yagyakarta braahmanon kee patniyon ka uddhaar/यज्ञकर्ता ब्राह्मणों की पत्नियों का उद्धार

जय श्री राधे श्याम 

हर हर महादेव प्रिय पाठकों ! कैसे है आप लोग, 
आशा करते है आप सभी सकुशल होंगे। 
भगवान् शिव का आशीर्वाद हमेशा आपको प्राप्त हो।  

इस पोस्ट  में आप पाएंगे -In this post you will find -

यज्ञकर्ता ब्राह्मणों की पत्नियों का उद्धार

भगवान् चैतन्य के अमूल्य वचन 

एकात्मता किसे कहते है ?

श्री कृष्ण किस बात की पुष्टि करते है ?

श्री कृष्ण ने ब्राह्मण पत्नियों से क्या कहा ?

ब्राह्मणों ने अपने आप को क्यों कोसा ?

ब्राह्मणो ने अपनी पत्नियों के बारे में क्या कहा ?

वैदिक यज्ञादि की सामग्री,उपयुक्त स्थान, उपयुक्त समय (काल), अनुष्ठान करने के विविध पात्र, वैदिक स्तुतियाँ, ऋत्विज, अग्नि, देवता, यजमान तथा धर्म ये सब किसलिए है ?

भगवान् की शरण में जाना कब तक कठिन है?


yagyakarta braahmanon kee patniyon ka uddhaar/यज्ञकर्ता ब्राह्मणों की पत्नियों का उद्धार


यज्ञकर्ता ब्राह्मणों की पत्नियों का उद्धार

दोस्तों !श्री कृष्ण ने गोपियों को यमुना में स्नान करते देखने के बाद बाकी का बचा सुबह का समय ग्वालों के साथ बिताया। जब प्रातःकाल बीत गया तो  ग्वालों को अत्यधिक भूख लगी  क्योंकि उन्होंने कलेवा नहीं किया था। 

वे तुरन्त कृष्ण तथा बलराम के पास पहुँचे और बोले, "हे कृष्ण तथा बलराम! आप दोनों सर्वशक्तिमान हैं, आप अनेक असुरों का वध कर सकते हैं, किन्तु आज हम भूखों मर रहे हैं जिससे हम अशान्त हैं। कृपया कुछ ऐसा करें जिससे हमारी भूख शान्त हो ।”  

अपने मित्रों की ऐसी प्रार्थना सुनकर भगवान् कृष्ण तथा बलराम ने तुरन्त यज्ञ में तत्पर ब्राह्मणों की पत्नियों पर दया दिखलाई। ये ब्राह्मणपत्नियाँ (ब्राह्मणियाँ) भगवान् की परम भक्त थीं, अतः कृष्ण को उन्हें आशीर्वाद देने का अवसर प्राप्त हुआ। 

उन्होंने कहा, "हे मित्रो! पास ही ब्राह्मणों के घर जाओ; वे इस आँगिरस यज्ञ करने में लगे हैं, क्योंकि वे स्वर्गलाभ करने के इच्छुक है। तुम सब उनके पास जाओ।” फिर भगवान् कृष्ण ने अपने मित्रों को आगाह किया, "ये ब्राह्मण वैष्णव नहीं हैं। ये हमारे नामों-कृष्ण तथा बलराम-तक का ठीक से उच्चारण नहीं कर सकते। 

ये सब वैदिक स्तोत्रों के उच्चारण में व्यस्त हैं, यद्यपि वैदिक ज्ञान का उद्देश्य मेरी खोज करना है, किन्तु चूँकि वे कृष्ण तथा बलराम के नामों से आकर्षित नहीं होते, अतः तुम लोग मेरा नाम लेकर उनसे कुछ मत माँगना।अच्छा होगा कि तुम लोग बलराम का नाम लेकर कुछ दान की याचना करना। सामान्यतया दान उच्चश्रेणी के ब्राह्मणों को दिया जाता है, किन्तु कृष्ण और बलराम ब्राह्मण कुल में उत्पन्न न थे। 

बलराम वसुदेव के पुत्र कहलाते थे, जो क्षत्रिय थे और वृन्दावन में कृष्ण नन्द महाराज के पुत्र के नाम से विख्यात थे, जो वैश्य थे। इनमें से कोई भी ब्राह्मण जाति का न था। 

अतः कृष्ण का विचार था कि यज्ञ करने में व्यस्त ब्राह्मण किसी क्षत्रिय तथा वैश्य को भिक्षा देने की परवाह नहीं करेंगे, लेकिन वे बोले, "फिर भी यदि तुम लोग बलराम का नाम लोगे, तो वे मेरी तुलना में क्षत्रिय होने के नाते उन्हें दान दे सकते हैं, क्योंकि मैं तो वैश्य हूँ।” 

