माता यशोदा को हुए कृष्ण के विराट रुप के दर्शन

जय श्री राधे कृष्ण

 विराट रूप का दर्शन

माता यशोदा को हुए कृष्ण के विराट रुप के दर्शन


गर्गमुनि कौन थे ?

प्रभु श्री कृष्ण द्वारा  तृणावर्त के उद्धार (मारे जाने के) बाद वसुदेव ने अपने कुल पुरोहित गर्गमुनि से कहा कि वे नन्द महाराज के यहाँ जाकर ज्योतिष के अनुसार कृष्ण के भविष्य की गणना करें। गर्गमुनि महान् ऋषि थे जिन्होंने अनेक तपस्याएँ की थीं और जो यदुवंश के पुरोहित नियुक्त हुए थे। 

जब गर्गमुनि नन्द महाराज के यहाँ पहुँचे, तो वे उन्हें देखकर परम प्रसन्न हुए और तुरन्त ही हाथ जोड़ कर खड़े हो गये तथा उन्होंने उनका सादर अभिवादन किया। उन्होंने गर्गमुनि का इस भाव से स्वागत किया मानो कोई ईश्वर या श्रीभगवान् की पूजा कर रहा हो। उन्होंने उन्हें उत्तम आसन दिया और जब वे बैठ गये, तो उनका हार्दिक स्वागत किया। 

कृष्ण और तृणावर्त की कथा / तृणावर्त का उद्धार

उन्हें अत्यन्त विनम्र भाव से सम्बोधित करते हुए नन्द महाराज ने कहा: "हे ब्राह्मण! इस गृहस्थ के घर आपका आगमन केवल प्रकाश प्रदान करने के लिए हुआ है। हम सदैव गृहस्थी के कार्यों में लगे रहते हैं जिससे आत्म-साक्षात्कार के वास्तविक कार्य के लिए हमें अवसर ही नहीं मिल पाता। हमारे घर में आपका पदार्पण हमें आध्यात्मिक जीवन के विषय में किञ्चित् प्रकाश प्रदान करने के निमित्त हुआ है। 

आपका गृहस्थों के घर पधारने का इसके अतिरिक्त कोई अन्य प्रयोजन नहीं हो सकता।" वास्तव नें किसी साधु पुरुष या ब्राह्मण का ऐसे गृहस्थों के घर में जाने का कोई प्रयोजन नहीं है, जो निरन्तर आर्थिक क्रियाकलापों (धन) में व्यस्त रहते हैं। 

साधु पुरुषों तथा ब्राह्मणों का गृहस्थ के घर जाने का कारण केवल उसे प्रकाश प्रदान करना होता है। यदि कोई यह पूछे कि, "गृहस्थजन ज्ञान प्राप्ति के लिए किसी साधु पुरुष या ब्राह्मण के पास क्यों नहीं जाते?" तो इसका उत्तर यही होगा कि गृहस्थजन अत्यन्त संकुचित हृदय वाले होते हैं। 

kans-ke-atyaachaaron-ki-shuruaat /कंस द्वारा उत्पीड़न का प्रारम्भ

सामान्यतया गृहस्थजन सोचते हैं कि उनका प्रधान कार्य पारिवारिक मामलों में व्यस्त रहना है और आत्म-साक्षात्कार या आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश गौण है। केवल दयावश ही साधु पुरुष तथा ब्राह्मण-जन गृहस्थों के घर जाते हैं। नन्द महाराज ने गर्गमुनि को ज्योतिषविज्ञान का सबसे बड़ा पण्डित कह कर सम्बोधित किया। 

सूर्य या चन्द्रग्रहण जैसी घटनाओं के विषय में फलितज्योतिष की भविष्यवाणियाँ आश्चर्यजनक गणनाएँ हैं और इसी विज्ञान विशेष के द्वारा मनुष्य भविष्य को स्पष्ट रूप से समझ सकता है। गर्गमुनि इस ज्ञान में पटु थे।

