विष्णु भक्त निर्धन और शिव भक्त धनी क्यो होते है

भगवान शिव तथा भगवान विष्णु के भक्तों के दोनों वर्ग सदैव ही असहमत रहते हैं।भगवान शिव भौतिक शक्ति के स्वामी है,और भौतिक शक्ति की प्रतिनिधि दुर्गादेवी है तथा शिवजी उनके पति है।दुर्गादेवी पूर्ण रूप से शिवजी की शक्ति के अधीन हैं,इसलिये यही समझना चाहिए कि शिवजी इस भौतिक शक्ति के स्वामी हैं।

विष्णु जी की उपासना करने से व्यक्ति भौतिक वैभवों से फुल उठने की जगह श्री कृष्ण प्रेम मे रम जाता है,खो जाता है,वह ज्ञान की आध्यात्मिक प्रगति से समृद्ध हो जाता है।

जय श्री राधे श्याम 

हर हर महादेव प्रिय पाठकों ! 
कैसे है आप लोग, 
आशा करते है आप सभी सकुशल होंगे। 
भगवान् शिव की कृपा दृष्टी आप पर बनी रहे। 

विष्णु भक्त निर्धन और शिव भक्त धनी क्यो होते है?

विष्णु भक्त निर्धन और शिव भक्त धनी क्यो होते है


दोस्तों ऐसा क्यों होता है कि भगवान विष्णु के भक्त हमेशा भौतिक रूप से संपन्न नहीं होते है। कहने का तात्पर्य है कि वह दुखी तो नहीं होते लेकिन सर्वगुण संपन्न भी नहीं होते ऐसा क्यों होता है और क्यों वहीं दूसरी ओर देखा जाता है कि भगवान शिव के भक्त सर्वगुण संपन्न होते हैं जबकि भगवान शिव खुद श्मशान में रहते हैं लेकिन उनके भक्त हमेशा ऐश्वर्यवान होते हैं, वैभवशाली होते हैं ,उन्हें किसी चीज की कोई कमी नहीं होती ऐसा क्यों होता है ?

तो प्रिय पाठकों इसका उत्तर है की भगवान शिव तथा भगवान विष्णु के भक्तों के दोनों वर्ग सदैव ही असहमत रहते हैं। विष्णु भक्त हो या शिव भक्त, ये दोनों ही भक्त हमेशा एक दूसरे के भगवान की अवहेलना करते रहते है। 

भारत में आज भी भक्तों के यह दोनों वर्ग एक दूसरे की आलोचना करते हैं विशेष रूप से दक्षिण भारत में रामानुजाचार्य के अनुयायी तथा शंकराचार्य के अनुयायी वेदों के निष्कर्ष को समझने के लिए सम्मेलन करते हैं और  इन सम्मेलनों में रामानुजाचार्य के अनुयायी ही  हमेशा जीत के आए हैं। 

ऐसा ही प्रश्न एकबार राजा परीक्षित ने भी श्री शुकदेव जी से पूछा था -की हे प्रिय गुरुदेव!अधिकतर देखा गया है कि मनुष्यों,असुरों अथवा देवताओं के समाज मे से जो कोई भी भगवान शिव की उपासना,भक्ति करता है,वह भौतिक रूप से अधिक ऐश्वर्यवान हो जाता है,जबकी वो खुद एक अकिंचन की भान्ति रहते है।

तब श्री शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को उत्तर देते हुए कहा कि-हे राजन!भगवान शिव भौतिक शक्ति के स्वामी है,और भौतिक शक्ति की प्रतिनिधि दुर्गादेवी है तथा शिवजी उनके पति है।दुर्गादेवी पूर्ण रूप से शिवजी की शक्ति के अधीन हैं,इसलिये यही समझना चाहिए कि शिवजी इस भौतिक शक्ति के स्वामी हैं

