मीरा बाईं जीवन परिचय हिन्दी

हर हर महादेव प्रिय पाठकों,कैसे है आप लोग, आशा करते हैं कि, भगवान शिव की कृपा से आप ठीक होंगे। 

दोस्तो आज इस पोस्ट मे हम श्री कृष्ण जी की दिवानी, उनकी परम भक्त मीरा बाई के बारे में जानेंगे। कृष्ण मिलन मे उनके जीवन मे कितनी कठिनाइयां आई, उन सभी को आज इस पोस्ट मे लिखी कहानी के माध्यम से जानेंगे। हम उम्मीद करते हैं कि आपको मीरा बाई जी की जीवन गाथा पसंद आए। 

मीरा बाई को अधिकतर लोग कृष्ण की पत्नी कहकर संबोधित करते हैं तो कुछ लोग उन्हें कृष्ण दिवानी कहकर पुकारते हैं ,तो वहीं कुछ लोग उन्हें पागल कहकर बुलाते थे। आखिर सच क्या है? कौन है मीरा बाई? चलिए बिना देरी किए पढ़ते हैं आज के पोस्ट। 

मीरा बाईं जीवन परिचय हिन्दी 


मीरा बाईं जीवन परिचय हिन्दी
मीरा बाईं जीवन परिचय हिन्दी 


मित्रों! मीराबाई का जन्म मारवाड़ के कुड़की नाम के गांव में 1498 में एक राज परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम रतन सिंह राठौर था। जो मेड़ता के शासक थे वह एक वीर योद्धा थे।  

मीराबाई अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी।  उनके पिता रतन सिंह का अधिक समय युद्ध में व्यतीत होता था।  जब मीरा बाई छोटी थी, तब उनकी माता का निधन हो गया था। 

उनका लालन-पालन उनके दादा राव दूदा जी की देखरेख में हुआ था। जो योद्धा होने के साथ-साथ भगवान विष्णु के बड़े उपासक व भक्ति भाव से ओतप्रोत थे। 

एक दिन की बात है,राजमहल के सामने से एक बारात निकली। मीरा तब छोटी थी। उन्होंने बारात मे दूल्हे को देखा। दूल्हा बहुत ही आकर्षक वस्त्र पहने हुए था । मीरा ने उसे देखा तो आकर्षित हो गई, और अपने दादा जी से कहा मुझे भी ऐसा एक दूल्हा ला दीजिए।  मैं उसके साथ खेलूंगी। 

बालिका मीरा को दूल्हे के बारे में कुछ पता नहीं था। मीरा जिद किये जा रही थी। तब मीरा के दादा जी ने श्री कृष्ण की एक मूर्ति मीरा को देते हुए कहा, देखो यही तुम्हारा दूल्हा है, इसकी अच्छी तरह से देख-भाल करना । 

मित्रों ! मीरा को जो चाहिए था, वह उसे मिल गया। मीरा ने प्रसन्न होकर उसे स्वीकार कर लिया। वह उस मूर्ति के साथ हमेशा खेलती रहती और उससे ऐसा व्यवहार करती मानो श्री कृष्ण ही उसके पति हो। 

मीराबाई के दादा जी साधु संतों का बहुत सम्मान करते थे। उनके महल में हमेशा साधु संत और अतिथि आते रहते थे। एक बार रैदास नामक एक सन्यासी महल में आये। रैदास, संत रामानंद के शिष्यों में से प्रमुख थे। जिन्होंने उत्तर भारत में वैष्णव संप्रदाय का प्रचार किया। 

उनके पास श्री कृष्ण की एक सुंदर मूर्ति थी वह उस मूर्ति की स्वयं पूजा करते थे। मीराबाई ने उस मूर्ति को देख लिया और उसे मांगने लगी। सन्यासी कुछ देर पश्चात महल से चले गए मगर मीरा उस मूर्ति के लिए हठ करती रही। यहां तक की उसने उस मूर्ति को पाने के लिए भोजन करना छोड़ दिया था।