इस ज्ञान के द्वारा यह जाना जा सकता है कि मनुष्य के विगत कर्म क्या थे जिसके परिणास्वरूप मनुष्य इस जीवन में सुख या दुख भोग सकता है। नन्द महाराज ने गर्गमुनि को "सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण" भी कहा। ब्राह्मण वह है, जो परमेश्वर के ज्ञान में दक्ष हो। परमेश्वर के ज्ञान के बिना मनुष्य ब्राह्मण नहीं माना जा सकता। 

इस प्रसंग में प्रयुक्त सही शब्द ब्रह्मविदाम् है, जिसका अर्थ है, वे पुरुष जो परमेश्वर को भलीभाँति जानते हैं। एक दक्ष ब्राह्मण अन्य उपजातियों क्षत्रिय तथा वैश्यों को सुधारने की सुविधाएँ प्रदान कर सकता है। शूद्र कोई संस्कार सम्पन्न नहीं करते। 

ब्राह्मण को क्षत्रिय तथा वैश्य का गुरु या पुरोहित माना जाता है। नन्द महाराज जाति के वैश्य थे और वे गर्गमुनि को सर्वोच्च ब्राह्मण मानते थे। अतः उन्होंने अपने दोनों धर्मपुत्रों, कृष्ण तथा बलराम को संस्कार कराने के लिए उन्हें समर्पित किया। नन्द महाराज ने कहा कि न केवल इन दोनों बालकों को अपितु सारे मनुष्यों को चाहिए कि जन्म के पश्चात् किसी योग्य ब्राह्मण को अपना गुरु बनाएँ।

इस प्रार्थना पर गर्गमुनि ने उत्तर दिया, "वसुदेव ने मुझे इन बालकों का विशेष रूप से कृष्ण का, संस्कार कराने के लिए भेजा है। मैं उनका कुल-पुरोहित हूँ और अगर मैं इन को संस्कार कराऊँ तो संयोगवश यह लगेगा कि कृष्ण देवकी के पुत्र हैं।” 

अपनी फलितज्योतिष गणना से गर्गमुनि समझ गये थे कि कृष्ण देवकी के पुत्र हैं, किन्तु नन्द इससे सर्वथा अनजान थे। परोक्ष रूप से उन्होंने यह कहा कि कृष्ण तथा बलराम दोनों वसुदेव के पुत्र थे। बलराम वसुदेव के पुत्र रूप में विख्यात थे, क्योंकि उनकी माता रोहिणी विद्यमान थीं, किन्तु कृष्ण के विषय में नन्द को ज्ञात न था। 

गर्गमुनि ने अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रकट कर दिया कि कृष्ण देवकी के पुत्र हैं। उन्होंने नन्द महाराज को यह भी आगाह कर दिया कि यदि वे संस्कार सम्पन्न कराएँगे, तो पापी कंस समझ जाएगा कि कृष्ण देवकी तथा वसुदेव के पुत्र देवकी के कन्या नहीं होनी चाहिए, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति गणना के अनुसार यही कहता है कि देवकी की आठवीं सन्तान कन्या है। 

इस प्रकार गर्गमुनि ने नन्द महाराज को सूचित किया कि कन्या तो यशोदा के उत्पन्न हुई थी और कृष्ण देवकी से उत्पन्न थे और वे परस्पर बदल लिये गये थे। उस कन्या या दुर्गा ने भी कंस को सूचित किया था कि उसे मारने वाले बालक ने अन्यत्र जन्म ले लिया है। 

गर्गमुनि ने कहा, "यदि मैं आपके पुत्र का नामकरण संस्कार करता हूँ और यदि वह उस कन्या द्वारा कंस के प्रति की गई आकाशवाणी को पूरा कर देता है, तो सम्भव है। कि वह पापी असुर आकर नामकरण के बाद इस बालक का भी वध कर दे। 

