श्रीकृष्ण का पाँच रानियों से विवाह

जय श्री राधे श्याम 

हर हर महादेव प्रिय पाठकों ! 
कैसे है आप लोग, 
आशा करते है आप सभी सकुशल होंगे। 
भगवान् शिव की कृपा दृष्टी आप पर बनी रहे। 



प्रिये पाठकों!आज इस पोस्ट मे हम जानेंगे की किस प्रकार श्री।कृष्ण जी का पांच रानियों से विवाह हुआ।इसके अलावा जानेंगे की क्या इन पांच रानियों के अतिरिक्त भी उनकी रानियां थी ?क्या पांच रानियों के अलावा भी उन्होने शादी की और यदि की , तो क्यो?

श्रीकृष्ण का पाँच रानियों से विवाह

चारों ओर जनश्रुति फैली हुई थी कि धृतराष्ट्र की योजना के अन्तर्गत पाँचों पाण्डव भाइयों की अपनी माता सहित अग्नि-दुर्घटना में मृत्यु हो गई है। वे एक लाक्षागृह में रहते थे, जिसमें आग लग जाने के फलस्वरूप यह दुर्घटना हुई थी। 

किन्तु उसके पश्चात् पाँचों भाई द्रौपदी के स्वयंवर के समय पहचाने गए थे, अतएव पुनः एक अन्य जनश्रुति फैल गई कि पाण्डव तथा उनकी माता मृत नहीं हैं। यह पहले तो जनश्रुति रही, किन्तु यथार्थ में यही वास्तविकता थी और वे अपनी राजधानी हस्तिनापुर लौटे, तो लोगों ने उन्हें प्रत्यक्ष देखा। 

जब यह समाचार श्रीकृष्ण और बलराम जी ने सुना, तो श्रीकृष्ण ने उनसे व्यक्तिगत रूप से भेंट करने की इच्छा प्रकट की, अतएव श्रीकृष्ण ने हस्तिनापुर जाने का निश्चय किया।

इस बार श्रीकृष्ण ने एक राजा की भाँति अपने सेनापति युयुधान और अन्य अनेक सैनिकों सहित, राजसी ठाट-बाट से हस्तिनापुर की यात्रा की। 

उन्हें वास्तव में नगर में आने का निमंत्रण नहीं दिया गया था, किन्तु फिर भी अपने महान् भक्तों के प्रति अपने स्नेह के कारण वे पाण्डवों से भेंट करने गए। 

श्रीकृष्ण बिना पूर्वसूचना के पाण्डवों के यहाँ गए। भगवान् के दर्शन करते ही पाण्डव बन्धु अपने-अपने आसनों से उठ खड़े हुए। श्रीकृष्ण को मुकुन्द कहा जाता है, 

क्योंकि जैसे ही कोई श्रीकृष्ण के निरन्तर सम्पर्क में आता है अथवा पूर्ण मुक्त भावनामृत में उनके दर्शन करता है, वैसे ही वह तत्काल समस्त भौतिक चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है। केवल यही नहीं, उसे तत्काल ही आध्यात्मिक आनन्द की प्राप्ति हो जाती है।

श्रीकृष्ण का स्वागत करके पाण्डव अत्यन्त उत्साहित हो उठे, जैसे कोई अचेतनावस्था से अथवा प्राणहानि के पश्चात् पुनः चेतन हो जाए। जब कोई अचेतन रहता है, तब उसकी इन्द्रियाँ तथा शरीर के विभिन्न अंग क्रियाशील नहीं होते हैं, 

किन्तु जैसे ही उसे पुन: चेतना प्राप्त होती है, तत्काल ही उसकी इन्द्रियाँ क्रियाशील हो उठती हैं। उसी भाँति पाण्डवों ने श्रीकृष्ण का इस प्रकार स्वागत किया, मानो उन्हें पुन: चेतना प्राप्त हुई हो और इस प्रकार वे अत्यन्त उत्साहित हो गए। 

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भगवान् श्रीकृष्ण ने उनमें से प्रत्येक का आलिंगन किया और श्रीभगवान् के आलिंगन से वे सभी भौतिक दूषणों के फल से तत्काल मुक्त हो गए, अतएव वे आध्यात्मिक आनन्द में मुस्करा रहे थे। भगवान् श्रीकृष्ण के मुख का दर्शन करके प्रत्येक जन दिव्य रूप से सन्तुष्ट हो गये थे।

यद्यपि श्रीकृष्ण श्रीभगवान् है, तथापि वे सामान्य मानव का अभिनय कर रहे थे, अतएव उन्होंने तत्काल ही युधिष्ठिर तथा भीम का चरण स्पर्श किया, क्योंकि वे दोनों उनकी बुआ के बड़े पुत्र थे। 

अर्जुन ने सम आयु के मित्र की भाँति श्रीकृष्ण का आलिंगन किया तथा नकुल और सहदेव नामक दोनों छोटे भाइयों ने उनका आदर करने के लिए श्रीकृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श किया। 

पाण्डवों तथा भगवान् श्रीकृष्ण के पद के योग्य, सामाजिक शिष्टाचार के अनुसार सौहार्दपूर्ण आदान-प्रदान के पश्चात् श्रीकृष्ण को उच्च आसन दिया गया। 

जब वे सुखपूर्वक बैठ गए। तब अपनी स्वाभाविक नारीसुलभ शोभा से अत्यन्त लावण्यमयी किशोरी और नवविवाहिता द्रौपदी भगवान् कृष्ण के समक्ष सादर प्रणाम करने आई। 

श्रीकृष्ण के साथ हस्तिनापुर आए हुए यादवों का भी अत्यन्त सम्मानपूर्वक स्वागत किया गया, विशेषरूप से सात्यकि अथवा युयुधान को उत्तम आसन दिया गया। इस भाँति जब सब लोग उचित आसन पर बैठ गए तब पाँचों भाइयों ने भगवान् श्रीकृष्ण के समीप अपना आसन ग्रहण किया।

