कुम्भ मेला (सम्पूर्ण जानकारी)


महाकुम्भ-पर्व किसे कहते हैं?

प्राचीनकालसे ही हमारी महान् भारतीय संस्कृतिमें तीर्थोंके प्रति और उनमें होनेवाले पर्वविशेषके प्रति बहुत आदर तथा श्रद्धा भक्तिका अस्तित्व विराजमान है। भारतीय संस्कृतिमें किसी पुण्य-पर्व, धार्मिक कृत्य, संस्कार, अनुष्ठान तथा पवित्र समारोह और उत्सव आदि के आयोजन मात्र प्रदर्शन, आत्मतुष्टि या मनोरंजन आदि की दृष्टि से नहीं किये जाते, अपितु प्रायः ऐसे धार्मिक एवं सांस्कृतिक आयोजनोंका मुख्य उद्देश्य होता है—आत्मशुद्धि और आत्मकल्याण। इसी प्रकार धार्मिक अनुष्ठान या पर्वोंके आयोजन में भी न केवल परम्पराका अनुपालन,अपितु शास्त्रानुमोदित प्राचीन भारतीय (वैदिक) संस्कृतिकी गरिमा से मण्डित पद्धतिके निर्वहणका सुप्रयास भी निहित रहता है।

प्राचीनकालमें तत्त्ववेत्ता ऋषियोंद्वारा मोक्ष-कामना तथा लोक-कल्याण की शुभ भावना से प्रेरित होकर गंगा आदि नदियोंके तटों तथा प्रयाग, हरिद्वार आदि पवित्र स्थलों पर ज्ञानसत्र के आयोजन धर्मचर्चा तथा भगवत्-लीला-श्रवण के प्रसंग एक तरफ जहाँ हमारी आध्यात्मिक परम्पराके द्योतक हैं, वहीं दूसरी ओर वर्तमान जगत के लिये प्रेरणादायक भी हैं। 

ऋषि-महर्षि, साधु-सन्त और विद्वत्-जनोंका समागम राष्ट्र की ऐहिक तथा पारलौकिक व्यवस्थापर विचार-विमर्शका हेतु था। इससे समाजको नवीन चेतना प्राप्त होती थी और देश-काल एवं वातावरणपर धार्मिक महत्ता का वर्चस्व भी स्थापित होता था। इस प्रकार इस प्रणाली से भारतीय समाज के विघटन को रोका जाता था। साथ-ही-साथ यह सद्विचारों के प्रसार एवं संगठन की एक स्वस्थ व्यवस्था थी। 

इसके द्वारा आत्मीयता एवं धार्मिक सौहार्द का वातावरण तैयार करने तथा सामाजिक समन्वय एवं अखण्ड राष्ट्र की परिकल्पना को भलीभाँति साकार करने में सहायता मिलती थी। कुम्भ-पर्व के सम्बन्ध में वेदों में अनेक महत्त्वपूर्ण मन्त्र मिलते हैं,जिनसे सिद्ध होता है कि कुम्भ-पर्व अत्यन्त प्राचीन और वैदिक धर्म से ओत-प्रोत है-

कुछ मन्त्र इस प्रकार है-

जघान वृत्रं स्वधितिर्वनेव रुरोज पुरो अरदन्न सिन्धून् ।J

बिभेद गिरिं नवभिन्न कुम्भभा गा इन्द्रो अकृणुत स्वयुग्भिः ॥

(ऋग्वेद १०। ८९ । ७)

अथार्त--कुम्भ-पर्वमें जानेवाला मनुष्य स्वयं दान-होमादि सत्कर्मोंके फलस्वरूप अपने पापोंको वैसे ही नष्ट करता है जैसे कुठार वन को काट देता है। जिस प्रकार गंगा नदी अपने तटों को काटती हुई प्रवाहित होती है, उसी प्रकार कुम्भ-पर्व मनुष्यके पूर्वसंचित कर्मोंसे प्राप्त हुए शारीरिक पापों को नष्ट करता है और नूतन (कच्चे) घड़ेकी तरह बादलको नष्ट-भ्रष्टकर संसारमें सुवृष्टि प्रदान करता है।'


'कुम्भी वेद्यां मा व्यथिष्ठा यज्ञायुधैराज्येनातिषिक्ता ।'

(ऋग्वेद)

