गरुड़ ज्ञान- 25 पांच प्रेतों की अद्भुत कथा

गरुड़ ज्ञान- 25 
पांच प्रेतों की अद्भुत कथा


हेलो डिअर रीडर्स ,कैसे है आप लोग ,आशा करते है की आप ठीक होंगे। तो फ्रेंड्स आज की इस पोस्ट में हम 5 प्रेतों  की एक अद्भुद कहानी को पढ़ेंगे। इस कथा का वर्णन गरूड़ पुराण के 25 वें अध्याय में किया गया है। बहुत ही सुंदर कथा है इसलिए आप ध्यान से पढियेगा। 

गरुड़ ज्ञान- 25 पांच प्रेतों की अद्भुत कथा


एक बार की बात है गरूड़ जी ने ,भगवान् विष्णु से कहा ,कि हे प्रभु आपने मुझे अब तक बहुत सा ज्ञान दिया है। आपने मुझे बहुत ही रहस्य भरी बाते बताई है लेकिन प्रभु आज मुझे आपकी कोई  ऐसी कथा सुन्नी है ,जिसमे आपकी अद्भुत महिमा समाई हो। तब भगवान् विष्णु जिन्हे हम कृष्ण के नाम से भी जानते है ,उन्होंने गरूड़ जी को एक कथा सुनाई जिसमे एक संतप्तक नाम का ब्राह्मण था और साथ ही 5 प्रेत भी थे। ये पाँचों किस कारण प्रेत बने ,वही आज इस कथा में हम जानेंगे। 


भगवान विष्णु गरूड़ जी को कथा सुनाते हुए कहते है की ,हे गरूड़, बहुत समय पहले की बात है एक संतप्तक नाम का ब्राहमण था। जिसने अपनी तपस्या के बल पर खुद को पापों से मुक्त कर लिया था। यह संसार मन को भटकाने वाला है ऐसा सोचकर वह वैरागी बन कर वन में घूमने लगे। जहाँ -तहाँ जब जो जगह ठीक लगती , वहीँ बैठकर भगवान विष्णु का ध्यान करने लगते। 


एक बार उस ब्राह्मण के मन में आया की वो पृथ्वी पर जितने भी तीर्थ स्थान है ,उन सभी स्थानों पर जाए। उसने ये लक्ष्य बना लिया की वो सभी तीर्थों पर जाएगा और उसने अपनी यात्रा शुरू कर दी। 


गरुड़ ज्ञान- 25 पांच प्रेतों की अद्भुत कथा


संसार के प्रति इन्द्रियां खुद ही आकर्षित हो जाती है, ऐसा सोचकर उसने संसार के आकर्षण से बचने के लिए अपनी बाहें ,चित,वृत्तयियों को भी रोक लिया था ,लेकिन अपने पूर्व संस्कारों के प्रभाव के कारण वह रास्ता भूल गया। उसे चलते चलते शाम  हो गई। अब उसे नहाने की इच्छा होने लगी। वो चारों तरफ पानी की तलाश करने लगे। 

Read more- मौत के बाद क्या होता है आत्मा के साथ ?मृत्यु के बाद यमलोक पहुंचने में कितने दिन लगते है ?

वह पानी की तलाश में एक ऐसी जगह पहुंचे जहाँ एक बहुत ही भयंकर ,घना जंगल था। उस वन में ताल ,तमाल ,इमली ,प्रियाल ,कटहल ,नीम ,बहेड़ा ,श्रीपर्णी ,शाल शाखोट जिसे सिहोर का वृक्ष भी कहा जाता है ,चंदन ,तिन्दुक ,राल ,अर्जुन ,आमड़ा, लसोड़ा ,बेर और कनैल के वृक्ष की लताये ,शाखाये इतनी ज्यादा फैली हुई थी की पक्षियों के लिए भी रास्ता नहीं दिखाई दे रहा था। फिर भला मनुष्य के लिए मार्ग कैसे मिलता। 