पाँचों भाइयों से भेंट करने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवों की माता तथा अपनी बुआ श्रीमती कुन्ती देवी से स्वयं भेंट करने गए। अपनी बुआ के प्रति आदर प्रदर्शित करते हुए श्रीकृष्ण ने उनका चरणस्पर्श भी किया। 

कुन्तीदेवी के नेत्र भीग गए और अत्यन्त प्रेम से उन्होंने भावनापूर्वक भगवान् श्रीकृष्ण का आलिंगन किया। तत्पश्चात् उन्होंने श्रीकृष्ण से अपने पितृकुल के सदस्यों-जैसे अपने भाई वसुदेव तथा उनकी पत्नी और परिवार के अन्य सदस्यों का कुशल-समाचार पूछा। 

उसी भाँति श्रीकृष्ण ने भी अपनी बुआ से पाण्डव परिवार की कुशलता के विषय में प्रश्न किए। यद्यपि कुन्ती देवी का श्रीकृष्ण से पारिवारिक सम्बन्ध था, तथापि उनसे मिलने के पश्चात् उन्हें तत्काल ज्ञात हो गया कि वे श्रीभगवान् थे। 

उन्हें अपने जीवन के विगत संकटों का स्मरण हो आया और यह भी स्मरण हुआ कि किस प्रकार श्रीकृष्ण की कृपा से पाण्डवों तथा उनकी माता की रक्षा हुई थी। 

उन्हें भली-भाँति ज्ञात था कि धृतराष्ट्र एवं उनके पुत्रों के द्वारा नियोजित अग्निकाण्ड से उनकी रक्षा श्रीकृष्ण की कृपा के अतिरिक्त और कोई भी नहीं कर सकता था। उन्होंने अवरुद्ध कण्ठ से श्रीकृष्ण के समक्ष अपने जीवन का विगत इतिहास कहना प्रारम्भ किया।

श्रीमती कुन्ती ने कहा, "प्रिय श्रीकृष्ण मुझे वह दिवस स्मरण है, जब तुमने  मेरे भाई अक्रूर जी को हमारे विषय में सूचना एकत्र करने के लिए भेजा था। इसका अर्थ यह है कि तुम सदैव ही सहज भाव से हमारा स्मरण करते हो। 

जब तुमने अक्रूर जी को भेजा तब मैं समझ गई कि हमारे संकट में पड़ने की कोई सम्भावना नहीं है। जब तुमने अक्रूर जी को हमारे पास भेजा तभी से हमारे जीवन में सौभाग्य  का प्रारम्भ हुआ। तबसे मुझे विश्वास हो गया है कि हम बिना रक्षक के नहीं हैं।

हमारे परिवार के सदस्य कुरूजन भले ही हमें अनेक संकटपूर्ण परिस्थितियों में डालें, किन्तु मुझे विश्वास है कि तुम हमें स्मरण रखते हो और सदैव सुरक्षित तथा सकुशल रखते हो। तुम्हारा केवल चिन्तन करने वाले भक्त सदैव समस्त प्रकार के भौतिक संकटों से मुक्त रहते हैं, फिर हमारा तो कहना ही क्या, जिनका तुम स्वयं व्यक्तिगत रूप से स्मरण करते हो। 

अतएव प्रिय श्रीकृष्ण दुर्भाग्य का तो कोई प्रश्न ही नहीं, तुम्हारी अनुकम्पा से हम सदैव शुभ-स्थिति में रहते हैं। किन्तु तुमने हम पर विशेष अनुग्रह  किया है, इससे लोगों को यह नहीं सोचना चाहिए कि तुम कुछ लोगों के  प्रति पक्षपात करते हो और दूसरों की ओर ध्यान नहीं देते। तुम ऐसा कोई भेदभाव नहीं करते हो। न तो कोई तुम्हारा प्रिय है और न तो कोई तुम्हारा शत्रु है। 

श्रीभगवा न्के रूप में तुम सबके प्रति समभाव रखते हो और प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारी विशिष्ट दया का लाभ उठा सकता है। तथ्य यह है कि, यद्यपि तुम सबके प्रति समभाव रखते हो, तथापि तुम्हारी विशेष रुचि सदैव तुम्हारा चिन्तन करने वाले भक्तों की ओर होती है। भक्तों का तुमसे प्रेम-बन्धन का सम्बन्ध है। वे तुमको क्षणमात्र के लिए भी विस्मृत नहीं कर सकते हैं। 

तुम प्रत्येक जीव के हृदय में उपस्थित हो, किन्तु भक्त सदैव तुम्हारा स्मरण करते हैं। इस कारण तुम भी उसी के अनुरूप व्यवहार करते हो। यद्यपि माता का सभी सन्तानों के प्रति स्नेह होता है फिर भी पूर्णरूप से उसी पर निर्भर रहने वाली सन्तान की वह विशेष देखभाल करती है। 

प्रिय श्रीकृष्ण! मुझे निश्चित रूप से ज्ञात है कि प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में निवास करते हुए तुम अपने अनन्य भक्तों के लिए सदैव शुभ परिस्थितियों का निर्माण करते रहते हो।"

तदुपरान्त राजा युधिष्ठिर ने भी श्रीभगवान् तथा प्राणिमात्र के सार्वभौम सखा रूप श्रीकृष्ण की स्तुति की। किन्तु श्रीकृष्ण पाण्डवों की विशेष देख-भाल कर रहे थे, 

अतएव राजा युधिष्ठिर ने कहा, “प्रिय श्रीकृष्ण! हमें ज्ञात नहीं कि पूर्वजन्मों में हमने कौन से पुण्यकर्म किए थे, जिसके फलस्वरूप आप हम पर इतने दयालु तथा अनुग्रहपूर्ण हैं। 

हमें भली-भाँति ज्ञात है कि आपको प्राप्त करने की कामना से सदैव ध्यान में रत रहने वाले महान् योगी भी सरलता से ऐसी कृपा नहीं प्राप्त करते है।

वे आपकी व्यक्तिगत देखरेख भी नहीं प्राप्त कर सकते हैं। मुझे समझ में नहीं आता है। कि आप हम पर इतने कृपाल क्यों हैं? हम योगी नहीं वरन हम भौतिक दूषणों के प्रति आसक्त है। हम राजनीति अर्थात् सांसारिक प्रपंचों में रचने पचने वाले ग्रहस्थ  हैं। मुझे ज्ञात नहीं है कि आप हम पर इतने दयालु क्यों हैं?"