अथार्त--हे कुम्भ-पर्व! तुम यज्ञीय वेदीमें यज्ञीय आयुधोंसे घृतद्वारा तृप्त होने के कारण कष्टानुभव मत करो।'


युवं नरा स्तुवते पत्रियाय कक्षीवते अरदतं पुरंधिम् ।

कारोतराच्छफादश्वस्य वृष्णः शतं कुम्भाँ असिञ्चतं सुरायाः ॥

(ऋग्वेद १ । ११६ । ७)


कुम्भो वनिष्टुर्जनिता शचीभिर्यस्मिन्नग्रे योन्यां गर्भो अन्तः ।

प्लाशिर्व्यक्तः शतधारउत्सो दुहे न कुम्भी स्वधां पितृभ्यः ॥

(शुक्लयजुर्वेद १९ । ८७)

अथार्त--कुम्भ-पर्व सत्कर्मके द्वारा मनुष्यको इहलोकमें शारीरिक सुख देनेवाला और जन्मान्तरों में उत्कृष्ट सुखोंको देनेवाला है।'


आविशन्कलशः सुतो विश्वा अर्षन्नभिश्रियः । इन्दुरिन्द्राय धीयते ॥

(सामवेद, पू० ६ । ३)


पूर्ण: कुम्भोऽधि काल आहितस्तं वै पश्यामो बहुधा नु सन्तः ।

स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ्कालं तमाहुः परमे व्योमन ॥

(अथर्ववेद १९ । ५३ । ३)

अथार्त--हे सन्तगण! पूर्णकुम्भ बारह वर्षके बाद आया करता है, जिसे हम अनेक बार प्रयागादि तीर्थों में देखा करते हैं। कुम्भ उस समयको कहते हैं जो महान् आकाश में ग्रह-राशि आदिके योगसे होता है।'और इसके अलावा यह भी कहा है-

(क) 'चतुरः कुम्भांश्चतुर्धा ददामि।' (अथर्व० ४ । ३४ । ७)

अथार्त--ब्रह्मा कहते हैं—'हे मनुष्यो! मैं तुम्हें ऐहिक तथा आमुष्मिक सुखों को देने वाले चार कुम्भ-पर्वो का निर्माण कर चार स्थानों (हरिद्वार, प्रयाग,उज्जैन और नासिक) - में प्रदान करता हूँ।'

(ख) 'कुम्भीका दूषीका: पीयकान्।' (अथर्व० १६ । ६ । ८)


अमृत-कुम्भ की अवधारणा 

वर्तमान समय में भी वसुधा के ओर-छोर तक किसी-न-किसी रूप में अखिलकोटिब्रह्माण्डनायक उस परम प्रभुकी व्यापक शासन-शक्ति धर्मरूप से निर्बाध दृष्टिगोचर हो रही है। वर्णाश्रमियों की सुदृढ़ताका ही फल है कि परमपिता परमेश्वर भी सदेह धरातलपर अवतीर्ण होकर सज्जन, साधु-रक्षा एवं दुष्टोंका संहार कर पृथ्वी का भार हलका करने में अग्रसर होते हैं-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

नाना प्रकारके पर्वोंका सर्जन भी धार्मिक विज्ञानोंद्वारा ही हुआ था। सबके मूलमें कोई-न-कोई अलौकिक विशेषता विद्यमान रहती है जिसे विचारशील ही समझ पाते हैं। इन्हीं महापर्वों में कुम्भ-पर्व भी है जो कि भारतके हरिद्वार,प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चार स्थानोंमें मनाया जाता है।


कुम्भ मेला (सम्पूर्ण जानकारी)


वैसे 'कुम्भ' शब्दका अर्थ साधारणतः घड़ा ही है, किन्तु इसके पीछे जनसमुदाय में पात्रता के निर्माण की रचनात्मक शुभभावना, मंगलकामना एवं जन-मानस के उद्धार की प्रेरणा निहित है।यथार्थत: 'कुम्भ' शब्द समग्र सृष्टि के कल्याणकारी अर्थको अपने- आपमें समेटे हुए है

कुं पृथ्वीं भावयन्ति संकेतयन्ति भविष्यत्कल्याणादिकाय महत्याकाशे स्थिताः बृहस्पत्यादयो ग्रहाः संयुज्य हरिद्वारप्रयागादितत्तत्पुण्यस्थान विशेषानुद्दिश्य यस्मिन् सः कुम्भः ।