उस वन में अनेक प्रकार के हिंसक पशु जैसे शेर ,बाघ, तेंदुआ ,रीछ ,नीलगाय, महिष यानी जंगली भैस आदि भी थे।उस वन में अनेक प्रकार के हिंसक पशु जैसे शेर ,बाघ, तेंदुआ ,रीछ ,नीलगाय, महिष यानी जंगली भैस ,बंदर ,हाथी ,कृष्ण मृग ,नाग आदि भी थे। इसके अलावा उस वन में भूत ,प्रेत और भयानक रूपों वाले पिशाच और  पिशाचिनियाँ भी थी।

संतप्तक नामक ब्राह्मण उस घने जंगल को देखकर डर गया  ,लेकिन फिर भी उसने हिम्मत जुटाई और ये सोच कर की ,जो भी होगा देखा जाएगा,उस वन के अंदर चला गया। 


झिंगरों तथा उल्लुओं की आवाज से वह जंगल गूँज रहा था। अभी वो थोड़ी ही दूर चला था की उसे एक बरगद के पेड़ पर एक लाश लटकी हुई दिखाई दी। जिसे पांच प्रेत मिलकर खा रहे थे। 


गरुड़ ज्ञान- 25 पांच प्रेतों की अद्भुत कथा


भगवान् विष्णु कथा को आगे बढ़ाते हुए बोले हे खगेश यानी गरूड़ जी, उन प्रेतों के अंदर मात्र सिरायों से युक्त  हड्डी और चमड़ा ही बचा था। उनका पेट पीठ में धसा हुआ था। नेत्र  के समान  कुएं में गिरने के भय से नासिका ने उनका साथ छोड़ दिया था। 


वसा से भरे हुए ताजे शव के मस्तिष्क भाग को वो स्वाद लेकर खा रहे थे और हड्डियों को तोड़ने में लगे हुए थे। वह प्रेत अपने बड़े -बड़े दांतों को कटकटा रहे थे। 


ऐसे प्रेतों को देखकर घबराये हए हृदय वाला वह ब्राह्मण वहीँ ठिठक गया। निर्जन वन में आये हुए उस ब्राह्मण को प्रेतों ने देख लिया। 


अब वो पांचों प्रेत आपस में प्रतिस्पर्धा लगे की पहले उसे मैं खाऊंगा ,पहले उसे मैं खाऊंगा। उसमे से दो प्रेतों ने उसके हाथ पकड़ लिए और दूसरे दो प्रेतों ने उसके पैर पकड़ लिए और बचे हुए एक प्रेत ने उसका  सिर पकड़ लियाऔर फिर से कहने लगे की इसे पहले मैं डकारूँगा ,इसे पहले मैं डकारूँगा। 

Read more- जन्म लेते ही क्यों रोने लगते है बच्चे ?--जाने विष्णु पुराण के अनुसार

ऐसा कहते हुए वो पांचों प्रेत ब्राह्मण को खींचने लगे। और फिर उसे साथ लेकर आकाश में चले  गए लेकिन उस बरगद के पेड़ पर लटकी हुई लाश में कितना मांस बाकी है और कितना नहीं , इस बात को भी वो सोच रहे थे। 


उसी समय  उन प्रेतों ने देखा की दाँतों के द्वारा नोचे जाने के बाद भी वह लाश फटी हुई आतों से भरा हुआ है। इसलिए वे आकाश से निचे उतर आये और उस लाश को भी अपने पैरों में  दबा कर आकाश में लेकर  दोबारा उड़ चले। 


हे गरूड़ ,आकाश में ले जा रहे उस प्रेत रूप में वह ब्राह्मण खुद को देखने लगा। उसे लगने लगा की इस प्रेत की जगह वह खुद है। वह बहुत ज्यादा डर गया और  मन से मेरी आराधना  लगा। 


कहने लगा की हे देवाधिदेव,चिन्मय चक्रधारी मेरी रक्षा करों , जिन  भगवान ने अपने चक्र के प्रभाव से ग्राह यानी मगरमच्छ के मुहं को विदीर्ण करके गजेंद्र यानी हाथी को छुटाया ,उसके दुःख को दूर किया ,वे श्री हरी आज मेरी भी रक्षा करें।


