कुम्भ की उत्पत्ति की अमरकथा

एक समय की बात है, दैत्यों और दानवों ने बड़ी भारी सेना लेकर देवताओं पर चढ़ाई की। उस युद्ध में दैत्यों के सामने देवता परास्त हो गये, तब इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता अग्नि को आगे करके ब्रह्माजी  की शरण  में गये। वहाँ उन्होंने अपना सारा हाल ठीक-ठीक कह सुनाया.....

जय श्री राम प्रिय पाठकों! कैसे है आप लोग

आशा करते हैं कि आप ठीक होंगे। 

कुम्भ की उत्पत्ति की अमरकथा 


कुम्भ की उत्पत्ति की अमरकथा
कुम्भ की उत्पत्ति की अमरकथा 


एक समय की बात है, दैत्यों और दानवों ने बड़ी भारी सेना लेकर देवताओं पर चढ़ाई की। उस युद्ध में दैत्यों के सामने देवता परास्त हो गये, तब इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता अग्नि को आगे करके ब्रह्माजी  की शरण  में गये। वहाँ उन्होंने अपना सारा हाल ठीक-ठीक कह सुनाया। 

ब्रह्माजीने कहा- 'तुमलोग मेरे साथ भगवान  की  शरण में चलो।' यह कहकर सम्पूर्ण देवताओं को साथ ले क्षीरसागर के उत्तर-तट पर गये और भगवान् विष्णु को सम्बोधित करके बोले-'विष्णो! शीघ्र उठिये और इन देवताओं का कल्याण कीजिये। आपकी सहायता न मिलने से दानव इन्हें बारम्बार परास्त करते हैं।' 

उनके ऐसा कहने पर कमल के समान नेत्रवाले भगवान् अन्तर्यामी पुरुषोत्तम ने देवताओं के शरीर की अवस्था देखकर कहा- 'देवगण ! मैं तुम्हारे तेज की वृद्धि करूँगा। मैं जो उपाय बतलाता हूँ, उसे तुमलोग करो। 

कुम्भ मेला (सम्पूर्ण जानकारी) 

तुम दैत्योंके साथ मिलकर सब प्रकार की ओषधियाँ ले आओ और उन्हें क्षीरसागर में डाल दो। फिर मन्दराचल को मथानी और वासुकि नाग को नेती (रस्सी) बनाकर समुद्रका मन्थन करते हुए उससे अमृत निकालो। इस कार्य में मैं तुमलोगों की सहायता करूँगा। समुद्रका मन्थन करने पर जो अमृत निकलेगा, उसका पान करने से तुमलोग बलवान् और अमर हो जाओगे।' 

देवाधिदेव भगवान्‌ विष्णु के ऐसा कहने पर सम्पूर्ण देवता दैत्यों के साथ मित्रता करके अमृत निकालने के यत्न में लग गये- तत्पश्चात् देवता और दानवों ने पृथ्वी के उत्तर भाग में हिमालय के समीप क्षीरोदसिन्धु में मन्थन किया, जिसमें मन्दराचल 'मन्थन दण्ड' था, 

वासुकी ‘नेती’ थे, कच्छप रूप धारी भगवान् मन्दराचल के पृष्ठभाग थे और भगवान् विष्णु उक्त मन्थन-दण्डको पकड़े हुए थे, तदनन्तर उस क्षीरसागरसे चौदह रत्न- लक्ष्मी, कौस्तुभ, पारिजात, सुरा, धन्वन्तरि, चन्द्रमा, गरल, पुष्पक, ऐरावत, पांचजन्य शंख, रम्भा, कामधेनु, उच्चैः श्रवा और अमृत-कुम्भ निकले।

उन्हीं रत्नों में से अमृत-कुम्भ के निकलते ही देवताओं के इशारे से कुम्भ- इन्द्रपुत्र 'जयन्त' अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्योंने अमृतको वापस लेने के लिये जयन्त का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयन्त को पकड़ा। तत्पश्चात् अमृत-कलश पर अधिकार जमाने के लिये देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। 

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परस्पर इस मार-काट के समय में पृथिवी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक)-पर कलश गिरा था, उस समय चन्द्रमा ने घट से प्रस्त्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शान्त करने के लिये भगवान् विष्णु ने  मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सब को अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव-युद्धका अन्त किया गया। 


कुम्भ की उत्पत्ति की अमरकथा
कुम्भ की उत्पत्ति की अमरकथा 


कुंभ का क्या महत्व है?

कुम्भ मेला या कुम्भ मे स्नान करने का शास्त्रों मे बहुत महत्त्व बताया गया है।जिन मनुष्य  के मन मे मुक्ति की कामना होती है,वह कुम्भ योग (जल) मे स्नान कारता है। कुम्भ-योग में स्नान कर वह मनुष्य अमृतत्व (मुक्ति)-की प्राप्ति करता है। जिस प्रकार दरिद्र मनुष्य सम्पत्तिशाली को नम्रता से अभिवादन करता है, उसी प्रकार कुम्भ-पर्व में स्नान करने वाले मनुष्यको देवगण भी नमस्कार करते हैं।

कुंभ मेला शब्द का क्या अर्थ है?