'पृथ्वीको कल्याणकी आगामी सूचना देनेके लिये या शुभ भविष्य के संकेत के लिये हरिद्वार, प्रयाग आदि पुण्य-स्थानविशेषके उद्देश्यसे निर्मल महाकाशमें बृहस्पति आदि ग्रहराशि उपस्थित हों जिसमें, उसे 'कुम्भ'कहते हैं।

इसके अतिरिक्त अन्यान्य जन-कल्याणकारी भावों को भी 'कुम्भ शब्दके शब्दार्थमें देखा जा सभारते।कता है।पुराणोंमें कुम्भ-पर्वकी स्थापना बारहकी संख्यामें की गयी है, जिनमें से चार मृत्युलोकके लिये और आठ देवलोकोंके लिये हैं-

देवानां द्वादशाहोभिर्मर्त्यैर्द्वादशवत्सरैः ।

जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया ॥

पापापनुत्तये नॄणां चत्वारि भुवि भारते।

अष्टौ लोकान्तरे प्रोक्ता देवैर्गम्या न चेतरैः ॥

भूमण्डल के मनुष्य मात्र के पाप को दूर करना कुम्भ की उत्पत्ति का हेतु है। यह पर्व प्रत्येक बारहवें वर्ष हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चारों स्थानों में होता रहता है। इन पर्वों में भारत के सभी प्रान्तों से समस्त सम्प्रदायवादी स्नान, ध्यान, पूजा-पाठादि करनेके लिये आते हैं।

क्षार-समुद्रसे पर्यवेष्टित भारत भूमि स्वभावतः मलिनता के कलंक-पंक से युक्त है। यह पुण्य प्रक्षालित भूमि है। भौगोलिक दृष्टि से इसके चार पवित्र स्थानों में उस अमृत-कुम्भ की प्रतिष्ठा हुई थी, जो उस समुद्र-मन्थन से उद्भूत हुआ था। कालिक दृष्टिसे ऐसे ग्रहयोग जो खगोल में लुप्त-सुप्त अमृतत्व को प्रत्यक्ष और प्रबुद्ध कर देते हैं, चारों स्थानोंमें बारह-बारह वर्षपर अर्थात् द्वादश वर्षात्मक कालयोग से प्रकट होते हैं। तब गंगा (हरिद्वार), त्रिवेणीजी (प्रयाग), शिप्रा (उज्जैन) और गोदावरी (नासिक) -ये पतितपावन नदियाँ अपनी जलधारा में अमृतत्व को प्रवाहित करती हैं। अर्थात् देश, काल एवं वस्तु तीनों अमृतके प्रादुर्भावके योग्य हो जाते हैं। फलस्वरूप अमृतघट या कुम्भका अवतरण होता है।

कालचक्र न केवल जीवन के क्रिया-कलाप का मूलाधार है; अपितु समस्त यज्ञकर्म, अनुष्ठान एवं संस्कार आदि भी कालचक्र पर आधारित हैं। कालचक्र में सूर्य, चन्द्रमा एवं देवगुरु बृहस्पतिका महत्त्वपूर्ण स्थान है।

इन तीनों का योग ही कुम्भ-पर्व का प्रमुख आधार है। जब बृहस्पति मेष राशि पर तथा चन्द्रमा- सूर्य मकर राशि पर स्थित हों तब प्रयागमें अमावास्या तिथि को अति दुर्लभ कुम्भ होता है। इस स्थिति में सभी ग्रह मित्रतापूर्ण और श्रेष्ठ होते हैं। हमारे जीवन में जब मित्र और श्रेष्ठजनोंका मिलन होता है तभी श्रेष्ठ एवं शुभ विचारों का उदय होता है और हमारे जीवनमें यह योग ही सुखदायक होता है।