गरुड़ ज्ञान- 25 पांच प्रेतों की अद्भुत कथा


मगध नरेश जरासंध ने निर्दोष राजाओं को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया था। जिन मुरारी श्री कृष्ण ने राजसिय यज्ञ के लिए पाण्डु पुत्र भीमसेन के द्वारा उस राजा को मल्ल युद्ध द्वारा मरवा कर ,बंदी राजाओ को मुक्त किया था। इस समय मेरे कर्मपाश को काट कर वे श्री हरी मेरी रक्षा करें। 


हे गरूड़ उस वक़्त एक चित्त होकर जब वह मेरी स्तुति करने लगा तो मैं उठ खड़ा हुआ और सहसा वहां जा पहुँच जहां प्रेत उसको लेकर जा रहे थे। 


उन लोगो द्वारा ले जाते हुए उस ब्राह्मण को देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। कुछ काल तक बिना पूछे मैं भी उनके पीछे -पीछे चलता रहा। 


मेरे सन्निधि मात्र से उस ब्राह्मण को पालकी मे सोये हुए राजा के समान सुख प्राप्त हुआ। इसके बाद मैंने सुमेरु पर्वत पर जा रहे मणिभद्र नामक यक्षराज को देखा। 


मैंने नेत्रों के संकेत से उसे पास बुलाया और कहा ,हे यक्षराज इस समय इन प्रेतों को नष्ट करने के लिए प्रतिध्वंधि यौद्धा बन जाओ। 


युद्ध में इन्हे मार कर इस शव को अपने अधिकार में कर लो। इतना सुनते ही उस मणिभद्र ने प्रेतों को दुःख पहुंचाने वाले प्रेत रूप को धारण कर लिया। 


दोनों भुजाओ को फैलाकर होंठो को जीभ से चाटते हुए अपनी लम्बी -लम्बी और भयानक साँसों से उन प्रेतों को  बहलाते हुए वह मणिभद्र उनके सामने जाकर खड़ा हो गया। 


फिर उसने दो प्रेतों को अपने हाथों से ,दूसरे दो प्रेतों को अपने पैरों से और एक को  मुँह द्वारा सर से पकड़ लिया। उसके बाद अपने शक्तिशाली मुक्के से ऐसा प्रहार किया की वे सब तीतर बितर हो गए। 


इधर -उधर गिरने के कारण उनके हाथ ,पैर क्षतिग्रस्त हो गए ,फिर भी वे दोबारा उठे और उस  ब्राह्मण तथा शव को लेकर एक हाथ से युद्ध करने लगे। 


उन लोगों ने अपने नाखूनों ,दांतों और थप्पड़ों से उस पर प्रहार किये। पर मणिभद्र ने उनके प्रहारों को विफल कर दिया और उनसे उस शव को छीन लिया। 

Read more- कब और कैसे होगा कोरोना का अंत ? जाने रामचरितमानस के अनुसार

मणिभद्र द्वारा शव को छीन लिए जाने पर पारयात्र पर्वत पर ब्राह्मण को छोड़कर वे सब अत्यंत उत्साह से भरे हुए दोबारा मणिभद्र से लड़ने के लिए जा पहुंचे। 


क्षणमात्र में ही उन लोगों ने वायु के समान तीव्रगामी मणिभद्र को घेर लिया लेकिन जैसे ही उन लोगों ने मणिभद्र को घेरा, तो वह वहां से गायब हो गया। 


ऐसी स्तिथि देखकर हताश होकर वह प्रेत उस ब्राह्मण के पास जा पहुंचे। उस पर्वत पर पहुँच कर जैसे ही उन लोगों ने ब्राह्मण को मारना शुरू किया ,तभी मेरी उपस्थिति और ब्राह्मण के प्रभाव के कारण उन्हें अपने पूर्व जन्मों का स्मरण हो गया।


