कहानी-आदर्श माँ का कर्त्तव्य

हर हर महादेव प्रिय पाठकों!

कैसे है आप लोग, आशा करते हैं कि आप सकुशल होंगें. 

कहानी- आदर्श माँ

आदर्श माँ
कहानी-आदर्श माँ का कर्त्तव्य 

प्राचीन काल में विदुला नाम की एक अत्यन्त बुद्धिमती एवं तेजस्विनी क्षत्राणी थीं। उसका पुत्र संजय युद्ध में शत्रु से पराजित हो गया था। पराजय ने उसका साहस भंग कर दिया। वह निराश होकर घर में पड़ा रहा। 

अपने पुत्र को निराश, हताश पड़े देखकर विदुला उसे फटकारने लगीं- 'अरे कायर ! तू मेरा पुत्र नहीं है। तू कुल का नाश करने वाला, इन वीरों के कुल में क्यों उत्पन्न हुआ। तू नपुंसकों की भाँति पड़ा है। तेरी गणना पुरुषों में क्यों होती है ?'

यदि तेरी भुजाओं में बल है तो शस्त्र उठा और शत्रु का मान मर्दन कर। छोटी नदियाँ थोड़े जल से भर जाती हैं, चूहे की अंजलि थोड़े ही पदार्थ में भर जाती है और कायर लोग थोड़े में ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। परन्तु क्षत्रिय महत्ता प्राप्त करने के लिये ही क्षत्राणी पुत्र उत्पन्न करती है। उठ ! युद्ध के लिये प्रस्तुत हो।

'पुत्र तेरे लिये युद्ध में या तो विजय प्राप्त करना उचित है या तू प्राण त्यागकर सूर्यमण्डल भेदकर योगियों के लिये भी दुर्लभ परमपद प्राप्त कर ले! क्षत्रिय रोग से शय्या पर पड़े पड़े प्राण त्यागने को उत्पन्न नहीं होता। 

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युद्ध क्षत्रिय का धर्म है। धर्म से विमुख होकर तू क्यों जीवित रहना चाहता है ? अरे नपुंसक ! यज्ञ, दान और भोग का मूल राज्य तो नष्ट हो चुका और कायर पुरुष बनकर तू धर्मच्युत भी हो गया, फिर तू जीवित क्यों रहना चाहता है? 

तेरे कारण कुल डूब रहा है, उसका उद्धार कर! उद्योग कर और विक्रम दिखा। समाज में जिसके महत्त्व की चर्चा नहीं होती या देवता जिसे सत्कार योग्य नहीं मानते, वह न पुरुष है और न स्त्री। मनुष्यों की गणना बढ़ाने वाला वह पृथ्वी पर व्यर्थ भार है। 

दान, सत्य, तप, विद्या और ज्ञान में से किसी क्षेत्र में जिसको यश नहीं मिला, वह तो माता की विष्ठा के समान है। पुरुष वही है जो शास्त्रों के अध्ययन, शास्त्रों के प्रयोग, तप अथवा ज्ञान में श्रेष्ठत्व प्राप्त करें। 

कापुरुषों(कायर पुरुष) तथा मूर्खों के समान भीख माँगकर जीविका चलाना तेरे योग्य कार्य नहीं। लोगों के अनादर का पात्र होकर, भोजन-वस्त्र के लिये दूसरों का मुख ताकने वाले हीनवीर्य, नीच हृदय पुरुष शत्रुओं को प्रसन्न करते तथा बन्धुवर्ग को शूल की भाँति चुभते हैं।

'हाय ! ऐसा लगता है कि हमें राज्य से निर्वासित होकर कंगाल दशा में मरना पड़ेगा। तू कुलाङ्गार( कुल नाशक) है। अपने कुल के विपरीत काम करने वाला है। तुझे गर्भ में रखने के कारण मैं भी अपयश की भागिनी बनूँगी। 

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कोई भी नारी तेरे समान वीर्यहीन, निरुत्साही पुत्र न उत्पन्न करे। वीर पुरुष के लिए शत्रुओं के मस्तक पर क्षणभर प्रज्जवलित होकर बुझ जाना भी उत्तम है। जो आलसी है, वह कभी महत्त्व नहीं पाता। इसलिये अब भी तू पराजय की ग्लानि त्यागकर युद्ध कर।'

माता के द्वारा इस प्रकार फटकारे जाने पर संजय दुखी होकर बोला- 'माता! मैं तुम्हारे सामने से कहीं चला जाऊँ या मर ही जाऊँ तो तुम राज्य, धन तथा दूसरे सुख-भोग लेकर क्या करोगी?'

