इमली तला यहाँ कृष्ण राधा जी की चिंता मे गोरे हो गये।

जय श्री राधे श्याम 

हर हर महादेव प्रिय पाठकों ! कैसे है आप लोग, 
आशा करते है आप सभी सकुशल होंगे। 
भगवान् शिव की कृपा दृष्टी आप पर बनी रहे। 

हरे कृष्ण प्रिय पाठकों!वृंदावन के बारे मे भला कौन नहीं जानता।यह स्थान श्री राधा कृष्ण के प्रेम का प्रतिक है।यहां घुमने के लिये बहुत से स्थान है।हर स्थान का अपना एक महत्त्व है।लेकिन आज हम आपको जिस स्थान के बारे में बताने जा रहे हैं,वो है इमलीतला यानी इमली का पेड़। 

मित्रों !यहां वृंदावन मे एक इमली का पेड़ है, जिसे भगवान कृष्ण के समय से आज तक माना जाता है। कुछ लोगों के अनुसार मूल पेड़ यानी असली पेड़ अब मर चुका है। उसके स्थान पर एक नया पेड़ उगा हुआ है जो बहुत पुराना है।  

इमलीतला वो स्थान है जहाँ श्री कृष्ण ने 5500 वर्ष पुर्व राधा जी के नाम का जप किया।

इमलीतला वो स्थान है जहां श्रीमति राधा जी चिंता करते-करते,उन्हे याद करते, श्री कृष्ण के शरीर का रंग काले से गोरा हो गया।

इमलीतला वो स्थान है जहां प्रभु श्री कृष्ण जी को राधा जी के विरह में रहना पड़ा।

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इमलीतला वो स्थान जहाँ भक्तों की मनोकामनाएँ तो पूर्ण होती ही है,साथ ही कृष्ण-राधा जी की विशेष कृपा भी होती है।कहते है कि यहाँ जब कोई सच्चा भक्त आता है तो उसका हृदय रोने लगता है,वो भगवान के भावों में खो जाता है।और यही वो अवस्था होती है जब प्रभू श्रीकृष्ण-राधा जी की विशेष कृपा होती है।

इमलीतला वो स्थान है जहां चैतन्य महाप्रभु भी आये और वृक्ष के नीचे बैठ कर राधा जी के नाम का जप करते थे।

श्री चैतन्य महाप्रभु (जो कृष्ण स्वयं भक्त के रूप में प्रच्छन्न हैं), ब्रज धाम में रहने के दौरान प्रतिदिन यहां आते थे। भगवान चैतन्य का रंग सुनहरा था, लेकिन जब वे यहां ध्यान लगाते थे, तो परमानंद की भावनाओं के कारण वे कृष्ण की तरह काले हो जाते थे। यहाँ के मंदिर में भगवान चैतन्य के साथ राधा कृष्ण के देवता हैं , और गौड़ीय मठ द्वारा प्रबंधित किया जा रहा है। 

मंदिर के अंदर कृष्ण और भगवान चैतन्य की लीलाओं को दर्शाते हुए सुंदर दीवार कलाकृतियाँ हैं। यह पवित्र स्थल वृंदावन परिक्रमा मार्ग पर यमुना नदी के तट पर है।

इमलीतला वो स्थान है जहां श्रीमति राधा जी ने इसी इमलीतला यानी इमली के पेड़ को शाप दिया था।

इमलीतला ही वो स्थान है जहां श्री कृष्ण खुद को राधा समझने लगे।

प्रिय पाठकों ये बहुत ही सुन्दर स्थान है और बहुत ही सुन्दर यहाँ की कथाएं इसलिय पोस्ट को अन्त तक पढ़े जिससे आपको पूरी जानकारी प्राप्त हो सके और आप भी इस कथा के जरिये प्रभू श्री कृष्ण के उस विरह को दर्द को महसूस कर सकें।