जैसे ही उन्हें अपना पूर्व जन्म याद आया तो वह उस ब्राह्मण की प्रदिक्षणा करने लगे। प्रदिक्षणा करने के  बाद उन प्रेतों ने उस ब्राह्मण से कहा ,हे विप्रदेव आप हमे क्षमा करें। 


उनके दीन वचनों को सुनकर ब्राह्मण ने उनसे पूछा कि ,तुम लोग कौन हो ? क्या मैं जो ये सब देख रहा हूँ वो कोई माया है या फिर कोई स्वप्न देख रहा हूँ या फिर ये मेरे मन का कोई भ्रम है। 


तब उन प्रेतों ने ब्राह्मण से कहा की ,हे विप्रदेव हम सब प्रेत है। और पूर्व जन्मों के दुष्कर्मों के कारण हम प्रेत बन गए है। 


ब्राह्मण ने उन प्रेतों से कहा की ,हे प्रेतों तुम्हारे क्या नाम है। तुम सब क्या करते हो ,तुम्हारी ये दशा कैसे हुई। पहले मेरे प्रति तुम्हारा व्यवहार कैसा आक्रमक था और इस समय कैसे अच्छा हो गया है। 


तब प्रेतों ने ब्राह्मण से कहा ,हे विप्रदेव,हे योगीराज हम सब आपके दर्शन से निष्पाप हो गए है। हमारे नाम पर्युषित ,सूचीमुख ,शीघ्रक ,रोधक और लेखक है। 


फिर ब्राह्मण ने कहा ,हे प्रेतों पूर्व कर्म से उत्पन्न प्रेतों का नाम कैसे निरर्थक हो सकता है। तुम सब अपने इन विचित्र नामों के बारे में मुझे विस्तार से बताओ। 

Read more- वर्षाऋतु की तुलना मानव से क्यों( शरद का वर्णन 

फिर एक -एक करके उन प्रेतों ने अपना परिचय देना शुरू किया। पहला प्रेत बोला ,मेरा नाम पर्युषित है। हे विप्रदेव ,मैंने एक बार श्राद्ध के सुअवसर पर एक ब्राह्मण को न्योता दिया था। 


वह ब्राह्मण मेरे घर देर से पंहुचा।उस ब्राह्मण के आने से पहले ही बिना श्राद्ध किये, भूख लगने के कारण ,मैंने भोजन कर लिया। और उस ब्राह्मण को बासी भोजन लाकर खिला दिया। 


मरने के बाद मेरे इसी दुष्कर्म के कारण मुझे ये प्रेत योनि मिली। मैंने ब्राह्मण को जो बासी भोजन दिया था ,इसी से मेरा नाम पर्युषित हो गया। 


फिर दूसरे प्रेत सूचीमुख ने कहा ,हे योगिराज ,मेरा नाम सूचीमुख है।हे विप्रवर ,एक बार एक स्त्री तीर्थ स्नान करने के लिए गई थी ,उसके साथ उसका 5 वर्ष का बेटा भी था।वह विधवा थी और अपने पुत्र के सहारे ही जीवित थी। 


 मैं उस समय क्षत्रिय था। जब वह तीर्थ स्नान और दर्शन करने के बाद जंगल के रास्ते से वापस लौट रही थी।तो मैंने उसका रास्ता रोका। उस निर्जन वन में उन्हें रोक कर मैंने पाप किया। 


हे विप्रवर ,मैंने उस बच्चे के सिर पर मुष्टि से प्रहार किया और उनके हाथो से उनके कपडे और खाने की जो भी वस्तु थी ,वो सब मैंने छीन ली। 


वह बच्चा प्यास से व्याकुल हो उठा था अतः उसने अपनी माँ से पानी लेकर पीना शुरू किया। उस पात्र में बस उतना ही जल था जिससे उसकी प्यास बुझ सके। 


मैंने उसे पानी पीने से रोक दिया और उसमे पात्र छीन कर उसमे बचा शेष सारा जल मैंने पी लिया। बच्चा पहले से भूखा था और मैंने पानी भी नहीं पीने दिया,इससे वह बहुत व्याकुल हो गया और वहीं भूख -प्यास के कारण उसकी मृत्यु हो गई। 


