। उसको अच्छा भौतिक पद प्राप्त था और वह विमान से सर्वत्र विचरण कर सकता था। फिर भी उसे अगले जन्म में सर्प बनने का शाप मिला। 

विद्याधर को मोक्ष कैसे मिला ?

कोई भी भौतिक दृष्टि से ऊनत व्यक्ति, यदि वह सावधानी नहीं बरतता, घृणित निम्न योनि में जाने के लिए शापित हो सकता है। लोगों की यह भ्रान्त धारणा है कि एक बार मनुष्य देह प्राप्त करके कोई नीचे नहीं गिरता। 

विद्याधर स्वयं बतलाता है कि यद्यपि वह देवता था. किन्तु उसे सर्प बनना पड़ा। किन्तु जब कृष्ण ने अपने चरणकमलों से उसका स्पर्श कर दिया, तो वह तुरन्त कृष्णभावनामृत को प्राप्त हो गया। किन्तु उसने यह स्त्रोकार किया कि पूर्वजन्म में वह सचमुच पापी था। 

कृष्णभावना-भावित पुरुष जानता है। कि वह कृष्ण का दासानुदास है; वह अत्यन्त तुच्छ है और जो कुछ भी सद्कार्य वह करता है, वह सब कृष्ण तथा गुरु की कृपा के कारण होता है। वह देव विद्याधर श्रीकृष्ण से बातें करता रहा, "चूँकि मैं अपने शरीर की अपूर्व सुन्दरता से गर्वित था, अत: मैंने ऋषि अंगिरा के कुरूप स्वरूप का उपहास किया। 

उन्होंने मेरे पाप के लिए शाप दे दिया और में सर्प बन गया। अब में सोचता कि उस ऋषि का शाप शाप नहीं, अपितु मेरे लिए महान् वरदान था। यदि उन्होंने शाप न दिया होता, तो मुझे सर्प का शरीर न धारण करना पड़ता और आपके चरणकमलों की ठोकर न खाई होती और इस प्रकार सारे भौतिक कल्मष से मुक्त न हो पाता।" 

इस संसार में कौन सी चार चीजें अत्यन्त मूल्यवान हैं। 

इस संसार में चार चीजें अत्यन्त मूल्यवान हैं-उत्तम कुल में जन्म लेना, घनी होना, विद्वान होना तथा सुन्दर होना। ये सब भौतिक सम्पदा समझे जाते हैं। दुर्भाग्यवश, विद्याधर देवता होते हुए भी और सुन्दर शरीर वाला होकर भी गर्व के कारण सर्प का शरीर प्राप्त करने के शाप से शापित हुआ। 

किन लोगो को साँप की योनि मिलती है ?

अत: इस घटना से हमें यह शिक्षा मिल सकती हैं कि जिन लोगों को अपनी भौतिक सम्पदा का अत्यन्त गर्व होता है, और जो दूसरों के प्रति शत्रु-भाव रखते हैं, उन्हें सर्प का शरीर मिलता है। 

सर्प सर्वाधिक क्रूर तथा ईष्यालु जीव माना जाता है, किन्तु जो लोग मनुष्य होकर अन्यों से ईर्ष्या करते हैं, वे सर्पों से भी अधिक दोषी समझे जाते हैं। 

सर्प को मंत्रों तथा ओषधियों के बल पर दमित या नियंत्रित किया जा सकता है, किन्तु जो ईर्ष्यालु है, उसे कोई भी वश में नहीं ला सकता। shri krishna ne aisa kiya /Why blame Shri Krishna/श्री कृष्ण पर आरोप क्यों क्यों ?

विद्याधर ने आगे कहा, "हे प्रभु! अब मैं सोचता हूँ कि समस्त पापकर्मों से मुक्त होकर अपने घर स्वर्ग वापस जाने के लिए आपकी अनुमति प्राप्त कर लूँ।' 

यह प्रार्थना सूचित करती है कि जो लोग सकाम कर्मों  में अनुरक्त हैं और उच्च लोकों में जाकर सुख भोगना चाहते हैं, वे श्रीभगवान् की स्वीकृति के बिना जीवन लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकते। 

भगवद्गीता में यह भी कहा गया है कि अल्पज्ञ लोग भौतिक लाभ की कामना करते रहते हैं, फलतः तरह-तरह के देवताओं को पूजते हैं, किन्तु वास्तव में वे भगवान् विष्णु या कृष्ण की अनुमति से ही देवताओं से वरदान प्राप्त करते हैं। देवताओं में किसी प्रकार का लाभ या वरदान देने की शक्ति नहीं होती। 

