कामासक्ति से विनाश

 कामासक्ति से विनाश

कामासक्ति से विनाश
कामासक्ति से विनाश


हिरण्यकशिपु के वंश में दैत्य निकुम्भ के दो पुत्र सुन्द और उपसुन्द थे। वे अपने समय में दैत्यों के मुखिया थे। दोनों सगे भाई थे। दोनों में इतना अधिक प्रेम था कि 'एक प्राण दो देह' 

दोनों की रुचि समान थी, आचरण समान था, अभिग्राय समान थे। वे साथ ही रहते थे, साथ ही खाते-पीते, उठते-बैठते थे। एक के बिना दूसरा कहीं जाता नहीं था। वे परस्पर मधुर वाणी बोलते थे और सदा दूसरे भाई को ही सुख पहुँचाने एवं सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करते रहते थे।

पराई स्त्री की कामना मृत्यु का कारण होती है

सुन्द-उपसुन्द दोनों भाइयों ने अमर होने की इच्छा से एक साथ घोर तप प्रारम्भ किया। विन्ध्याचल पर्वत पर जाकर वे केवल वायु पीकर रहने लगे। उनके शरीरों पर मिट्टी का ढेर जम गया। अन्त में अपने शरीर का माँस काट- काटकर वे हवन करने लगे। 

जब शरीर में केवल अस्थि रह गयी, तब दोनों हाथ ऊपर उठाये, पैर के अंगूठे के बल खड़े होकर उन्होंने तपस्या प्रारम्भ की। उनके दीर्घकाल तक चलने वाले उग्र तप से विन्ध्य पर्वत तृप्त हो उठा।

उन दोनों दैत्यों के तप में देवताओं ने अनेक प्रकार से विघ्न करना चाहा परन्तु सब प्रकार के प्रलोभन, भय एवं छल व्यर्थ हुए। अन्त में उनके तप से सन्तुष्ट होकर ब्रह्माजी वहाँ पधारे। 

जब उन्होंने वरदान माँगने के लिए कहने पर दोनों ने,ये वर माँगा- 'हे ब्रह्मदेव! हम दोनों मायावी, सभी अस्त्रों के ज्ञाता तथा अमर जो जाएँ।' पर बह्माजी ने उन्हें अमर बनाना स्वीकार नहीं किया। 

क्रोध मत करो, कोई किसी को नहीं मारता 

अन्त में दोनों ने कहा- 'यदि आप हमें अमरत्व नहीं दे सकते तो यही बरदान दें कि हम दोनों किसी दूसरे से न तो पराजित हों और न मारे जाएँ। हमारी मृत्यु जब  कभी भी हो, तो परस्पर एक-दूसरे के हाथ से ही हो।' ब्रह्माजी ने इस पर 'एवमस्तु' कह दिया।

दैत्यों को वरदान देकर ब्रह्माजी अपने लोक में चले गये और वे दोनों दैत्यपुरी में आ गये। अब तो उन दोनों ने तीनों लोकों को जीतने का निश्चय किया और उस पर काम जर्नादन शुरू कर दिया। 

बहुत जल्द उन्होने जीत हासिल कर ली। क्योंकि उन्हें  जो वरदान मिला था, उसे जानकर भी देवता भला उनसे युद्ध करने का साहस कैसे करते। वे तो दैत्यों के आक्रमण का समाचार पाते ही स्वर्ग छोड़कर जहाँ-तहाँ भाग गये। 

यक्ष, राक्षस, नाग आदि सबको उन दैत्यों ने जीत लिया। त्रिलोकी विजयी होकर उन्होंने अपने सेवकों को आज्ञा दे दी 'कोई यज्ञ, पूजन, वेदाध्ययन न करने पाये। जहाँ ये काम हों, उस नगर को भस्म कर दो। ऋषियों को ढूंढ-ढूँढ़कर नष्ट करो।'

स्वभाव से क्रूर दैत्य ऐसी आज्ञा पाकर ब्राह्मणों का वध करते घूमने लगे। ऋषियों के आश्रम उन्होंने जला दिये। किसी ऋषि ने शाप भी दिया तो ब्रह्माजी के वरदान से वह व्यर्थ चला गया। 

इसका नतीज़ा यह हुआ कि पृथ्वी पर जितने तपस्वी, वेदपाठी, जितेन्द्रिय ब्राह्मण थे, धर्मात्मा लोग थे, ऋषि थे, वे सब भय के मारे पर्वतों की गुफाओं में जा छिपे। समाज में न कहीं यज्ञ- पूजन होता था, न वेद पाठ। परन्तु दैत्यों को इतने से सन्तोष नहीं हुआ। 