उसकी माँ ये सदमा बर्दाश नहीं कर पाई। अब वह किसके लिए जीती ,इसलिए उसने भी एक कुएं में गिर कर अपने प्राण त्याग दिए। 


इसी पाप के कारण मुझे ये योनि प्राप्त हुई है। पर्वताकार शरीर होने के कारण भी इस समय मई कुछ नहीं खा सकता क्योकि मेरा मुँह एक छिद्र के सामान  है। 


वैसे तो खाने योग्य सामाग्री तो मैं प्राप्त कर लेता हूँ फिर भी मेरे मुँह में सुई के बराबर छिद्र होने के कारण ,मैं उसको खा नहीं सकता।  मैंने भूख -प्यास से मरने वाले ब्राह्मणी के पुत्र का मुँह बंद कर दिया था। 


इसी पाप के कारण मेरे मुँह का छेद एक सुई के छेद के सामान हो गया है। और इसी कारण आज मैं सूचिमुख नाम से प्रसिद्ध हूँ।  


उसके बाद तीसरे प्रेत ने अपना परिचय दिया। उसने कहा हे विप्रवर ,मेरा नाम शीघ्रक है। मैं पूर्व जन्म में एक धनवान वैश्य था। एकबार मैं अपने मित्र के साथ व्यापार करने के लिए दूसरे देश जा पंहुचा। 


मेरे मित्र के पास बहुत धन था। उसके धन को देख कर मेरे मन में लालच आ गया। परिस्थिति के विपरीत होने के कारण वहां मेरा सारा मूल धन समाप्त हो गया था।


फिर हम दोनों ने वहां से निकलकर मार्ग में स्थित नदी के रास्ते से जाना शुरू  कर दिया । उस समय आकाश मे सूर्य लाल हो गया था। 


रास्ते की थकान के कारण मेरा वह दोस्त मेरी गोद में सर रख कर सो गया था। उस समय लालच के कारण मेरी बुद्धि अत्यंत क्रूर हो गई थी। 


अतः सूर्यास्त के समय मैंने गोद में सोये हुए अपने दोस्त को पानी में धकेल दिया। मेरे द्वारा किये गए इस अपराध को वहां मौजूद अन्य लोग भी न जान सके।


मेरे दोस्त के पास जो भी  हिरे ,जवाहरात ,सोना ,चांदी ,रुपया -पैसा आदि जो भी बहुमूल्य वस्तुएं थी ,मैं उन सबको लेकर अपने नगर में वापस आ गया और अपने घर जाकर वह सब सामान रख दिया।


उसके बाद मैंने अपने दोस्त के घर जाकर उसकी पत्नी से कहा की ,रास्ते में डाकुओं ने तुम्हारे पति का सारा धन आदि बहुमूल्य वस्तुओं को छीन कर उसे मार डाला।  ये सुनकर वो जोर -जोर से रोने लगी। 


मैंने उससे फिर कहा की, हे पुत्रवती नारी ,तुम रोना नहीं। सब ठीक हो जायेगा। लेकिन उसे पति वियोग सहन नहीं हुआ और वो उसी वक़्त अपना घर परिवार त्याग का अग्नि द्वारा खुद को जला लिया। 


उसके बाद निष्कंटक स्थिति देखकर प्रसन्नचित मन से मैं अपने घर वापस लौट आया। घर लौटने के बाद जब तक मेरा जीवन रहा तब -तक मैंने उस धन का उपयोग किया लेकिन जब मेरी मृत्यु हुई तब मैंने अपने उसी पाप के कारण इस प्रेत योनि पाया। 


मित्र को बहते जल मैं फैंक कर मैं शीघ ही अपने घर लौट आया था ,इसलिए मेरा नाम शीघ्रक पड़ गया। 


उसके बाद चौथे प्रेत रोधक ने कहा ,हे मुनीश्वर मैं पूर्व जन्म में एक निम्न सेवक था। राजभवन से मुझे जीवन यापन के लिए उपहार में मुझे बहुत बड़े -बड़े सौ गावों का अधिकार प्राप्त था। मेरे परिवार में बूढ़े माता-पिता और एक छोटा भाई था।  