भगवान् से आज्ञा पाकर सारे बालक ब्राह्मणों के पास गये और कुछ भिक्षा माँगने लगे। वे उनके पास हाथ जोड़ कर पहुँचे और उन्हें दण्डवत् प्रणाम करके बोले, "हे भूसुरों! कृपया हमारी बातें सुनो हमे बलराम तथा कृष्ण का आदेश  मिला है। आशा है कि आप उन दोनों को अच्छी तरह जानते होंगे। 


yagyakarta braahmanon kee patniyon ka uddhaar/यज्ञकर्ता ब्राह्मणों की पत्नियों का उद्धार


हम आपका कल्याण चाहते हैं। वे इस समय पास ही गौवें चरा रहे हैं और हम उनके साथ हैं। हम आपसे कुछ भोजन माँगने आये हैं। आप सभी ब्राह्मण हैं और धर्म के ज्ञाता हैं। यदि आप सोचते हैं कि आपको हमें कुछ भिक्षा देनी चाहिए, तो हमें कुछ भोजन दीजिये, जिसे हम कृष्ण तथा बलराम के संग खा लेंगे। 

आप मानव-समाज के सर्वाधिक प्रतिष्ठित ब्राह्मण हैं और आप सारे धार्मिक नियमों को जानने वाले समझे जाते हैं।" यद्यपि ये लड़के ग्रामवासी थे और उनसे यह आशा नहीं की जाती थी कि वे धार्मिक अनुष्ठानों के वैदिक नियमों से परिचित होंगे, किन्तु उन्होंने यह इंगित कर दिया कि कृष्ण तथा बलराम की संगति में रहने से वे इन सारे नियमों से अवगत थे। 

"ब्राह्मणों को धार्मिक नियमों के ज्ञाता" के नाम से सम्बोधित करके, लड़कों ने यह विचार अभिव्यक्त किया कि जब भगवान् कृष्ण तथा बलराम भोजन माँग रहे हैं, तो ब्राह्मण बिना हिचक के तुरन्त भोजन ला दें, क्योंकि भगवद्गीता में उल्लेख है कि विष्णु को प्रसन्न करने के लिए ही यज्ञ करना चाहिए। 

बालकों ने आगे कहा, "कृष्ण तथा बलराम के रूप में भगवान् विष्णु प्रतीक्षा में खड़े हैं, अतः आपके पास जो भी भोजन (भिक्षा) हो, हमें तुरन्त दे दें।" उन्होंने ब्राह्मणों को यह भी बताया कि भोजन (भिक्षा) कब स्वीकार किया जाना चाहिए और कब नहीं। 

सामान्यतया वैष्णव या भगवान् के शुद्ध भक्त किसी सामान्य यज्ञ में भाग नहीं लेते, किन्तु वे दीक्षा पशुसम्स्थ सौत्रामणि नामक उत्सवों से भलीभाँति परिचित होते हैं। दीक्षा उत्सव के बाद तथा पशु यज्ञोत्सव एवं सौत्रामणि या मदपान उत्सव के पहले भिक्षा लेने का विधान है। अतः बालकों ने कहा, "हम आपके उत्सव से इस समय भिक्षा ले सकते हैं, क्योंकि अब इसका निषेध नहीं किया जाएगा। अतः आप हमें भोजन दे सकते हैं।" 

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यद्यपि भगवान् कृष्ण तथा बलराम के साथी सामान्य ग्वाले थे, तो भी वे वैदिक यज्ञ-अनुष्ठानों में लगे उच्चवर्गीय ब्राह्मणों के ऊपर भी धाक रखते थे। किन्तु स्मार्त  ब्राह्मण , जो कोरे याज्ञिक थे, भगवान् के दिव्य भक्तों के आदेश को समझने में असमर्थ थे; वे भगवान् कृष्ण तथा बलराम द्वारा भिक्षा माँगने के गूढार्थ को भी नहीं समझ पाये। 

यद्यपि उन्होंने कृष्ण तथा बलराम की ओर से दिये गये तर्कों को सुना, किन्तु उनकी परवाह नहीं की, यहाँ तक कि बालकों से बातें करने से भी इनकार कर दिया। इस तरह वैदिक यज्ञ अनुष्ठान सम्बन्धी ज्ञान में अपने आपको अत्यधिक बढ़े-चढ़े समझने के कारण ऐसे सारे अभक्त ब्राह्मण अज्ञानी तथा मूर्ख होते हैं। 