राजा युधिष्ठिर के अनुरोध पर श्रीकृष्ण ने वर्षाऋतु के चार माह हस्तिनापुर में व्यतीत करना स्वीकार कर लिया। वर्षाऋतु के चार मास चातुर्मास्य कहे जाते हैं। 

इस अवधि में सामान्यतया भ्रमणशील उपदेशक और ब्राह्मण जन किसी विशेष स्थान पर रुक कर कठोर विधि-विधानों के अनुसार जीवन-यापन करते हैं। 

यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण समस्त विधि-विधानों से परे हैं, तथापि पाण्डवों के प्रति स्नेह के कारण उन्होंने हस्तिनापुर में रहना स्वीकार किया। 

श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर में निवास का लाभ उठाते हुए नगर के सभी नागरिकों ने प्राय: श्रीकृष्ण के दर्शन का विशेषाधिकार प्राप्त किया। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन मात्र से वे दिव्य आनन्द में मग्न हो गए।

जब श्रीकृष्ण पाण्डवों के साथ निवास कर रहे थे, तभी एक दिन वे और अर्जुन शिकार के लिए वन में जाने को तत्पर हुए। हनुमान के चित्र से अंकित पताका वाले रथ पर वे दोनों बैठ गए। 

अर्जुन का विशेष रथ सदैव हनुमान जी के चित्र से अंकित रहता है, अतएव उसका नाम कपिध्वज भी है। (कपि का अर्थ है हनुमान और ध्वज का अर्थ है पताका) । इस प्रकार अपने धनुष तथा अक्षय बाणों को साथ लिये अर्जुन वन में गए। 

उन्होंने कवच आदि धारण किए थे, क्योंकि उन्हें अनेक शत्रुओं के वध का अभ्यास करना था। अर्जुन ने विशेष रूप से वन के उस भाग में प्रवेश किया जहाँ अनेक शेर, हिरण तथा अन्य विभिन्न पशु थे। 

अर्जुन के साथ श्रीकृष्ण पशुवध का अभ्यास करने के लिए नहीं गए थे, क्योंकि उन्हें किसी भी वस्तु का अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं है, वे स्वयं पूर्ण हैं। 

वे अर्जुन को अभ्यास करता हुआ देखने के लिए गए थे, क्योंकि भविष्य में उन्हें अनेक शत्रुओं का वध करना होगा। वन में प्रवेश करने के उपरान्त अर्जुन ने अनेक शेरों, वराहों, जंगली भैंसों तथा गवयों का वध किया। (गवय एक वन्य पशु होता है।) 

अर्जुन ने अपने बाणों से भेद कर अनेक गैंडों, हिरणों, खरगोशों, साहियों तथा उन्हीं के समान अन्य पशुओं का भी वध किया। कुछ मृत पशु जो यज्ञ में बलि दिए जाने के लिए उपयुक्त थे, अनुचरों के द्वारा राजा युधिष्ठिर के समीप भेज दिए गए।

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दूसरे भयंकर पशु जैसे सिंह एवं गेंडे का वध वन के उपद्रवों को शान्त करने के लिए किया गया। वनों में अनेक साधु तथा सन्तजन निवास करते हैं, अतएव क्षत्रिय राजाओं का यह कर्तव्य है कि वन को भी निवास के योग्य शान्तिपूर्ण स्थिति में रखा जाए। 

शिकार के कारण अर्जुन को थकान तथा प्यास का अनुभव हुआ, अतएव वे श्रीकृष्ण के साथ यमुना के तट पर गए। जब दोनों कृष्ण अर्थात् अर्जुन और श्रीकृष्ण (द्रौपदी की भाँति अर्जुन भी कभी-कभी कृष्ण कहे जाते हैं) यमुना के तट पर पहुँचे तो उन्होंने अपने हाथ, पैर, मुख धोए और यमुना के निर्मल जल का पान किया। 

श्रीकृष्ण का पाँच रानियों से विवाह

श्रीकृष्ण का पाँच रानियों से विवाह

जब वे जल पी कर विश्राम कर रहे थे, तब उन्होंने विवाह योग्य आयु की एक सुन्दर कन्या को अकेले यमुना के तट पर भ्रमण करते हुए देखा। श्रीकृष्ण ने अपने सखा अर्जुन को उस कन्या से उसका परिचय पूछने के लिए भेजा। 

श्रीकृष्ण के आदेश से अर्जुन तत्काल उस अत्यन्त रूपवती कन्या के समीप गए। उसकी देह सुडौल थी, दाँत धवल थे और मुख मुस्कान से युक्त था। अर्जुन ने प्रश्न किया,

“प्रिय बाला! उन्नत उरोजों से युक्त तुम अत्यन्त रूपवती हो। क्या मैं पूछ सकता हूँ कि तुम कौन हो? तुम्हें यहाँ एकाकी भ्रमण करते देखकर हम चकित हैं। 

यहाँ आने का तुम्हारा क्या प्रयोजन है? हम केवल अनुमान कर सकते हैं कि तुम एक योग्य पति खोज रही हो। यदि तुम्हें आपत्ति न हो, तो तुम अपना प्रयोजन बता सकती हो। मैं तुम्हें सन्तुष्ट करने का प्रयास करूंगा।"