लालच के कारण मैंने अपने छोटे भाई को घर से निकाल दिया। घर से निकलने के बाद मेरे उस छोटे भाई को बिना अन्न ,धन और कपड़ों के बड़ी परेशानी उठानी पड़ी।  मेरे माता -पिता चुपके से उसके पास जाते और उसे धन और कुछ खाने -पिने की वस्तुए दे आते। 


जब मुझे ये बात दूसरे लोगों से पता चली ,तो मैंने अपने माता -पिता को जंजीरों से बाँध दिया। माता -पिता कैद होने के कारण छोटे भाई को कुछ भी न दे पाते ,जिससे मेरे भाई को अब कुछ भी मिलना संभव न हो पाया और भूख -प्यास से उसके प्राण निकल गए।  


मेरे माता पिता से ये दुःख सहन नहीं हुआ और उन्होंने एक दिन जहर पीकर अपने प्राण त्याग दिए। हे ब्राह्मण ,मरने के बाद मेरे उसी पाप के कारण मुझे प्रेत योनि मिली और मैंने जो अपने माता -पिता को बंदी बनाया था इसी से मेरा नाम रोधक पड़ गया। 


उसके बाद पांचवे प्रेत लेखक ने कहा ,हे मुनिश्रेष्ठ ,मेरा नाम लेखक है। मैं पूर्व जन्म में उज्जैन नगर का ब्राह्मण था। वहाँ के राजा ने मेरी नियुक्ति वहाँ के एक मंदिर में पुजारी के पद के लिए की थी। 


मंदिर में अनेक प्रकार की मूर्तियां थी। वे सभी मूर्तियां हीरे , मोतियों तथा कीमती रत्नों से जड़ी पड़ी थी। उन्हें देख कर मेरी बुद्धि पाप से भर गई। मैं लालची हो गया और लालच के कारण एक दिन चुपके से तेज धार वाले लोहे से मैंने उन मूर्तियों में से सभी बहुमूल्य रत्नों को निकाल लिया और एक पोटली में बाँध कर वहां से भाग गया। 


जब राजा मंदिर में दर्शन करने के लिये आया तो ,मूर्तियों को क्षत -विक्षत व मणियों से रहित देखा तो ,वो बोखला गया और उसने उस समय ये प्रतिज्ञा ली की ,जिसने भी ये घोर पाप किया है उसके बारे में मुझे पता चलने पर, मैं उसकी जीवन लीला समाप्त कर दूंगा ,फिर चाहे भले ही वो कोई ब्राह्मण या पुजारी ही क्यों न हो। 


जब राजा की इस प्रतिज्ञा के बारे में मुझे पता चला तो मैंने उसी रात तलवार उठाई चुपके से महल में घुसकर राजा को बेरहमी से मार दिया और उसी रात वापस आकर सभी रत्नो आदि को लेकर मैं किसी दूसरे नगर में जाने लगा। 


जाते समय रास्ते में एक जंगल पड़ा। वहाँ बहुत अँधेरा था। तभी वहां एक बाघ आया और उसने मार डाला। मैंने लालच के कारण मूर्तियों में छेदन व काटने का कार्य किया था ,उसी से मेरा नाम  लेखक पड़ गया और मरने के बाद इसी पाप के कारण मुझे ये पाप योनि मिली। 


इस प्रकार सभी प्रेतों की बाते सुनने के बाद ब्राह्मण ने कहा , हे प्रेत गणों आप लोगों ने मुझे अपनी जैसी दशा बताई है ,वैसे ही आप सबके नाम भी है।


अब तुम मुझे ये बताओं की तुम लोग खाते क्या हो ,तुम्हारा आचरण क्या है। तब उन प्रेतों ने बताया की ,हे विप्रवर ,जहाँ पर वेद मार्ग का अनुसरण होता है ,जहाँ धर्म ,दम ,क्षमा ,धृति ,ज्ञान और लज्जा ये सब रहते है। हम वहां निवास नहीं करते। 