उनके सारे कर्म बचकाना होते हैं, क्योंकि वे वेदों के उद्देश्य को, जो भगवद्गीता के अनुसार कृष्ण को जानना है, नहीं समझ पाते। वे वैदिक ज्ञान तथा अनुष्ठानों में निपुण होकर भी कृष्ण को नहीं समझ पाते, अतः उनका वेद सम्बन्धी ज्ञान निरर्थक होता है। 

भगवान् चैतन्य के अमूल्य वचन 

अतः भगवान् चैतन्य ने अपना यह अमूल्य अभिमत व्यक्त किया है कि मनुष्य को ब्राह्मणकुल में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यदि वह कृष्ण को या कृष्णभावनामृत-विज्ञान को जानता है, तो वह ब्राह्मण से भी बढ़कर होता है और गुरु होने का सर्वथा पात्र है। 

यज्ञ सम्पन्न करते समय कई प्रकार की बातों का ध्यान रखना होता है ये हैं देश अर्थात् स्थान, काल अर्थात् समय, पृथक् द्रव्य अर्थात् विभिन्न सामग्रियाँ, मंत्र, तंत्र, अग्नि, ऋत्विज अर्थात् यज्ञ सम्पन्न करने वाले, देवता, यजमान अर्थात् यज्ञ कराने वाला, क्रतु अर्थात् बलि तथा धर्म अर्थात् विधियाँ। ये सब कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए हैं। 

यह भगवद्गीता में पुष्ट तथ्य है कि वे ही समस्त यज्ञों के भोक्ता हैं, क्योंकि वे ही प्रत्यक्ष रूप से श्रीभगवान् तथा परम सत्य हैं, जो हमारी इन्द्रियों की अनुभूति के परे हैं। वे एक सामान्य बालक की भाँति उपस्थित हैं, किन्तु जो लोग अपने को शरीर मानते हैं उनके लिए यह समझ पाना अत्यन्त कठिन है। 

ये ब्राह्मण इस भौतिक शरीर की सारी सुविधाओं में रुचि रखने वाले थे और स्वर्ग में वास करने के इच्छुक थे। अत: ये कृष्ण की स्थिति को समझ सकने में असमर्थ थे। जब बालकों ने देखा कि ये ब्राह्मण उनसे साधारण हाँ 'या' 'न' में भी उत्तर नहीं दे रहे, तो वे उदास हो गये। 

तब वे भगवान् कृष्ण तथा बलराम के पास लौट आये और जो कुछ घटा था कह सुनाया। उनकी बातें सुनकर परम पुरुष हँसने लगे। उन्होंने बालकों से कहा कि वे ब्राह्मणों द्वारा ठुकराये जाने से दुखी न हों, क्योंकि भिक्षा में ऐसा ही होता है। 

उन्होंने सान्त्वना दी कि संग्रह करते या भिक्षा माँगते समय कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि सर्वत्र सफलता प्राप्त होगी। हो सकता है कुछ स्थानों में असफलता हाथ लगे, किन्तु निराश होने की कोई बात नहीं है। 

भगवान् कृष्ण ने उन बालकों से कहा कि पुनः जाओ, किन्तु इस बार उन याज्ञिक ब्राह्मणों की पत्नियों के पास जाना। उन्होंने यह भी बता दिया कि वे ब्राह्मण-पत्नियाँ परम भक्त हैं। वे सदा हमारे चिंतन में लीन रहती है। 

तुम लोग मेरा तथा बलराम का नाम लेकर उनसे भोजन माँगना। मुझे पूर्ण विश्वास है कि वे तुम्हें मनचाही भिक्षा देंगी।  कृष्ण की आज्ञा का पालन करते हुए सार बालक तुरन्त ब्राह्मण-पत्नियों के पास गये। वे अपने घरों के भीतर बैठी थीं। वे आभूषणों से अलकृत थी। बालकों ने प्रणाम करते हुए कहा, "माताओं! हमारा नमस्कार स्वीकार करें और हमारी बात सुनें। 

आपको ज्ञात हो कि आपके निकट ही भगवान् कृष्ण तथा बलराम अपनी गौवों के साथ आये हुए हैं और हम उनके आदेश से यहाँ आये हैं। हम सभी बहुत भूखे हैं, अतः हम आपके पास कुछ भोजन मांगने के लिए आये हैं। कृपा करके कृष्ण, बलराम तथा हम सबों के खाने के लिए कुछ दें।" 