वैसे 'कुम्भ' शब्दका अर्थ साधारणतः घड़ा ही है, किन्तु इसके पीछे जनसमुदाय में पात्रता के निर्माण की रचनात्मक शुभभावना, मंगलकामना एवं जन-मानस के उद्धार की प्रेरणा निहित है। 'कुम्भ' शब्द समग्र सृष्टिके कल्याणकारी अर्थको अपने-आपमें समेटे हुए है-

  कुं पृथ्वीं भावयन्ति संकेतयन्ति भविष्यत्कल्याणादिकाय महत्याकाशे अथार्त-पृथ्वीको कल्याणकी आगामी सूचना देनेके लिये या शुभ भविष्य के संकेत के लिये हरिद्वार, प्रयाग आदि पुण्य-स्थानविशेष के उद्देश्य से निर्मल महाकाश में बृहस्पति आदि ग्रहराशि जिसमे उपस्थित हों , उसे 'कुम्भ' कहते हैं।

 इसके अतिरिक्त अधिकतर लोगों मे जन कल्याण करने की भावना होती है उनमे मौजूद  जन-कल्याणकारी भावों को भी 'कुम्भ' कहते है।

कुंभ मेले को भारत का सबसे शुभ काल क्यों माना जाता है?

कुंभ मेले को भारत का सबसे शुभ काल इसलिए माना जाता है क्योकि प्राचीनकाल से ही हमारी महान् भारतीय संस्कृति में तीर्थों के प्रति और उनमें होने वाले पर्व विशेष के प्रति बहुत आदर तथा श्रद्धा-भक्तिका अस्तित्व विराजमान है। 

भारतीय संस्कृति में किसी पुण्य-पर्व, धार्मिक कृत्य, संस्कार, अनुष्ठान तथा पवित्र समारोह और उत्सव आदिके आयोजन मात्र प्रदर्शन, आत्मतुष्टि या मनोरंजन आदिकी दृष्टिसे नहीं किये जाते, अपितु प्राय: ऐसे धार्मिक एवं सांस्कृतिक आयोजनोंका मुख्य उद्देश्य होता है-आत्मशुद्धि और आत्मकल्याण। 

इसी प्रकार धार्मिक अनुष्ठान या पर्वोंके आयोजन में भी न केवल परम्पराका अनुपालन,अपितु शास्त्रानुमोदित प्राचीन भारतीय (वैदिक) संस्कृतिकी गरिमासे मण्डित पद्धतिके निर्वहणका सुप्रयास भी निहित रहता है। 

प्राचीनकाल में तत्त्ववेत्ता ऋषियों द्वारा मोक्ष-कामना तथा लोक-कल्याणकी शुभ भावनासे प्रेरित होकर गंगा आदि नदियोंके तटों तथा प्रयाग, हरिद्वार आदि पवित्र स्थलोंपर ज्ञानसत्रके आयोजन धर्मचर्चा तथा भगवत्-लीला-श्रवण के प्रसंग एक तरफ जहाँ हमारी आध्यात्मिक परम्परा के द्योतक हैं,वहीं दूसरी ओर वर्तमान जगत्‌के लिये प्रेरणादायक भी हैं। 

ऋषि-महर्षि, साधु-सन्त और विद्वत्-जनोंका समागम राष्ट्र की ऐहिक तथा पारलौकिक व्यवस्थापर विचार-विमर्श का हेतु था। इससे समाज को नवीन चेतना प्राप्त होती थी और देश-काल एवं वातावरणपर धार्मिक महत्ताका वर्चस्व भी स्थापित होता था। इस प्रकार इस प्रणाली से भारतीय समाजके विघटन को रोका जाता था।

साथ-ही-साथ यह सद्विचारोंके प्रसार एवं संगठन की एक स्वस्थ व्यवस्था थी। इसके द्वारा आत्मीयता एवं धार्मिक सौहार्द का वातावरण तैयार करने तथा सामाजिक समन्वय एवं अखण्ड राष्ट्र की परिकल्पना को भलीभाँति साकार करनेमें सहायता मिलती थी।कुम्भ-पर्वके सम्बन्धमें वेदोंमें अनेक महत्त्वपूर्ण मन्त्र मिलते हैं,जिनसे सिद्ध होता है कि कुम्भ-पर्व अत्यन्त प्राचीन और वैदिक धर्म से ओत-प्रोत है।

तो प्रिय पाठकों, कैसी लगी आपको कहानी। आशा करते हैं अच्छी लगी होगी। इसी के साथ विदा लेते हैं। ऐसी ही रोचक और सत्य कथाओं के साथ विश्वज्ञान मे फिर से मुलाकात होगी। तब तक के लिय आप अपना ख्याल रखें, हंसते रहिए, मुस्कराते रहिए और औरों को भी खुशियाँ बांटते रहिए। 

धन्यवाद 

जय श्री राम 

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