प्रभु श्री कृष्ण ने क्यों पी आग(कृष्ण लीला)

जय श्री राधे कृष्ण

दोस्तों !अभी तक पिछली पोस्टो में आपने कृष्ण का प्रकट होना,देवताओ का स्तुति करना ,कृष्ण जन्म ,कंस अत्याचार ,नन्द और वसुदेव का मिलना , पूतना वध ,तृणावर्त का उद्धार ,विराट रूप का दर्शन ,अघासुर ,वत्सासुर ,बकासुर के वध,कालिया दमन आदि कथाओं के बारे में पढ़ा। अब इस पोस्ट में हम दावाग्नि का शमन यानी जंगल की आग को शांत करने के बारे में जानेंगे।

इस पोस्ट में आप पाएंगे -  

गरुड़ कालिय के प्रति विरोध क्यों रखता था?

सौभरि मुनि ने गरूड़ को शाप क्यो दिया?

क्या सौभरि मुनि का गरूड़ को शाप देना ठीक था?

कृष्ण के द्वारा आग का शांत होना?

प्रलम्बासुर का वध 

कृष्ण ने आग को क्यों पिया?

अग्नि पीने का दूसरा कारण 

Why did krishna drink the fire/प्रभु श्री कृष्ण ने आग को क्यों पिया ?

गरुड़ कालिय के प्रति विरोध क्यों रखता था?

दोस्तों !कालिय दमन की कथा सुनने के बाद राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा कि कालिय ने अपना सुन्दर स्थान क्यों त्यागा था? और गरुड़ उनके प्रति विरोध क्यों रखता था? शुकदेव गोस्वामी ने राजा को बताया कि नागालय नामक द्वीप सर्पों से बसा था और कालिय वहाँ का प्रमुख सर्प था। 

उस द्वीप में  गरुड़ सर्प खाने आता था और इच्छानुसार अनेक सर्पों को मारता था। उनमें से वह कुछ को खा जाता, किन्तु अन्यों का वृथा ही वध करता रहता। इससे सर्प-समाज इतना भयभीत हो उठा था कि उनके मुखिया वासुकि ने ब्रह्माजी से रक्षा करने की प्रार्थना की। ब्रह्माजी ने ऐसी व्यवस्था कर दी कि गरुड़ उपद्रव न मचा सके। 

kaaliya naag or naagpatniyon dwara krishna stuti karna /कालिया नाग व नागपत्नियों द्वारा कृष्ण से प्रार्थना करना

ब्रह्मा जी की व्यवस्था के अनुसार यह निष्कर्ष निकला गया की प्रत्येक अमावस्या को सर्प-समाज के लोग गरुड़ को एक सर्प की भेंट दिया करे। उसी दिन से एक सर्प वृक्ष के नीचे गरुड़ को बलि रूप में रख दिया जाता। गरुड़ इस भेंट से प्रसन्न था, अत: वह अन्य सर्पों को तंग नहीं करता था। 

किन्तु धीरे-धीरे कालिय ने इस स्थिति का लाभ उठाया। उसे वृथा ही अपने एकत्रित विष की मात्रा का तथा अपनी भौतिक शक्ति का गर्व हो उठा, अतः उसने सोचा, "गरुड़ को यह भेंट क्यों दी जाये? अतः उसने भेंट देना बन्द कर दिया और गरुड़ को दी जाने वाली भेंट को वह स्वयं खाने लगा। 

जब विष्णु के वाहन भक्त गरुड़ को पता चला कि कालिय ऐसा करता है, तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और इस आक्रामक सर्प को मारने के लिए द्वीप की ओर बढ़ा। कालिय ने अपने अनेक फनों तथा विषैले तीक्ष्ण दाँतों द्वारा गरुड़ से लड़ने का प्रयत्न किया। 

उसने गरुड़ को काटना चाहा, किन्तु तार्क्ष्य के पुत्र (गरुड़ )ने अत्यन्त क्रोध तथा वेग के साथ अपने तेजमय स्वर्णिम पंखों से कालिय के शरीर पर प्रहार किया। कालिय, जो कद्रु के पुत्र अर्थात् कद्रुसुत के नाम से भी विख्यात है, तुरन्त भागकर कालियझील पहुँचा जो यमुना नदी के भीतर है, क्योंकि गरुड़ वहाँ नहीं पहुँच सकता था। 

सौभरि मुनि ने गरूड़ को शाप क्यो दिया?

