गौ सेवा का शुभ परिणाम

हर हर महादेव प्रिय पाठकों,

कैसे है आप लोग, आशा करते हैं कि आप ठीक होंगे 

दोस्तो आज की ये पोस्ट गौमाता पर आधारित हैं। आज हम गाय से संबंधित तीन सच्ची कहानियां पढ़ेंगे। हम आशा करते हैं कि आपको कहानियां पसंद आये । तो चलिये बिना देरी किए पढ़ते हैं आज की पोस्ट-

 पहली कहानी 

 गाय का मूल्य

गाय का मूल्य
गाय का मूल्य 


एक बार महर्षि आपस्तम्ब ने जल में ही डूबे रहकर भगवान का भजन करने का विचार किया। इसलिए वे बारह वर्षों तक नर्मदा और मत्स्या-संगम के जल में डूबकर भगवत्स्मरण करते रहें। बारह वर्षों तक जल में रहने से ,जल मे रहने वाले जीव उन्हें  प्रेम करने लगे थे। 

एक बार की बात मछली पकड़ने वाले बहुत-से मल्लाह वहाँ आये। उन्होंने वहाँ जाल फैलाया और मछलियों के साथ महर्षि को भी खींच लाये। जब मल्लाहों की दृष्टि मुनि पर पड़ी तो वे भय से व्याकुल हो उठे और उनके चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगे।

मुनि ने देखा कि इन मल्लाहों द्वारा यहाँ की मछलियों का बड़ा भारी संहार हो रहा है; अत: वे सोचने लगे- हे प्रभु! स्वतन्त्र प्राणियों के प्रति यह निर्दतापूर्ण अत्याचार और स्वार्थ के लिए उनका बलिदान- ये कितने दुख की बात है। 

भेद दृष्टि रखने वाले जीवों के द्वारा दुःख में डाले गये प्राणियों की तरफ ध्यान नहीं देता, उससे बढ़कर क्रूर इस संसार में दूसरा कौन है? 

ज्ञानियों में भी जो केवल अपने ही हित में तत्पर है, वह श्रेष्ठ नहीं है; क्योंकि ज्ञानी पुरुष भी जब स्वार्थ का आश्रय लेकर ध्यान में स्थित हैं, तब इस जगत् के दुःखी प्राणी किसकी शरण जाएँ? 

जो मनुष्य स्वयं अकेला ही सुख भोगना चाहता है, मुमुक्षूजन उसे पापी से महापापी बतलाते हैं। तो फिर वह कौन-सा उपाय है, जिससे इनका सारा पाप-तप मेरे ऊपर आ जाये और मेरे पास जो कुछ भी पुण्य हो, वह इनके पास चला जाय ?

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इन दरिद्र, विकलांग, दुखी प्राणियों को देखकर भी जिसके हृदय में दया नहीं उत्पन्न होती, वह मनुष्य नहीं, राक्षस है। जो समर्थ होकर भी संकटापन्न भयविह्वल प्राणियों की रक्षा नहीं करता, वह उनके पापों को भोगता है; इसलिए जो कुछ भी हो, मैं इन मछलियों को दुःख से मुक्त करने का कार्य छोड़कर मुक्ति को भी वरण नहीं करूँगा, स्वर्गलोक की तो बात ही क्या है।'

इस प्रकार महर्षि सोच ही रहे थे कि यह विचित्र समाचार वहाँ के राजा नाभाग को मिला। वे अपने मन्त्री पुरोहितों के साथ दौड़े-दौड़े घटना स्थल पर पहुँचे। उन्होंने देव तुल्य महर्षि की पूजा की और पूछा-'महाराज! मैं आपकी कौन-सी सेवा करूँ ?'

महर्षि बोले- 'राजन! ये मल्लाह बड़े दुःख से जीविका चलाते हैं। इन्होंने मुझे जल से बाहर निकालकर बड़ा भारी श्रम किया है। अतः जो मेरा उचित मूल्य हो, वह इन्हें दो।' नाभाग ने कहा, 'मैं इन मल्लाहों को आपके बदले एक लाख स्वर्ण मुद्राएं देता हूँ।'

महर्षि ने कहा-'मेरा मूल्य एक लाख पुद्राएँ ही नियत करना उचित नहीं है। मेरे योग्य जो मूल्य हो, वह इन्हें अर्पण करो।' राजा बोले, 'तो इन निषादों को एक करोड़ दे दिया जाय या और अधिक भी दिया जा सकता है।' 