कुम्भ के अवसर पर भारतीय संस्कृति और धर्म से अनुप्राणित सभी सम्प्रदायों के धर्मानुयायी एकत्रित होकर अपने समाज, धर्म एवं राष्ट्र की एकता, अखण्डता, अक्षुण्णता के लिये विचार-विमर्श करते हैं। स्नान, दान, तर्पण तथा यज्ञ का पवित्र वातावरण देवताओं को भी आकृष्ट किये बिना नहीं रहता। ऐसी मान्यता है कि इस महापर्व पर सभी देवगण तथा अन्य पितर- यक्ष- गन्धर्व आदि पृथ्वीपर उपस्थित होकर न केवल मनुष्य मात्र, अपितु जीव मात्र को अपनी पावन उपस्थिति से पवित्र करते रहते हैं।


अमृत-कुम्भका स्वरूप एवं प्रार्थना-मन्त्र

कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाश्रितः ।

मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्थिताः ॥

कुक्षौ तु सागरा: सर्वे सप्तद्वीपा वसुन्धरा ।

ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः सामवदो ह्यथर्वणः ॥

अङ्गैश्च सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिताः ।

अथार्त-'कलश के मुख में विष्णु, कण्ठ में रुद्र, मूल भाग में ब्रह्मा, मध्य भाग में मातृगण, कुक्षिमें समस्त समुद्र, पहाड़ और पृथ्वी रहते हैं और अंगों के सहित ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद भी रहते हैं।'

देवदानवसंवादे मथ्यमाने महोदधौ ।

उत्पन्नोऽसि तदा कुम्भ विधृतो विष्णुना स्वयम् ॥

त्वत्तोये सर्वतीर्थानि देवाः सर्वे त्वयि स्थिताः ।

त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः ॥

शिवः स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः ।

आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवाः सपैतृकाः ॥

त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि यतः कामफलप्रदाः ॥

अथार्त-'हे कुम्भ! देव-दानव के विवादरूप में समुद्र के मथे जाने पर तुम्हारी उत्पत्ति हुई, जिसे साक्षात् भगवान् विष्णु ने धारण किया। उस तुम्हारे जल में समस्त तीर्थ, समस्त देवता, समस्त प्राणी, प्राण आदि स्थित रहते हैं। तुम साक्षात् शिव, विष्णु और ब्रह्मा हो। आदित्य, वसु, रुद्र, सपैतृक विश्वेदेव आदि समस्त कार्योंके फलप्रद देवता तुम्हारे में सर्वदा स्थित रहते हैं।'

कुम्भ की उत्पत्ति की अमरकथा एक समय की बात है, दैत्यों और दानवोंने बड़ी भारी सेना लेकर देवताओं पर चढ़ाई की। उस युद्ध में दैत्यों के सामने देवता परास्त हो गये, तब इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता अग्नि को आगे करके ब्रह्माजी  की शरण  में गये। वहाँ उन्होंने अपना सारा हाल ठीक-ठीक कह सुनाया। ब्रह्माजीने कहा- 'तुमलोग मेरे साथ भगवान  की  शरण में चलो।' यह कहकर सम्पूर्ण देवताओं को साथ ले क्षीरसागर के उत्तर-तट पर गये और भगवान् वासुदेव (कृष्ण )को सम्बोधित करके बोले-'विष्णो! शीघ्र उठिये और इन देवताओं का कल्याण कीजिये। आपकी सहायता न मिलने से दानव इन्हें बारम्बार परास्त करते हैं।' 


उनके ऐसा कहने पर कमल के समान नेत्रवाले भगवान् अन्तर्यामी पुरुषोत्तम ने देवताओं के शरीर की अवस्था देखकर कहा- 'देवगण ! मैं तुम्हारे तेज की वृद्धि करूँगा। मैं जो उपाय बतलाता हूँ, उसे तुमलोग करो। दैत्योंके साथ मिलकर सब प्रकार की ओषधियाँ ले आओ और उन्हें क्षीरसागर में डाल दो। फिर मन्दराचल को मथानी और वासुकि नाग को नेती (रस्सी) बनाकर समुद्रका मन्थन करते हुए उससे अमृत निकालो। इस कार्य में मैं तुमलोगों की सहायता करूँगा। समुद्रका मन्थन करने पर जो अमृत निकलेगा, उसका पान करने से तुमलोग बलवान् और अमर हो जाओगे।' 