श्री मति राधारानी जी का इमली के पेड़ को शाप देना।

इमली के वृक्ष को श्री मति राधारानी ने श्राप दे दिया । एक दिन जब वह कृष्ण से मिलने के लिए जा रही थी, तो उनका पैर एक पके हुए इमली के फल की मोटी छाल पर पड़ा और उनके पैर कट गए।

पैर कटने के कारण उन्हे कृष्ण से मिलने मे देर हो गई , इसलिए उन्होने पेड़ को शाप दिया कि इसके फल नहीं पकेंगे, ताकि वे नरम रहें और फिर से चोट न पहुंचे। आज भी इस पेड़ के फल पूरी तरह से पकने से पहले ही गिर जाते हैं ।

कृष्ण विरह की कहानी 


इमली तला यहाँ कृष्ण राधा जी की चिंता मे गोरे हो गये।


इमली तला के पीछे एक बहुत ही सुन्दर कथा आती है। कहते है एक बार जब कृष्ण राधा और गोपियों के संग बंसी वट मे रास रच रहे थे तो अचानक राधा जी अंतर्ध्यान हो जाती हैं।तो कृष्ण जी कहते है कि अरे ये क्या हुआ ।रास से तो राधा जी अंतर्धान हो गई। दुखी हो कर रास छोडकर कृष्ण राधा जी के बारे मे खोये हुए व अनेक कल्पनाएँ करते हुए इमली तला पंहचे।

रास मे भंग पड़ गया।सौ करोड़ गोपियां मिलकर भी अनेक प्रकार की कोशिशे करने के बाद कृष्ण के मन को नही समझा पाई।कृष्ण जी की दशा बहुत ही दयनीय थी ।वे बार-बार कहते है की हे राधे तुम कहाँ हो,तुम आती क्यो नही ,मुझे दर्शन दो ,मेरे प्राणों की रक्षा करों।

श्री कृष्ण बार-बार राधाजी को पुकारते और रोते हुए कहते की राधा ही मेरे घर मे है,राधा ही वन मे,राधा ही मेरे अन्दर ,राधा ही मेरे बाहर,राधा ही मेरे आगे ,राधा ही मेरे पीछे,जहां भी देखूं बस राधा ही राधा ।

इस प्रकार विलाप करते हुए वो राधा नाम मे इतने खो गये की उनके शरीर का रंग काले से गोरा हो गया। ऐसा लगता था मानो माँ राधे ने उन्हे शरीर से ढक लिया हो,उन्हे गले लगा लिया हो।

दोस्तों !सारा जगत कृष्ण जी नाम लेता है ,उन्हे पुजता है लेकिन यहां श्री कृष्ण जी कहते हैं कि-मैं राधा का नाम लेता हूँ,मैं राधा की ही पूजा करता हूँ और मै राधा जी का अभिवंदन करता हूँ। 

मित्रों यह एक ऐसा स्थान है जहाँ सारा जगत श्री कृष्ण का नाम जपता है लेकिन श्री कृष्ण राधा जी का नाम जपते है। कृष्ण जी कहते है कि मेरी सोच मे राधा,मेरे सिर मे राधा हर जगह बस राधा ही राधा और फिर कहते हैं कि हे राधा मुझे क्षमा करों ।

दोस्तों सारा संसार श्री कृष्ण से क्षमा माँगता है लेकिन श्री कृष्ण राधा जी से क्षमा मांगते हैं।विरह मे डूबे हुए कहते है की राधा कब दर्शन दोगी।मुझे कब तुम्हारा दर्शन होगा । तुम्हारे बिना मुझे ये जग,धन,जीवन ये सारा का सारा निकेतन सब अपार दुख दे रहा है और फिर ये सोच कर की राधा भी तो मुझे याद करती होगी, 

मित्रों भगवान को अपना दुख तो था ही पर साथ ही साथ उन्हे माँ  राधे की भी चिंता थी कि उनके बिना वो कैसी होंगी,ठीक तो होंगी या नही,उन्हे भी मेरी चिंता हो रही होगी,वो भी मेरे बारे मे सोचती होगी।