कालिय ने निम्नलिखित कारण से यमुना के जल के भीतर निवास किया। जिस तरह गरुड़ कालिय सर्प के द्वीप में जाता था उसी प्रकार वह यमुना से भी मछली पकड़ कर उन्हें खाने के लिए जाता था। किन्तु वहाँ सौभरि मुनि नाम के एक महान् योगी रहते थे, जो जल के भीतर ध्यान धरते थे और मछलियों के प्रति सहानुभूति दिखाते थे। 

उन्होंने गरुड़ को कहा कि वह मछलियों को तंग करने वहाँ न आए। यद्यपि वह भगवान् विष्णु का वाहन होने के कारण किसी की आज्ञा के अधीन न था, किन्तु उसने इस महान् योगी की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया। उसने बहुत सारी मछलियाँ खाने की बजाये एक बहुत बड़ी मछली पकड़ ली जो मछलियों की सरदार थी। 

सौभरि मुनि अत्यन्त दुखी हुए कि गरुड़ मछलियों के सरदार को ले गया। उनकी सुरक्षा के विषय में सोचते हुए उन्होंने गरुड़ को शाप दिया, "यदि आज से तुम यहाँ मछलियाँ पकड़ने आओगे, तो मैं यह बलपूर्वक कहता हूँ कि तुम तुरन्त मारे जाओगे।" 

यह शाप केवल कालिय को ज्ञात था, अतः वह आश्वस्त था कि गरुड़ यहाँ नहीं आ सकेगा। इसीलिए उसने यमुनादह में शरण लेने की ठानी। किन्तु कालिय द्वारा सौभरि मुनि की शरण में जाना सफल नहीं हुआ; उसे गरुड़ के स्वामी कृष्ण ने यमुना से मार भगाया। 

क्या सौभरि मुनि का गरूड़ को शाप देना ठीक था?

यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि गरुड़ का सीधा सम्बन्ध श्रीभगवान् से है और वह इतनी बलशाली है कि उसे न कोई आदेश दे सकता है, न शाप । वस्तुतः गरुड़ को जिन्हें श्रीमद्भागवत में भगवान् के स्तर के समकक्ष बताया गया है, सौभरि मुनि द्वारा शाप दिया जाना अपराध था। यद्यपि गरुड़ ने प्रतिशोध लेने का यत्न नहीं लिया, किन्तु एक वैष्णव पुरुष के प्रति किया गया मुनि का यह अपराध क्षम्य नहीं था। 

इस अपराध के कारण मुनि को अपने योगी पद से नीचे गिरना पड़ा और बाद में भौतिक संसार में इन्द्रिय का भोक्ता एक गृहस्थ बनना पड़ा। इस प्रकार ध्यान के द्वारा आध्यात्मिक आनन्द में लीन रहने वाले सौभरि मुनि का पतन वैष्णवों के प्रति अपराध करने वालों को शिक्षा देता है। 

Why did Brahma praise Lord Krishna / How did the lotus flower come out of Vishnu's navel/ब्रह्मा ने भगवान् कृष्ण की स्तुति क्यों की /विष्णु जी की नाभि से कमलनाल कैसे निकला ?

अन्ततः जब कृष्ण कालियदह से बाहर आ गये, तो उनके सारे मित्रों तथा सम्बन्धियों ने उन्हें यमुना-तट पर देखा। वे उन लोगों के समक्ष अत्यन्त विभूषित रूप में, सारे शरीर में चन्दन चर्चित किये, अमूल्य रत्नों से तथा मणियों से सुशोभित एवं लगभग पूर्णतया स्वर्ण से आच्छादित प्रकट हुए। 

वृन्दावन के वासियों, ग्वालों, गोपियों, माता यशोदा, महाराज नन्द तथा समस्त गायों एवं बछड़ों ने कृष्ण को यमुना से आते देखा और उन्हें ऐसा लगा मानों उनके प्राण वापस गए हो। 