 देवाधिदेव भगवान्‌ के ऐसा कहने पर सम्पूर्ण देवता दैत्यों के साथ सन्धि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गये- तत्पश्चात् देवता और दानवों ने पृथ्वी के उत्तर भाग में हिमालय के समीप क्षीरोदसिन्धु में मन्थन किया, जिसमें मन्दराचल 'मन्थन दण्ड' था, वासुकी ‘नेती’ थे, कच्छप रूप धारी भगवान् मन्दराचल के पृष्ठभाग थे और भगवान् विष्णु उक्त मन्थन-दण्डको पकड़े हुए थे, तदनन्तर उस क्षीरसागरसे चौदह रत्न- लक्ष्मी, कौस्तुभ, पारिजात, सुरा, धन्वन्तरि, चन्द्रमा, गरल, पुष्पक, ऐरावत, पांचजन्य शंख, रम्भा, कामधेनु, उच्चैः श्रवा और अमृत-कुम्भ निकले।


 उन्हीं रत्नों में से अमृत-कुम्भ के निकलते ही देवताओं के इशारे से कुम्भ- इन्द्रपुत्र 'जयन्त' अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्योंने अमृतको वापस लेने के लिये जयन्त का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयन्त को पकड़ा। तत्पश्चात् अमृत-कलश पर अधिकार जमाने के लिये देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। 


परस्पर इस मार-काट के समय में पृथिवी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक)-पर कलश गिरा था, उस समय चन्द्रमा ने घट से प्रस्त्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शान्त करने के लिये भगवान् ने  मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सब को अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव-युद्धका अन्त किया गया। 

FAQS-

कुंभ का क्या महत्व है?

कुम्भ मेला या कुम्भ मे स्नान करने का शास्त्रों मे बहुत महत्त्व बताया गया है।जिन मनुष्य  के मन मे मुक्ति की कामना होती है,वह कुम्भ योग (जल) मे स्नान कारता है। कुम्भ-योग में स्नान कर वह मनुष्य अमृतत्व (मुक्ति)-की प्राप्ति करता है। जिस प्रकार दरिद्र मनुष्य सम्पत्तिशाली को नम्रता से अभिवादन करता है, उसी प्रकार कुम्भ-पर्व में स्नान करने वाले मनुष्यको देवगण भी नमस्कार करते हैं।

कुंभ मेला शब्द का क्या अर्थ है?

वैसे 'कुम्भ' शब्दका अर्थ साधारणतः घड़ा ही है, किन्तु इसके पीछे जनसमुदाय में पात्रता के निर्माण की रचनात्मक शुभभावना, मंगलकामना एवं जन-मानस के उद्धार की प्रेरणा निहित है। 'कुम्भ' शब्द समग्र सृष्टिके कल्याणकारी अर्थको अपने-आपमें समेटे हुए है-

  कुं पृथ्वीं भावयन्ति संकेतयन्ति भविष्यत्कल्याणादिकाय महत्याकाशे अथार्त-पृथ्वीको कल्याणकी आगामी सूचना देनेके लिये या शुभ भविष्य के संकेत के लिये हरिद्वार, प्रयाग आदि पुण्य-स्थानविशेष के उद्देश्य से निर्मल महाकाश में बृहस्पति आदि ग्रहराशि जिसमे उपस्थित हों , उसे 'कुम्भ' कहते हैं।

  इसके अतिरिक्त अधिकतर लोगों मे जन कल्याण करने की भावना होती है उनमे मौजूद  जन-कल्याणकारी भावों को भी 'कुम्भ' कहते है।

कुंभ मेले को भारत का सबसे शुभ काल क्यों माना जाता है?

कुंभ मेले को भारत का सबसे शुभ काल इसलिए माना जाता है क्योकि प्राचीनकाल से ही हमारी महान् भारतीय संस्कृति में तीर्थों के प्रति और उनमें होने वाले पर्व विशेष के प्रति बहुत आदर तथा श्रद्धा-भक्तिका अस्तित्व विराजमान है। भारतीय संस्कृति में किसी पुण्य-पर्व, धार्मिक कृत्य, संस्कार, अनुष्ठान तथा पवित्र समारोह और उत्सव आदिके आयोजन मात्र प्रदर्शन, आत्मतुष्टि या मनोरंजन आदिकी दृष्टिसे नहीं किये जाते, अपितु प्राय: ऐसे धार्मिक एवं सांस्कृतिक आयोजनोंका मुख्य उद्देश्य होता है-आत्मशुद्धि और आत्मकल्याण। 