जिसके घर में श्राद्ध तथा तर्पण का कार्य नहीं किया जाता ,उसके शरीर से रक्त और मांस को कम करके हम उसे पीड़ा पहुंचाते है। मांस खाना और रक्त पीना यहीं हमारा आचरण है। 

Read more- Bhagwaan ko aana hi hoga (heartwarming story ) 

हे निष्पाप ब्राह्मण , अब सभी लोगो द्वारा किये गए हमारे निन्दनिये आहार को सुनो ,कुछ तो आपने देख लिया है और जो आपको मालूम नहीं है उसको हम बता रहे है। 


हे विप्रवर ,उल्टी ,कीचड़ ,आसूं ,विष्ठा ,कफ और मूत्र के द्वारा निकलने वाला मल हमारा खाना और पानी है। इसके आगे न पूछे क्योकि अपने आहार को बताते हुए हमे लज्जा आ रही है। 


हे स्वामी ,हम सब अज्ञानी ,तामसी ,मन्दबुद्धि और भय से भागने वाले है। हे विप्रश्रेष्ठ ,हममे पूर्वजन्म की याद आ गई है। अपने विनय ,अविनय के सन्दर्भ में हम कुछ नहीं जानते है। 


कथा को आगे बढ़ाते हुए विष्णु जी ने गरूड़ से कहा ,हे गरूड़ ,प्रेतों ने अपनी सारी बातें ब्राह्मण को बताई और ब्राह्मण ने उसको तसल्लीपूर्वक सुना ,जिससे मैंने उन लोगों को दर्शन दिया। 


गरुड़ ज्ञान- 25 पांच प्रेतों की अद्भुत कथा


मुझे देखकर वो ब्राह्मण अत्यंत भावुक हो गया और कहने लगा सबके हृदय में वास करने वाले प्रभु ,आज आप मेरे सामने खड़े है। मैं धन्य हो गया प्रभु। हे खगेश उसने धरती पर लेट कर मुझे साष्टांग प्रणाम किया और अपनी स्तुतियों द्वारा मुझे प्रसन्न करने लगा। प्रेम भरी वाणी से  स्तुति करते -करते वो इतना भावुक हो गया की उससे ठीक से बोला भी नहीं जा रहा था। 


आश्चर्य से भरे हुए उन प्रेतों ने भी मेरी स्तुति की।ब्राह्मण एकटक बस मुझे देखता ही जा रहा था। हिम्मत जुटा कर अपनी वाणी को अपने काबू में करके कपकपाते हुए उसने मुझसे कहा। हे प्रभु , आप कृपा करके रजोगुण ,के कारण घोरचित वाले और तमोगुण से मूढ़चित्त वाला का उद्धार करते है।आपको मेरा बारम्बार प्रणाम है। 


जैसे ही ब्राह्मण ने ये कहा , उसी समय मेरी इच्छा से वहाँ अत्यंत तेजस्वी श्रेष्ठ आकाश चारी गंधर्व और अप्सराओं से युक्त 6 विमान वहां आ पहुंचे।उन विमानों की प्रभा से वह पर्वत चारों दिशाओं से आलौकित होकर प्रकाशमय हो गया। 


गरुड़ ज्ञान- 25 पांच प्रेतों की अद्भुत कथा


तब वह संतप्तक ब्राह्मण उन पाँचों प्रेतों के साथ विमान पर बैठ कर मेरे लोक यानी की बैकुंठ लोक को चला गया। 


तो प्रिय पाठकों ,ये थी संतप्तक ब्राह्मण और पांच प्रेतों की अद्भुद कथा। आपको कैसी लगी अवश्य बताये। अगली पोस्ट के साथ विश्वज्ञान में फिर से मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए आप हँसते रहिये ,मुस्कुराते रहिये ,खुश रहिये और श्री हरी का स्मरण करते रहिये। 

थन्यवाद 

जय -जय  श्री राधे-कृष्ण

Previous Post Next Post