वह सुन्दर बाला यमुना नदी ही थी, जिन्होंने स्त्री का रूप धारण कर रखा था। उन्होंने उत्तर दिया, "हे अर्जुन! मैं सूर्यदेव की पुत्री हूँ और अब मैं तपस्या कर रही हूँ, क्योंकि मुझे भगवान् विष्णु को पति रूप में प्राप्त करने की कामना है। 

मेरे विचार में वे पुरुषश्रेष्ठ हैं और मेरे पति बनने के योग्य हैं। इस प्रकार में अपनी इच्छा व्यक्त कर रही हूँ , क्योंकि आप इसे जानना चाहते थे।"

उस बाला ने आगे कहा, "मुझे ज्ञात है कि आप वीर अर्जुन हैं, अतएव मैं आगे यह कहना चाहूँगी कि मैं भगवान् श्रीविष्णु के अतिरिक्त किसी और को अपने पति के रूप में स्वीकार नहीं करूंगी। भगवान् श्रीविष्णु ही समस्त जीवों के एकमात्र रक्षक हैं और समस्त बद्धात्माओं को मुक्ति प्रदान करने वाले हैं। 

यदि आप भगवान् श्रीविष्णु से प्रार्थना करें कि वे मुझ पर प्रसन्न हो जाँए, तो मैं आपकी अत्यन्त आभारी रहूँगी।” यमुना को भली-भाँति ज्ञात था कि अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण के महान् भक्त हैं और यदि वे प्रार्थना करेंगे, तब श्रीकृष्ण उनकी प्रार्थना कभी नहीं ठुकराएँगे। 

श्रीकृष्ण को प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त करना कभी-कभी निरर्थक हो सकता है, किन्तु किसी भक्त के माध्यम से उनके शरणागत होना अवश्य ही सफल होता है। उन्होंने अर्जुन से आगे कहा, "मेरा नाम कालिन्दी है और में यमुना के जल में निवास करती हूँ। 

मेरे पिता ने कृपा करके मेरे लिए यमुना के जल में एक विशेष घर का निर्माण किया है और मैंने शपथ ली है कि जब तक में श्रीकृष्ण को प्राप्त नहीं कर लेती तब तक में जल में ही निवास करूंगी।" 

यद्यपि सबके हृदय में निवास करने वाले परमात्मा के रूप में श्रीकृष्ण को प्रत्येक वस्तु का ज्ञान था, तथापि अर्जुन ने कालिन्दी का सन्देश श्रीकृष्ण तक पहुंचाया। 

श्रीकृष्ण ने बिना कोई तर्क-वितर्क किए तत्काल कालिन्दीजी को स्वीकार कर लिया और उन्हें रथ पर बैठने को कहा।उसके बाद वे सब राजा युधिष्ठिर के समीप गए।

इसके पश्चात् राजा युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से एक योग्य गृह के निर्माण में सहायता करने की प्रार्थना की। उस गृह की रचना की योजना स्वर्गलोक के अभियन्ता (इन्जीनियर) महान् वास्तुकार (आर्किटेक्ट) विश्वकर्मा ने बनाई थी। 

श्रीकृष्ण ने तत्काल विश्वकर्मा को बुलाया और राजा युधिष्ठिर के इच्छानुसार एक अद्भुत नगर का निर्माण उनसे करवाया। जब वह  नगर निर्मित हो गया (बन गया) तब महाराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कुछ दिन और अपने साथ रहने की प्रार्थना की। 

वे कुछ दिन और श्रीकृष्ण की संगति का आनन्द प्राप्त करना चाहते थे। भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर की प्रार्थना स्वीकार कर ली एवं वहाँ और कई दिनों तक ठहरे।

इसी अवधि में श्रीकृष्ण राजा इन्द्र के खाण्डव वन को अग्निदेव को बलि रूप में प्रदान करने की लीला में लगे रहे। श्रीकृष्ण इसे अग्नि देव को देना चाहते थे। खाण्डव वन में अनेक प्रकार की ओषधियाँ थीं और अग्नि पुनः यौवन प्राप्त करने के लिए उन्हें खाना चाहते थे। 

किन्तु अग्नि ने प्रत्यक्षरूप से खाण्डव वनपर हाथ नहीं लगाया, अपितु श्रीकृष्ण से सहायता की प्रार्थना की। अग्नि को ज्ञात था कि श्रीकृष्ण उनसे अत्यन्त प्रसन्न हैं, क्योंकि उन्होंने पहले श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र दिया था। अतएव अग्नि को सन्तुष्ट करने के हेतु श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने और दोनों खाण्डव वन गए। 

खाण्डव वन का भक्षण करने के उपरान्त अग्नि देव अत्यन्त प्रसन्न हो गए। इस बार उन्होंने गाण्डीव नामक विशिष्ट धनुष, चार श्वेतवर्ण के अश्व, एक रथ और एक अक्षय तूणीर (तरकस) उन्हें अर्पित किया। उस तरकस में करिश्मा दिखाने वाले दो बाण भी थे, जिनमें इतनी शक्ति थी कि कोई भी योद्धा उन्हें काट नहीं सकता था। 

जब अग्निदेव द्वारा खाण्डव वन का भक्षण किया जा रहा था तब अर्जुन ने मय नामक एक असुर की उस विनाशकारी अग्नि से रक्षा की। इस कारण वह असुर अर्जुन का महान् मित्र बन गया। 

अर्जुन को प्रसन्न करने के लिए उसने विश्वकर्मा द्वारा निर्मित नगर के अन्दर एक उत्तम सभागृह का निर्माण किया। इस सभागृह में कुछ सिरे ऐसे भ्रामक(गुमराह करने वाले)थे कि जब दुर्योधन इस गृह में आया, तो वह चक्कर में पड़ गया। 

उसने भ्रमवश जल को स्थल तथा स्थल को जल समझा। इस प्रकार पाण्डवों के वैभव से दुर्योधन अपमानित । हुआ और उनका परम शत्रु बन गया।