अगले दिन सुबह रैदास वापस राजमहल में लौट आए और उन्होंने श्री कृष्ण की मूर्ति मीरा को दे दी। रैदास ने कहा पिछली रात श्री कृष्ण मेरे सपने में आए और कहने लगे मेरी परम भक्त मेरे लिए रो रही है, जाओ उसे यह मूर्ति दे दो। यह मेरा कर्तव्य है कि मैं अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करूं। इसलिए मैं यह मूर्ति मीरा को देने आया हूं। 

मीरा एक बहुत बड़ी कृष्ण भक्त है। कुछ विद्वानों का मत है की यह कहानी केवल कल्पना नहीं अपितु सत्य घटना है। मीरा ने स्वयं अपने गीतों में कहा है। मेरा ध्यान हरि की ओर है और मैं हरि के साथ एक रूप हो गई हूं, मैं अपना मार्ग स्पष्ट देख रही हूं। मेरे गुरु रैदास ने मुझे गुरु मंत्र दिया है,हरी नाम ने मेरे हृदय में बहुत गहराई तक अपना स्थान जमा लिया है। 

मीराबाई अपने दादा जी के देख रेख में पली बढ़ी थी, सामान्य शिक्षा के साथ साथ मीरा को संगीत व नृत्य की शिक्षा भी मिली थी। मीराबाई का विवाह, सन 1516 में सामाजिक रीति-रिवाज के अनुसार बसंत पंचमी के दिन सिसौदिया वंश के प्रसिद्ध राजा राणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ | 

श्री कृष्ण की प्रतिमा को वो अपने साथ ससुराल ले गई। मीरा बाई बचपन से ही श्री कृष्ण की पूजा करती थी। उसके मायके में किसी भी व्यक्ति ने उसकी राह में विघन नहीं डाला था । परंतु उसके ससुराल वाले मीरा बाई के इस कृष्ण भक्ति से रुष्ट होने लगे थे । 

वे कृष्ण भक्ति के विरोधी हो गए पर इसका मीरा पर कोई असर नहीं हुआ । मीराबाई के ससुराल में कई शूरवीर योद्धा हुए । भोजराज भी बहुत शूरवीर था । प्राचीन काल से ही उसके परिवार के लोग शक्ति की देवी दुर्गा, काली, चामुंडी की पूजा करते थे। वे विष्णु की पूजा नहीं करते थे । 

मीरा बचपन से ही यह विश्वास करती थी कि गिरधर गोपाल ही उनके स्वामी है। किन्तु अपने दांपत्य जीवन में उन्होंने कभी भी अपने पति की उपेक्षा नहीं की । एक आदर्श पत्नी की तरह उन्होंने अपने पति को सम्पूर्ण स्नेह और प्रेम दिया । 

वह कृष्ण के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थी। वह उनके लिए मधुर कंठ से गाती और नाचती थी। चित्तौड़ राजघराने की प्रतिष्ठा बहुत ऊंची थी। ऐसे परिवार के लिए यह अपमान जनक बात थी,कि एक राजकुमार की पत्नी साधु संतों के साथ नाचती गाती है । 

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इतना ही नहीं,माँ काली की पूजा न करके उसने अपनी ससुराल की परंपरा की अवहेलना कर उनका अपमान किया था। परंतु भोजराज मीराबाई से -अधिक प्रेम करते थे। इसलिए उसके विरुद्ध कुछ नहीं कहते थे। आखिर में भोजराज ने केवल मीरा के लिए राजमहल के पास ही एक मंदिर बनवा दिया था। 

युद्ध में घायल होने के कारण 1521 में भोजराज की मृत्यु हो गई। मीराबाईं तब मात्र 23 वर्ष की थी। पति की मृत्यु के बाद मीरा का देखभाल करने वाला कोई नहीं बचा था । इसके बाद कई लोगों ने उन्हें पागल की संज्ञा देकर अपमानित किया। 