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यह सुनते ही ब्राह्मण-पत्नियाँ कृष्ण तथा बलराम के लिए आतुर हो उठीं। यह अविलम्ब प्रतिक्रिया स्वत: हुई। उन्हें कृष्ण तथा बलराम की महत्ता बताने की आवश्यकता नहीं पड़ी, अपितु कृष्ण तथा बलराम का नाम सुनते ही उन्हें देखने के लिए वे बैचैन हो उठीं। कृष्ण का निरन्तर चिन्तन करते रहने से वे सबसे बड़ा ध्यान कर रही थीं। 

अतः सारी ब्राह्मण-पत्नियाँ विभिन्न पात्रों में उत्तम-उत्तम व्यंजन भरने में लग गईं। यज्ञ सम्पन्न होने के कारण सारा भोजन अत्यन्त स्वादिष्ट था। भोजन ले लेने के बाद वे अपने प्रिय पात्र कृष्ण के पास जाने के लिए उसी तरह तैयार हो गई जिस प्रकार नदियाँ समुद्र की ओर बहती हैं। 

वे ब्राह्मण-पत्नियाँ दीर्घकाल से कृष्ण को देखने के लिए आतुर थीं। किन्तु जब-जब वे घर छोड़कर उनको देखने के लिए तैयार होतीं तब-तब उनके पति, पिता, पुत्र तथा सम्बन्धी जाने से मना करते। किन्तु इस बार वे मानी नहीं। जब भक्त कृष्ण के प्रति आकृष्ट हो जाता है, तो वह शारीरिक बंधन की परवाह नहीं करता। 

अतः ये स्त्रियाँ यमुना तटवर्ती वृन्दावन के जंगल में गईं, जो वनस्पति तथा नवविकसित लताओं तथा पुष्पों से हरा-भरा था। उन्होंने जंगल में कृष्ण तथा बलराम को अपने प्रिय संगियों सहित गौवें चराते देखा। ब्राह्मण-पत्नियों ने श्याम-वर्णीय श्रीकृष्ण को स्वर्ण के समान चमचमाते वस्त्र (पीताम्बर) धारण किये देखा। वे वनफूलों की सुन्दर माला पहने थे और सिर पर मोरपंख लगाये थे। 

वे वृन्दावन में पाये जाने वाले खनिजों का लेप किये थे और नाटक मंडली के नर्तक कलाकार जैसे प्रतीत हो रहे थे। वे अपना एक हाथ अपने मित्र के कंधे पर रखे थे और दूसरे हाथ में कमल का फूल लिये थे। उनके कानों में कुमुदिनी के फूल शोभित थे, वे तिलक लगाये थे और मोहक हँसी हँस रहे थे।

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ब्राह्मण-पत्नियों ने उन भगवान् को स्वतः देखा जिनके विषय में उन्होंने इतना सुन रखा था और जो उन्हें अत्यन्त प्रिय थे तथा जिनके चिन्तन में वे सदा खोई रहती थीं। अब उन्होंने उनकी आँखों तथा मुख को प्रत्यक्ष देखा उनकी आँखों से होकर कृष्ण उनके हृदयों में बैठे जा रहे थे। उन्होंने जी भर कर कृष्ण का आलिंगन किया जिससे उनका वियोगजनित दुख तुरन्त दूर हो गया। 

वे उन ऋषियों के तुल्य थीं, जो अपने उन्नत ज्ञान के कारण परमेश्वर के साथ तदाकार हो जाते हैं। चूँकि परमात्मा जन-जन के हृदय में विराजते हैं, अतः भगवान् कृष्ण उनके मन की बात जान गये, वे अपने सम्बन्धियों, पतियों, पिताओं, भाइयों के बरजने के बावजूद एवं समस्त गृहकार्यों को छोड़कर आई थीं। 

वे अपने प्राण-प्यारे को मात्र देखने आई थीं। वास्तव में वे भगवद्गीता में कृष्ण द्वारा दिये गये इस उपदेश का पालन कर रही थीं कि मनुष्यों को चाहिए कि सारे कर्म तथा धर्म त्याग कर उनकी शरण में जाँए। अत: कृष्ण ने हँसते हुए उनसे कहना प्रारम्भ किया। 


एकात्मता किसे कहते है ?
What is unity?

यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि जब कृष्ण उनके हृदयों में प्रविष्ट हो गये और उन्होंने जब कृष्ण का आलिंगन किया और उनके साथ तादत्म्य, अर्थात् दिव्य आनन्द का अनुभव किया, तो भी न तो कृष्ण का, न ही ब्राह्मण-पत्नियों का, अपना स्वरूप समाप्त हुआ। भगवान् तथा ब्राह्मण-पत्नियों दोनों की ही वैयक्तिक अस्तित्व बना रहा, फिर भी उन्होंने एकात्मता का अनुभव किया। 

जब कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका को स्वात्म का विचार किये बिना समर्पण कर देता है, तो यह एकात्मता कहलाती है। भगवान् चैतन्य ने अपने शिक्षाष्टक में हमें इस एकात्मता का पाठ सिखाया है। कृष्ण स्वेच्छा से जो भी चाहें कर सकते हैं, किन्तु भक्तों को उनकी इच्छाओं के साथ सदा एकरूप होना चाहिए। 

श्री कृष्ण किस बात की पुष्टि करते है ?
What does Shri Krishna confirm?

यही एकात्मता ब्राह्मण-पत्नियों द्वारा कृष्ण के प्रेम में प्रदर्शित हुई।कृष्ण ने उनका स्वागत इन शब्दों में किया: "हे ब्राह्मणपत्नियों! आप सभी अत्यन्त भाग्यशालिनी हैं। मैं आपका स्वागत करता हूँ, कृपया बताएँ कि आपकी क्या सेवा करूँ ? आप सारे बन्धनों तथा परिवार, पिता, भाई और पति के व्यवधानों की उपेक्षा करके मेरे दर्शन के लिए यहाँ आईं, यह उचित ही है। 

जो ऐसा करता है, वह अपने हित को वास्तव में जानता है, क्योंकि किसी मन्तव्य या बन्धन के बिना मेरी दिव्य प्रेमा-भक्ति करना वास्तव में जीवों के लिए कल्याणकारी है।" श्रीकृष्ण यहाँ इसकी पुष्टि करते हैं कि भगवान् के प्रति समर्पण करने से बद्धजीव उच्चतम सिद्ध अवस्था तक पहुँच सकता है। मनुष्य को चाहिए कि वह अन्य सारी जिम्मेदारियाँ त्याग दे। 

बद्धजीवों के लिए भगवान् के प्रति पूर्ण समर्पण अत्यन्त शुभ (मंगलकारी) मार्ग है, क्योंकि परमेश्वर ही प्रेम के परम लक्ष्य हैं। अन्ततः हर कोई कृष्ण से अपने ज्ञान विकास के अनुसार प्रेम करता है। अन्ततः जब अपने वह यह जान लेता है कि वह स्वयं आत्मा है और आत्मा परमेश्वर का एक अंश ही है। 

वह परमेश्वर को प्रेम के चरम लक्ष्य के रूप में पहचान लेता है और उनकी शरण ग्रहण कर लेता है। यह शरणागति (समर्पण) बद्धजीव के लिए शुभ मानी जाती है। हमें प्रिय लगने वाला हमारा जीवन, धन, धाम, पत्नी, सन्तान, घर, देश, समाज तथा सारा साज-सामान सभी भगवान् के ही अंश हैं। 

वे प्रेम के केन्द्रबिन्दु हैं, वे अपने आपका हमारी विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार यथा शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक विस्तार करके हमें सारा आनन्द प्रदान करते हैं। 

श्री कृष्ण ने ब्राह्मण पत्नियों से क्या कहा ?

श्री कृष्ण ने कहा, "हे ब्राह्मणपत्नियों! अब आप अपने घर जाँए। आप अपने को यज्ञकर्मों में लगाएँ और अपने पतियों तथा गृहस्थी की सेवा में लग जाँए जिससे आपके पति आपसे प्रसन्न हों और उन्होंने जो यज्ञ प्रारम्भ कर रखा है, वह समुचित रीति से सम्पन्न हो सके। आखिर, आपके पति गृहस्थ हैं और आपके बिना वे अपने निर्धारित कार्यों को कैसे पूरा कर सकते हैं?" 


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उन ब्राह्मणपत्नियों ने उत्तर दिया, "हे स्वामी! इस तरह का आदेश आपको शोभा नहीं देता। आपका शाश्वत वचन है कि आप अपने भक्तों की सदैव रक्षा करेंगे, अतः आप अब इस वचन को पूरा कीजिये। जो भी आपके पास आकर आत्म-समर्पण करता है, वह इस संसार के बद्ध जीवन में फिर से नहीं लौटता। 

हमें आशा है कि आप अपने वचन को पूरा करेंगे। हमने आपके उन चरणकमलों में आत्मसमर्पण किया है, जो तुलसीदल से आवृत हैं। अतः हम फिर से अपने तथाकथित सम्बन्धियों, मित्रों तथा समाज के बीच लौटना और आपके चरणकमलों की शरण छोड़ना नहीं चाह रहीं। और हम घर जाकर करेंगी ही क्या? 