कुछ दिन उपरान्त श्रीकृष्ण ने राजा युधिष्ठिर से द्वारका लौटने की अनुमति ली। जब उन्हें अनुमति मिल गई तब अपने साथ हस्तिनापुर में निवास करने वाले यदुओं के प्रमुख सात्यकि के साथ वे स्वदेश लौट गए। श्रीकृष्ण के साथ कालिन्दी भी द्वारका आईं। 

वापस लौटने के पश्चात् श्रीकृष्ण ने कई विद्वान ज्योतिषियों से विचार-विमर्श किया। वे कालिन्दी से विवाह करने का मुहूर्त जानना चाहते थे।

तदनन्तर उन्होंने बड़े ठाट-बाट से कालिन्दी से विवाह किया। इस विवाह-संस्कार से दोनों पक्षों के सम्बन्धी अत्यन्त सुखी हुए और उन सबों ने इस महान् अवसर का आनन्द उठाया।

अवन्तिपुर (वर्तमान उज्जैन) में विन्द तथा अनुविन्द नाम के राजा थे। दोनों ही राजा दुर्योधन के अधीन थे। उनकी एक बहिन थी जिसका नाम मित्रविन्दा था। वह अत्यन्त गुणी, विदुषी तथा सुन्दरी कन्या थी। 

उसका स्वयंवर होने वाला था, किन्तु उसकी मनोकामना श्रीकृष्ण को पति के रूप में वरण करने की थी। उसके स्वयंवर में श्रीकृष्ण भी उपस्थित थे और अन्य सभी राजाओं की उपस्थिति में ही श्रीकृष्ण मित्रविन्दा को बलपूर्वक हर ले गए।

श्रीकृष्ण को रोकने में असमर्थ सभी राजा केवल एक दूसरे का मुँह देखते रह गए। इस घटना के उपरान्त श्रीकृष्ण ने कोशल के राजा की कन्या से विवाह किया। कोशल के राजा का नाम नग्नजित था। वे वैदिक अनुष्ठानों तथा संस्कारों का पालन करते थे। वे अत्यन्त पुण्यवान् थे। 

उनकी सर्वसुन्दरी कन्या का नाम सत्या था।कभी-कभी सत्या को नग्नजिती भी कहा जाता था, क्योंकि वह राजा नग्नजित की पुत्री थी। राजा नग्नजित के पास सात अत्यन्त शक्तिशाली तथा साहसी बैल थे। 

वे अपनी कन्या का विवाह उसी राजा से करना चाहते थे, जो उन सातों बैलों को परास्त कर सके। राजाओं में कोई भी उन सातों बैलों को परास्त नहीं कर सका था और न ही सत्या से विवाह कर सका। 

सातों बैल अयन्त शक्तिशाली थे और वे राजाओं की गन्ध तक सहन नहीं कर पाते थे। अनेक राजा इस राज्य में आए और बैलों पर विजय पाने का प्रयास किया, किन्तु उन बैलों पर नियंत्रण प्राप्त करने के स्थान पर वे स्वयं परास्त हो गए। 

यह समाचार देश में चारों ओर फैल गया। जब श्रीकृष्ण ने सुना कि सातों बैलों को परास्त करके ही सत्या को प्राप्त किया जा सकता है, तब वे स्वयं कोशल राज्य जाने को तत्पर हो गए। अनेक सैनिकों सहित, राजसी ठाट से यात्रा करते हुए, वे देश के उस भाग में गए, जिसे अयोध्या कहा जाता है।

जब कोशल के राजा को ज्ञात हुआ कि श्रीकृष्ण उसकी कन्या से विवाह करने आए है, तो वह अत्यन्त प्रसन्न हो गया। अत्यन्त आदर के साथ उसने अपने राज्य में श्रीकृष्ण का भव्य स्वागत किया। 

जब श्रीकृष्ण उसके समीप आए तब उसने उन्हें बैठने के लिए उचित आसन तथा अन्य सत्कार की वस्तुएँ दीं। सब कुछ अत्यन्त सुन्दर था। उसे अपना भावी श्वसुर मान कर श्रीकृष्ण ने भी उन्हें सादर प्रणाम किया।

जब राजा नग्नजित की पुत्री सत्या को ज्ञात हुआ कि स्वयं श्रीकृष्ण उससे विवाह करने आए हैं, तब वह अत्यन्त प्रसन्न हो गई कि स्वयं लक्ष्मीदेवी के पति कृपा करके उसे स्वीकार करने वहाँ आए हैं। 

दीर्घकाल से श्रीकृष्ण के साथ विवाह करने की उसकी अभिलाषा थी और श्रीकृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने के लिए वह तपस्या कर रही थी। 

तत्पश्चात् वह विचार करने लगी, "यदि मैंने अपनी योग्यता के अनुरूप कोई पुण्यकर्म किया है और यदि मैंने सदैव श्रीकृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करने का विचार किया है, तो श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हो कर मेरी दीर्घकालीन कामना को पूर्ण करें।" 

वह यह विचार करते हुए श्रीकृष्ण की मन से स्तुति करने लगी कि, "मुझे ज्ञात नहीं कि श्रीभगवान् किस प्रकार मुझ पर प्रसन्न हो सकते हैं। वे सबके भगवान् तथा स्वामी हैं। श्रीभगवान् के समीप स्थान प्राप्त करने वाली लक्ष्मी जी, शिवजी, ब्रह्माजी और विभिन्न लोकों के अन्य देवता भी सदैव भगवान् की सादर वन्दना करते हैं। 

भगवान् कभी-कभी अपने भक्तों की इच्छापूर्ति के लिए भिन्न-भिन्न अवतारों के रूप में इस धरती पर भी अवतरित होते हैं। वे इतने श्रेष्ठ एवं महान् हैं कि मुझे समझ में नहीं आता कि उन्हें किस प्रकार सन्तुष्ट करूँ।” 