जब किसी को जीवन का पुनः लाभ होता है, तो वह स्वभावत: आनन्द तथा प्रसन्नता में लीन हो जाता है। उन सबों ने एक-एक करके कृष्ण को कण्ठ से लगाया और अत्यन्त शान्ति का अनुभव किया। 

माता यशोदा, रोहिणी, महाराज नन्द तथा ग्वाले इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने जब कृष्ण का आलिंगन किया, तो सोचा कि उन्हें जीवन का अन्तिम लक्ष्य प्राप्त हो गया है। 

बलराम ने भी कृष्ण का आलिंगन किया, किन्तु वे हँस रहे थे, क्योंकि उन्हें पता था कि जब सारे लोग चिन्तामग्न होंगे, तो कृष्ण क्या करेंगे। वहाँ पर कृष्ण के प्रकट होने के कारण यमुना-तट के सारे वृक्ष, सारी गौवें, बैल तथा बछड़े अत्यन्त प्रसन्न थे। 

वृन्दावन के सभी ब्राह्मण तथा उनकी पत्नियाँ कृष्ण तथा उनके पारिवारिक जनों को तुरन्त बधाई देने आईं। चूँकि ब्राह्मणों को समाज का गुरु माना जाता है, अतः उन्होंने कृष्ण तथा उनके परिवार को कृष्ण के छूटने पर आशीर्वाद दिये। 

इस अवसर पर उन्होंने नन्द महाराज से दान देने के लिए भी कहा। महाराज नन्द कृष्ण की वापसी से प्रसन्न होकर ब्राह्मणों को अनेक गौवें तथा प्रभूत सोना दान में देने लगे।

जब नन्द महाराज इस तरह व्यस्त थे, तो माता यशोदा कृष्ण का आलिंगन मात्र करके उन्हें अपनी गोद में बैठाकर निरन्तर अश्रुपात करती रहीं। चूँकि रात्रि हो चुकी थी और गौवों तथा बछड़ों समेत वृन्दावन के समस्त वासी अत्यधिक थके थे, अतः उन्होंने नदी-तट पर ही विश्राम करने का निर्णय लिया। 

कृष्ण द्वारा (दावाग्नि )आग का शांत होना 

अर्द्धरात्रि में, जब सारे लोग सोये हुए थे, तो सहसा एक विशाल दावाग्नि लग गई और ऐसा प्रतीत होने लगा मानो यह शीघ्र ही सारे वृन्दावनवासियों को निगल जाएगी। उन्हें ज्योंही अग्नि की तपन का अनुभव हुआ त्योंही उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर ली, यद्यपि वे उनके शिशु की भाँति खेल में मग्न थे। 

वे सब कहने लगे "हे कृष्ण! हे भगवान्! हे बल के आगार प्रिय बलराम! हमें इस सर्वभक्षी तथा विनाशक अग्नि से बचाएँ। हमारे पास तुम्हारे अतिरिक्त कोई अन्य शरण नहीं है। 

यह विनाशकारी अग्नि हम सबको लील जाएगी।" इस तरह उन्होंने यह कहते उनसे प्रार्थना की कि वे उनके चरणकमलों के अतिरिक्त अन्य किसी की शरण ग्रहण नहीं करेंगे। 

तीन सत्य कथाएँ ( एक अक्षर तीन उपदेश ,सर्वोत्तम धन ,उपासना का फल )

भगवान् कृष्ण ने अपने ग्रामवासियों पर कृपालु बन कर तुरन्त ही सम्पूर्ण दावाग्नि को निगल लिया और उन्हें बचा लिया। यह कृष्ण के लिए असम्भव न था, क्योंकि वे इच्छानुसार कुछ भी कर सकने की असीम शक्ति से युक्त हैं। 