हमारे पति, पिता, भाई, पुत्र, माता तथा मित्र हमें घर पर पुनः स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि हमने उन सबों को पहले ही त्याग रखा है। अतः हमारे  पास अब कोई सहारा नहीं है। अत: आप कृपा करके हमें घर जाने के लिए न कहें, अपितु अपने चरणकमलों में ही बने रहने की व्यवस्था करें जिससे हम आपके संरक्षण में निरन्तर रह सकें।" 

भगवान् ने उत्तर दिया, "हे ब्राह्मण पत्नियों! आप आश्वस्त रहें कि घर लौटने पर न तो आपके पति आपकी उपेक्षा करेंगे और न आपके भाई, पुत्र या पिता आपको ग्रहण करने से इनकार करेंगे। चूँकि आप सब मेरी शुद्ध भक्त हैं, अतः न केवल आपके सम्बन्धी, अपितु सामान्यजन तथा देवता तक आपसे प्रसन्न होंगे।" 

कृष्ण जन-जन के हृदय में परमात्मा रूप में स्थित हैं। अत: यदि कोई भगवान् कृष्ण का शुद्ध भक्त बन जाता है, तो वह सबों का प्रिय बन जाता है। कृष्ण का शुद्ध भक्त किसी के प्रति शत्रुभाव नहीं रखता न ही कोई भी समझदार पुरुष शुद्ध भक्त का शत्रु नहीं हो सकता है। 

कृष्ण ने आगे कहा, "मेरे लिए दिव्य प्रेम शारीरिक सम्बन्धों पर निर्भर नहीं करता, अपितु जिस किसी का भी मन निरन्तर मुझमें लीन रहता है, वह मेरे सान्निध्य के लिए शीघ्र ही मेरे पास आएगा।'  

कृष्ण भूमिका (विष्णु जी क्षत्रिय कुल में ही क्यों प्रकट होते हैं)

भगवान् द्वारा उपदेश दिये जाने के बाद वे सब अपने-अपने पतियों के पास घर वापस चली गईं। अपनी पत्नियों के घर वापस आने से प्रसन्न ब्राह्मणों ने शास्त्रानुमोदित विधि से साथ-साथ बैठकर यज्ञ पूरा किया। वैदिक नियम के अनुसार सारे धार्मिक अनुष्ठान पति तथा पत्नी द्वारा साथ-साथ सम्पन्न किये जाने चाहिए। 

जब ब्राह्मणपत्नियाँ वापस आ गईं, तो यज्ञ अधिक अच्छी तरह सम्पन्न हुआ। किन्तु एक ब्राह्मणपत्नी जिसे कृष्ण को देखने जाने से बलपूर्वक रोक लिया गया था, भगवान् के शारीरिक स्वरूप के विषय में सुनकर उनका स्मरण करने लगी और उनके चिन्तन में पूर्णतया लीन होकर उसने प्रकृति नियमों से बद्ध अपने भौतिक शरीर का परित्याग कर दिया। 

इस प्रकार नित्य प्रसन्न रहने वाले भगवान् श्रीगोविन्द एक सामान्य मनुष्य के रूप में प्रकट होकर सामान्य व्यक्तियों को कृष्ण-चेतना की ओर आकृष्ट करने के लिए अपनी दिव्य लीलाएँ प्रकट करते रहे। उन्होंने उन्होंने अपने शब्दों तथा सौन्दर्य की ओर समस्त गौवों, ग्वालों तथा वृन्दावन की बालाओं को आकृष्ट किया। और सब ने मिल कर भगवान् की लीलाओं का आनन्द लूटा। 

ब्राह्मणों ने अपने आप को क्यों कोसा ?


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कृष्ण के पास से अपनी पत्नियों के वापस लौट आने पर, यज्ञ में संलग्न ब्राह्मण भगवान् को भोजन देने से इनकार करने के पापकर्म हेतु पश्चात्ताप करने लगे। अन्त में उन्हें अपनी नादानी समझ में आ गई। उन्होंने वैदिक अनुष्ठानों में व्यस्त रहने के कारण उन श्रीभगवान् की उपेक्षा की थी जिन्होंने सामान्य पुरुष की भाँति प्रकट होकर कुछ भोजन माँगा था। 