मित्रों! विरह की तीन stage होती है स्मरण,स्फूर्तिऔर आविर्भाव और श्री कृष्ण राधा जी के विरह मे जब तीसरी स्टेज पर पहुंचे तो उन्हें अपने चारों तरफ बस राधा ही राधा दिखाई देने लगी। 

तब श्री कृष्ण उन्हें देखकर और ज्यादा व्याकुल हो गए और बहुत ही करुणामई आवाज में कहने लगे की अरे ये क्या राधे ,तुम तो मेरे सामने हो ,फिर मैं  विलाप क्यों कर रहा हूँ। 

इतना विलाप होता है श्री कृष्ण जी को की वो कहते है ,ओह ! राधे, ये कैसी दशा है कि आज तुम मेरे सामने हो और फिर भी मुझ से बात नहीं कर रही ,मेरे निकट नहीं आ रहीं ,मेरा आलिंगन नहीं कर रहीं । क्यों राधे ? 

श्री राधा के वियोग में इतना विलाप करते है वो ऐसी ऐसी बाते बोलने लगते है गीत गोविंदम में की जिसे कोई इंसान नहीं समझ सकता। ये बहुत ऊँची प्रेम की लीलाये है। काम ,जो काम शब्द है ,उसका अर्थ कोई इच्छा ,वासना नहीं है। काम शब्द एक परम् पवित्र नाम है। 

कृष्ण भगवान् की जो आराधना होती है ,वो काम गायत्री से होती है। काम गायत्री एक ऐसा गायत्री मन्त्र है। जिसकी मदद से या आसान भाषा में कहे तो की इस गायत्री मंत्र के जप से अनेक ऋषियों ,मुनियों ने कृष्ण की शरण पाई,उनके चरणों की प्राप्ति की है ,

लेकिन इस जगत में काम शब्द का जो मतलब है, वो है एक स्त्री -पुरुष का मिलन। लेकिन काम वो नहीं है ,काम एक बहुत सुंदर ,निर्मल वस्तु है जिन्हे वही समझ सकते है ,जिन्होंने एक अच्छे सद्गुरु के चरणों का आश्रय ग्रहण किया है। 

अब श्री कृष्ण विलाप करते हुए कहते है हे अनंग !तुम मुझे चंद्रशेखर जानकर पीड़ित मत करों। मैं शिव नहीं हूँ ,मुझे पीड़ित मत करो ,मुझे दुःख मत दो ,ये जो तुम मेरे गले में माला देख रही हो ,ये कोई भुजंग की नहीं है ,कोई सर्प वासुकि की नहीं है। 

ये तो मृडाल वृक्ष की लता से बनाई गई है। हे अनंग ,हे राधे !ये जो तुम मेरे गले में नीलिमा देख रही हो ,ये नीला रंग कोई विष का नहीं है ,ये तो बड़ी ही सुंदर नीलकमल की माला है।

मेरे अंग में चित भस्म (चिता की राख ) नहीं है। ये तो चंदन है ,इसलिए हे अनंग ,हे राधे ,हे प्रिय !तूम रोष प्रकट मत करो ,गुस्सा मत करों। अपनी विषमता को त्याग दो। यहां से निवृत हो जाओ। तुम अपने बाणों का प्रहार मत करों। 


इमली तला यहाँ कृष्ण राधा जी की चिंता मे गोरे हो गये।


मित्रों यही एक ऐसा स्थान है जहां चैतन्य महाप्रभु भी आये है। चैतन्य महाप्रभु जिन्होंने 84 कोषों की यात्रा की ,दर्शन किये लेकिन वो हमेशा इसी इमली के पेड़ नीचे बैठकर ही आराधना किया करते थे। ये ही वो स्थान है जहाँ श्री कृष्ण का रंग काले से गोरा हुआ। 

चैतन्य महाप्रभु कौन है मित्रों वो भी श्री कृष्ण है क्योकि इसी स्थान पर कृष्ण जी राधा के भाव में विभावित हुए और चैतन्य महाप्रभु भी राधा जी के भाव में विभावित हो चुके है। यह स्थान गौड़ीये वैष्णवों का प्रमुख स्थान है। जब चैतन्य महाप्रभु इस स्थान पर आये उनके साथ उनका एक सेवक भी  था। 