विनाशकारी अग्नि को बुझाकर कृष्ण पुनः अपने परिजनों, मित्रों, गौवों, बछड़ों तथा बैलों से घिर कर और उनके गायन से महिमामण्डित होकर वृन्दावन में प्रविष्ट जो सदैव गायों से परिपूर्ण रहता है। जब कृष्ण तथा बलराम वृन्दावन में ग्वालों तथा गोपियों के मध्य जीवन का आनन्द लूट रहे थे, तो क्रमश: ग्रीष्म ऋतु आ गई।

भारत में ग्रीष्म ऋतु का कोई स्वागत नहीं करता, क्योंकि वहाँ इसमें अत्यधिक गर्मी पड़ती है, किन्तु वृन्दावन के सारे लोग प्रसन्न थे, क्योंकि वहाँ ग्रीष्म ऋतु वसन्त की भाँति प्रकट हुई थी। ऐसा कृष्ण तथा बलराम के वहाँ रहने के कारण हो सका, क्योंकि वे दोनों ब्रह्मा तथा शिव के भी नियामक हैं। 

वृन्दावन में अनेक झरने हैं जिनसे निरन्तर पानी गिरता रहता है और उनकी ध्वनि इतनी मीठी होती है।कि इससे झींगुरों की झनकार दब जाती है। सर्वत्र जल बहने के कारण वन सदैव अत्यन्त हरा-भरा तथा सुन्दर दिखता है।

वृन्दावनवासी सूर्य की झुलसाने वाली गर्मी से या अधिक ताप से कभी भी विचलित नहीं होते थे। वृन्दावन की झीलें हरी घास से घिरी रहती हैं और उनमें कहलार, कंज और उत्पल जैसे नाना प्रकार के कमल-पुष्प खिलते रहते हैं और वृन्दावन में बहने वाली वायु कमल के सुवासित मकरन्द कणों को अपने साथ ले जाती रहती है।

जब यमुना की तरंगों, झीलों तथा झरनों के जल-कण वृन्दावनवासियों के शरीर का स्पर्श करते थे, तो वे स्वतः शीतलता का अनुभव करते थे। अतः वे ग्रीष्म ऋतु के द्वारा तनिक भी विचलित नहीं होते थे।

वृन्दावन सुरम्य स्थल है। यहाँ सदैव फूल खिलते रहते हैं। यहाँ अनेक प्रकार के अलंकृत हिरन भी रहते हैं। पक्षी कलरव करते हैं, मयूर कूजते हैं और नाचते हैं तथा मधुमक्खियाँ गुंजन करती हैं। कोयलें पंचमस्वर में गाती हैं। 

अतः आनन्दकन्द कृष्ण वंशी बजाते, अपने अग्रज बलराम तथा अन्य ग्वालबालों एवं गायों को साथ लिए वृन्दावन के सुन्दर वन में वातावरण का आनन्द लेने के लिए आये। वे वृक्षों के नव-किसलयों के बीच गये जिनके पुष्प मोरपंखों जैसे थे। उन्होंने इस पुष्पों की माला पहनी और केसर-रज से विभूषित हुए। कभी वे नाचते और गाते, तो कभी वे एक दूसरे से कुश्ती लड़ते। 

जब कृष्ण नाचते, तो कुछ ग्वालबाल गाते और कुछ बाँसुरी बजाते, कुछ शृङ्ग बजाते, कुछ ताली देते और कृष्ण की प्रशंसा करते, "हे बन्धु! तुम बहुत सुन्दर नाचते हो।” वस्तुतः ये सारे बालक देवता थे, जो स्वर्गलोक से कृष्ण को उनकी लीलाओं में सहायता करने आये थे। 

ये देवता ग्वालबालों के वेश में कृष्ण को नाचने में प्रोत्साहन दे रहे थे, जिस प्रकार एक कलाकार दूसरे की प्रशंसा करके प्रोत्साहित करता है। तब तक कृष्ण तथा बलराम का मुण्डन संस्कार नहीं हुआ था, अत: उनके बाल कौओं के पंखों की भाँति इकट्ठे हो गए थे। 

वे अपने मित्रों के साथ सदा आँखमिचौली खेलते या परस्पर लड़ते-भिड़ते रहते। कभी-कभी जब उनके मित्र कीर्तन करते तथा नाचते होते, तो कृष्ण उनकी प्रशंसा करते, "मित्रों! तुम लोग अत्युत्तम नाच तथा गायन कर रहे हो।” लड़के बेल और गोल-गोल आमलकी फलों को गेंद बनाकर खेलते। 