अतः मैं इन सभी भावी विपत्तियों का उत्तरदायी नहीं बनना चाहता।" गर्गमुनि के वचन सुनकर नन्द महाराज बोले, "यदि ऐसी आशंका है, तो अच्छा होगा कि नामकरण संस्कार का भव्य आयोजन न किया जाय। 

आपके लिए यही श्रेयस्कर होगा कि आप केवल वैदिक मंत्रों का उच्चारण करके संस्कार सम्पन्न करा दें। हम द्विज हैं और मैं तो आपकी उपस्थिति का लाभ उठा रहा हूँ। अतः बिना धूम-धड़ाका के नामकरण संस्कार सम्पन्न करा दें।" 

नन्द महाराज नामकरण संस्कार को गुप्त रखना चाहते थे, किन्तु यह भी चाह रहे थे कि गर्गमुनि यह संस्कार सम्पन्न करें। जब नन्द महाराज ने इतनी उत्सुकता के साथ गर्गमुनि से प्रार्थना की तो उन्होंने गुप्त रूप से नन्द की गोशाला में नामकरण संस्कार सम्पन्न किया। 

उन्होंने नन्द को बताया कि रोहिणी-पुत्र बलराम अपने परिवार वालों तथा परिजनों के लिए अत्यन्त मोहक होगा, अतः राम कहलाएगा। भविष्य में वह अद्वितीय बलशाली सिद्ध होगा, अतः बलराम कहलाएगा। गर्गमुनि ने आगे बताया, “चूँकि आपके कुल तथा यदुकुल में घनिष्ठ सम्बन्ध है, 

अतः उस बालक का एक नाम संकर्षण भी होगा।" इसका अर्थ यह हुआ कि गर्गमुनि ने रोहिणी के पुत्र के तीन नाम रखे-बलराम, संकर्षण तथा बलदेव। उन्होंने चातुरी से यह बात प्रकट न होने दी कि बलराम भी देवकी के गर्भ में प्रकट हुए थे और बाद में उन्हें रोहिणी के गर्भ में स्थानान्तरित किया गया था। 

कृष्ण तथा बलराम सगे भाई (सहोदर) हैं और मूलतः देवकी के पुत्र हैं। तब गर्गमुनि ने नन्द महाराज को जानकारी दी, "जहाँ तक आपके पुत्र का प्रश्न है इस बालक ने विभिन्न युगों में विभिन्न शारीरिक रंग धारण किये हैं। सर्वप्रथम इसने श्वेत रंग धारण किया, फिर लाल, तब पीला और अब श्याम रंग धारण किया है। 

इसके अतिरिक्त यह पहले वसुदेव का पुत्र था, अतः इसका नाम वासुदेव तथा कृष्ण होना चाहिए। अत: कुछ लोग इसे कृष्ण कह कर पुकारेंगे और कुछ वासुदेव कह कर। किन्तु आपको एक बात जान लेनी चाहिए कि अपनी विभिन्न लीलाओं के कारण इस बालक के अन्य अनेक नाम तथा कार्यकलाप होते रहे हैं।"

गर्गमुनि ने नन्द महाराज से यह भी संकेत किया कि उनका पुत्र गिरिधारी भी कहलाएगा, क्योंकि यह गोवर्धन पर्वत उठाने का असाधारण कृत्य करेगा। चूँकि वे भूत तथा भविष्य के जानने वाले ज्योतिषी थे, अतः वे बोले, “मैं इसके कार्यों तथा नाम के विषय में हर बात जानता हूँ, किन्तु अन्य लोग नहीं जानते। 

यह बालक समस्त ग्वालों तथा गौवों को अत्यन्त प्यारा होगा। वृन्दावन में अत्यन्त लोकप्रिय होने के कारण यह आपके लिए कल्याणकारी होगा। इसकी उपस्थिति से आप समस्त सांसारिक विपत्तियों को पार कर सकेंगे, चाहे कितने ही विरोधी तत्त्व क्यों न आ जायें।