विदुला बोली-'मैं चाहती हूँ कि तेरे शत्रु पराजय, कंगाली और दुःख के भागी बनें और तेरे मित्र आदर तथा सुख प्राप्त करें। तू पराये अन्न से पलने वाले दीन पुरुषों की दया मत ग्रहण कर। 

ब्राह्मण और मित्र तेरे आश्रम में रहकर तुझसे जीविका प्राप्त करें, ऐसा काम कर। पके फलों से लदे वृक्ष के समान लोग जीविका के लिये जिसका आश्रय लेते हैं, उसी का जीवन सार्थक है।'

'पुत्र ! स्मरण रख कि यदि तू कर्म छोड़ देगा तो पौरुष-त्याग के पश्चात् शीघ्र ही तुझे नीच लोगों का मार्ग अपनाना पड़ेगा। जैसे मरनेवाले पुरुष को औषधि प्रिय नहीं लगती, वैसे ही तुझे मेरे हितकर वचन प्रिय नहीं लग रहे हैं। 

तेरे शत्रु इस समय प्रबल हैं, किन्तु तुझमें उत्साह हो और तू युद्ध करने को खड़ा हो जाय तो उनके शत्रु तुझसे आ मिलेंगे। तेरे हितैषी भी तेरे पास एकत्र होने लगेंगे। तेरा नाम संजय है, किन्तु जय पाने का कोई उद्योग तुझमें नहीं दीख पड़ता। इसलिये तू अपने नाम को सार्थक कर ।

'पुत्र ! हार हो या जीत, राज्य मिले या न मिले, दोनों को समान समझकर तू दृढ़ संकल्पपूर्वक युद्ध कर ! जय-पराजय तो काल के प्रभाव से सबको प्राप्त होती है; किन्तु उत्तम पुरुष वही है, जो कभी हतोस्साह नहीं होता। 

संजय ! मैं श्रेष्ठ कुल की कन्या हूँ, श्रेष्ठ कुल की पुत्रवधु हूँ और श्रेष्ठ पुरुष की पत्नी हूँ। यदि मैं तुझे गौरव बढ़ाने योग्य उत्तम कार्य करते नहीं देखूँगी तो मुझे कैसे शान्ति मिलेगी। कायर, कापुरुष की माता कहलाने की अपेक्षा तो मर जाना ही उत्तम है। 

यदि तू जीवित रहना चाहता है तो शत्रु को पराजित करने का कार्य कर ! अन्यथा सदा के लिये पराश्रित दीन रहने की अपेक्षा तो मर जाना उत्तम है।'

माता के इस प्रकार बहुत अधिक ललकारने पर भी संजय ने कहा- 'माता! तू करुणाहीन और पाषाण जैसे हृदय वाली है। मैं तेरा एकमात्र पुत्र हूँ। यदि में युद्ध में मारा गया तो तू राज्य और धन लेकर क्या सुख पायेगी? फिर क्यों मुझे युद्धभूमि में भेजना चाहती है ?'

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विदुला ने कहा-'बेटा! मनुष्य को अर्थ तथा धर्म के लिये उद्योग करना चाहिये। मैं उसी धर्म और अर्थ की सिद्धि के लिये तुझे युद्ध में भेज रही हूँ। यदि तू शत्रु द्वारा मारा गया तो परलोक में महत्त्व प्राप्त करेगा-मुक्त हो जाएगा और विजयी हुआ तो संसार में सुखपूर्वक राज्य करेगा। 

इस कर्तव्य से विमुख होने पर समाज में तेरा अपमान होगा। तू अपना और मेरा भी घोर अनिष्ट करेगा।'मैं तुझे इस अनिष्ट से न रोकूँ तो वह स्नेह नहीं कहा जाएगा। लोक में तू दरिद्रता तथा अपमान सहे और मरने पर कर्तव्यभ्रष्ट लोगों की अधम गति पाये, ऐसे मार्ग पर मैं तुझे नहीं जाने देना चाहती। 

सज्जनों द्वारा निन्दित कायरता के मार्ग को छोड़ दे। जो सदाचारी, उद्योगी, विनीत पुत्र पर स्नेह प्रकट करे, उसी का स्नेह सच्चा है। उद्योग, विनय तथा सदाचरण से रहित पुत्र पर जो स्नेह करता है, उसका पुत्रवान होना व्यर्थ है। शत्रु को विजय करने या युद्ध में प्राण देने के लिये क्षत्रिय उत्पन्न हुआ है। तू अपने जन्म को सार्थक कर !'

माता के उपदेश से संजय का शौर्य जाग्रत हो गया। उसका उत्साह सजीव हो उठा। उसने माता की आज्ञा स्वीकार कर ली। भय और उदासी को दूर करके वह सैन्य-संग्रह में लग गया। अन्त में शत्रु को पराजित करके अपने राज्य पर अधिकार प्राप्त किया।

तो प्रिय पाठकों कैसी लगी आपको स्टोरी।इसी के साथ विदा लेते हैं अगली कहानी के साथ विश्वज्ञान मे फिर से मुलाकात होगी। तब तक के लिए आप हंसते रहें,मुस्कराते रहें और प्रभु का स्मरण करते रहे। 

धन्यवाद 

4 Comments

  1. शब्दों का आपने बहुत अच्छे से उपयोग किया हैं 😍
    Keep it up 👍

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    1. धन्यवाद! आपका दिन शुभ हो।

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  2. Kya main ise apni insta story per promote kr skta hu😁

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    1. हाँ-हाँ, क्यों नही हमारी कहानियों से यदि किसी को कोई संदेश मिले ,तो हमे इसमे कोई आपत्ति नही।

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