उसने विचार किया कि श्रीभगवान् भक्त पर अपनी अहेतुकी दया के कारण ही प्रसन्न किए जा सकते हैं, अन्यथा उन्हें प्रसन्न करने का अन्य कोई साधन नहीं है। 

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने शिक्षाष्टक श्लोकों में इसी भाँति स्तुति की है, "प्रिय भगवन्! में आपका नित्य दास हूँ। किसी भाँति में इस भवसागर में पतित हो गया हूँ। यदि आप कृपा करके मुझे उठा कर अपने चरणकमल की धूलि के कण के रूप में रख लें, तो अपने नित्य दास पर आपका यह एक महान अनुग्रह होगा।" 

भगवान् को सेवा करके विनीत भाव के द्वारा ही प्रसन्न किया जा सकता है। गुरु के निर्देश में हम भगवान् की जितनी ही अधिक सेवा करते हैं, उतना ही हम भगवत्प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होते हैं। चूँकि हमने उनकी सेवा की है, इस कारण हम उनसे अनुग्रह अथवा दया की माँग करने के अधिकारी नहीं बन सकते हैं। 

वे हमारी सेवा स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकते हैं। किन्तु भगवान् को सन्तुष्ट करने का एकमात्र साधन सेवा भाव ही है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। राजा नग्नजित पहले से ही पुण्यात्मा थे और अब श्रीकृष्ण को अपने महल में उपस्थित पाकर वे अपने ज्ञान तथा सामर्थ्य के अनुसार श्रेष्ठतम विधि से उनका पूूजन करने लगे। 

वे स्वयं भगवान् के सम्मुख यह कहते हुए प्रस्तुत हुए, "प्रिय भगवन्! आप सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी हैं, आप समस्त जीवों के आश्रय नारायण हैं।आप स्वयं पूर्ण हैं तथा अपने व्यक्तिगत ऐश्वयों से प्रसन्न हैं,अतएव में किस प्रकार आपको कुछ अर्पित करूँ? 

इस प्रकार कुछ अर्पण करके मैं आपको कैसे प्रसन्न कर सकता हूँ? ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि मैं एक तुच्छ जीव हूँ। वास्तव में आपकी सेवा करने की मुझमें कोई क्षमता नहीं है।"

श्रीकृष्ण समस्त जीवों के परमात्मा हैं, अतएव वे राजा नग्नजित की कन्यासत्या के मन की बात समझ सकते थे। राजा द्वारा प्रदत्त उचित आसन, भोजन तथा निवास स्थान से भी वे अत्यन्त प्रसन्न थे। अतएव वे समझ सकते थे कि पिता और पुत्री दोनों ही उन्हें घनिष्ठ सम्बन्धी के रूप में प्राप्त करने के लिए अधीर हैं।

वे मुस्कराने लगे और गम्भीर स्वर में बोले, "प्रिय राजन् नग्नजित! आपको भली-भाँति ज्ञात है कि अपने धर्म में स्थित कोई भी क्षत्रिय कभी-भी किसी से कुछ नहीं माँगेगा चाहे दूसरा व्यक्ति कितने ही उच्च पद पर क्यों न हो। 

एक क्षत्रिय राजा का दूसरे व्यक्ति से इस प्रकार की याचना करना विद्वान वैदिक अनुयायियों ने जानबूझकर निषिद्ध किया है। यदि कोई क्षत्रिय इस नियम को भंग करता है, तो विद्वान उसके कार्य की निन्दा करते हैं। 

किन्तु इस दृढ़ विधि-विधान के होने पर भी मैं आपसे आपकी रूपवती कन्या का हाथ माँग रहा हूँ। ऐसा करने के पीछे मेरा उद्देश्य यह है कि आपने मेरा जो हार्दिक स्वागत किया है उसके बदले हमारे मध्य सम्बन्ध स्थापित हो जाए। 

आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि हमारी पारिवारिक प्रथा नहीं है, अतः अपनी पुत्री को हमें देने के लिए आप कोई शुल्क लगाएँगे, तो हम उसे नहीं दे सकते।" दूसरे शब्दों में सातों बैलों को परास्त करने की शर्त पूरी किए बिना ही श्रीकृष्ण राजा से सत्या का हाथ प्राप्त करना चाहते थे। 

भगवान् कृष्ण का वचन सुन कर राजा नग्नजित ने कहा, "प्रिय भगवन् । आप समस्त सुखों, ऐश्वर्यो और गुणों के सागर हैं। श्रीदेवी लक्ष्मी सदैव आपके वक्ष पर निवास करती हैं। इस परिस्थिति में मेरी पुत्री के लिए आपसे श्रेष्ठ पति कौन हो सकता है? मेरी पुत्री तथा मैं दोनों ने ही सदैव इस अवसर के लिए प्रार्थना की है।

आप यदुवंश के शिरोमणि हैं। मैं आपको सूचित करता हूँ कि प्रारम्भ से ही मैंने योग्य प्रत्याशी से ही अपनी कन्या का विवाह करने का प्रण किया है और ऐसा प्रत्याशी वही होगा, जो मेरी बनाई गई परीक्षा में विजयी हो। 

मैंने यह परीक्षा केवल इसलिए बनाई है, जिससे कि मैं अपने भावी दामाद के बल-कौशल और स्थिति को समझ सकूँ। आप भगवान् श्रीकृष्ण हैं और आप समस्त शूरवीरों में प्रमुख है। 

मुझे निश्चय है कि आप बिना किसी कठिनाई के इन सातों बैलों को वश में कर सकेंगे। अभी तक कोई राजा उन्हें वश में नहीं कर सका है और जिस किसी ने भी उन्हें नियंत्रण में लाने का प्रयास किया उसके हाथ-पाँव ही टूटे हैं।"

राजा नग्नजित ने आगे प्रार्थना की, "हे श्रीकृष्ण! यदि आप कृपा कर सातों बैलों को नाथ लें और उन्हें नियंत्रण में कर लें, तब निस्सन्देह आप ही मेरी पुत्री सत्या के वांछित वर चुने जाएँगे।" 