हे व्रजराज! जब जब राजनीतिक कुव्यवस्था हुई है इस बालक ने अपने पूर्वजन्मों में चोर-उचक्कों से साधुजनों की कई बार रक्षा की है। आपका पुत्र इतना शक्तिशाली है कि जो भी इसका भक्त होगा उसे शत्रु सता नहीं पाएँगे। जिस प्रकार विष्णु सदैव देवताओं की रक्षा करते हैं, 

उसी तरह आपके पुत्र के भक्त भी नारायण भगवान् के द्वारा सदैव सुरक्षित रहेंगे। नारायण अर्थात् भगवान के स्तर पर आपका बालक शक्ति, सौन्दर्य तथा ऐश्वर्य में हर तरह से उन्नति करेगा।अतः मेरी सलाह है कि आप इसकी सुरक्षा अत्यन्त सतर्कतापूर्वक करें, जिससे यह किसी व्यवधान के बिना विकास कर सके।

दूसरे शब्दों में गर्गमुनि ने नन्द महाराज को यह भी बताया कि चूँकि वे नारायण के परम भक्त हैं, अत: भगवान् नारायण ने उन्हें अपने ही समान पुत्र दिया है। साथ ही गर्गमुनि ने यह भी संकेत किया, "आपके पुत्र को अनेक असुर सताएंगे, अत: सावधान रहें और उसकी रक्षा करें।" 

इस प्रकार गर्गमुनि ने नन्द महाराज को विश्वास दिलाया कि साक्षात् नारायण उनके पुत्र बने हैं। उन्होंने अनेक प्रकार से उनके पुत्र के दिव्य गुणों का वर्णन किया। यह जानकारी देकर गर्गमुनि अपने घर वापस चले गये। 

नन्द और वसुदेव का मिलन

नन्द महाराज अपने को परम भाग्यशाली व्यक्ति मानने लगे और ऐसा आशीर्वाद प्राप्त करके उन्हें परम सन्तोष हुआ। इस घटना से कुछ समय बाद बलराम तथा कृष्ण दोनों ही हाथों और घुटनों के बल सरकने लगे। इस प्रकार चलते हुए वे अपनी माताओं को प्रमुदित करते रहते। 

उनकी कमर तथा पैरों में बँधी घंटिकाएँ रुनझुन बजतीं और वे मनोहारी ढंग से इधर-उधर घूमते। कभी-कभी वे सामान्य बच्चों की भाँति दूसरे बच्चों से डर कर अपनी रक्षा के लिए अपनी-अपनी माताओं के पास दौड़े चले आते।

कभी वृन्दावन की मिट्टी में रेंगने के कारण उनके शरीर मिट्टी से लथपथ हो जाते। वास्तव में उनकी माताओं द्वारा उनके शरीरों पर केसर और चंदन का लेप मला होता था। किन्तु मिट्टी में घुटनों के बल चलने के कारण उनके शरीरों पर मिट्टी लग जाती। 

ज्योंही वे यशोदा तथा रोहिणी के पास आते, वे उन्हें गोद में उठाकर साड़ी के आँचल से ढक कर दूध पिलातीं। जब वे पयपान करते रहते, तो माताएँ उनकी दंतुलियाँ देखती रहतीं। अपने पुत्रों को बढ़ता देखकर उनकी प्रसन्नता बढ़ जाती।


विराट रूप का दर्शन


कभी-कभी नटखट बालक गोशाला तक चले जाते और बछड़े की पूँछ पकड़ कर खड़े हो जाते। इससे बछड़े विचलित होकर इधर-उधर दौड़ने लगते और बच्चे मिट्टी तथा गोबर के ऊपर घिसट जाते। इस कौतूहल को देखने के लिए यशोदा तथा रोहिणी अपनी पड़ोसिनों को, यानी गोपियों को बुला लेतीं। ये गोपियाँ कृष्ण की लीलाएँ देखकर दिव्य आनन्द में लीन हो जातीं और प्रसन्नतावश वे जोर-जोर से हँसने लगतीं।