जिनका नाम था बलभद्र भट्टाचार्य। चैतन्य महाप्रभु के पास एक राजपूत ने भी शरण ली जिसका नाम कृष्ण दास था जो की यमुना के उस पार रहता था।  एक बार की बात है कुछ लोगों ने आकर महाप्रभु से कहा की प्रभु हमने यमुना में कालिय नाग के ऊपर कृष्ण को नाचते देखा है। 

जब महाप्रभु के सेवक ( बलभद्र भट्टाचार्य)ने यह बात सुनी तो उन्होने कहा की प्रभु मैं भी देखने जाऊँगा।ये सुनकर महाप्रभु ने प्यार से उनको एक थप्पड़ मारा और कहा ,अरे पगले ,वो कोई कृष्ण नही है। कलयुग मे कृष्ण इतनी आसानी से ऐसे ही दर्शन नही दे सकते । 

इन लोगो को कोई गलतफहमी हुई है।अगली सुबह कुछ शिक्षित लोग आये ,उन्होने कहा कि हे महाप्रभु हमने सुबह 4 बजे यमुना के तट जाकर देखा की कुछ मछुआरे अपनी नाव मे बैठकर मछलियाँ पकड़ते है और जब यमुना की लहर आती है तो उनकी नाव हिलने-डुलने लगती है।जो देखने मे ऐसा लगता है कि जैसे श्री कृष्ण कालिया नाग पर नृत्य कर रहे हो।

बात सुनकर महाप्रभु ने उन्हें सीख दी ,उन्होंने कहा ,भाई !कलयुग में कृष्ण किसी को ऐसे दर्शन नहीं देते है ,वो द्वापर था जब भगवान् श्री कृष्ण दर्शन दिया करते थे। कलयुग में तो भगवान् का नाम ,भगवान् के श्री विग्रह के रूप में प्रकाशित होते है। इसलिए ऐसे ही किसी की बातों में नहीं आते है।

महाप्रभु आगे बताते हुए कहते है की भाई !ये स्थान वास्तव में एक साधक के विरह की सम्पति का स्थान  है ,जिसके पास जितना ज्यादा विरह है उतना ही वह भजन में अग्रसर है। 

अगर तुम्हारे हृदय के अंदर विरह का भाव उत्नन्न नहीं हो रहा है ,तो  तुम्हारा भजन करना बेकार है। तुम्हारा भजन किसी काम का नहीं ,वो बिलकुल शून्य है ,जीरो है। 

मित्रों इस स्थान की मान्यता है की जब यहाँ कोई साधक आता है तो उसकेअंदर एक विरह की अग्नि प्रज्वलित होती है ,वो उस विरह की अनुभूति कर पाता है जैसे राधा के विरह में श्री कृष्ण अनुभूति करते है।  

प्रभु श्री कृष्ण विलाप करते हुए आगे कहते है की हे राधे !आज रोष भरके ,कुटिल भ्रू लता धारण करे हुए तुमने ये रक्त पदम् का मुख क्यों धारण किया हुआ है यानी की आज राधा जी गुस्से में है ,उनकी भृकुटि कृष्ण जी को बहुत गुस्से से देख रहीं हैं। 

राधा जी का रंग रक्त की तरह लाल हो चुका है जबकि राधा जी तो तप्त कांचल है। ये देखकर कृष्ण को डर लग रहा है। कहते है की राधा मुझसे मान कर चली गईं है। 

दोस्तों बहुत ही करुणामई दृश्य है की कृष्ण जी राधा के विरह में है और राधा जी भी कृष्ण के विरह में ही है। 

यहाँ चैतन्य  प्रभु जी  बताते है की वृन्दावन को इंसान अपनी नजरों से नहीं देख सकते। वृन्दावन के रहस्य को ,यहां के धाम को मनुष्य  संतो की नजरों व उनकी कृपा से ही जान सकता है। 