अपनी-अपनी पत्नियों की श्रद्धा-भक्ति देखकर वे अपने आपको कोसने लगे। उन्हें पश्चात्ताप था कि यद्यपि उनकी पत्नियाँ शुद्ध भक्ति के पद को प्राप्त थीं, किन्तु वे स्वयं लेशमात्र न समझ पाये कि परमात्मा से किस तरह प्रेम करना चाहिए और किस तरह उनकी दिव्य प्रेमा-भक्ति करनी चाहिए। वे परस्पर बातें करने लगे, "हमारा ब्राह्मण-रूप में जन्म लेना धिक्कार है! वैदिक साहित्य के हमारे सारे ज्ञान को धिक्कार है। 

हमारे यज्ञ करने तथा सारे विधि- विधानों के पालने को धिक्कार है! हमारे कुल को धिक्कार है! हमारे द्वारा शास्त्रों के अनुसार अनुष्ठान सम्पन्न करने की पटु सेवा को धिक्कार है! इस सबको धिक्कार है, क्योंकि हमने उस भगवान् के प्रति प्रेमाभक्ति विकसित नहीं की जो मन, शरीर तथा इन्द्रियों के परे है।” 

वैदिक अनुष्ठानों में पटु विद्वान ब्राह्मणों का क्षोभ उचित ही था, क्योंकि कृष्णभावनामृत उत्पन्न किये बिना समस्त धार्मिक कृत्यों को करना समय तथा शक्ति का अपव्यय मात्र है। वे परस्पर बातें करते रहे, "कृष्ण की बहिरंगा शक्ति इतनी प्रबल है कि वह बड़े से बड़े योगी में भी मोह उत्पन्न कर सकती है। 

यद्यपि हम पटु ब्राह्मण मानव-समाज के अन्य सभी वर्गों के शिक्षक माने जाते हैं, किन्तु इस बहिरंगा शक्ति द्वारा हम भी मोहित हुए हैं। जरा इन स्त्रियों को तो देखिये कि वे कितनी भाग्यशाली हैं जिन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति अपना जीवन समर्पित कर दिया हैं और जो किसी दूसरे के लिए कठिन होता है, वह आसानी से कर दिखाया। 

उन्होंने अपने पारिवारिक सम्बन्ध को त्याग दिया है, जो अंधकूप के सदृश है, जिससे भौतिक कष्ट बढ़ते ही जाते हैं। "स्त्रियाँ सामान्यत: सरल हृदय होने के कारण शीघ्र ही कृष्णभावनामृत ग्रहण कर लेती हैं और जब उनमें कृष्ण के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाता है, तो उन्हें उस माया के चंगुल से मुक्ति प्राप्त हो जाती है, जिससे तथाकथित बुद्धिमान तथा विद्वान पुरुष भी कठिनाई से छूट पाते हैं। 

ब्राह्मणो ने अपनी पत्नियों के बारे में क्या कहा ?

वैदिक आदेशानुसार स्त्रियों को न तो उपनयन संस्कार द्वारा दीक्षा ग्रहण करने, न गुरु के आश्रम में ब्रह्मचारिणी के रूप में रहने की अनुमति है; न ही उन्हें अनुशासनिक विधिविधाओं का अनुसरण करने दिया जाता है और न वे दर्शन या आत्म-साक्षात्कार के विषय में चर्चा करने में पटु होती हैं। 

प्रकृति से वे अत्यन्त शुद्ध नहीं होतीं, न वे शुभ कार्यों के प्रति आसक्त रहती हैं। अत: यह कितनी विचित्र बात है कि उन्होंने योगेश्वर कृष्ण के प्रति दिव्य प्रेम उत्पन्न कर लिया है। उन्होंने कृष्ण के प्रति दृढ़ श्रद्धा तथा भक्ति में हम सबको पछाड़ दिया है। 

यद्यपि हमें समस्त संस्कारों में निष्णात् समझा जाता है, किन्तु भौतिक जीवन के प्रति अत्यधिक आसक्त रहने के कारण हम यह नहीं जान पाये कि वास्तव में उन का लक्ष्य क्या है। क्योंकि हम भौतिक जीवन के प्रति अत्यधिक आसक्त है। यद्यपि ग्वालबालों ने हमे कृष्ण तथा बलराम की याद दिलाई थी, किन्तु हमने उनकी उपेक्षा की। 

हम अब समझ पाये है कि यह भगवान् की हम पर कृपा करने की युक्ति थी जिससे उन्होंने हमसे भिक्षा माँगने के लिए अपने मित्रों को भेजा था। अन्यथा उन्हें भेजने की क्या आवश्यकता थी? वे तो इच्छामात्र से उनकी भूख वहीं और उसी समय बुझा सकते थे।" 