कृष्ण तथा बलराम दोनों ही इतने चंचल थे कि यशोदा तथा रोहिणी अपने-अपने गृहकार्यों में व्यस्त रहते हुए उन्हें गायों, बैलों, बन्दरों, जल, अग्नि तथा पक्षियों से बचाने का प्रयत्न करती रहतीं। अपने बालकों की सुरक्षा के लिए सदैव उत्सुक रहने तथा गृह-कार्यों में व्यस्त रहने के कारण वे शान्तिपूर्वक रह भी न पाती थीं। 

अल्पकाल में कृष्ण तथा बलराम दोनों ही उठकर खड़े होने लगे और अपने पैरों से कुछ-कुछ चलने लगे। जब वे दोनों चलने लगे, तो उनके हमजोली उनके साथ हो लेते और वे सब मिलकर गोपियों को तथा विशेष रूप से यशोदा तथा रोहिणी को परमानन्द प्रदान करते।

यशोदा तथा रोहिणी की समस्त गोपी सखियाँ वृन्दावन में कृष्ण तथा बलराम के नटखट बाल-सुलभ कार्यकलापों का आनन्द लूटने लगीं। इससे भी अधिक आनन्द प्राप्ति के उद्देश्य से वे सब एकत्र होतीं और माता यशोदा के पास इन चंचल बालकों की शिकायत करने पहुँच जातीं। कृष्ण माता यशोदा के सम्मुख बैठे होते, तभी सारी गोपियाँ यशोदा माता से उनकी शिकायतें करने लगतीं जिससे वे सुन सकें। 

वे कहतीं, "यशोदा जी! आप अपने नटखट कृष्ण को क्यों नही बरजतीं (समझाती )? वह हर प्रातः तथा सायंकाल बलराम के साथ हमारे घरों में आता है और गाएँ दुही जाने के पूर्व ही उनके बछड़ों को खोल देता है, जिससे वे गायों का सारा दूध पी जाते हैं। 

अतः जब हम दुहने जाती हैं, तो दूध न होने के कारण हमें खाली बर्तन लेकर लौटना पड़ता है। यदि हम इस कृत्य के लिए कृष्ण तथा बलराम को धमकाती हैं, तो वे ऐसी मनोहारी हँसी हँसते हैं कि हम कुछ भी नहीं कर पातीं।

यही नहीं, आपके कृष्ण तथा बलराम को हमारा दही तथा माखन चुराने में बड़ा आनन्द आता है, उसे चाहे हम कहीं भी क्यों न रखें। जब हम उन्हें दही तथा माखन चुराते पकड़ लेती हैं, तो वे कहते हैं, "आप हम पर चोरी का आरोप क्यों लगाती हैं? 

क्या आप समझती हैं कि हमारे घर में दही तथा मक्खन का अभाव है?" कभी-कभी वे मक्खन, दही तथा दूध चुराकर बन्दरों को बाँट देते हैं। जब बन्दर भरपेट खा लेते हैं, तो वे चिढ़ाते हैं कि यह दूध यह दही तथा माखन रद्दी हैं, यहाँ तक कि बन्दर भी इन्हें नहीं खाते। 

वे पात्रों को तोड़-फोड़ कर इधर-उधर बिखेर देते हैं। यदि हम दही, माखन तथा दूध को किसी एकान्त अँधेरे स्थान में रखती हैं, तो आपके कृष्ण तथा बलराम अपने शरीर के आभूषणों तथा रत्नों के तेज से उस अँधेरे स्थान में भी ढूँढ़ लेते हैं। 