वृन्दावन के रहस्य को स्वयं ब्रह्मा जी भी  नहीं जान पाए। क्योकि वृन्दावन के अंदर अधर्म ही धर्म है ,सत्य ही सत्य है ,अनाचार ही आचार है ,स्त्री ही पुरुष है और पुरुष ही स्त्री। अब कौन समझेगा इसको इसलिए महाप्रभु ने बताया की -

अधर्म ही धर्म है 

अधर्म ही धर्म है यानी की पहले तो कृष्ण ने सभी गोपियों को अपनी बांसुरी बजाकर बुलाया। जब वो आ गई तो उनसे कहते है की ,तुम सब यहाँ क्यों आई। तुम्हे अपने पतियों की सेवा करनी चाहिए इसलिए तुम अपने -अपने घर चली जाओ। 

यहां तो कृष्ण ने धर्म  की शिक्षा दी ,लेकिन इसे कौन समझेगा। यही शिक्षा उन्होंने द्विज पत्नियों दी। उन्होंने कहा तुम्हारे पति जो है वो ब्राह्मण है ,ऋषि है जाओ वापस चली जाओ। 

तो द्विज पत्नियों ने कृष्ण की आज्ञा का पालन किया और वो वापस लोट गई।लेकिन गोपियाँ वापस नहीं गई। उन्होंने उनकी आज्ञा  का पालन नहीं किया। 

चैतन्य महाप्रभु कहते है कि कृष्ण एक प्रेम है ,प्रेम की ऐसी अवस्था की जब कोई कृष्ण की उपेक्षा कर देता है। यानी जब कोई उनके हृदय की बात को समझता है ,तो उन्हें बहुत अच्छा लगता है और गोपियाँ तो कृष्ण की बात को ,उनके हृदय को बहुत अच्छे से समझती थी। 

इसलिए जब गोपियों ने कृष्ण की बात को मानने से मना किया, तो उन्हें बहुत अच्छा लगा। कहते है की जब गोपियाँ कृष्ण को गालीयाँ  देती है, तो वो उनको वेदो की स्तुति से भी ज्यादा अच्छी लगती है। 

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मित्रों !ये वृन्दावन धाम है जहाँ गोपियाँ कृष्ण को गालियां देती है या उनकी स्तुतियां कर रहीं है ,ये किसी को पता ही नहीं चलेगा। गोपी गीत के अंदर ये स्तुति की एक लाइन है तव कथामृतं ,तत्प जीवनं। अब ये लाइन क्या दर्शाती है। 

ये स्तुति है या निंदा। अब इसे कौन समझेगा क्योकि कुछ गोपियाँ तो स्तुति करती है और कुछ गोपियाँ कृष्ण की भर्त्सना कर रहीं है अथार्त उन्हें गाली दे रहीं हैं ,उनकी निंदा कर रहीं हैं ,उन्हें डांट रहीं हैं तथा उन पर लांछन लगा रही है। 

वो कृष्ण से कहती है की आपकी कथाये तो मृत जैसी है क्योकि अगर जब हम आपके विरह में है ,तो ये तुम्हारी कथाएं हमारे लिए अमृत नहीं है। ये मृत के समान है। हमारा जो ये विरह है ये एक आग की तरह है। उसमे में जो आपकी ये कथाएं है ये अग्नि को शांत नहीं करती बल्कि और बढ़ा देती है। 

हम अपने  घर में थी ,अपने बच्चों और पतियों की सेवा कर रहीं थी ,लेकिन आज हम यहां वन में आ चुकिं है ,न हम यहां की रहीं और न हम वहाँ की और आप कहते हो कि तुम सब अपने घर चली जाओ।  

कृष्ण  कहते है लेकिन कवियों ने  तो मेरी बड़ी महिमा बखान की है ,तो गोपियाँ बोली की कवियों का क्या है ,वो तो बड़ी -बड़ी बातें करते है हमने सुना है की आपकी कथाएं सुनने से सब मंगल होता है लेकिन हमने इसकी अनुभूति तो की। मित्रों गोपियों का तो जो विरह  है ,वो तो है ही ,पर राधा जी का जो विरह है ,वो कैसा है ,वो अत्यधिक करुणामई  है। 