वैसे तो बद्धत्माओं के कल्याण के लिए शिवजी इस गुणों के सम्पर्क मे रहते हैं,किन्तु वे इनके निर्देशक हैं तथा इनसे प्रभावित नही होते। लेकिन बद्धत्माओं पर इन तीनों गणों का प्रभाव पड़ता है और इन गणों के स्वामी होने के कारण भगवान शिव जी इनसे प्रभावित नही होते।

मित्रों!श्री शुकदेव जी की कही हुई इन बातो से पता चलता है कि विभिन्न देवताओं की उपासना का फल भगवान विष्णु की उपासना के समान नही होता,जैसेकि कुछ अल्पबुद्धि लोगों की सोच है।वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि शिवजी की उपासना के द्वारा व्यक्ति को एक प्रकार का पुरस्कार प्राप्त होता है,जबकि भगवान विष्णु की उपासना के द्वारा एक दुसरा ही पुरस्कार प्राप्त होता है।अब मित्रों इन बातों को यदि कोई व्यक्ति किसी से सुनता है या पढता है,तो वो दुविधा मे पड़ जाता है कि सच है तो क्या है,क्या सही है और क्या गलत।तो इसके समाधान के लिए भगवान श्री कृष्ण ने गीता मे कहा कि-

विभिन्न देवताओं की उपासना करने वालों को वे मनवान्छित फल प्राप्त होते है,जिन्हे वे देवता प्रदान कर सकते हैं।इसी प्रकार जो भौतिक शक्ति यानी शिवजी की उपासना करते है,उन्हे ऐसी गतिविधियों के योग्य पुरस्कार मिलता है तथा जो पितरों की उपासना करते है,उन्हे भी वैसे ही फल प्राप्त होते हैं।

लेकिन वे व्यक्ति जो परमेश्वर,भगवान विष्णु अथवा श्री कृष्ण की भक्ति अथवा उपासना मे लीन रहते है,वे व्यक्ति वैकुण्ठलोक अथवा कृष्ण लोक को जाते हैं। शिवजी ,ब्रह्माजी,अथवा अन्य किसी देवता की उपासना के द्वारा व्यक्ति दिव्य क्षेत्र या परव्योम(आध्यात्मिक आकाश) के पास भी नहीं जा सकता।

यह भौतिक जगत भौतिक प्रकृति के त्रिगुणो का उत्पाद है,इसलिये समस्त प्रकार के विस्तार इन्ही त्रिगुणों से उत्पन्न होते हैं।भौतिकतावादी विज्ञान की सहायता से आधुनिक सभ्यता ने अनेक यन्त्रों तथा जीवन की सुविधाओं का निर्माण कर लिया है,

किन्तु फिर भी वे सब भौतिक त्रिगुणों की पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया के प्रकार ही हैं।जैसाकि शिव भक्त अनेक भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने मे समर्थ होते है,फिर भी हमे पता होना चाहिये की वे केवल त्रिगुणों द्वारा निर्मित पदार्थों को ही एकत्र कर रहे हैं।

भगवान भक्तों को दुखी करके उनके सुधार का प्रयत्न क्यों करते है?

आगे इन त्रिगुणों का सोलह मे विभाजन होता है जैसे-दस इन्द्रियाँ जिसमे पांच कर्मेन्द्रियां तथा पांच ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं।ग्यारहवीं इन्द्रि है मन तथा बाकी की पांच इंद्रियाँ है पंच तत्व यानी पृथ्वी,जल,आकाश,अग्नि और वायु।ये सोलह वस्तुएं त्रिगुणों का विस्तार है। 

शिवजी के भक्त केवल भौतिक गुणों के मामले मे ही समृद्ध है।भौतिक गुण अथवा वैभव का अर्थ है,इन्द्रियों की तृप्ति,विशेष रूप से जननेन्द्रिय,जीभ तथा मन की तृप्ति।अपने मन का उपयोग करके हम जननेन्द्रियों तथा जीभ के भोग के लिए अनेक सुखदायक वस्तुएं उत्पन्न करते है.