कभी-कभी वे छुई-छुऔहल खेलते जिनमें एक दूसरे को ललकारते और छूते। कभी-कभी वे जंगली हिरणों तथा विविध पक्षियों का अनुकरण करते, वे एक दूसरे के साथ मेंढक की बोली का अनुकरण करके हँसी उड़ाते और वृक्षों के नीचे झूलने में आनन्द लेते। कभी-कभी वे परस्पर राजा तथा प्रजा का खेल खेलते। 

इस प्रकार कृष्ण तथा बलराम अपने मित्रों के साथ सभी प्रकार के खेल खेलते और नदियों, सरोवरों, नालों, सुन्दर वृक्षों तथा उत्तमोत्तम फूलों-फलों से पूर्ण वृन्दावन के सुखदायक वातावरण का आनन्द लूटते।  

प्रलम्बासुर का वध

एक बार जब वे सब अपनी दिव्य लीलाओं में लीन थे, तो प्रलम्बासुर नामक एक असुर उनकी टोली में बलराम तथा कृष्ण दोनों को चुराने के उद्देश्य से घुस आया। यद्यपि कृष्ण एक ग्वालबाल का अभिनय कर रहे थे, किन्तु भगवान् के रूप में वे भूत, वर्तमान तथा भविष्य सब कुछ जानते थे। 

अतः जब प्रलम्बासुर उनकी टोली में घुस आया, तो कृष्ण सोचने लगे कि इस असुर का किस तरह वध किया जाये, किन्तु बाहर से वे उससे मित्र रूप में मिले और कहा, “प्रिय मित्र! अच्छा हुआ कि तुम हमारी लीलाओं में भाग लेने आये हो ।” फिर कृष्ण ने अपने समस्त मित्रों को बुलाकर आज्ञा दी, "अब हम अपनी-अपनी जोड़ी बनाकर खेलेंगे और जोड़े में ही रहकर ललकारेंगे। 

इस प्रस्ताव के साथ ही सारे बालक एकत्र हो गये। कुछ बलराम की पाली में हो लिये और कुछ कृष्ण की पाली में और अपनी-अपनी जोड़ी के साथ खेलने लगे। इसमें हारे हुए खिलाड़ी को अपनी पीठ पर विजयी खिलाड़ी को चढ़ाना होता था जिस प्रकार घोड़ा अपने मालिक को चढ़ाता है। 

प्रलम्बा वध

वे खेलने लगे और भांडीरवन से होकर जाते समय साथ-साथ गौवें चराते रहे। श्रीदामा तथा वृषभ सहित बलराम की टोली विजयी हुई, अतः कृष्ण की टोली को इन सब को अपनी पीठ पर बैठाकर भांडीरवन से होकर जाना पड़ा। भगवान् श्रीकृष्ण ने हारने के कारण श्रीदामा को अपनी पीठ पर चढ़ाया और भद्रसेन ने वृषभ को। 

इस खेल का अनुकरण करते हुए ग्वालबाल के रूप में बलराम को अपनी पीठ पर चढ़ा लिया। प्रलम्बासुर असुरों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण था और उसने अनुमान लगा लिया था कि ग्वालबालों में कृष्ण ही सर्वाधिक शक्तिमान हैं। 

प्रलम्बासुर कृष्ण की टोली से बचने के उद्देश्य से प्रलम्बासुर बलराम दूर ले गया। निस्सन्देह यह असुर अत्यन्त बलवान् था, किन्तु वह तो बलराम का पर्वत के तुल्य भार लिए जा रहा था, अत: वह उनके भार से थकने लगा, और उसने अपना असली रूप धारण कर लिया। 

अपने इस रूप में वह सुनहरे मुकुट तथा कुण्डलों से सुशोभित था और ऐसा लग रहा था मानो विद्युतमय बादल चन्द्रमा को धारण किये हो। बलराम ने देखा कि इस असुर का शरीर बादल की सीमा तक फैला है, उसकी आँखें अग्नि के समान जल रही हैं और उसके तीक्ष्ण दाँत मुँह के भीतर चमक रहे हैं। 