राधा जी कृष्ण से  कहती है कि मैंने अपने हृदय में तुम्हारे प्रति उस विरह को धारण किया हुआ है। यदि उस विरह की एक भी चिंगारी अगर मेरे हृदय से निकल कर बाहर आ जाए तो, ये अनंत कोटि ब्रह्माण्ड ,ये सारे के सारे जल कर राख हो जाए। ऐसा तीव्र विरह है। बताया की वो विष है या अमृत ,इसको कोई नहीं समझ पाता। वो बहुत ऊंचा अमृत है। 

इसलिए कहते है की जो ये वृन्दावन धाम है इसमें हाँ का मतलब न और न का मतलब हाँ होता है। अधर्म ही धर्म है ,तो वहाँ पर गोपिया कहती है आपने अपनी बंसरी से पहले तो हमे बुलाया और अब आप हमे धर्म की शिक्षा दे रहे हो की जाओ अपने पति की सेवा करो। 

गोपियाँ कहती है की केवल आपकी जिह्वा है जो हमे धर्म का उपदेश दे रहीं है बाकी तुम्हारी इन्द्रियां तो हमे अधर्म की और प्रेरित कर रही है। आपके नैन तो कुछ और ही कह रहें है। आपकी भंगिमा तो जैसे हमे रास के लिए बुला रही है। 

आपका रोम रोम तो पुलकित हो रहा है इस निर्जन वन में गोपियों को देख कर। और हमने सुना है जो प्रचलित होता है ,बहुसंख्यक होता है ,लोग उसी का आदर करते है। 

ब्रह्मा जी ने जो धर्म का उपदेश दिया है वो चार मुख से  दिया है और आपकी बांसुरी ने जो धर्म का उपदेश दिया है ,वो आठ मुख से दिया है। यानी उसमे जो आठ छिद्र है। तो हम किसकी बात मानेंगी आपकी बांसुरी की या फिर ब्रह्मा जी की। 

तो देखो ,हम तो आठ छिद्र वाली तुम्हारी बांसुरी की ही बात मानेंगी क्योकि तुम्हारी बांसुरी ने ही हमे यहां बुलाया है और वो ही हमे इस रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित कर रही है। 

तुम्हारी बांसुरी ने मानो इस जगत में ये शपथ लेकर रखी हुई की मैं किसी भी कुलवती स्त्री को देख ही नहीं सकती हूँ ,इसलिए उसने हमे यहां आज बुला लिया है। इसलिए कहा गया की अधर्म ही धर्म है।

असत्य ही सत्य है। 

इस वृंदावन धाम में असत्य ही सत्य है क्योकि यहाँ- गोपियाँ बोलती है अपने घर पर की हम जा रहीं है सूर्य पूजा करने लेकिन  इसी बहाने जाती है श्री कृष्ण से मिलने। कृष्ण बोलते है अपनी माँ से की मैंने माटी नहीं खाई लेकिन माटी खाते है। 

तो भाई ये धाम ऐसा है इसे कोई नहीं समझ सकता। इनको केवल वो ही समझ सकते है जिन्होंने राधे जी के और उनके भक्तो के चरणों का आश्रय ग्रहण किया है। 

अनाचार ही आचार है।  

गोपियाँ अपने पतियों की सेवा कर रही है ,बच्चों को खाना खिला रहीं है ,दूध पिला रही है ,अपने सास ससुरों की सेवा कर रही है,घर के काम काज कर रहीं है पर जैसे ही कृष्ण की बांसुरी की आवाज सुनती है वो सब कुछ छोड़कर उनके पास दौड़ जाती है। 

इस पर कृष्ण कहते है ये तो अनाचार है -पुत्र को छोड़ कर आना ,पति को छोड़ कर आना। तो गोपियाँ कहती है नहीं ,ये आचार है। 