इस भौतिक जगत मे मनुष्य के ऐश्वर्य,अमीरी का अनुमान इससे लगाया जाता है कि वह किस सीमा तक अपनी काम-क्षमताओं का उपयोग करने मे समर्थ है तथा वह स्वादिष्ट व्यंजन खाकर किस हद तक अपनी तुस्तोष्णीय को संतुष्ट करने मे समर्थ है। 

आसान भाषा मे कहे तो ये की मनुष्य अपनी जननेन्द्रियों तथा जीभ को कितना ज्यादा सन्तोष दे सकता है।सभ्यता की भौतिक प्रगति मे मानसिक प्रकिया के द्वारा भोग की वस्तुओं का निर्माण करना आवश्यक हो जाता है,जिससे की जननेन्द्रियों तथा जीभ के सुख के आधार पर सुखी हुआ जा सकें।

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राजा परीक्षित को उत्तर देते हुए श्री शुकदेव जी ने कहा कि हे राजन!इसलिये  शिवजी के भक्त केवल भौतिक गुणों के मामले मे ही समृद्ध हैं।जबकि सभ्यता की यह तथकथित प्रगति भौतिक अस्तित्व मे बन्धन का कारण है।

वास्तव मे यह प्रगति नही बल्कि अधोगति है। प्रिय पाठकों इन बातों से निष्कर्ष निकलता है कि शिव जी त्रिगुणों के स्वामी हैं,इसलिये उनके भक्तों को इन्द्रिय तृप्ति के लिए इन त्रिगुणों की पारस्परिक क्रिया द्वारा निर्मित वस्तुएं प्रदान की जाती हैं। 

मित्रों!भगवान शिव से प्राप्त अनुग्रह यधपि ऊपर से वैभवशाली लगते है लेकिन वास्तव मे वे बधात्माओं के लिए लाभदायक नही है।

भगवान विष्णु भौतिक प्रकृति के त्रिगुणों से ऊपर है। भगवद्गीता में कहा गया है कि जो कोई श्री हरि यानी विष्णु की शरण में जाता है ,वह भौतिक प्रकृति के त्रिगुणों के प्रभुत्व से ऊपर उठ जाता है। गीता में यह भी बताया गया है कि श्री हरि अथवा श्री कृष्ण ही भगवान् है।

प्रकृति अथवा शक्तियाँ दो प्रकार की है-अन्तरंगा शक्ति तथा बहिरंगा शक्ति और श्रीकृष्ण इन दोनो ही प्रकृतियों अथवा शक्तियों के स्वामी हैं व समस्त कार्यों के निरीक्षक हैं तथा उन्हे उपद्रष्टा अथार्त परम परामर्शदाता भी कहा जाता है।

वे परामर्शदाता होने के कारण समस्त देवताओं से ऊपर हैं,जो की केवल परम परामर्शदाता के निर्देश का अनुसरण करते हैं।इस प्रकार जैसाकि श्रीमद्भगवद्गीता तथा भगवद्गीता में बताया गया है ,यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के आदेशों का प्रत्यक्ष पालन करता है,

तो वह धीरे- धीरे निर्गुण यानी जिसका कोई रूप,गुण और आकार न हो,ऐसा निराकार व्यक्ति बन जाता हैं,वह भौतिक गुणों की पारस्परिक क्रिया से ऊपर उठ जाता है।

निर्गुण हिने का अर्थ है भौतिक वैभव से रहित हो जाना,क्योंकि जैसाकि हमने पहले समझाया है कि भौतिक ऐश्वर्य का अर्थ है भौतिक त्रिगुणों की क्रिया-प्रतिक्रिया मे वृद्धि होना।श्री भगवान यानी विष्णु जी की उपासना करने से व्यक्ति भौतिक वैभवों से फुल उठने की जगह श्री कृष्ण प्रेम मे रम जाता है,खो जाता है,

वह ज्ञान की आध्यात्मिक प्रगति से समृद्ध हो जाता है।और निर्गुण होने का तात्पर्य  है हमेशा शान्ति,निर्भयता ,धार्मिकता,ज्ञान तथा त्याग को प्राप्त करना।ये सब भौतिक गुणों के दुषनों से रहित होने के लक्षण हैं।