यदि कदाचित् उन्हें छिपाया हुआ दही और मक्खन नहीं मिलता, तो वे जाकर हमारे बच्चों को चिकोटी काटते हैं जिससे वे रोने लगते हैं और वे दोनों भाग जाते हैं। यदि हम मक्खन दही को छींके पर ऊँचे टाँग देती हैं, तो अपनी पहुँच के बाहर होने पर भी चक्की के ऊपर काठ के बक्से रख कर वहाँ तक पहुँच जाते हैं। 

यदि वे वहाँ तक नहीं पहुँच पाते, तो पात्र में छेद कर देते हैं। अतः हम सोचती हैं कि आप अपने बालकों के शरीर से सारे रत्नजटित आभूषण निकाल लें, तो अच्छा हो।"यह सुनकर यशोदा कहतीं, "बहुत अच्छा, मैं कृष्ण के सारे रत्न उतार लूँगी जिससे वह अँधेरे में रखा माखन न ढूँढ पाये।" 

तब गोपियाँ कहतीं, "नहीं, नहीं, आप ऐसा न करें। आप इनके रत्नों को उतार कर क्या करेंगी? हम नहीं जानती कि ये कैसे बालक हैं, जो बिना आभूषणों के भी एक प्रकार का तेज फैलाते रहते हैं जिससे वे अँधेरे में भी प्रत्येक वस्तु देख सकते हैं।" तब माता यशोदा उन्हें बतातीं, “अच्छा, तुम लोग अपना माखन तथा दही सावधानी से रखा करो जिससे वे वहाँ पहुँच न सकें।" 

तो उत्तर में गोपियाँ कहतीं, "हाँ, वास्तव में हम ऐसा ही करती हैं, किन्तु कभी-कभी हम गृहकार्यों में व्यस्त रहतीं हैं और ये नटखट बालक न जाने कैसे घर में घुस कर सारी वस्तुएँ तहस-नहस कर देते हैं। कभी-कभी दही तथा माखन न चुरा सकने पर ये गुस्से में आकर स्वच्छ फर्श पर पेशाब कर देते हैं। 

कभी-कभी उस पर थूक देते हैं। आप अपने बच्चे को देखो न!-वे किस प्रकार इस शिकायत को सुन रहे हैं। वे सारे दिन हमारे दही तथा माखन चुराने की योजना बनाते रहते हैं और अब किस तरह वे शान्त अच्छे बालकों की तरह बैठे हैं! जरा उनके मुखमंडल तो देखें!" जब माता यशोदा ने सारे उलाहने सुनकर अपने बच्चे को डाँटना चाहा, तो उसके भोले भाले मुखमंडल को देखकर हँस पड़ी और डॉट नहीं पाईं।

माँ यशोदा ने कृष्ण के मुँह में क्या देखा  

एक दिन जब कृष्ण तथा बलराम अपने मित्रों के साथ खेल रहे थे, तो सारे बालकों ने बलराम के साथ मिलकर यशोदा से कहा कि कृष्ण ने मिट्टी खाई है। यह सुनकर माता यशोदा ने कृष्ण का हाथ पकड़ लिया और कहा, "बेटे!तुमने अकेले में मिट्टी क्यों खाई

देखो न, बलराम सहित तुम्हारे सारे मित्र तुम्हारी  शिकायत कर रहे हैं।" अपनी माता के डर से कृष्ण ने कहा, "हे माता! ये सारे लड़के, जिनमें भइया बलराम भी सम्मिलित हैं, झूठ बोल रहे हैं। मैंने मिट्टी कभी नहीं खाई।

आज भइया बलराम मेरे साथ खेलते-खेलते मुझसे रुष्ट हो गये, अतः वे मेरी शिकायत करने के उद्देश्य से अन्य बालकों से मिल गये हैं। वे सभी एकजुट होकर शिकायत करने आये हैं जिससे आप क्रुद्ध हों और मुझे प्रताड़ित करें। 