इन सब के कारण वह कृष्ण भक्ति में और लीन हो गई। पति की मृत्यु के बाद मीरा पर उसके परिवारजनों ने सती होने के लिए बहुत दबाव डाला, लेकिन वे इसके लिए सहमत नहीं हुई । राणा सांगा की मृत्यु के बाद उनके देवर विक्रमाजीत महाराणा बने तो वह मीरा को और अधिक कष्ट देने लगे। 

एक बार विक्रमाजीत ने अपनी बहन उदाबाई की सलाह पर मीरा के पास विष से भरा प्याला भिजवाया । मीरा उसे प्रभु का प्रसाद समझ कर पी गई। मगर उस विष का मीरा पर कुछ भी असर नहीं हुआ। 

फिर राणा ने मीरा के पास एक भयंकर विषधर साँप सुंदर फलों की टोकरी में भेजा। मीरा बाई पूजा में व्यस्त थी उसने अपना हाथ टोकरी मे डाला और कुछ फूल निकाले । वह फूल शालिग्राम के रूप मे बदल गये और वह साँप एक सुंदर फूल माला में बदल गया। 

एक बार मीराबाई पर तलवार से प्रहार किया गया लेकिन उस पर उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ । राणा ने मीरा के लिए नुकीले कीलों की शैया बनवाई। परंतु वह कीले शरीर में चुभने के बजाय फूल बन गये। 

उसके ससुराल के लोग अब खुलकर कई प्रकार से प्रताड़ित करने लगे। उस पर आरोप लगाने लगे कि मीरा ने कुल की मर्यादा को धूल में मिला दिया है। किन्तु मीरा बाई समाज में महान संत और कलियुग की राधा के नाम से जानी जाने लगी । 

समाज के लोग कहते थे कि उन्हें देखना और चरण स्पर्श करना बड़े सौभाग्य की बात है। वे उसे ईश्वर का स्वरूप मानते थे। राणा ने कभी मीरा बाई को प्रत्यक्ष रूप से मारने का साहस नहीं किया। उसे भय था कि स्त्री को मारने से पाप लगता हैं । 

जब मीरा बाई को मारने में राणा असफल रहे । तब वे मीरा को अपशब्द कहने लगे और कहा यह नीच महिला स्वयं डूब कर मर क्यों नहीं जाती। जब मीरा बाई को राणा के नियत के बारे में पता चला तो वह स्वयं सोचने लगी कि यदि वह डूब कर मर जाय तो उसके ससुराल वालों को बहुत शांति मिलेगी और वह भी भगवान श्री कृष्ण से हमेशा के लिए मिल जाएगी। 

इन सारी बातों का विचार करके मीरा नदी के किनारे पहुँच गई और खड़े होकर श्री कृष्ण से प्रार्थना करने लगी- हे प्रभु, मुझे अपनी शरण मे ले लो और इसके बाद वो नदी में कूदने जा ही रही थी कि एक आवाज ने उसे रोक दिया। वह आवाज़ मीरा की कहने लगी कि स्वयं को मारना बहुत बड़ा पाप है। ऐसा मत करो, तुम वृंदावन चली जाओ। 

मीराबाईं जो की समाज के तानों से परेशान हो गई थी। धीरे धीरे संसार से उनका मोह भंग हो गया। कष्टों और अत्याचारों के कारण मीरा ने अपना परिवार त्याग दिया। और वह वृन्दावन चली गई। बहुत दिनों तक वृंदावन में सत्संग करने के बाद वह द्वारिका चली गई जहाँ भजन कीर्तन मे उन्होने अपना पूरा समय लगाया । 

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वह हर समय श्री कृष्ण के बारे में सोचती थी राजस्थान में मीराबाई बहुत अधिक लोकप्रिय हो गई थी। परंतु प्रतिष्ठित घराने उसे अपनाना नहीं चाहते थे। मीरा के प्रति राणा के अत्याचार की बातें चारों तरफ फैल गई थी। 