पहले तो बलराम उस असुर को देखकर चकित हुए और सोचने लगे, "यह कैसे: हुआ कि अचानक यह वाहक सब तरह से बदल गया है?" किन्तु मन विमल होने पर वे तुरन्त समझ गये कि उन्हें कोई असुर उनके मित्रों से दूर लिये जा रहा है और मार डालना चहता है। अतः उन्होंने तुरन्त ही असुर के सिर पर उसी प्रकार मुष्टिप्रहार किया, जिस प्रकार इन्द्र पर्वत पर अपना वज्रप्रहार करता है। 

What did Krishna say in praise of Balarama?/कृष्ण ने बलराम की प्रशंसा में क्या कहा ?

बलराम के मुष्टिप्रहार से वह असुर चोट खाये सर्प की भाँति मुँह से रक्त वमन करता हुआ मर गया। जब असुर गिरा, तो उसने भीषण गर्जना की, मानों इन्द्र के वज्रप्रहार से विशाल पर्वत गिरा हो। तब सारे बालक उस स्थान की ओर झपटे। 

इस भयानक दृश्य को देखकर वे 'बहुत अच्छा! बहुत अच्छा' कहकर बलराम की प्रशंसा करने लगे। फिर यह सोचकर कि बलराम मृत्यु से उबरे हैं, वे सब उनका अत्यन्त स्नेहपूर्वक आलिंङ्गन करने लगे और अपनी-अपनी बधाइयाँ तथा अशीष देने लगे। 

स्वर्गलोक के सारे देवता अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने बलराम के दिव्य शरीर पर पुष्पवर्षा की। इस महा असुर प्रलम्बासुर को मारने के लिए उन्हें आशीष तथा बधाइयाँ भी दीं।  

कृष्ण ने आग को क्यों पिया?

दोस्तों ! जब बलराम, कृष्ण तथा उनके संगी उपर्युक्त लीलाओं में मस्त थे, तो गौवें बिना रखवाली के मनमाना विचरण करती हुई हरी घास चरने के लालच से वन के सुदूर भाग में पहुँच गईं। सारी बकरियाँ, गौवें तथा भैंसें एक वन पार करके दूसरे में पहुँचीं और फिर इषिकाटवी वन में घुस गईं। यह वन हरी घास से पूर्ण था, 

अतः वे सभी आकृष्ट हो गई, किन्तु जब वे वहाँ पहुँचीं, तो उन्होंने देखा कि वहाँ दावाग्नि लगी है, अतः वे सब चीत्कार करने लगीं। इधर जब कृष्ण, बलराम तथा उनके संगियों ने अपने पशुओं को नहीं देखा, तो वे सब बहुत चिन्तित हुए। वे गौवों को उनके पदचिह्नों तथा चरी हुई घास का अनुसरण करते हुए ढूँढने लगे। 

सभी बालक डरे हुए थे कि उनकी जीविका की साधन रूप गौवें खो गई हैं। गौओं को खोजने से वे भी थक गए और प्यासे हो गए। किन्तु शीघ्र ही उन्हें अपनी गौवों की चीत्कार सुनाई दी। 

कृष्ण जोर-जोर से गौवों का नाम ले-लेकर बुलाने लगे। कृष्ण को बुलाते गौवें प्रसन्नतापूर्वक निनाद करते हुए उत्तर देने लगीं। किन्तु उस समय तक सुनकर दावाग्नि ने उन सबों को चारों ओर से घेर लिया था और स्थिति अत्यन्त भयानक हो गई थी। 

ज्यों-ज्यों वायु तेजी से चलने लगी त्यों-त्यों लपटें बढ़ने लगीं और ऐसा प्रतीत होने लगा मानो सारी जड़ तथा जंगम वस्तुएँ कालकवलित हो जाएँगी। सारी गौवें तथा बालक अत्यन्त भयभीत हो उठे और वे बलराम की ओर उसी तरह देखने लगे जिस प्रकार मरणासन्न व्यक्ति भगवान् के चित्र की ओर देखता है। 