इसी प्रकार धार्मिक अनुष्ठान या पर्वोंके आयोजन में भी न केवल परम्पराका अनुपालन,अपितु शास्त्रानुमोदित प्राचीन भारतीय (वैदिक) संस्कृतिकी गरिमासे मण्डित पद्धतिके निर्वहणका सुप्रयास भी निहित रहता है। प्राचीनकाल में तत्त्ववेत्ता ऋषियों द्वारा मोक्ष-कामना तथा लोक-कल्याणकी शुभ भावनासे प्रेरित होकर गंगा आदि नदियोंके तटों तथा प्रयाग, हरिद्वार आदि पवित्र स्थलोंपर ज्ञानसत्रके आयोजन धर्मचर्चा तथा भगवत्-लीला-श्रवण के प्रसंग एक तरफ जहाँ हमारी आध्यात्मिक परम्परा के द्योतक हैं,वहीं दूसरी ओर वर्तमान जगत्‌के लिये प्रेरणादायक भी हैं। 

ऋषि-महर्षि, साधु-सन्त और विद्वत्-जनोंका समागम राष्ट्र की ऐहिक तथा पारलौकिक व्यवस्थापर विचार-विमर्श का हेतु था। इससे समाज को नवीन चेतना प्राप्त होती थी और देश-काल एवं वातावरणपर धार्मिक महत्ताका वर्चस्व भी स्थापित होता था। इस प्रकार इस प्रणाली से भारतीय समाजके विघटन को रोका जाता था।

साथ-ही-साथ यह सद्विचारोंके प्रसार एवं संगठन की एक स्वस्थ व्यवस्था थी। इसके द्वारा आत्मीयता एवं धार्मिक सौहार्द का वातावरण तैयार करने तथा सामाजिक समन्वय एवं अखण्ड राष्ट्र की परिकल्पना को भलीभाँति साकार करनेमें सहायता मिलती थी।कुम्भ-पर्वके सम्बन्धमें वेदोंमें अनेक महत्त्वपूर्ण मन्त्र मिलते हैं,जिनसे सिद्ध होता है कि कुम्भ-पर्व अत्यन्त प्राचीन और वैदिक धर्म से ओत-प्रोत है-


कुम्भ-पर्वका उद्देश्य एवं आध्यात्मिक रहस्य

हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चार कुम्भ-पर्वके निर्णीत स्थानों में कुम्भ-योगके समय तत्तत्सम्प्रदाय, सम्मानित साधु महात्माओं के समवाय द्वारा संसार के सर्वविध कष्टों के निवृत्यर्थ देश, समाज, राष्ट्र और धर्म आदि समस्त विश्वके कल्याण-सम्पादनार्थ निष्काम भावनापुरस्सर वेदादि शास्त्रानुकूल अमूल्य दिव्य उपदेशोंसे जगत्कल्याण करना ही 'कुम्भ-पर्व' का महान् उद्देश्य है।


कुम्भ-पर्व के आध्यात्मिक रहस्य के विषय में विचार करने पर ज्ञात होता है कि जो गृहस्थ मनुष्य पंचाग्नि विद्या' को जानते हैं तथा जो वानप्रस्थी, संन्यासी या नैष्ठिक ब्रह्मचारिगण सांसारिक विषय-वासनाओं से विरक्त होकर श्रद्धापूर्वक तप तथा सत्य-पालनादिका आचरण करते हैं, वे उत्तरायण- मार्गसे अर्थात् अर्चिमार्ग से सूर्यलोक होते हुए 'ब्रह्मलोक' जाते हैं। 

वहाँ अनेक कल्पतक निवास कर पुनः जिस मार्गसे वे गये थे उसी मार्ग से लौटकर इन्द्रादि लोकोंमें ही रहते हैं और वे भूलोकमें नहीं आते। इन्द्रादि लोकों में रहते हुए सौभाग्यवश गुरूपदेश द्वारा ज्ञानप्राप्ति हो जानेके कारण मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है, जिससे वे इस संसारमें नहीं आते हैं,ब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं।