स्त्री ही पुरुष है और पुरुष ही स्त्री। 

कृष्ण जब राधा जी का चिंतन करते हुए विरह में है ,जब वो पूर्ण रूप से राधा के भाव में आ जाते तो वो हा राधे ,हा राधे की जगह -हा कृष्ण ,हा कृष्ण कहने लगते है। वो अपने आप को राधा मानने लग जाते है। जबकि वो कृष्ण है। 

कृष्ण ही कृष्ण के विरह में है और कहते है की ,कृष्ण के बिना मेरा हृदय फटता जा रहा है ,क्या करूँ ,कहाँ जाऊं ,कैसे अपने कृष्ण को पाऊं ,हे मुरली वदन मैं आपको कहाँ ढूँढू। मित्रों !यदि कल्पना करे तो ये कैसा विचित्र दृश्य है। कि कृष्ण ही कृष्ण को ढूंढ रहे है। 


इमली तला यहाँ कृष्ण राधा जी की चिंता मे गोरे हो गये।


ठीक इसी प्रकार प्रिय पाठकों ! राधा जी भी एक बार कृष्ण जी के विरह में आ जाती है। कृष्ण विरह में वो इतनी बढ़ जाती ,उनके भावो में इतना खो जाती है की वो अपने आप को कृष्ण मानने लगती है। वो हाथ में मुरली ले लेती है और सिर पर मुकुट पहन लेती है। 

खुद को कृष्ण मानकर राधा ही राधा को पत्र लिखने लगती है। लिखती है की हे राधे !वो राधे भी पूरा नहीं लिख पाती और उस पत्र को सखियों के हाथो कृष्ण तक पंहुचा देती है। मित्रों !उस पत्र में क्या लिखा है ,कुछ भी नहीं फिर भी कृष्ण जब उस पत्र को पढ़ते है तो विलाप करने लगते है ,बहुत रोते है और रोते -रोते वो भी राधा को एक पत्र लिख कर भेज देते है। 

और उस पत्र क्या लिखा था मित्रों !कुछ नहीं सिर्फ अपना नाम कृष्ण। अब इसे कौन समझेगा। इसलिए बताया की ये प्रेम का नाम है। यहां पर जो रसिक भक्त है ,जो प्रेमी भक्त है ,वो ही इसमें प्रवेश कर सकते है ,इसे समझ सकते है।

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जब सुबह होती सुर्य निकलता है ,चन्द्रमा चला जाता है लेकिन यहां वृंदावन मे जब सुर्य निकलता है तो लाखों-लाखों चन्द्रमा प्रकाशित हो जाते हैं।सब गोपियों का सुबह जब कृष्ण से मिलन हुआ है, जब वृंदादेवी प्रवेश करती हैं कुन्ज मे तो देखती है कि सब गोपियों का मुख प्रफुल्लित हो चुका है ।

जैसे कि मानो सारी गोपियां ही पूर्ण चन्द्रमा के रूप खिला हुआ है।इसलिये कहा गया है कि वृंदावन धाम की महिमा को तो ब्रह्मा,विष्णु और महेश भी नहीं समझ पाए ,बड़े-बड़े दिग्गज भी नहीं समझ पाए  तो हम साधारण मानव क्या समझेंगे।

इसे तो बस वो ही समझेंगे जो यहां के भक्तों का आश्रय लेंगे ।आश्रय यानी उनके साथ रहकर श्री राधाकृष्ण की महिमा,उनकी लीला,उनके प्रेम को भक्तिपूर्ण भाव से समझ पाए।संसार मे भटके नही ।

तो प्रिय पाठकों!ये थी आज की करुणामई भगवान श्री कृष्ण के विरह की अद्भूत कथा।आशा करते है कि आपको पसंद आई होगी। विश्वज्ञान मे ऐसी ही रोचक कहानी के साथ फिर मुलाकात होगी।तब तक आप अपना ख्याल रखें,खुश रहे,हँसते रहिए,मुस्कुराते रहिये और प्रभू को याद करते रहिये।

जय श्री राधे कृष्ण 

धन्यवाद 

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