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वे इच्छानुसार रूप रखने वाले क्रूर सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि का रूप धारण करके गुफाओं में छिपे ऋषियों का भी विनाश करने लगे। इस अत्याचार की शान्ति का दूसरा कोई उपाय न देखकर ऋषिगण ब्रह्मलोक में ब्रह्माजी के पास पहुँचे। 

उसी समय देवता भी लोक पितामह के समीप अपनी विपत्ति सुनाने पहुँच गये। देवताओं तथा ऋषियों की विपत्ति सुनकर ब्रह्माजी ने दो क्षण विचार करके विश्वकर्मा को बुलाकर एक अत्यन्त सुन्दर नारी के निर्माण का आदेश दिया। 

विश्वकर्मा ने विश्व की समस्त सुन्दर वस्तुओं का सार भाग लेकर एक स्त्री का निर्माण किया। उस नारी के शरीर का एक भाग भी ऐसा नहीं था जो अत्यन्त आकर्षक न हो, इसलिए ब्रह्मा जी ने  उसका नाम तिलोत्तमा रक्खा। वह इतनी सुन्दर थी कि सभी देवता और लोकपाल उसे देखते ही मोहित हो गये।

मालोत्तमा ने हाथ जोड़कर ब्रह्माजी से पूछा 'मेरे लिए क्या आज्ञा है?' पितामह ब्रह्माजी ने कहा-'तुम सुन्द-उपसुन्द के समीप जाओ और उनमें परस्पर शत्रुता हो जाय, ऐसा प्रयत्न करो।'

तिलोत्तमा ने आज्ञा स्वीकार कर ली। पितामह को प्रणाम करके, देवताओं की प्रदक्षिणा करके उसने प्रस्थान किया। सुन्द-उपसुन्द अपने अनुचरों के साथ उस समय विन्ध्याचल के उपवनों में विहार कर रहे थे। वहाँ भोग की सभी सामग्री एकत्र थीं, दोनों भाई मदिरा पीकर उत्तम आसनों पर बैठे थे। 

स्त्रियाँ नृत्य कर रही थीं। गायक नाना प्रकार के बाजे बजाकर गा रहे थे। बहुत-से लोग उन दोनों भाइयों की स्तुति कर रहे थे। तिलोत्तमा नदी के किनारे कनेर के फूल चुनती हुई वहाँ पहुँची। उसे देखते ही दोनों भाई उस पर आसक्त हो गये।

कामासक्त सुन्द और उपसुन्द एक साथ उठकर तिलोत्तमा के पास दौड़ गये। सुन्द ने उसका दाहिना हाथ पकड़ा और उपसुन्द ने बायाँ हाथ। दोनों उससे अनुनय-विनय करने लगे कि वह उनकी पत्नी हो जाये।

तिलोत्तमा ने दोनों की ओर कटाक्षपूर्वक देखकर मुस्कराकर कहा- 'आप लोग पहले परस्पर निर्णय कर लें कि मैं किसको वरण करूँ।'

एक नारी की आसक्ति के कारण दोनों भाई परस्पर का प्रेम भूल गये। उनमें से प्रत्येक स्वयं ही उस नारी को अपनी बनाना चाहता था। एक तो मदिरा का नशा था, दूसरे कामदेव ने उन्हें अन्धा कर दिया था। 

वे अपने हित-अहित को भी भूल गये। सुन्द ने क्रोधपूर्वक उपसुन्द से कहा- 'यह मेरी स्त्री है। तुम्हारे लिए यह माता के समान है। इसका हाथ छोड़ दो।'

उपसुन्द ने गर्जना की-'यह मेरी स्त्री है, तुम्हारी नहीं। तुम्हारे लिए यह पुत्रवधु के समान है। झटपट इससे दूर हट जाओ।'

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दोनों क्रुद्ध हो उठे। काममोहित होकर उन्होंने भयानक गदाएँ उठा लीं और एक दूसरे पर प्रहार करने लगे। परस्पर के आघात से उनका शरीर पिसकर स्थान-स्थान से कट गया। 

रक्त की धारा चलने लगी। अन्त में दोनों ही माँस के लोथड़ों के समान निर्जीव होकर गिर पड़े। तिलोत्तमा का कार्य पूरा हो गया। वह स्वर्ग की श्रेष्ठ अप्सरा बन गयी। इन्द्र देवताओं के साथ फिर स्वर्ग के अधीश्वर हुए।

तो प्रिय पाठकों, कैसी लगी आपको कहानी। आशा करते हैं कि अच्छी-लगी होगी ।इसी के साथ विदा लेते हैं। अगली पोस्ट के साथ विश्वज्ञान मे फिर से मुलाकात होगी। तब तक के लिय आप अपना ख्याल रखें, हंसते रहिए, मुस्कराते रहिए और औरों को भी खुशियाँ बांटते रहिए। 

धन्यवाद 

जय श्री राम 

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