यह कथन सुनकर श्रीकृष्ण समझ गए कि राजा अपना प्रण-भंग नहीं करना चाहते, अतएव उनकी इच्छा पूर्ण करने के लिए वे कमर कस कर बैलों से युद्ध करने के लिए तत्पर हो गए। 

उन्होंने स्वयं को तत्काल सात कृष्णों में विभाजित कर लिया और उनमें से प्रत्येक ने एक बैल को पकड़ कर उसे नाथ लिया। इस प्रकार रस्सी से बाँध कर बैलों को ऐसे नियंत्रण में कर लिया। जैसे वे खेलने की वस्तु हों।

श्रीकृष्ण का स्वयं को सात स्वरूपों में बाँटना अत्यन्त अर्थपूर्ण है। राजा नग्नजित की पुत्री सत्या को ज्ञात था कि श्रीकृष्ण ने पहले ही अनेक राजकमारियों से विवाह किया है, फिर भी वह श्रीकृष्ण के प्रति आसक्त थी। 

उसे उत्साहित करने के लिए श्रीकृष्ण ने तत्काल अपना सात स्वरूपों में विस्तार कर लिया। इसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि श्रीकृष्ण एक हैं, किन्तु उनके विस्तार के अनन्त रूप है। 

उन्होंने सेकड़ों, हजारों पत्नियों से विवाह किया था, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि जब वे एक पत्नी के समीप रहते थे, तो दूसरी पत्नियाँ उनके संग से वंचित रहती थीं। श्रीकृष्ण अपने विस्तार के द्वारा प्रत्येक पत्नी का संग कर सकते थे।

जब श्रीकृष्ण ने बैलों को नाथ कर उनको अपने वश में कर लिया तब बैलों का घमण्ड और शक्ति तत्काल चूर-चूर हो गई। इस प्रकार बैलों ने जो नाम तथा यश प्राप्त किया था वह नष्ट हो गया। जब श्रीकृष्ण ने बैलों को नाथ लिया तब उन्होंने उनको उसी भाँति जोर से खींचा जैसे कोई बालक काठ के बैल को घसीटता है।

श्रीकृष्ण के इस पौरुष को देखकर राजा नग्नजित अत्यन्त चकित हो गए और अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक वे तत्काल अपनी पुत्री श्रीकृष्ण से समक्ष ले आये और उसे श्रीकृष्ण को सौंप दिया। श्रीकृष्ण ने भी तत्काल सत्या को पत्नी रूप में स्वीकार किया। इसके पश्चात् अत्यन्त भव्यता के साथ उनका विवाह-संस्कार सम्पन्न हुआ।

नग्नजित की रानियाँ भी अत्यन्त प्रसन्न थीं, क्योंकि उनकी पुत्री सत्या को श्रीकृष्ण पति रूप में प्राप्त हुए। इस शुभ अवसर पर राजा तथा रानियाँ अत्यन्त प्रसन्न थे, अतः विवाह के उपलक्ष्य में पूरे नगर में उत्सव मनाया गया। 

चारों ओर शंख, नगाड़ों तथा अन्य विभिन्न प्रकार के गीत-संगीत की ध्वनि सुनाई पड़ती थी। नवविवाहित दम्पति पर विद्वान ब्राह्मण आशीषों की वर्षा करने लगे। हर्ष के कारण नगर के समस्त निवासियों ने रंगीन वस्त्र तथा आभूषण धारण किए थे। 

राजा नग्नजित इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने पुत्री और जामाता को प्रचुर दहेज दिया। सर्वप्रथम उन्होंने दस हजार गाएँ दीं एवं सुन्दर वस्त्रों तथा स्वर्ण हार से युक्त तीन हजार नवयुवती दासियाँ दीं। दहेज की यह प्रथा भारतवर्ष में अभी भी प्रचलित है। 

विशेष रूप से यह प्रथा क्षत्रिय राजाओं में प्रचलित है। जब एक क्षत्रिय राजा का विवाह होता है, तब वधू के साथ उसकी समवयस्का कम से कम बारह दासियाँ दी जाती हैं। गाएँ और दासियाँ देने के पश्चात् राजा ने नौ हजार हाथी तथा हाथी से सौगुने रथ देकर दहेज को और भी समृद्ध बना दिया। 

इसका अर्थ है कि उन्होंने नौ लाख रथ दिए। उन्होंने रथों से सौगुने अश्व दिए अर्थात् नौ करोड़ अश्व दिए और अश्वों से सौगुने सेवक दिए अर्थात् नौ अरब सेवक दिए। 

राजा इन दास व दासियों को सब सुविधाएँ देकर सन्तानवत् अथवा परिवार के सदस्यों के समान पालन करते थे। ऊपर वर्णित रीति से यह दहेज देने के पश्चात् कोशल प्रदेश के राजा ने अपनी पुत्री तथा महान् जामाता को एक रथ पर बैठाया। 

उन्होंने श्रीकृष्ण व अपनी पुत्री के साथ उनकी सुरक्षा के लिए शस्त्रों से सज्जित एक सेना भेजी और उन्हें उनके घर जाने दिया। जब वे तीव्र गति से अपने नये घर की ओर यात्रा कर रहे थे, तब उनके प्रति वात्सल्य से राजा का हृदय द्रवित हो उठा।

श्रीकृष्ण से सत्या के इस विवाह से पूर्व अनेक लोगों ने राजा नग्नजित के बैलों के साथ प्रतियोगिता की थी। यदुवंश के तथा अन्य वंशों के भी अनेक राजाओं ने सत्या का हाथ पाने का प्रयास किया था। 

जब अन्य वंशों के निराश राजाओं ने यह समाचार सुना कि श्रीकृष्ण बैलों को वश में करके सत्या का पाणिग्रहण करने में सफल हो गए हैं, तब वे स्वाभाविक द्वेष से भर गए। 