महर्षि ने कहा-'तुम' ऋषियों के साथ विचार करो, कोटि मुद्राएँ या तुम्हारा राजपाट-यह सब मेरा उचित मूल्य नहीं है।' महर्षि की बात सुनकर मन्त्रियों और पुरोहितों के साथ राजा बड़ी चिन्ता में पड़ गये। 

इसी समय महातपस्वी लोमश ऋषि वहाँ आ गये। उन्होंने कहा, 'राजन् ! भय न करो। मैं मुनि को सन्तुष्ट कर लूंगा। तुम इनके लिए मूल्य के रूप में एक गाय दो; क्योंकि ब्राह्मण सब वर्णों में उत्तम हैं। उनका और गौओं का कोई मूल्य नहीं मापा जा सकता।'

लोमश मुनि जी की बात सुनकर नाभाग बड़े प्रसन्न हुए और हर्ष में भरकर बोले- 'भगवन् ! उठिये, उठिये; यह आपके लिए योग्यतम मूल्य उपस्थित किया गया है।' महर्षि ने कहा, 'अब मैं प्रसन्नतापूर्वक उठता हूँ। मैं गौ से बढ़कर दूसरा कोई ऐसा मूल्य नहीं देखता, जो परम पवित्र और पापनाशक हो। 

यज्ञ का आदि, अन्त और मध्य गौओं को ही बताया गया है। ये दूध, दही, घी और अमृत-सब कुछ देती हैं। ये गौएँ स्वर्गलोक में जाने के लिए सोपान हैं। इसलिए, अब ये निषाद इन जलचारी मछलियों के साथ सीधे स्वर्ग में जाएँ। मैं नरक को देखूँ या स्वर्ग में निवास करूँ, किन्तु मेरे द्वारा जो कुछ भी पुण्य कर्म बना हो, उससे ये सभी दुःखी प्राणी शुभ गति को प्राप्त हों।'

उसके बाद महर्षि के सत्संकल्प एवं तेजोमयी वाणी के प्रभाव से सभी मछलियां और मल्लाह स्वर्ग में चले गये। नाना उपदेशों द्वारा लोमशजी तथा आपस्तम्बजी ने राजा को बोध प्राप्त कराया और राजा ने भी धर्ममयी बुद्धि अपनायी। अन्त में दोनों महर्षि आश्रम को चले गये। 

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दूसरी कहानी 

गौ सेवा का शुभ परिणाम

महाराज दिलीप और देवराज इन्द्र में मित्रता थी। देवराज के बुलाने पर दिलीप एक बार स्वर्ग गये। वहां से लौटते समय मार्ग में कामधेनु गाय मिली।किन्तु दिलीप ने पृथ्वी पर आने की आतुरता के कारण उसे देखा नहीं। कामधेनु को उन्होंने प्रणाम नहीं किया। 

इस अपमान से रुष्ट होकर कामधेनु ने शाप दिया- 'मेरी सन्तान यदि कृपा न करे तो यह पुत्रहीन ही रहेगा।' महाराज दिलीप को शाप का कुछ पता नहीं था। किन्तु उनके कोई पुत्र न होने से वे स्वयं, महारानी तथा प्रजा के लोग भी चिन्तित एवं दुखी रहते थे।

पुत्र प्राप्ति की इच्छा से महाराज के साथ कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ के आश्रम पर पहुँचे। महर्षि ने उनकी प्रार्थना सुनकर आदेश दिया- 'कुछ काल आश्रम में रहो और मेरी होम धेनु नन्दिनी गौ की सेवा करो।,

महाराज ने गुरु की आज्ञा स्वीकार कर ली। महारानी प्रातःकाल उस गौ की भली भांति पूजा करती थीं। गौ-दोहन हो जाने पर महाराज उस गाय के साथ वन में जाते थे। वे उसके पीछे-पीछे चलते और अपने अंग वस्त्र से उसके पर बैठने वाले मच्छर, मक्खी आदि जीवों को उड़ाते रहते थे। 

हरी घास अपने हाथ से लाकर उसे खिलाते थे। उसके शरीर पर हाथ फेरते। गौ के बैठ जाने पर ही बैठते और उसके जल पी चुकने पर ही जल पीते थे। सांयकाल जब गौ वन से लौटती, महारानी उसकी फिर पूजा करती थीं। रात्रि में वे उसके पास घी का दीपक रखती थीं। महाराज रात्रि में गौ के समीप भूमि पर ही सोते थे।