यदि आप सोचती हैं कि वे सच बोल रहे हैं, तो आप मेरे मुँह के भीतर देख सकती हैं कि मैंने मिट्टी खाई है अथवा नहीं।" उनकी माता बोलीं, “अच्छा, यदि तुमने मिट्टी नहीं खाई, तो अपना मुँह खोलो, मैं देखूँगी ।"


विराट रूप का दर्शन


जब कृष्ण की माता ने इस प्रकार आदेश दिया, तो उन्होंने एक सामान्य बालक की भाँति तुरन्त अपना मुँह खोल दिया। तब माता यशोदा ने मुँह के भीतर सृष्टि का पूर्ण ऐश्वर्य देखा। माता यशोदा ने मुँह के भीतर चारों ओर सम्पूर्ण बाह्य आकाश, पर्वत, द्वीप, सागर, ग्रह, वायु, अग्नि, चन्द्रमा तथा नक्षत्र देखे । 

चन्द्र तथा नक्षत्रों के साथ ही उन्होंने सम्पूर्ण तत्त्वों जल, आकाश, विस्तृत शून्य, अहंकार, चित्त, बुद्धि, सारे देवता तथा इन्द्रियविषयों यथा ध्वनि, गंध आदि एवं प्रकृति के तीनों गुणों को देखा। 

पूतना वध के समय भगवान् ने अपनी आँखे क्यों बंद की /कृष्ण द्वारा पूतना का वध

उन्होंने मुख के भीतर सारे जीवों, नित्य काल, भौतिक प्रकृति, आध्यात्मिक प्रकृति, गति, चेतना तथा समग्र सृष्टि के विभिन्न रूपों को देखा। यशोदा ने उनके मुख में दृश्य जगत के लिए अनिवार्य सारी वस्तुएँ देखीं। 

उन्होंने उनके मुख के भीतर कृष्ण को गोद लिए तथा अपना पयपान कराते अपने आपको भी देखा। वे यह सब देख कर भयभीत हो गईं और आश्चर्य करने लगीं कि वे सपना देख रही हैं। या वास्तव में कुछ विचित्र दृश्य देख रही हैं। 

उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि वे या तो स्वप्न देख रही थीं या भगवान् की माया का खेल देख रही उन्होंने सोचा कि ये विचित्र वस्तुएँ देखकर वे मानसिक रूप से विक्षिप्त तो नहीं हो गईं। फिर सोचा, " हो सकता है कि वह मेरे पुत्र की विराट योग शक्ति हो, अतः उसके मुख के भीतर ऐसा दृश्य देखकर मैं विचलित हो गई हूँ। 

अतः मैं उन श्रीभगवान् को नमस्कार करती हूँ जो चेतना, मन, कर्म एवं दार्शनिक कल्पना की अभिव्यक्ति से दूर हैं और जिनकी विविध शक्तियाँ व्यक्त तथा अव्यक्त का सृजन करती हैं। उनकी शक्ति से आत्मा तथा शारीरिक सत्ता का बोध होता है।" 

उन्होंने फिर कहा, “मुझे उनको सादर नमस्कार करना चाहिए जिनकी माया से मैं नन्द को अपना पति तथा कृष्ण को अपना पुत्र समझ रही हूँ और यह सोच रही हूँ कि नन्द की सारी सम्पत्ति मेरी है और सारे ग्वाले तथा ग्वालिनें मेरी प्रजा हैं। यह सब भ्रान्ति परमेश्वर की माया के कारण है। 

अतः मैं उनसे प्रार्थना करती हूँ कि वे सदैव मेरी रक्षा करते रहें।” जब माता यशोदा इस प्रकार के दार्शनिक भावों से भरी हुई थीं, तो भगवान कृष्ण ने अपनी अन्तरंगा शक्ति का फिर विस्तार किया जिससे वे मातृ-प्रेम से मोहग्रस्त हो जाँय। अतः तुरन्त ही माता यशोदा के सारे दार्शनिक भाव विस्मृत हो गये और उन्होंने कृष्ण को अपने पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया।