प्रिय मित्रों!परीक्षित महाराज के प्रश्न का उत्तर देने में श्री शुकदेव गोस्वामी जी ने आगे परीक्षित महाराज के पितामह राजा युधिष्ठिर से सम्बंधित एक एतिहासिक कथा सुनाई। 

उन्होने कहा की विशाल यज्ञभूमी मे अश्वमेघ यज्ञ की समाप्ति के बाद,महान विशेषज्ञों की उपस्थिति में,राजा युधिष्ठिर ने इसी विषय मे प्रश्न किया था कि-ऐसा क्यो है कि शिव-भक्त भौतिक ऐश्वर्यों के स्वामी हो जाते हैं,जबकि भगवान विष्णु के भक्त नही होते?

राजा युधिष्ठिर का उल्लेख श्री शुकदेव गोस्वामी ने विशेष रूप से ''तुम्हारे पितामह" कह कर किया,जिससे की राजा परीक्षित यह सोचने को उत्साहित हो की वो श्री कृष्ण के संबंधी हैं तथा उनके पितामह का श्री भगवान के घनिष्ट सम्बन्ध था।

एक सामान्य मानव और भक्त में क्या अंतर् है।

मित्रों !श्री कृष्ण स्वभाव से ही हमेशा संतुष्ट हैं,किन्तु जब महराज युधिष्ठिर ने यह प्रश्न किया,तो वह और अधिक संतुष्ट हो गये ।क्योकि सभी कृष्णभावनाभवित समाज के लिये ऐसे प्रश्नों तथा उत्तरों का विशेष अर्थ होगा।

जब कभी भी भगवान श्री कृष्ण,विष्णु किसी विषय पर किसी विशेष भक्त  से कुछ कहते हैं,तब वह केवल उस भक्त के लिये नही बल्कि सम्पूर्ण मानव-समाज के लिए होता है। उनके उपदेश तो ब्रह्मा,शिवादि देवताओं के लिये भी महत्वपूर्ण हैं।

समस्त जीवों के कल्याण के लिये इस जगत मे अवतिर्ण होने वाले श्री भगवान के उपदेशों का जो लाभ नही उठाता,वह निश्चय ही अत्यंत अभागा है।

प्रिय पाठकों!भगवान श्री कृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा-यदि मैं किसी भक्त पर विशेष अनुग्रह करता हूँ तथा उसकी देखभाल करने की विशेष इच्छा रखता हूँ,तो सबसे पहले उसकी संपति हरता  हूँ ।

जब एक भक्त गरिब या दरिद्र बन जाता है और उसके सगे सम्बन्धी उनमे रूचि नही लेते तथा अधिकतर वे उनसे दूर भागते हैं,तब भक्त पूर्ण रूप से दुखी हो जाता है। ऐसा उनके साथ उनके पुर्व जन्मों के पापों के कारण होता बल्कि यह मेरे द्वारा रचित होता है।

पुण्यकर्म या पापकर्म दोनो ही दशाओं मे ,चाहे भक्त दरिद्र बने या समृद्ध,ये सब व्यवस्था मेरे द्वारा ही रची जाती है और मैं ये सब इसलिए करता हूँ ताकि भक्त पूरी तरह से मुझ पर निर्भर हो जाये तथा सभी प्रकार के भौतिक बंधनो से मुक्त हो जाये क्योकि जब वो बंधनों से मुक्त होगा,तभी वो अपनी शक्तियाँ,मन तथा देह,सब कुछ भगवान की सेवा के लिए एकाग्र कर सकेगा ।

प्रिय पाठकों! आशा करते हैं कि आपको पोस्ट पसंद आई होगी।विश्वज्ञान मे अगली पोस्ट के साथ फिर मुलाकात होगी। तब तक के लिए आप हँसते, मुस्कुराते रहिये और प्रभू का नाम लेते रहिये। जय-जय श्री राधे-कृष्ण।

धन्यवाद 


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