यदि किसी को भौतिक वर माँगने ही हैं, तो वह भगवान् कृष्ण की पूजा करके उनसे माँग सकता है। कृष्ण भौतिक वरदान देने में भी सक्षम हैं। किन्तु एक देवता से भौतिक वरदान की याचना करने तथा कृष्ण से याचना करने में अन्तर है।

ध्रुव महाराज ने भौतिक वरदान के लिए भगवान् की पूजा की थी, किन्तु जब उन्हें वास्तव में भगवान् की कृपा प्राप्त हुई और उनके दर्शन हुए, तो वे इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने कोई भी भौतिक वरदान लेना अस्वीकार कर दिया। 

बुद्धिमान व्यक्ति कभी-भी न तो देवताओं की कृपा की आकांक्षा करता है, न उन्हें पूजता है। वह सीधे कृष्णभावनाभावित बन जाता है और यदि उसके मन में किसी भौतिक लाभ की कामना होती भी है, तो वह देवताओं से न माँग कर कृष्ण से माँगता है। 

पादस्पर्श का अर्थ क्या है ?

विद्याधर, जो स्वर्ग वापस जाने के लिए कृष्ण की अनुमति की प्रतीक्षा कर रहा था, बोला, "आपके पादस्पर्श यानी पैरों के छुने से मैं सभी प्रकार की भौतिक पीड़ाओं से मुक्त हो  गया हूँ। आप योगेश्वर हैं। आप आदि श्रीभगवान् है। आप समस्त भक्तों  के स्वामी है। आप मुझे पूर्णतः शरणागत बना लें। 

मैं भली-भाँति जानता हूँ कि जो आपके पवित्र नाम का  जप करता है, वह समस्त पापों के फलों से मुक्त हो जाता है और जिन लोगों की साक्षात् आपका चरणस्पर्श प्राप्त हो वे तो निश्चित रूप से मुक्त हो जाते हैं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि आपके दर्शन से तथा चरणस्पर्श से में ब्राह्मण-शाप से मुक्त हूँ।" 

इस प्रकार विद्याधर को कृष्ण से अपने घर स्वर्गलोक जाने की अनुमति प्राप्त हो गई। इस अनुमति को प्राप्त करने के बाद उसने भगवान् की परिक्रमा की और प्रणाम करके वह अपने स्वर्गधाम को चला गया। 

इस प्रकार नन्द महाराज भी सर्प के द्वारा निगले जाने से बच गये। सारे ग्वाले शिव तथा अम्बिका का पूजन करने के पश्चात् वृन्दावन लौटने की तैयारी करने लगे। लौटते समय उन्हें कृष्ण के अद्भुत कार्यकलाप याद आते रहे। 

विद्याधर की मुक्ति का बखान करने से वे कृष्ण के प्रति और अधिक आसक्त हो गए। वे तो शिव तथा अम्बिका पूजन के लिए आये थे, किन्तु कृष्ण के प्रति अधिकाधिक अनुरक्त हो गए। 

इसी प्रकार गोपियाँ भी कात्यायनी का पूजन करके कृष्ण के प्रति अधिकाधिक अनुरक्त हुई थीं। Gopiyon ne krishna ke prati apne anany prem ko kaise vyakt kiya/गोपियों का अद्भूत प्रेम

भगवद्गीता में कहा गया है कि जो लोग ब्रह्मा, शिव, इन्द्र तथा चन्द्र जैसे देवताओं की पूजा किसी स्वार्थ से करते हैं। वे अल्पज्ञ हैं और वे जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूल गये हैं। किन्तु वृन्दावन के ग्वाले सामान्य व्यक्ति न थे। 

उन्होंने जो कुछ किया कृष्ण के लिए किया। यदि कोई ब्रह्मा तथा शिव की पूजा कृष्ण के प्रति अनुराग बढ़ाने के लिए करता है, जो वह मान्य है। किन्तु यदि कोई निजी लाभ के लिए देवताओं के पास जाता है, तो वह निन्दनीय है। 

इस घटना के पश्चात् एक सुहानी रात में कृष्ण तथा उनके अग्रज बलराम जो अकथनीय रूप से शक्तिशाली हैं, दोनों ही वृन्दावन के जंगल में गये। उनके साथ ब्रजांगनाएँ (गोपियाँ )भी थीं और वहाँ वे परस्पर मंगल मनाने लगे। 