जब श्रीकृष्ण द्वारका की ओर यात्रा कर रहे थे, तब समस्त निराश तथा परास्त राजाओं ने उन्हें घेर लिया और बरात पर अपने बाणों की वर्षा करने लगे। 

जब उन्होंने श्रीकृष्ण के दल पर आक्रमण किया और अनवरत घोर वर्षा के समान बाणों की वर्षा की तब श्रीकृष्ण के सर्वश्रेष्ठ सखा अर्जुन ने उनकी चुनौती स्वीकार की। अपने प्रिय सखा श्रीकृष्ण को उनके विवाह के अवसर पर प्रसन्न करने के लिए अर्जुन ने अकेले ही उन राजाओं को मार भगाया। 

उन्होंने गाण्डीव नामक अपना धनुष उठाया और तत्काल ही समस्त राजाओं को वैसे ही भगा दिया जैसे कोई सिंह समस्त छोटे पशुओं को केवल पीछा कर के भगा देता है। 

अर्जुन ने बिना किसी राजा का वध किए ही उन सबको भगा दिया। इसके पश्चात् यदुवंश शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी नवविवाहिता पत्नी तथा विशाल दहेज सहित भव्य रूप से द्वारका नगर में प्रवेश किया। तत्पश्चात श्रीकृष्ण ने वहाँ अपनी पत्नी के साथ अत्यन्त शान्तिपूर्वक निवास किया।

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श्रीकृष्ण ने उसके बाद भद्रा से विवाह किया । श्रीकृष्ण ने  भद्रा को अपनी प्रामाणिक पत्नी के रूप में स्वीकार किया।

इसके पश्चात् श्रीकृष्ण ने मद्रास प्रदेश के राजा की पुत्री से विवाह किया। उसका नाम लक्ष्मणा था। लक्ष्मणा सर्वगुण सम्पन्न थी। श्रीकृष्ण ने उससे भी बलपूर्वक विवाह किया था। 

उन्होंने उसका उसी प्रकार हरण किया जिस प्रकार गरुड़ ने अमृत के पात्र को असुरों से हर लिया था। उसके स्वयंवर की सभा में अनेक राजाओं की उपस्थिति में श्रीकृष्ण ने इस कन्या का हरण किया था। 

स्वयंवर वह संस्कार है, जिसमें वधू अनेक राजाओं की सभा में से अपने पति का चुनाव स्वयं कर सकती है।

इस अध्याय में चर्चित पाँच कन्याओं के साथ श्रीकृष्ण के विवाह का वर्णन पर्याप्त नहीं है। इनके अतिरिक्त भी उनकी हजारों पत्नियाँ थीं। भौमासुर असुर का वध करने के पश्चात् श्रीकृष्ण ने अन्य हजारों कन्याओं को स्वीकार किया। ये समस्त सुन्दरियाँ भौमासुर के महल में बन्दी थीं, जिन्हें श्रीकृष्ण ने मुक्त किया और उनसे विवाह किया।

FAQS 

श्रीकृष्ण का पहला विवाह किससे हुआ?

श्री कृष्ण ने पहला विवाह कालिन्दी से किया।जो सूर्यदेव की पुत्री थी।उन्होने यमुना के जल अन्दर रहकर भगवान विष्णु को प्राप्त करने के लिये तपस्या की इसलिये उन्हे यमुना के नाम से भी जाना जाता है।

श्री कृष्ण की कितने विवाह हुए?

श्री कृष्ण के प्रमुख 8 विवाह हुए। उनके नाम इस प्रकार है कालिन्दी,सत्यभामा,लक्ष्मणा,मित्रविन्दा,जाम्बवन्ती,रुक्मणी,सत्या, भद्रा।

श्री कृष्ण की पहली पत्नी कौन थी?

श्री कृष्ण की पहली पत्नी रुक्मणी थी।

श्री कृष्ण की कितनी पत्नियाँ थी?

प्रमुख 8 पत्नियों के अलावा श्री कृष्ण की हजारों पत्नियाँ थी जिन्हे श्री कृष्ण जी ने भौमासुर की कैद से छुटाया था।आजाद होने के बाद वे बिल्कुल आसहाय थी क्योकि उनके घरबार,परिवार को भौमासुर पहले ही नष्ट कर चुका था। अब वो बेसहार थी।श्री कृष्ण जी ने उन्हे कैद से छुटाया था इसलिए वे सभी स्त्रियाँ उनसे प्रेम करने लगी और उन्हे अपने पति रूप मे देखने लगी।

वे सभी स्त्रियाँ जानती थी कि श्री कृष्ण विवाहित हैं इसलिये वे बिना उनसे शादी किये स्वतंत्र रूप से वहीं उनके परदेश रहने लगी और घूमती-फिरती बस श्री कृष्ण के नाम का कीर्तन करती रहती।इसी कारण सब लोग उन्हे श्री कृष्ण की पत्नियाँ कहने लगे।

श्री कृष्ण की राधा कौन थी ?

राधा श्री कृष्ण की कल्पना थी,जो स्त्रीरूप मे परिवर्तित हुई।उन्हे रुक्मणी और लक्ष्मी के नाम से भी जाना जाता हैं ।कहा जाता है कि रुक्मणी ही कृष्ण की कल्पना बन कर राधा रूप मे प्रकट हुई।इसके अलावा पद्मपुराण मे दिया गया है कि राधा जी बरसाना के राजा वृषभानू गौप की पुत्री थी ,जो की लक्ष्मी जी का अवतार थी ।

प्रिय पाठकों !आशा करते है आपको पोस्ट पसंद आई होगी। विश्वज्ञान हमेशा ऐसी ही रियल स्टोरीज आपको मिलती रहेंगी। विश्वज्ञान में प्रभु श्री कृष्ण की अन्य लीलाओं के साथ फिर मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपना ख्याल रखे ,खुश रहे और औरों को भी खुशियां बांटते रहें। 

जय जय श्री राधे श्याम 
धन्यवाद। 

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