श्री कृष्ण के पेट-दर्द की विचित्र औषधि

गोपियाँ बोली- ये कौन-सी बड़ी कठिन बात है, मुनि महाराज ? लो, हम पैर बढ़ाये हैं, जितनी चाहिये, चरण-धूलि अभी ले जाओ।'

नारदजी बोले-'अरी यह क्या करती हो ?' नारदजी घबराये। 'क्या तुम यह नहीं जानतीं कि श्रीकृष्ण भगवान् हैं? भला, उन्हें खाने को अपने पैरों की धूल ? क्या तुम्हें नरक का भय नहीं है?'..........

जय श्री राम प्रिय पाठकों! कैसे है आप लोग
आशा करते हैं कि आप ठीक होंगे। 

दोस्तो! स्वागत है आपका एक बार से विश्व ज्ञान मे। दोस्तों ,आज की इस पोस्ट में हम एक कहानी के जरिए जानने की सच्ची भक्ति और प्रेम के आगे कुछ भी असंभव नही। प्रेम के आगे अगर नरक भी मिले तो भी कम है। तो चलिए बिना देरी किये पड़ते हैं आज की पोस्ट-

श्री कृष्ण के पेट-दर्द की विचित्र औषधि।

श्री कृष्ण के पेट-दर्द की विचित्र औषधि
श्री कृष्ण के पेट-दर्द की विचित्र औषधि


प्रायः भगवान् श्रीकृष्ण की पटरानियाँ ब्रजगोपिकाओं के नाम से नाक- भौं सिकोड़ने लगतीं। इनके अहंकार को भंग करने के लिये प्रभु ने एक बार एक लीला रची। कभी बीमार न पड़ने भगवान् ने पेट दर्द का नाटक किया और बिस्तर पर पड़ गये। 

नारदजी आये। वे भगवान् के मनोभाव को समझ गये। उन्होंने बताया कि इस बीमारी की, पेट दर्द की औषधि तो है, पर उसके साथ प्रेमी भक्त की चरण रज (धूल) की जरूरत है। नारद जी कृष्ण की पटरानियों के पास गए और उनसे चरण रज मांगी। 

रुक्मिणी, सत्यभामा-सभी से पूछा गया। सभी ने मना कर दिया। कहने लगी -भला हम उनकी पत्नियां अपने पैरों की धूल कैसे दे सकते हैं। 

नारदजी वापस श्री कृष्ण के पास आते हैं और कहते हैं की- प्रभु आपकी पटरानीयों ने पदरज देने से मना कर दिया । अब पदरज कौन दे प्रभु को। 

भगवान् ने कहा- 'एक बार ब्रज जाकर देखिये तो।' नारदजी ब्रज गए। जब नारद जी ब्रज पहुचें तो हैरान हो गए। क्योंकि केवल इतना सुनते ही की 'नारदजी श्यामसुन्दर (कृष्ण ) के पास से आये हैं' तो  श्रीराधा जी के साथ सारी गोपियाँ बासी मुँह ही उनके पास  दौड़ी चली आई। और कृष्ण की कुशल पूछने लगी। 

गोपियों का अद्भूत प्रेम (कृष्ण लीला)

कुशल पूछने पर नारदजी ने श्रीकृष्ण की बीमारी की बात सुनायी। इतना सुनते ही गोपियों के तो प्राण ही सूख गये। उन्होंने तुरन्त पूछा- क्या वहाँ कोई वैद्य नहीं है ?'

नारदजी ने कहा- 'वैद्य भी हैं, दवा भी है, पर अनुपान(दवा के साथ या उसके पहले या बाद मे खाया जाने वाला पदार्थ)नहीं मिलता।'

'ऐसा क्या अनुपान है?'गोपियों ने पूछा?

नारदजी ने कहा- 'अनुपान बहुत दुर्लभ है, उसे कौन दे? है तो वह सभी के पास, पर कोई उसे देना नहीं चाहता। सम्पूर्ण जगत् में चक्कर लगा आया, पर सब व्यर्थ।'

गोपियों ने फिर से पूछा-'सभी के पास है! क्या हम लोगों के पास भी है?'

नारदजी ने कहा-'है क्यों नहीं, पर तुम भी दे न सकोगी।'

इसपर गोपियां बोली- प्रियतम श्रीकृष्ण को न दे सकें, ऐसी हमारे पास कोई वस्तु ही नहीं रह सकती।'

नारदजी बोले-'अच्छा, तो क्या श्रीकृष्ण को अपने चरणों की धूलि दे सकोगी ? यही है वह अनुपान, जिसके साथ दवा देने से उनकी बीमारी दूर होगी।'

गोपियाँ बोली- ये कौन-सी बड़ी कठिन बात है, मुनि महाराज ? लो, हम पैर बढ़ाये हैं, जितनी चाहिये, चरण-धूलि अभी ले जाओ।'

नारदजी बोले-'अरी यह क्या करती हो ?' नारदजी घबराये। 'क्या तुम यह नहीं जानतीं कि श्रीकृष्ण भगवान् हैं? भला, उन्हें खाने को अपने पैरों की धूल ? क्या तुम्हें नरक का भय नहीं है?'

गोपियाँ बोली- 'नारदजी ! हमारे सुख-सम्पत्ति, भोग, मोक्ष-सब कुछ हमारे प्रियतम श्रीकृष्ण ही हैं। अनन्त नरकों में जाकर भी हम श्रीकृष्ण को स्वस्थ कर सकें-उनको तनिक-सा भी सुख पहुँचा सकें तो हम ऐसे मनचाहे नरक का नित्य भजन करें। हमारे अघासुर (अघ+असुर), नरकासुर (नरक+असुर) तो उन्होंने कभी के मार रक्खे  हैं।'

कृष्ण ने वापस आकर गोपियों से कहा ?

नारदजी भावुक हो गये। उन्होंने श्रीराधा रानी तथा उनकी कायव्यूह रूपा(छवियां या रुप )गोपियों की परम पावन चरणरज की पोटली बाँधी, अपने को भी उससे अभिषिक्त किया (माथे से लगाया)। वे चरणरज लेकर नाचते हुए द्वारका पधारे। 

वहां पहुंच कर उन्होंने सारी बातें श्री कृष्ण और उनकी पत्नियों को बताई। उसके बाद भगवान् ने दवा ली। पटरानियाँ यह सब सुनकर लज्जा से गड़-सी गयीं। उनके प्रेम का अहंकार समाप्त हो गया। वे समझ गयीं कि हम उन गोपियों के सामने कुछ भी नही हैं। उन्होंने उन्हें मन-ही-मन निर्मल तथा श्रद्धापूर्वक मन से नमस्कार किया।

तो प्रिय पाठकों, कैसी लगी आपको कहानी। आशा करते हैं अच्छी लगी होगी। इसी के साथ विदा लेते हैं। अगली पोस्ट के साथ विश्वज्ञान मे फिर से मुलाकात होगी। तब तक के लिय आप अपना ख्याल रखें, हंसते रहिए, मुस्कराते रहिए और औरों को भी खुशियाँ बांटते रहिए। 

धन्यवाद 

जय श्री राधे कृष्ण 

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