वे पुकार रहे थे, "हे कृष्ण! हे बलराम! आप बहुत बलवान् हैं। हम इस दहकती अग्नि के ताप से जले जा रहे हैं। हमें अपने चरणकमलों में शरण दें। हम जानते हैं कि आप ही इस संकट से हमारी रक्षा कर सकते हैं। 

हे प्रिय कृष्ण! आप हमारे घनिष्ठ मित्र हैं। यह अच्छा नहीं है कि हम इस तरह कष्ट उठाएँ। हम सभी आप पर पूरी तरह आश्रित हैं और आप समस्त धर्मों के ज्ञाता हैं। हम आपके अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं जानते।" भगवान् कृष्ण ने अपने मित्रों की आर्तवाणी सुनी और उन पर स्नेहमयी दृष्टि डाली। 

उन्होंने आँखों से ही अपने मित्रों को बता दिया कि डरने का कोई कारण नहीं है। तब परम योगी, शक्तिमान ईश्वर श्रीकृष्ण ने तुरन्त ही अग्नि की सारी लपटों का पान कर लिया अथार्त आग को पी लिया । 

इस प्रकार सारी गाँव तथा बालक काल का ग्रास होने से बच गये। सारे बालक भय से प्राय: मूर्च्छित थे, किन्तु जब उन्हें होश आया और उन्होंने अपनी आँखें खोलीं, तो अपने आपको कृष्ण, बलराम तथा गौवों के बीच भांडीरवन जंगल में पाया। 

वे आश्चर्यचकित थे कि वे दहकती अग्नि से बाल-बाल बच गये हैं और उनकी गौवें सुरक्षित हैं। उन्होंने मन ही मन सोचा कि कृष्ण कोई सामान्य बालक न होकर देवता हैं। संध्या समय कृष्ण तथा बलराम ग्वालबालों तथा गौवों को साथ लिए बाँसुरी बजाते वृन्दावन आये। 

जब वे सब गाँव पहुँचे, तो गोपियाँ परम प्रसन्न हो गईं। जब कृष्ण वन में होते, तो गोपियाँ सारे दिन उनके विषय में सोचती रहतीं और उनकी अनुपस्थिति में उनका एक-एक क्षण बारह वर्षों की भाँति व्यतीत होता। 

अग्नि पान (पीने ) करने का दूसरा कारण 

प्रिय मित्रों !इसके अलावा प्रभु श्री कृष्ण के आग पीने का एक अन्य कारण और था ,जो की रामायण से  सम्बंधित है। दोस्तों,भगवान् कृष्ण अग्नि देवता का कर्ज उतारना चाहते थे। ये बात उस समय की है,जब भगवान् राम को वनवास दिया गया और वे सीता लक्ष्मण को साथ लेकर वन को गए। 

वन में श्री राम जी को सीता जी के असुरक्षित होने का आभास हुआ तो उन्होंने एक दिन जब लक्ष्मण जी जंगल में लकड़ियां लेने के लिए गए हुए थे ,तब उन्होंने अग्नि देव को बुलाकर सीता जी को उन्हें सौंप दिया और उनका प्रतिबिम्ब यानी नकली सीता जी को वहीँ छोड़ दिया और अग्नि परीक्षा के जरिए सीता जी को अग्नि देव ने  सकुशल वापस लौटा दिया। 

जंगल में लगी आग,जो शांत ही नहीं हो रही थी, श्री कृष्ण ने उस अग्नि को पीकर अग्नि देव को शांत किया। उन्हें शान्ति पहुंचाकर श्री राम जी ने जो की इस समय कृष्ण रूप में थे ,अग्नि देव का कर्ज उतारा।  

प्रिय पाठकों ! आशा करते है आपको पोस्ट पसंद आई होगी। विश्वज्ञान में ऐसी ही कृष्ण की रोचक लीलाओं के साथ फिर मुलाक़ात होगी,तब तक आप अपना ख्याल रखे ,खुश रहे ,और औरो को भी खुश रखे। राधे राधे 

धन्यवाद 

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