अत्यन्त श्रद्धा और सावधानी के साथ गौ-सेवा करते हुए महाराज दिलीप को एक महीना हो गया। महीने के अन्तिम दिन वन में वे एक स्थान पर वृक्षों का सौन्दर्य देखने खड़े हो गये। नन्दिनी गौत घास चरती हुई दूर निकल गई।और इस बात का उन्हें ध्यान नहीं रहा। 

तभी अचानक उन्हें गौ के चीत्कार,चिल्लाने का शब्द सुनाई पड़ा। दिलीप चौंके और शीघ्रतापूर्वक उस ओर चले, जिधर से आवाज आ रही थी। जब वे उस स्थान पर पहुंचे, तो उनके होश उड़ गये। 

गौ सेवा का शुभ परिणाम
गौ सेवा का शुभ परिणाम 


उन्होने देखा कि एक बलवान सिंह गौ को पंजों में दबाये उसके ऊपर बैठा है। गौ बड़ी कातर दृष्टि से उनकी ओर देख रही है। दिलीप ने धनुष उठाया और सिंह को मारने के लिए बाण निकालना चाहा; किन्तु उनका वह हाथ माथे में ही चिपक गया।

इसी समय स्पष्ट मनुष्य भाषा में सिंह बोला- 'राजन् ! व्यर्थ उद्योग मत करो। मैं साधारण पशु नहीं हूँ। मैं भगवती पार्वती का कृपा पात्र हूँ और उन्होंने मुझे अपने हाथों लगाये इस देवदारु वृक्ष की रक्षा के लिये नियुक्त किया है। जो पशु अपने आप यहाँ आ जाते हैं, वे ही मेरे आहार होते हैं।' 

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महाराज दिलीप ने कहा- 'आप जगन्माता के सेवक होने के कारण मेरे भारतीय हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ। सत्पुरुषों के साथ सात कदम चलने से भी मित्रता हो जाती है। आप मुझ पर कृपा करें। मेरे गुरु की इस गौ को छोड़ दें और क्षुधा निवृत्ति के लिये मेरे शरीर को आहार बना लें।'

सिंह ने आश्चर्य से कहा, 'आप यह कैसी बात कर रहे हैं! आप युवा है, नरेश हैं और आपको सभी सुख भोग प्राप्त हैं। इस प्रकार आपका देह-त्याग किसी प्रकार से भी बुद्धिमानी का काम नहीं। आप तो एक गौ के बदले अपने गुरु को सहस्रों(हज़ारों)गायें दे सकते हैं।' 

राजा ने नम्रतापूर्वक कहा- 'भगवन्! मुझे शरीर का मोह नहीं और न सुख भोगने की चाह है। मेरी रक्षा में दी हुई गौ मेरे रहते मारी जाए तो मेरे जीवन को धिक्कार है। आप मेरे शरीर पर कृपा करने के बदले मेरे धर्म की रक्षा करें। मेरे यश तथा मेरे कर्त्तव्य को सुरक्षित बनायें।'

सिंह ने राजा को समझाने का बहुत प्रयत्न किया; किन्तु जब उन्होंने अपना आग्रह नहीं छोड़ा, तब वह बोला-'अच्छी बात! मुझे तो आहार चाहिये । तुम अपना शरीर देना चाहते हो तो मैं इस गौ (गाय) को छोड़ दूंगा।'

सिंह के इतना कहते ही राजा का माथे में चिपका हाथ छूट गया। उन्होंने धनुष तथा बाण उतारकर दूर रख दिये और वे मस्तक झुकाकर भूमि पर बैठ गये। परन्तु जीतने मे सिंह राजा को खाने के लिए उन पर कूदतt, उतने मे ही आकाश से पुष्प-वर्षा होने लगी। 

और तभी राजा को नन्दिनी गाय का स्वर ,आवाज सुनाई पड़ी -'पुत्र ! उठो । तुम्हारी परीक्षा लेने के लिये अपनी माया से मैंने ही यह दृश्य उपस्थित किया था। पत्ते के दोने में मेरा दूध दुहकर पी लो। इससे तुम्हें तेजस्वी पुत्र प्राप्त होगा।'

दिलीप उठे। वहाँ सिंह कहीं था ही नहीं। नन्दिनी गाय को उन्होंने साष्टांग प्रणाम किया। और हाथ जोड़कर बोले- 'देवि ! आपके दूध पर पहले आपके बछड़े का अधिकार है और फिर गुरुदेव का। आश्रम पहुँचने पर आपका बछड़ा जब दूध पीकर तृप्त हो जायेगा, तब गुरुदेव की आज्ञा लेकर मैं आपका दूध पी सकता हूँ।'