 वहीं दूसरी ओर जो साधारण गृहस्थजन ग्राम में ही रहते हुए इष्ट - अग्निहोत्रादि वैदिक कर्म तथा पूर्त्त-वापी, कूप-तड़ागादि प्रतिष्ठा तथा दान, यज्ञ आदिका आचरण करते हैं, वे दक्षिणायन-मार्गसे अर्थात् धूम-मार्ग से 'चन्द्रलोक' जाते हैं। वहाँ वे पुण्यक्षयपर्यन्त निवास कर फिर बादल आदि बनकर इस पृथ्वीपर औषध, तृण तथा वनस्पतिरूप में वृष्टिद्वारा पैदा होते हैं। 

जो मनुष्य 'पंचाग्नि विद्या' आदि से तथा अग्निहोत्र, वापी, कूप, तड़ागादि प्रतिष्ठा, दान, यज्ञ आदिसे भी वंचित रहते हैं, वे कीट,पतंग आदि की योनियों में जाते हैं और बार-बार जन्म-मरणजन्य क्लेशको भोगते हैं। इस प्रकार मरनेके बाद मनुष्यों की उत्तम, मध्यम तथा अधम- ये तीन गतियाँ उपनिषदोंमें वर्णित हैं। 

जो मनुष्य मरण से पहले अथार्त मरने से पहले ही गुरूपदेश द्वारा तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, उनकी मरने के समय प्राणोंके साथ आत्मा पूर्वोक्त मार्गों में से किसी भी मार्गका अनुसरण नहीं करती, अपितु हृदय में ही (ब्रह्ममें) लीन हो जाती है। यह सर्वोत्तम गति ज्ञानियोंके लिये उपनिषदोंमें बतलायी गयी है। 

वस्तुतः पूर्णकुम्भ तथा अर्धकुम्भ-पर्व मनाने का रहस्य यह है कि हम लोग इस पर्व पर दूर-दूर से अनेक स्थानोंसे हरिद्वार, प्रयाग आदि पवित्र तीर्थों में आकर गंगास्नान से पवित्र होकर श्रेष्ठ विद्वानों के उपदेशद्वारा ज्ञान प्राप्त करें तथा तप, सत्य, दान, यज्ञ आदि शुभ कर्मों का यथाधिकार, यथारुचि आचरण करें, जिससे मृत्यु के बाद हमें सर्वोत्तम, उत्तम या मध्यम गति प्राप्त हो और अधम गति कदापि न मिले।

कुम्भ मेले का आरम्भ किसने किया?

कुम्भ पर्वन के आद्यप्रवर्तक भगवान् शंकराचार्य जिस कुम्भ-पर्वका उल्लेख वेदों और पुराणोंमें मिलता है, उसकी प्राचीनता के सम्बन्धमें तो किसीको संदेह होनेका अवसर ही नहीं है। किन्तु यह बात अवश्य विचारणीय है कि कुम्भ मेले का धार्मिक रूप में।प्रसार करने का श्रीगणेश किसने किया? 

इस विषयमें बहुत अन्वेषण करने पर सिद्ध होता है कि कुम्भ-मेले को प्रवर्तित यानी आरम्भ करने वाले भगवान् शंकराचार्य हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने कुम्भ-पर्वके प्रचारकी व्यवस्था केवल धार्मिक संस्कृति को सुदृढ़ करने के लिये किया था। उन्हीं के आदर्शानुसार आज भी कुम्भ-पर्व के चारों सुप्रसिद्ध तीर्थों में सभी सम्प्रदायों के साधु-महात्मागण देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप लोक- कल्याण की दृष्टि से धर्म का प्रचार करते हैं, जिससे समस्त मानव-समाज का कल्याण होता है।

भगवान् शंकराचार्यजी के कुम्भ-प्रवर्तक होनेके कारण ही आज भी कुम्भ-पर्व का मेला मुख्यतः साधुओं का ही माना जाता है। वस्तुतः साधु-मण्डली ही कुम्भ का जीवन है। भगवान् शंकराचार्य ने जिस महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिये कुम्भ-पर्व को प्रवर्तित किया था, आज उसमें जो आवश्यकता से अधिक कमी आ गयी है, वह किसी से छिपी नहीं है।

आज प्रत्येक गृहस्थ एवं साधु-महात्माओं को चाहिये कि पुनःभगवान् शंकराचार्यजी के सदुद्देश्य की पूर्ति में मनसा, वाचा प्रवृत्त होकर अपना और देश का कल्याण कर कुम्भ-पर्व के महत्त्व को सुरक्षित रखें।

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