उन्हें अपनी गोदी में उठाकर वे भौतिक मातृ-प्रेम से अभिभूत हो गईं और सोचने लगीं, “उन्हें उपनिषद् और वेदान्तसूत्र या योग पद्धति तथा सांख्य दर्शन से ग्रहण किए ज्ञान द्वारा ही समझा जा सकता है।" फिर वे श्रीभगवान् को अपने द्वारा जन्मे बालक के रूप में सोचने लगीं। 

निश्चय ही यशोदा ने अनेकानेक पुण्यकर्म किये होंगे जिसके फलस्वरूप उन्हें परम सत्य श्रीभगवान् उनके पुत्र के रूप में प्राप्त हुए जिन्होंने उनका स्तन पान किया। इसी प्रकार नन्द महाराज ने भी अनेक महान् यज्ञ तथा पुण्यकर्म किये होंगे जिससे कृष्ण उनके पुत्र बने और उन्हें अपना पिता कह कर सम्बोधित करने लगे।

किन्तु यह आश्चर्यजनक है कि वसुदेव तथ देवकी कृष्ण की दिव्य बाल-लीलाओं से वंचित रहे यद्यपि कृष्ण उन्हीं के असली पुत्र थे। आज भी अनेक साधु तथा सन्त पुरुष कृष्ण की बाल-लीलाओं का गुणगान करते हैं, किन्तु वसुदेव तथा देवकी इसबाल्यकाल की लीलाओं का साक्षात् आनन्द न उठा सके। 

इसका कारण शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित से इस प्रकार बतलाया- जब ब्रह्मा ने द्रोण नामक सर्वश्रेष्ठ वसु को अपनी पत्नी धरा के साथ सन्तान वृद्धि करने का आदेश दिया, तो उन्होंने ब्रह्माजी से कहा, "हे पिता! हमें आप आशीर्वाद दें। भविष्य में जब हम पुन: इस ब्रह्माण्ड में जन्म धारण करें, तो भगवान् कृष्ण अपने अत्यन्त मनोहारी बाल्यपन के कारण हमारा सारा 

कृष्ण के साथ हमारे व्यवहार इतने प्रगाढ़ हों कि उनके साथ कृष्ण की बाल- लीलाओं के श्रवण मात्र से ही प्रत्येक मनुष्य जन्म तथा मृत्यु के अविद्या- को पार कर सके। " ब्रह्माजी ने उन्हें यह वर दे दिया जिसके फलस्वरूप द्रोण  वृन्दावन में नन्द महाराज के रूप में और धरा नन्द की पत्नी माता यशोदा के रूप में प्रकट हुई। 

इस प्रकार नन्द महाराज तथा उनकी पत्नी यशोदा ने श्रीभगवान् को पुत्र रूप में प्राप्त करके अपनी शुद्ध भक्ति बढ़ाई और समस्त गोपियों तथा ग्वालों ने जो कृष्ण के सहयोगी थे सहज ही कृष्ण के लिए अपनी प्रेम भावनाएँ विकसित कीं।

अतः ब्रह्माजी के वरदान की पूर्ति करने के लिए ही कृष्ण अपने पूर्ण अंश बलराम सहित प्रकट हुए और समस्त वृन्दावनवासियों के दिव्य आनन्द को बढ़ाने के लिए सारी बाल-लीलाएँ सम्पन्न कीं। 

प्रिय पाठकों !ये थी कथा भगवान् कृष्ण के  विराट रूप की। विश्वज्ञान में अगली पोस्ट के साथ फिर मुलाक़ात होगी तब तक के लिए राधे -राधे ,जय श्री राधे कृष्ण। अगली पोस्ट है -माता यशोदा ने कृष्ण को क्यों  बाँधा?

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