व्रजांगनाएँ सुन्दर आभूषणों से आभूषित थी, वे चन्दन का लेप किये थीं और फूलों से सजी थीं। आकाश में चन्द्रमा चमक रहा था और उसके चारों ओर तारे टिमाटिमा रहे थे। मन्द वायु बह रही थी जिसमें मल्लिका पुष्पों की सुंगध मिश्रित थी और भोरे इस गन्ध के पीछे पागल हो रहे थे। 

इस मनोहर वातावरण में कृष्ण तथा बलराम दोनों मधुर स्वर में विद्याधर मोक्ष तथा शंखचूड़ वध गाने लगे। बालाएँ उनकी स्वर-लहरी में ऐसी लीन हुईं कि वे अपनी सुधि-बुधि खो बैठीं, उनके केश खुल गये, वस्त्र शिथिल पड़ गये और उनकी मालाएँ पृथ्वी पर गिरने लगीं। 

शंखचूड़ को शंखचूड़ नाम से क्यों जाना जाता है 

जब वे इस प्रकार तल्लीन थीं और प्राय: मदमत्त थीं, तो कुबेर का एक असुर पार्षद वहाँ प्रकट हुआ। इस असुर का नाम शंखचूड़ था, क्योंकि शंखचूड़ के मस्तक पर शंख की आकृति की एक मणि थी। 

जिस प्रकार कुबेर के दो पुत्रों ने अपने ऐश्वर्य के मद में नारद की परवाह नहीं की थी, उसी प्रकार शंखचूड़ अपने ऐश्वर्य से इतराया हुआ था। उसने सोचा कि कृष्ण तथा बलराम सामान्य ग्वाले हैं, जो अनेक सुन्दर लड़कियों के साथ आनन्द मना रहे हैं। 

सामान्यतया भौतिक जगत में घनवान व्यक्ति सोचता है कि सुन्दर स्त्रियों का भोग उसे ही करना चाहिए। शंखचूड भी यही सोच रहा था, क्योंकि वह कुबेर के धनाढ्य परिवार का था, अत: कृष्ण तथा बलराम को नहीं, अपितु उसे ही इतनी सुन्दर बालाओं का आनन्द लूटना चाहिए। अतः उसने उन आक्रमण करने का निश्चय किया।

वह कृष्ण, बलराम  और व्रजांगनाओं के सामने  प्रकट हुआ और उन सुन्दर लड़कियों को उत्तर की ओर ले चला। कृष्ण तथा बलराम के होते हुए वह उन पर इस प्रकार रोब जमा रहा था मानो वह उनका स्वामी तथा पति हो। शंखचूड़ द्वारा इस प्रकार अपहरण की जा रहीं व्रजबालाएँ रक्षा के लिए कृष्ण तथा बलराम का नाम ले-लेकर पुकारने लगीं। 

दोनों भाई अपने हाथ में सार की लट्ठ लेकर उसका पीछा करने लगे। वे गोपियों से कहते जा रहे थे, "डरना नहीं। हम इस असुर को दण्ड देने के लिए तुरन्त आ रहे हैं।" और वे उनके पास पहुँच गये।Krishna came back and said to the gopis/कृष्ण ने वापस आकर गोपियों से कहा ?vishvagyaan

कृष्ण ने शंखचूड़ के सिर पर ही क्यो मारा?

जब शंखचूड़ ने सोचा कि ये दोनों भाई अत्यन्त बलवान् हैं, तो वह डर के मारे गोपियों को छोड़कर और अपनी जान बचाकर भागा। किन्तु कृष्ण ने उसे जाने नहीं दिया। उन्होंने बलराम को गोपियाँ सौंप दीं और स्वयं जहाँ-जहाँ शंखचूड़ भागा उसका पीछा करते रहे। 

कृष्ण जी उसके सिर के शंख सदृश मणि को लेना चाह रहे थे। थोड़ी दूरी तक पीछा करने के बाद उन्होंने उसे पकड़ लिया और अपनी मुट्ठी से उसके सिर पर प्रहार करके उसे मार डाला। फिर उन्होंने वह मणि ले ली और वापस चले गये। उन्होंने समस्त व्रजांगनाओं की उपस्थिति में वह मणि अपने भाई बलराम को सौंप दी। 

प्रिय पाठकों !आशा करते है आपको पोस्ट पसंद आई होगी। विश्वज्ञान हमेशा ऐसी ही रियल स्टोरीज आपको मिलती रहेंगी। विश्वज्ञान में प्रभु श्री कृष्ण की अन्य लीलाओं के साथ फिर मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपना ख्याल रखे ,खुश रहे और औरों को भी खुशियां बांटते रहें। जय जय श्री राधे श्याम 
धन्यवाद। 

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