रतन सिंह की हत्या कर दी गई और उसके बाद उदय सिंह गद्दी पर बैठा और उसने सोचा कि साधुओं के संग मीरा अकेली रहेगी तो उसके प्रतिष्ठित परिवार के लिए यह बदनामी की बात होगी। इसलिए उसने मीरा को चित्तौड़ लौट आने को कहा। परंतु मीरा इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं हुई। उन्होंने ने चित्तौड़ जाने से मना कर दिया।  

उदय सिंह समझ गया था कि मीरा उसके कहने से वापस नहीं लौटेगी। इसलिये उसने चित्तौड़ से पांच ब्राह्मणों को मीरा से अनुरोध करने के लिए भेजा कि वह चित्तौड़ लौट जाए। मीरा सोचने लगी कि वह वापस राज महल में जाएगी तो वही पुरानी बातें फिर दोहराई जाएंगी। 

इस समय मीरा की आयु लगभग 48 वर्ष की थी। उसके पति के निधन को 25 वर्ष हो गए थे। परंतु उसका परिवार अभी भी उसकी हत्या करने का प्रयास कर रहा था। इसलिए मीराबाई अपनी प्राण रक्षा हेतु उन सब से दूर द्वारका चली आई थी। 

मीरा ने यह संकल्प कर लिया था कि,वह केवल श्री कृष्ण से ही संबंध रखेगी और किसी से संबंध नही रखेगी। ब्राह्मणों ने मीराबाई को समझाने का बहुत प्रयास किया मगर मीराबाई उनके साथ चलने के लिए तैयार नहीं हुई। तब उन ब्राह्मणों ने कहा यदि आप हमारे साथ नहीं चलेंगी तो हम यहीं पर अन्न छोड़ कर अपने प्राण त्याग देंगे। 

ब्राह्मणों की बात सुनकर मीरा बड़ी विचित्र स्थिति में फंस गई वह नहीं चाहती थी कि इन बाहाणों की मृत्यु, मेरे कारण हो। कुछ सोच कर मीरा ने ब्राह्मणों से कहा कि, आप लोग रात भर मंदिर में ठहर जाए ,हम कल चित्तौड़ चलेंगे। 

ब्राह्मणों को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई और वे मंदिर में ठहर गए जब ब्राम्हण सुबह उठे तो मीरा वहां नहीं थी। उन्होंने मीराबाई को बहुत ढूंढा पर उनका कहीं पता नहीं चला। मीरा तो नहीं मिली किंतु उनकी साड़ी श्रीकृष्ण जी की मूर्ति पर मिली। वह मूर्ति में समा गई थी। 

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उनके भक्तों ने यह निष्कर्ष निकाला कि शायद वह अपने प्रिय परमेश्वर गिरधर से जा मिली है। मीराबाई श्रीकृष्ण की मूर्ती में तो नही पर, श्रीकृष्ण के रूप में परमात्मा में समायी थी। 

दोस्तो! मीरा बाई ने, उसे दुख देने वालों और दुर्व्यवहार करने वालों के साथ कभी भी बदले की भावना अथवा घृणा और खराब व्यवहार नहीं किया। उनके प्रेरणादायक व करुणा मय जीवन चरित्र से ऐसा प्रतीत होता है, कि एक भक्त अपने परमेश्वर के लिए हर प्रकार की कठिनाइयों को शांत रहकर सह सकता है। 

तो ,मित्रों कैसी लगी आपको ये कहानी। यदि आपको कृष्णभक्त मीराबाई की यह कहानी अच्छी लगी हो तो जरूर बताये। ऐसी ही सत्य कथाओं के साथ विश्वज्ञान मे आपसे फिर मिलेंगे। तब तक आप हंसते रहिए,मुस्कराते रहिए और औरों को भी खुशियाँ बांटते रहिए। 

धन्यवाद   

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