लक्ष्मीजी कहाँ रहती है

यदि कोई कृष्ण की आत्म-निर्भरता को इसलिए अस्वीकार करता है कि वे जीवनयापन के लिए गौवें चराते थे, अथवा कोई इस पर संदेह करे कि वे सचमुच भूखे थे और उन्हें भोजन की आवश्यकता के न होने पर सन्देह व्यक्त करे, तो उसे यह जान लेना चाहिए कि लक्ष्मी जी उनकी सेवा में निरन्तर लगी रहती हैं। 

इस तरह लक्ष्मी जी अपनी चंचलता की बुरी बान छोड़ सकती हैं। ब्रह्म-संहिता जैसे वैदिक शास्त्रों में कहा गया है कि कृष्ण के धाम में न केवल लक्ष्मी जी, अपितु कई सहस्र देवियाँ आदरसहित उनकी सेवा करती हैं। 

अत: यह सोचना कोरा भ्रम होगा कि ने ब्राह्मणों से भोजन की भिक्षा माँगी। यह तो वस्तुतः उनकी शिक्षा उनकी कृष्ण लीला थी कि वे ब्राह्मण अनुष्ठानों में लगने की बजाय उनकी शुद्ध भक्ति को किस तरह स्वीकार करें। 

वैदिक यज्ञादि की सामग्री,उपयुक्त स्थान, उपयुक्त समय (काल), अनुष्ठान करने के विविध पात्र, वैदिक स्तुतियाँ, ऋत्विज, अग्नि, देवता, यजमान तथा धर्म ये सब किसलिए है ?

वैदिक यज्ञादि की सामग्री (द्रव्य), उपयुक्त स्थान, उपयुक्त समय (काल), अनुष्ठान करने के विविध पात्र, वैदिक स्तुतियाँ, ऋत्विज, अग्नि, देवता, यजमान तथा धर्म-ये सब कृष्ण को समझने के लिए हैं, क्योंकि कृष्ण श्रीभगवान् हैं। वे परमेश्वर विष्णु हैं और समस्त योगियों के स्वामी (योगेश्वर) हैं। 

ब्राह्मणों ने कहा, "चूँकि वे यदुकुल में बालक रूप में प्रकट हुए हैं, अत: हम अज्ञानवश यह नहीं समझ पाये कि वे भगवान् हैं। किन्तु साथ ही, हमें गर्व है कि हमें इतनी महान् पत्नियाँ मिली हैं कि वे हमारे कठोर विरोध की श्रृंखलाओं से न बँधकर भगवान् के प्रति शुद्ध भक्ति-भाव उत्पन्न कर सकी हैं। 

अत: हम भगवान् के चरणकमलों को सादर नमस्कार करते हैं जिनकी माया के अधीन हम सकाम कर्मों में लगे हुए हैं। हम भगवान् से प्रार्थना करते हैं कि वे हमें क्षमा करें, क्योंकि हम उनकी बहिरंगा शक्ति से मोहित हैं। 

हमने उनकी दिव्य महिमा जाने बिना उनकी आज्ञा का उल्लंघन किया है।" ब्राह्मणों ने अपने पापों का प्रायश्चित्त किया। वे स्वयं जाकर उनको नमस्कार करना चाहते थे, किन्तु कंस के भय से वे नहीं जा पाये और उनकी शरण न स्वीकार कर पाये। 


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भगवान् की शरण में जाना कब तक कठिन है?

प्रिय पाठकों ! जब तक भक्ति के द्वारा शुद्ध न हो लिया जाय तब तक श्रीभगवान् की शरण में जाना बहुत कठिन है। विद्वान ब्राह्मण तथा उनकी पत्नियाँ इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। 

ब्राह्मणों की पत्नियों ने शुद्ध भक्ति से प्रेरित होने के कारण किसी प्रकार के विरोध की परवाह नहीं की और वे तुरन्त कृष्ण के पहुँच गईं। 

किन्तु भगवान् की सर्वोच्चता से अनजान होने तथा पश्चात्ताप करने पर भी वे ब्राह्मण राजा कस से तब भी भयभीत थे, क्योंकि वे कर्मों में अत्यधिक पास लिप्त थे। 

प्रिय पाठकों !आशा करते है आपको पोस्ट पसंद आई होगी। विश्वज्ञान हमेशा ऐसी ही रियल स्टोरीज आपको मिलती रहेंगी। विश्वज्ञान में प्रभु श्री कृष्ण की अन्य लीलाओं के साथ फिर मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपना ख्याल रखे ,खुश रहे और औरों को भी खुशियां बांटते रहें। जय जय श्री राधे श्याम 

धन्यवाद। 

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