दिलीप की धर्म निष्ठा से नन्दिनी गाय और भी प्रसन्न हुई। वह आश्रम लौटी। महर्षि वशिष्ठ भी सब बातें सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। उनकी आज्ञा लेकर दिलीप ने गौ का दूध पिया। गौ सेवा के फल से उन्हें पराक्रमी पुत्र प्राप्त हुआ।

तीसरी कहानी 

वन यात्रा का गो-दान

भगवान् श्रीराम के विषय में प्रसिद्ध है कि वे वन यात्रा के समय रत्ती भर भी दुखी वह परेशान नहीं हुए थे। बल्कि उल्टे उनका हर्ष और उत्साह बढ़ गया था।

उस समय उन्होंने कुबेर की भाँति ब्राह्मणों को धन लुटाया था। अपने प्रत्येक सेवक को चौदह वर्षों तक (अपने पूरे वनवास काल भर) जीविका चलाने योग्य धन दिया था। इसके बाद भी जब उनके खजाने में धन रह गया, तब अपने कोषाध्यक्ष को बुलवाकर सारा धन बालक बूढ़े ब्राह्मणों तथा दीन- दुखियों को बँटवा दिया।

उन्हीं दिनों अयोध्या में एक त्रिजट नाम का गर्ग गौत्रीय ब्राह्मण रहता था। उसके पास जीविका का कोई साधन नही था। उसका शरीर अत्यन्त दुबला और पीला हो गया था। उसकी स्त्री ने कहा 'नाथ ! श्रीरामचन्द्रजी से आप जाकर मिलें; वे बड़े धर्मज्ञ हैं, वे अवश्य हम लोगों के लिये कोई प्रबन्ध कर देंगे।

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पत्नी की बात सुनकर त्रिजट श्रीराम भद्र के पास आया। वे उस समय वन जाने को तैयार थे और उनका यह 'वन यात्रा दान-महोत्सव' जारी था। त्रिजट को यह सब कुछ भी मालूम न था। उसने उनके पास पहुँचकर कहा- हे राजकुमार! मैं निर्धन हूँ, मेरी बहुत सी संतानें हैं। आप मेरी दशा का ध्यान करके मुझ गरीब पर कृपा दृष्टि फेरें।'

उसकी बात सुनकर तथा दौर्बल्य देखकर प्रभु को इस समय भी एक परिहास की बात सूझ गई। उन्होंने त्रिजट से कहा-'विप्रवर! आप अपना डंडा जितनी दूर तक फेंक सकें, फेंकिये। जहाँ तक आपका डंडा पहुँचेगा, वहां तक की गायें आप अपनी समझ लीजिये।'

अब त्रिजट ने बड़ी तेजी के साथ धोती के पल्ले को समेटकर ठीक किया। उसने अपनी सारी शक्ति लगाकर डंडे को बड़े जोर से घुमाकर फेंका। ठंडा सरयू के पार जाकर हजारों गौओं के बीच गिरा । भगवान ने त्रिजट को गले लगा लिया और वहाँ तक की गायें उसके आश्रम पर भिजवा दी। उन्होंने उससे क्षमा माँगी और कहा- 'ब्राह्मण देवता, बुरा न मानियेगा; मैंने वह बात मज़ाक में ही कह दी थी।' 

ब्राह्मण प्रसन्न था। उसने श्री राम को धन्यवाद किया और कहा- हे प्रभु! मुझे आपसे कोई शिकायत नही। क्योंकि अगर आप ऐसा न करते,तो मुझमे साहस कैसे आता और मैं अपने परिवार का भरण पोषण कैसे करता। इसलिए आपको क्षमा मांगने की कोई जरूरत नही। 

इस प्रकार उस ब्राह्मण ने जीती हुई गायों की सेवा कर अपने परिवार का पालन-पषण  किया और अंत मे स्वर्ग की प्राप्ति की। 

प्रिय पाठकों आशा करते हैं कि आपको कहानियां पसंद आई होंगी। ऐसी ही रोचक, ज्ञानवर्धक और सच्ची कहानियों के साथ विश्वज्ञान मे फिर से मुलाकात होगी। तब तक के लिए आप हंसते रहिए, मुस्कराते रहिए और औरों को भी खुशियाँ बांटते रहिए। 

धन्यबाद 

जय श्री सीता राम 

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