कामवश बिना विचारे प्रतिज्ञा करने से विपत्ति,एकादशी की महिमा

जय श्री राम! प्रिय पाठकों,कैसे है आप लोग 

हम आशा करते हैं कि आप प्रभु की कृपा से स्वस्थ होंगे 

 

एकादशी की अद्भुत कथा 
कामवश बिना विचारे प्रतिज्ञा करने से विपत्ति

कामवश बिना विचारे प्रतिज्ञा करने से विपत्ति,एकादशी की महिमा
कामवश बिना विचारे प्रतिज्ञा करने से विपत्ति,एकादशी की महिमा 

बहुत पहले अयोध्या में एक राजा रहते थे ऋतुध्वज। महाराज रुकमाङ्गद ऋतुध्वज के पुत्र थे। रुकमाङ्गद बड़े प्रतापी और धर्मात्मा थे। इनकी एक अत्यन्त पतिव्रता पत्नी थी-विन्ध्यावती। उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया,जिसका नाम धर्माङ्गद था।

वह पितृ भक्ति के लिए जगत मे विख्यात था। वह अपने पिता से अत्यंत प्रेम करता था तथा अन्य धर्मों में अपने पिता के ही तुल्य था। महाराज रुकमाङ्गद को एकादशी व्रत प्राणों से भी प्यारा था। उन्होंने अपने समस्त राज्य में घोषणा करा दी थी कि जो एकादशी व्रत नही करेगा, वह दंड का भागी होगा। 

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इसलिए उनके राज्य में आठ से लेकर अस्सी वर्ष तक के सभी बालक-वृद्ध, पुरुष-स्त्री श्रद्धापूर्वक एकादशी व्रत का अनुष्ठान करते थे। केवल कुछ रोगी, गर्भिणी स्त्रियाँ आदि इनके खिलाफ थे। 

इस व्रत के प्रताप से उनके समय में कोई भी यमपुरी नहीं जाता था। यमपुरी सूनी हो गई। यमराज इससे बड़े चिन्तित हुए। वे प्रजापति ब्रह्मा के पास गये और उन्हें यमपुरी के उजाड़ होने का तथा अपनी बेकारी का समाचार सुनाया। 

ब्रह्माजी ने उन्हें शान्त रहने का उपदेश दिया। यमराज के बहुत प्रयत्न करने पर उन्होने माया की रची एक मोहनी नाम की स्त्री बनाई तथा उसे शिकार के लिए वन में गये हुए राजा के पास भेजा। 

उसने राजा रुकमाङ्गद को अपने वश में कर लिया। राजा ने उससे विवाह करना चाहा, तब उसने कहा कि 'मेरी एक शर्त है, वह यह है कि मैं जो कुछ भी कहूँ, वही आपको करना पड़ेगा।'

महाराज तो मोह से बेहोश थे ही, फिर न करने की बात ही कहाँ थी। उसको लेकर वे राजधानी लौटे। राजकुमार धर्माङ्गद ने बड़े उत्साह के साथ दोनों का स्वागत किया। 

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विन्ध्यावती ने भी अपनी सौत की सेवा आरम्भ की और बिना किसी मानसिक क्लेश के अपने को सेविका जैसी मानकर वह मोहिनी की सेवा में लग गयी।

कुछ दिन बाद एकादशी भी आ गयी। शहर में हिंढोरा पीटा जाने लगा' एकादशी है, सावधान, कोई भूल से अत्र न ग्रहण कर ले। सावधान ! मोहिनो के कानों में ये शब्द पहुँचे। 

उसने महाराज से पूछा, 'महाराज। यह क्या है? रुकमाङ्गद ने सारी परिस्थिति बतलायी और स्वयं भी व्रत करने के लिए तैयार होने लगे।

मोहिनी ने कहा- 'महाराज, मेरी एक बात माननी होगी।'

रुकमाङ्गद ने कहा- बोलो प्रिय!

मोहिनी ने कहा- आप एकादशी व्रत न करें।'

रुकमाङ्गद ने कहा- 'यह प्रतिज्ञा तो मैंने ही की हुई है।'

'तब आप एकादशी व्रत न करें।' मोहिनी दोबारा फिर बोल उठी। 

महाराज ये बात सुनकर मौन रह गए। उन्होंने बड़े कष्ट से कहा- 'मोहिनी। मैं तुम्हारी सारी बातें तो मान सकता हूँ और मानता ही हूँ, किन्तु देवि ! मुझसे एकादशी व्रत छोड़ने के लिए मत कहो। यह मेरे लिए बिल्कुल असम्भव है। 

मोहिनी ने कहा-'यह तो हो ही नहीं सकता। आपने मुझसे वादा किया था , प्रतिज्ञा की थी, कि मैं जो कहूँगी, वो आप करेंगे। फिर आप अपनी प्रतिज्ञा कैसे भूल सकते हैं।'

रुकमाङ्गद ने कहा-'तुम किसी भी शर्त पर मुझे इसे करने की आज्ञा दो।'

मोहिनी ने कहा- 'यदि ऐसी ही बात है तो आप अपने हाथों धर्माङ्गद का सिर काटकर मुझे दे दीजिये।'

इस पर रुकमाङ्गद बड़े दुःखी हुए। उनके पुत्र धर्माङ्गद को जब यह बात मालूम हुई, तब उन्होंने अपने पिता को समझाया और वे इसके लिए तैयार हो गये। 

पितृ भक्त धर्माङ्गद कहा-'मेरे लिए तो इससे बढ़कर कोई सौभाग्य का अवसर ही नहीं आ सकता।' उसकी माता रानी विन्ध्यावती ने भी इसका समर्थन कर दिया।

सभी तैयार हो गये। महाराज ने ज्योंही तलवार चलायी, पृथ्वी काँप उठी, साक्षात भगवान् वहाँ प्रकट हो गये और उनका हाथ पकड़ लिया। वे धर्माङ्गद, महाराज तथा विन्ध्यावती को अपने साथ ही अपने श्रीधाम को ले गये।

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तो देखा दोस्तों आपने काम के वश होकर बिना विचारे प्रतिज्ञा करने का क्या परिणाम होता और पिता तथा पति के लिए सुपुत्र तथा सती स्त्री क्या कर सकती है एवं भगवान् की कृपा इन पर कैसे बरसती है, इसका यह जीता जागता उदाहरण है।

आशा करते हैं कि आपकों पोस्ट पसंद आयी होगी। इसी के साथ विदा लेते हैं अगली रोचक, ज्ञानवर्धक कहानी के साथ विश्वज्ञान मे फिर से मुलाकात होगी ,तब तक के लिय आप अपना ख्याल रखे, हंसते रहिए, मुस्कराते रहिए और औरों को भी खुशियाँ बांटते रहिए।

धन्यवाद 

जय श्री राम 

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